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________________ १६४ तृतीयः पादः विधानात् । टाणशस्येत् (३.१४) भिसभ्यस्सुपि ( ३.१५ । इत्येतत्कार्यातिदेशस्तु निषेत्स्यते (३.१२६)। ( अब तक ) कहा हुआ ( रूप विचार ) छोड़ कर ( उर्वरित ) अन्य ( रूपविचार यानी ) शेष; उसके बारे में अकारान्त शब्द के समान विभक्तिरूपों को विचार है, ऐसा अतिदेश ( इस सूत्र से ) किया जाता है। ( यानी ) आकार इत्यादि (स्वरों) से अन्त होने वाले शब्दों के बारे में ( जो रूप इत्यादि ) कार्य अब तक नहीं कहे हुए हैं, उन शब्दों के बारे में 'जस्शसोलक' इत्यादि अकारान्त शब्दाधिकार में कहे हुए कार्य होते है, ऐसा अर्थ है। ( स्पष्ट शब्दों में ऐसा कहा जा सकता है :-) उनमें से पहले, 'जसशसोलुक' सूत्र के कार्य का बतिदेश ऐसा होता है :-- माला . . ." "पेच्छ वा । 'अमोऽस्य' सूत्र के कार्य का अतिदेश ( ऐसा :--- ) गिरि ... . "पेच्छ । 'टा आमोणः' सत्र के कार्य का अतिदेश ( ऐसा होता हैं :--- ) हाहाण कम; मालाण... ..'वहण धण; टा ( प्रत्यय ) के बारे में मात्र, 'टो गा' और 'टाङस्' .."डसे' एसा विधि ( = नियम ) कहा हुआ है । 'भिसो...' हि' सूत्र के कार्य का अतिदेश ( एसा :--- ) मालाहि... ... ... ..'यहूहि कयं; इसी प्रकार सानुनासिक और सानुस्वार 'हिके बारे में ( अतिदेश होता है)। 'उसेस्.. 'लुकः' सूत्र के कार्य का अतिदेश ( ऐसा होता है :-) मालाओ " धेहितो आगओ; ( इनमें से ) ह्रि और लुक इनका निषेध आगे ( सूत्र ३.१२६-१२७) किया जाएगा । 'भ्यस्... ' 'सुन्तो' सूत्र के कार्य का अतिदेश ( ऐसा :---- ) मालाहिंतो, मालासंतो; हि प्रत्यय का निषेध आगे (सूत्र ३.१२७ में) किया जाएगा; इसी प्रकार गिरीहितो, इत्यादि ( रूप होते हैं )। 'उसः स्स:' सूत्र के कार्य का अतिदेश ( ऐसाः -- ) गिरिस्स' . . 'महुस्स; स्त्रीलिंगी शब्दों के बारे में मात्र 'टङस् ः' इत्यादि नियम कहा हुआ है : 'डे मि डे' सूत के कार्य का अतिदेश (ऐसा होता है :-- ) गिरिम्मि... ..'महुम्मि; परन्तु डे ( प्रत्यय । के बारे में मात्र आगे ( सूत्र ३.१२८ में ) निषेध किया जाएगा; स्त्रीलिंगी शब्दों के बारे में मात्र 'टाङस् :' इत्यादि नियम कहा है । 'जस्... .. दीर्घः' सूत्र के कार्य का अतिदेश (ऐसा):--गिरी ."गुरूणधणं 'भ्यसि वा' सूत्र के कार्य का अतिदेश ( मात्र) नहीं लागू होता है; कारण 'इदृतो दीर्घः' ऐसा नित्य नियम कहा हुआ है । 'टाण शस्येत्' और 'भ्यस्सुपि' इन सूत्रों के कार्यों के अतिदेश का निषेध आगे ( सूत्र ३.१२९ में ) किया जाएगा। न दी? णो ॥१२५।. इदुदन्तयोरर्थात् जस्शसङस्यादेशे णो इत्यस्मिन् परतो दी? न भवति ।। अग्गिणो वाउणो । णो इति किम् । अग्गो अग्गीओ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001871
Book TitlePrakrit Vyakarana
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorK V Apte
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1996
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, P000, & P050
File Size22 MB
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