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________________ ३१६ टिप्पणियां उदा०-सूत्र १.१७३,१७७, १८० इत्यादि । अस्वरं....'न भवति--संयुक्त व्यञ्जन में ( उदा.-अक्क, चित्त्, दुद्ध) पहले अवयव के रूप में अस्वर यानी स्वर-रहित व्यञ्जन होता है और वह प्राकृत में चलता है; परंतु स्वर-रहित केवल व्यञ्जम ( उदा०—सरित्, वाच् इनमें से त्, च के समान ) प्राकृत में अन्त्य स्थान में नहीं हो सकता है । संक्षेप में कहे तो प्राकृत में व्यञ्जन से अन्त होने वाले यानी व्यञ्जनान्त शब्द नहीं होते हैं । द्विवचन-संस्कृत में शब्द और धातु के रूप एक-, द्वि- और बह-ऐसे तीन वचनों में होते हैं। प्राकृत में द्विवचन नहीं होता है; इस लिए किसी भी शब्द के द्विवचनी रूप प्राकृत में नहीं होते हैं। द्विवचन का कार्य अनेक वचन से ( सूत्र ३.१३० देखिए ) किया जाता है। चतुर्थी बहुवचनप्राकृत में चतुर्थी विभक्ति प्रायः लुप्त हुई है। चतुर्थी विभक्ति का कार्य षष्ठी विभक्ति के द्वारा ( सूत्र ३.१३१ देखिए ) किया जाता है । तथापि यहाँ 'चतुर्थी बहुवचन प्राकृत में नहीं है' इस कहने का अभिप्राय यह है कि प्राकृत में क्वचित् चतुर्थी विभक्ति के एकवचन के रूप दिखाई देते हैं ( सूत्र ४°४४८.१ देखिए)। परंतु चतुर्थी बहुवचन के रूप तो नहीं पाए जाते हैं । १.२ बहुलम्--यानी बाहुलक । बहुलयानी तांत्रिक दृष्टि से:-क्वचित् प्रवृत्तिः क्वचिदप्रवृत्तिः क्वचिदविभाषा क्वचिदन्यदेव । शिष्टप्रयोगा-ननुसृत्य लोके विज्ञेयमेतद् बहुलग्रहेषु ॥ प्रवृत्ति यानी योग प्रकार से नियम की कार्यप्रवृत्ति; उसका अमाव यानी अप्रवृत्ति,विभाषा यानीविकल्प क्वचित् नियम में कहे हुए से कुछ भिन्न कार्य (अन्यत) होता है; ये सब बहुल शब्द से सूचित होते हैं । अब, प्राकृत बहुल है; इसलिए प्राकृत व्याकरण के नियमों को अनेक अपवाद,विकल्प इत्यादि होते हैं । अधिकृतं वेदितव्यम्'बहुलम्' सूत्र अधिकार-सूत्र है ऐसा जाने । जिस सूत्र में से ( एक या अनेक ) पद आगे आने वाले अनेक सूत्रों के पदों से संबंधित होते हैं, बह अधिकार सूत्र होता है । अधिकार एक प्रदीर्घ अनुवृत्ति है; किंतु अनुवृत्ति से उसका क्षेत्र अधिक व्यापक होता है । जिस शब्द का अधिकार होता है वह शब्द अगले सूत्रों में अनुवृत्ति से माता है, और उन सूत्रों का अर्थ करते समय वह शब्द आध्याहृत लिया जाता है। १.३ आर्षम् प्राकृतम्--आर्ष शब्द ऋषि शब्द से साधित है। आर्ष प्राकृत शब्द से हेमचंद्र को अर्धमागधी नामक प्राकृत भाषा अभिप्रेत है ( सूत्र ४.२८७ देखिए )। अर्धमागधी श्वेतांबर जैनों के आगम ग्रंथों की भाषा है । अर्धमागधी में (माहाराष्ट्री-) प्राकृत के सर्वनियम विकल्प से लागू पड़ते हैं । १४ वृत्तौ-वृत्ति में, यहां समास में, ऐसा अर्थ है। वृत्ति यानी मिश्र पद्धति से बना हुआ शब्द । वृत्ति का अर्थ स्पष्ट होने के लिए स्पष्टीकरण आवश्यक होता है । संस्कृत में पांच वृत्तियाँ हैं; उनमें से समास एक वत्ति है। समासे...... भवतः-- For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001871
Book TitlePrakrit Vyakarana
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorK V Apte
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1996
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, P000, & P050
File Size22 MB
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