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________________ ४.१ मई मई प्राकृतव्याकरण-चतुर्थपाद अस्मद् सर्वनाम विभक्ति अ० ० प्र० अम्हे, अम्हई अम्हे, अम्हई अम्है हिं महु, मज्झ अम्हहं महु, मज्झ अम्हहं मई अम्हासु ४.३८२-३८८ इन सूत्रों में अपभ्रंश का धातुरूप विचार है। यहाँ ( माहाराष्ट्री ) प्राकृत से जो कुछ भिन्न है, उतना ही बताया गया है । ४.३८२ त्यादि--सूत्र १.९ ऊपर की टिप्पणी देखिए । आधत्रयस्य... ... वचनस्य-सत्र ३.१४२ ऊपरकी टिप्पणी देखिए । S _श्लोक १-उस ( सुन्दरी ) के मुख और केशबन्ध ( ऐसी ) शोभा धारण करते हैं कि मानो चन्द्र और राहु मल्ल युद्ध कर रहे हैं । भ्रमरों के समुदाय से तुल्य ऐसे उसके धुंघराले केशों की लटें ( ऐसी ) शोभती हैं कि मानो अन्धकार के बच्चे एकत्र क्रीडा कर रहे हैं। यहाँ धरहि, करहिं, सहहिं इन तृतीय पुरुष अनेक वचनों में हिं आदेश है। नं-सूत्र ४°४४४ देखिए । सहहि-सह धातु राज् धातु का आदेश है (सत्र ४१०० देखिए )। इसलिए यहाँ राजन्ते ऐसा ही संस्कृत प्रतिशब्द होगा। कुरलमराठी में कुरला । खेल्ल-मराठी में खेलण । ४.३८३ मध्य.. ..'वचनम्-सूत्र ३.१४० के ऊपर की टिप्पणी देखिए । श्लोक १--( इस श्लोक में "पिउ' शब्द श्लिष्ट है। स्त्री के बारे में प्रियः ( = प्रियकर ) और चातक के सन्दर्भ में पिबाभि ( पीता हूँ ) इन अर्थों में वह प्रयुक्त किया है :--) हे चातक, 'पीऊंगा पीऊँगा' ऐसा कहते, अरे हताश, तू कितना रोएगा ( शब्दशः रोता है)? (हम) दोनों की भी तेरी जल-विषयक और मेरी वल्लभ-विषयक--आशा पूरी नहीं हुई है। यहाँ रुमहि इस द्वितीय पुरुष ए० व० में हि आदेश है। बप्पहि--चातक पक्षी। यह पक्षी केवल मेघ से गिरने वाला जल पीता है, भूमि परका नहीं पीता है, ऐसा कवि-संकेत है। भणिवि--सूत्र ४.४३६ देखिए । कित्तिउ--सूत्र २.१५७ के २६ प्रा० व्या० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001871
Book TitlePrakrit Vyakarana
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorK V Apte
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1996
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, P000, & P050
File Size22 MB
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