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टिप्पणियाँ
में ) घिसता रगड़ता है; परंतु सच बात पूछो तो उसका मन मात्र केवल सल्लकी (नामक वृक्ष ) पर ही है।
कुड्डेण-सूत्र १.८४ के अनुसार कोड्ड शब्द में से ओ स्वर ह्रस्व होकर उसके -स्थान पर उ आया है ।
श्लोक ९-हे स्वामिन्, हमने खेल किया; तुम ऐसे क्यों बोलते हो ? (अथवातुम क्या निश्चय बोलते हो ? ) अनुरक्त ऐसे हम भक्तों का त्याग मत कीजिए।
खेड्डयं-खेड्ड शब्द को स्वार्थ य ( क ) प्रत्यय लगा है ।
श्लोक १०-अरे मूर्ख, नदीयों से अथवा तडागों से किंवा सरोवरों से या उद्यानों से किंवा बनों से देश रमणीय नहीं होते हैं, परंतु सुजनों के निवास से ( देश रम्भ होते हैं )।
सरिहि, सरेहि, सरवरेंहि-वणेह, निवसन्तेहि, सुअणेहिं--सूत्र ४.३४७ देखिए ।
श्लोक ११-हे अद्भुत शक्तियुक्त शठ हृदय, तूने सैकड़ों वार मेरे आगे कहा था कि यदि प्रियकर प्रवास पर जाएगा तो मैं फूट जाऊँगा।
हिअडा--सूत्र ४.४२९ देखिए । भंडय ( देशी)--विट, शठ, स्तुतिपाठक । कुट्टिसु--सूत्र ४°३८८, ३८५ देखिए ।
श्लोक १२ ( इस श्लोक में मानव शरीर का रूपकात्मक वर्णन है। यहां पंच यानी पांच ज्ञानेन्द्रियाँ। अर्थ- ) एक ( शरीररूपी) कुटी झोंपड़ी है; उस पर पांचों का अधिकार है ( रुद्ध ); पांचों की बुद्धि पृथक-पृथक् है । हे बहिनि, यह बता जहाँ परिवार अपनी-अपनी इच्छा से चलता है. वह घर कैसे आनंदी रहेगा?
कुडल्ली--कुडी शब्द को सूत्र ४०४२९ के अनुसार स्वार्थे उल्ल प्रत्यय लगकर, फिर सूत्र ४४३१ के अनुसार स्त्रीलिंगी ई प्रत्यय लगा।
श्लोक १३-जो मन में ही व्याकुल होकर चिता करता है परंतु एक दाम/पैसा किंवा रुपया देता नहीं वह एक मूर्ख । रतिवश होकर घूमनेवाला और घर में ही अंगुलियों से भाला नचानेवाला वह एक मूर्ख ।
भमिरु-सूत्र २.१४५ देखिए ।
श्लोक १४-हे बाले, तेरे चंचल और अस्थिर कटाक्षों से ( शब्दश:-नयनों से) जो देखे गये हैं उन पर अपूर्ण काल में ही मदन का आक्रमण हल्ला होता है।
'दडवडउ-दडवड के आगे सूत्र ४.४२९ के अनुसार स्वार्थे प्रत्यय आया।
श्लोक १५-हे हरिणो, जिसके हुँकार से ( तुम्हारे ) मुखों से तृण गिर पड़ते थे, वह सिंह (अब) चला गया, (इसलिए अब तुम) निश्चित रूप से जल पीओ।
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