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टिप्पणियाँ
प्रायो लुग् भवति - इस सन्दर्भ में मार्कंडेय का कथन लक्षणीय है : - 'प्रायोग्रहपतश्चात्र कैश्चित् प्राकृतकोविदैः । यत्र नश्यति सौभाग्यं तत्र लोपो न मन्यते ॥ " ( प्राकृत सर्वस्व २२ ) । ऐसा कुछ प्रकार प के बारे में हेमचन्द्र सूत्र १.२३१ ऊपर की वृत्ति में कहना है । विउहो - विबुध में से ब् का व् होकर, फिर व् का लोप हुआ, ऐसा यहाँ समझना है । समासे विवक्ष्यते —समास में दूसरा पद भिन्न है ऐसा विवक्षा हो सकती है । इसलिए सम्पूर्ण समास एक ही पद माना जाय, तो दूसरे पद का आदि व्यञ्जन अनादि होगा; परन्तु दूसरा पद भिन्न माना जाय, तो उसका आदि व्यञ्जन आदि ही माना जाएगा । इस मन्तव्य के अनुसार, उस व्यञ्जन के वर्णान्तर, साहित्य में जैसा दिखाई देगा वैसा, होंगे । उदा० - जलचर समास में च आदि माना जाय तो जलचर वर्णान्तर होगा; च अनादि माना जाय, तो जलयर ऐसा वर्णान्तर होगा । इन्धं - सूत्र २.५० देखिए । कस्य गत्वम् - ( माहाराष्ट्री ) प्राकृत में कभी क का ग होता है । उस सन्दर्भ में हेमचन्द्र सूत्र ४.४४७ का निर्देश करता है | अर्धमागधी प्राकृत में प्रायः क का ग होता है ।
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१. १७८ अनुनासिक - मुख और नासिका के द्वारा जिसका उच्चारण होता है वह अनुनासिक | अब इस कथनानुसार, म् का अनुनासिक होने पर, उद्वृत्त स्वर का उच्चारण सानुनासिक ( अनुनासिक के साथ ) होगा; यह उच्चारण उस अक्षर के ऊपर चिह्न रख कर दिखाया जाता है । उदा० - यमुना - जउँणा ।
१-१७६ इस सूत्र के अनुसार प् का लोप न हो, तो सूत्र १२३१ के अनुसार का व् होता है ।
र्भवति — सूत्र १.१७७
१·१८० कगचजे. अनुसार, क् ग् इत्यादि व्यञ्जनों का लोप होने पर, उद् वृत्त स्वर अ और मा ( अवर्ण ) होने और यदि उनके पीछे अ और आ स्वर होंगे ( अवर्णात् परः ), तो उन उद्वृत्त अ और आ का होने वाला उच्चारण लघुतर प्रयत्न से उच्चारित य् व्यञ्जन के समान सुनाई देता है; इस श्रवण को य-श्रुति कहते हैं । और इसलिए इन अ और आ के स्थानों पर कभी-कभी य और या लिखे जाते हैं । अवर्णा पियइ अ और आ स्वर पीछे होने पर, उद् वृत्त होने वाले अ और आ की य-श्रुति होती है, इस नियम का अपवाद है, ऐसा हेमचन्द्र मान्य करते दिखाई देता है; इसलिए उसने 'पियई' उदाहरण दिया है ।
१-१८१ खुज्जो खप्परं खलिओ - मराठी में खुजा; खापर; खील, खिल । बासिअं - हिंदी में खांसी ।
१.१८२ गेंदुअं - हिंदी में गेंद ।
१९१८३ चिलाओ - र् के ल् के लिए सूत्र १२५४ देखिए ।
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