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________________ प्राकृतव्याकरण-प्रथमपाद ऐ के विकार के लिए १.१४८-१५५ और औ के विकार के लिए १.१५६-१६४ । ङ् और ञ् ये व्यञ्जन प्राकृत में संपूर्णतः नहीं ऐसा नहीं है; कारण हेमचन्द्र ही आगे कहता है:-ङो...''भवत एव । श और ष व्यञ्जनों का ( माहाराष्ट्रो ) प्राकृत में प्रायः स् होता है ( देखिए सूत्र १२६० )। ( मागधी भाषा में श् और ष् व्यञ्जनों का उपयोग दिखाई देता है ( सूत्र ४२८८,२९८ देखिए )। विसर्जनीय-विसर्ग। वस्तुतः विसर्ग स्वतन्त्र वर्ण नहीं है;अन्त्य र अथवा स् इन व्यञ्जनों का वह एक विकार है । प्लुत-उच्चारण करने के लिए लगने वाले काल के अनुसार स्वरों के ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत ऐसे तीन प्रकार किए जाते हैं। जिसके उच्चारण के लिए एक मात्र ( = अक्षिस्पदन प्रमाणः कालः) काल लगता है, वह स्वर ह्रस्व । जिसके उच्चारण के लिए दो मात्रा-काल लगता है वह दीघ स्वर और जिसके उच्चारण के लिए तीन मात्राएँ लगती हैं, वह प्लुत स्वर होता है। वर्णसमाम्नाय--वर्णसमूह या वर्णमाला/प्राकृत के वर्ण आगे जैसे कहे जा सकते हैं:-स्वर -ह्रस्व:-अ, इ, उ, ए;ओ । दीर्घः--आ, ई, ऊ, ए, ओ। ( कुछ वैयाकरणों के मतानुसार प्राकृत में ऐ और औ ये स्वर भी होते हैं)। व्यञ्जन:-क् ख् ग् घ् (अ) (कवर्ग); च छ ज झ (अ) (चवर्ग); ट् ठ् ड् ढ् ण (ट-वर्ग); त् थ् द् ध् न् (त वर्ग); प फ् ब् भ् म् ( प वर्ग ); य र ल व ( अन्तस्थ ); स् (ऊष्म); ह. (महाप्राण) । ङौ . 'भवत एव-माहाराष्ट्री प्राकृत में ङ् और ञ् ये व्यञ्जन स्वतंत्र रूप में नहीं होते हैं। ( मागधी-पैशाची में ञ् का वापर दिखाई देता है। सूत्र ४.२९३-२९४, ३०४-३०५ देखिए ) । मात्र ये व्यञ्जन अपने वर्ग में से व्यञ्जन के साथ संयुक्त हो, तो वे प्राकृत में चलते हैं; तथापि ऐसे संयोगों में भी ङ् और ञ् प्रथम अवयव ही होने चाहिए। उदा०–अङ्क, चञ्चु । एदौतौ--ऐत् और औत् । यानी ऐ और औ स्वर। यहां ऐ और औ के आगे तकार जोड़ा है। जिस वणं के आगे ( या पीछे ) तकार जोड़ा जाता है, उस वर्ण का उच्चारण करने के लिए जितना काल लाता है उतना ही समय लगने वाले सवर्ण वर्णों का निर्देश उस वर्ण से होता है। व्यवहारतः तो ऐत् यानी ऐ और औत् यानी औ ऐसे समझने में कुछ हरकत नहीं है। इसी तरह आगे भी अत् ( १.१८ ), आत् ( १.६७), इत् ( १.८५ ), ईत् (१.९९), उत् (१.८२ ), ऊत् (१.७६), ऋत् (१.१२६), एत् और ओत् (१७) इत्यादि स्थलों पर जाने । कैतवम् "कोरवा-- यहाँ प्रथम संस्कृत शब्द और तुरन्त उसके बाद उसका प्राकृत में से वर्णान्तरित रूप दिया है । वर्णान्तर देते समय हेमचंद्र ने भिन्न पद्धतियां प्रयुक्त की हैं। कभी वह प्रथम संस्कृत शब्द और अनंतर उसका वन्तिरित रूप देता है। उदा०-सूत्र १.३७, ४३ इत्यादि । कभी वह प्रथम प्राकृत में से वर्णान्तरित रूप देता है और अनंतर क्रम से उसके संस्कृत प्रति शब्द देता है। उदा०--सूत्र १.२६, ४४ इत्यादि । कभी वह फकत प्राकृत में से वर्णान्तरित रूप देता है। उसका संस्कृत प्रतिशब्द नहीं देता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001871
Book TitlePrakrit Vyakarana
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorK V Apte
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1996
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, P000, & P050
File Size22 MB
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