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अंतर्भूत होती है । " शाकारी भाषा मागधोका ही एक प्रकार है : चाण्डाली भाषा मागधी और शौरसेनी के मिश्र से बनी है, ऐसा मार्कंडेय " का कहना है, तो पुरुषोत्तम देवके " मतानुसार, चाण्डाली भाषा मागधोका ही एक प्रकार है । शाबरी भाषा" मागधीका ही एक प्रकार है । आभीरी भाषा शाबरीके समान है: सिर्फ क्त्वा - प्रत्ययको इअ और उअ ऐसे आदेश" आभीरी में होते हैं | टाक्को भाषा" संस्कृत और शौरसेनीके संकरसे वनी है। जैनोंके अर्धमागधीको हेमचन्द्र आर्ष कहता है, और उसे ( माहाराष्ट्री ) प्राकृतके नियम विकल्पसे लागू पड़ते हैं ऐसा उसका कहना है | और अर्धभागधी बहुतांशों में "माहाराष्ट्रो के समान ही है । तथा चूलिका पेशाची और पैशाचीके अन्य प्रकार ये तो पैशाचीके उपभेद हैं । उसी प्रकार अपभ्रंश भाषा के प्रकार भी अपभ्रंशके उपभेद हैं ।
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ऊपरका विवेचन ध्यान में रखे, तो माहाराष्ट्री, शौरसेनी, यागधी, पंथाची और अपभ्रंश इन पाँच भाषाओंको ही प्रधान प्राकृत भाषाएँ समझनमें कुछ आपत्ति न हो ।
प्राकृत भाषाओं के नाम
जो जाति और जमाथि विशिष्ट प्राकृत बोलती थीं, उनसे उन प्राकृतोंको नाम दिये गए ऐसा दिखाई देता है । उदा० - शाबरी, चाण्डाली, इत्यादि । तथा जिन देशों में जो प्राकृतें बोली जाती थी उन देशों के नामोंसे उन प्राकृतोंको नाम दिये गए ऐसा भी दिखाई देता है । उदा० शौरसेनी, मागधी, इत्यादि । इस सन्दर्भ में लक्ष्मीधरका कहना लक्षणीय है :- शूरसेनोद्भवा भाषा शौरसेनीति गीयते । मगधोत्पन्नभाषां तां मागधीं सम्प्रचक्षते ॥ पिशाचदेश नियतं पैशाची - दिवतयं
भबेत् ॥
भारतीय आर्यभाषाओं में प्राकृतोंका स्थान
ऊपर निर्दिष्ट हुई प्राकृत भाषाएँ पूर्वकालमें बोली- भाषाएँ थीं; तथापि आज मात्र वे वैसी नहीं हैं; परन्तु उनके अवशेष साहित्य में दिखाई देते हैं । संस्कृत भाषा और आधुनिक आर्य भारतीय भाषाएँ इनसे प्राकृतोंका स्वरूप कुछ प्रकारों में भिन्न है; फिर भी वे उन दोनोंके बीचमें आती हैं। कुछ विद्वानोंके मतानुसार, प्रधान प्राकृतोंसे अथवा उन प्राकृतोंके अपभ्रंशोंसे आधुनिक भारतीय आर्यभाषाएं उत्पन्न हुई हैं |
प्राकृतोंका शब्द-संग्रह
प्राकृत वैयाकरणोंके मतानुसार, प्राकृत संस्कृत से सिद्ध हुई हैं । अपने इस मत के अनुसार वे प्राकृत शब्दोंका त्रिविध वर्गीकरण देते हैं : - ( १ ) तत्सम
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