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________________ ४०२ टिप्पणियां अनुसार कियत् शब्दको केत्तिअ आदेश होता है; सूत्र १.८४ के अनुसार 'के' में से ए ह्रस्व होता है, इसलिए उसके स्थान पर इकार आके कित्तिअ शब्द होता है। श्लोक २-हे निघृण चातक, बार-बार तुझे कहकर क्या उपयोग है कि विमल जल से भरे हुए सागरमें से तुझको एक बूद ( शब्दशः-धारा ) भी जल नही प्राप्त हो सकता है। यहां कहहि इस द्वितीय पुरुष एकवचन में हि आदेश है । कई-किम् सर्वनाम को सूत्र ४.३६७ के अनुसार प्रथम काई आदेश हुआ, और सूत्र ४.३२९ के अनुसार स्वर में बदल होकर कई ऐसा शब्द बन गया। बोल्लिअ-बोल्ल (कथ का आदेशसूत्र ४.२) का क० भू० धा० वि० । इ–यह पादपूरणार्थी अव्यय है ( सूत्र २.२१७ देखिए)। भरिअइ-भरिअ इस क० भू० धा० वि० के आगे सूत्र ४°४२९ के अनुसार स्वार्थे अ प्रत्यय आया है । एक्क इ-एकां अपि । यहाँ 'अपि' शब्द में से आध भ और प् इनका लोप हुआ है । सप्तम्याम्-विध्यर्थ में । श्लोक ३-हे गौरि, इस जन्म में तथा अन्य जन्मों में ( मुझे ) वही प्रियकर देना कि जो हंसते-हंसते मदमत्त और अंकुश को पर्वाह न करने वाले हाथियों से भिड़ता है। यहाँ दिज्जहि इस विध्यर्थी द्वितीय पुरुष एकवचन में हि आदेश है । आयहिँइदम् सर्वनाम के आय अंग से ( सूत्र ४.३६५ ) सप्तमी एकवचन (सत्र ४.३५७)। अन्नहिं-सूत्र ४.३५७ देखिए । जम्माहि-सूत्र ४०:४७ देखिए । गम-सूत्र ४.३४५ देखिए । अभिड-यह संगम् धातु का आदेश है ( सूत्र ४१६४ )। ४.३८४ मध्यम..... 'वचनम् -सूत्र ३.१४३ ऊपर की टिप्पणी देखिए । श्लोक १-बलिके पास याचना करते समय, वह विष्णु ( मधुमथन ) भी लघु हो गया । ( इसलिए ) यदि महत्ता/बड़प्पन चाहते हो, तो ( दान ) दो; (परन्तु) किसी से भी ( कुछ भी ) मत मांगो। यहाँ इच्छहु इस द्वितीय पुरुष अ० व० में हु आदेश है। ४.३८५ अन्त्य... . 'वचनम्-सूत्र ३.१४१ ऊपर की टिप्पणी देखिए। लोक १-दैव विन्मुख हो; ग्रह पीडा दें, हे सुंदरि, विपाद मत कर । यदि ( मैं ) व्यवसाय प्रयास करूंगा तो वेश के समान ( मैं ) संपदा को खीचकर लाउँगा। यहाँ कड्ढउँ इस प्रथम पुरुष एकवचन में उ आदेश है। करहि-सूत्र ३.१७४ देखिए । संपई-सूत्र ४०४०० देखिए । छुड्ड–यदि (सूत्र ४.४२२ देखिए )। ४.३८६ श्लोक १-हे प्रियकर, जहाँ तलवार को काम मिलेगा उस देश में । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001871
Book TitlePrakrit Vyakarana
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorK V Apte
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1996
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, P000, & P050
File Size22 MB
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