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________________ ४२० टिप्पणियां ऐसे तुम्-प्रत्यय के आदेश हैं। सन्तें तित्थेसरेण-जैनधर्म में २४ तीर्थकर माने जाते हैं। उनमें शान्तिनाथ एक तीर्थकर हैं । ४.४४२ श्लोक १-वाराणसी जाकर ( बाद में ) उज्जयिनी जाकर, जो लोग मरण प्राप्त करते हैं वे परम पद जाते हैं। अन्य तीर्थों का नाम भी मत लो । यही गम्पिण और गम्पि में एप्पिणु और एप्पि में आदि एकार का लोप हो गया है । परावहि- सूत्र ४.३८२ देखिए । प्रलोक : -जो गंगा जाकर और काशी (शिवतीर्थ) जाकर मरता है, वह यमलोक को जीतकर, देवलोक में जाके क्रीडा करता है। यहां गमे प्पिण और गमेप्पि में एप्पिणु और एप्पि में से आदि एकार का लोप नहीं हुआ है। सिवतित्थ-काशी। कीलदि-यहां कील ( सूत्र १२०२ ) के आगे दि प्रत्यय ( सूत्र ४२६०) आया है। जिणेप्पि--सूत्र ४.४४० देखिए । जिणेप्पिसूत्र ४.४४० देखिए । जिण शब्द के लिए सूत्र ४२४१ देखिए । ४.४४३ तनः प्रत्ययस्य-धातु से कर्तृवाचक संज्ञा सिद्ध करने का तन् प्रत्यय है। श्लोक १-मारनेवाला हाथी, कहनेवाला मनुष्य, बजनेवाला पटह, ( और) भोंकनेवाला कुत्ता । यहाँ मारणउ, बोल्लणउ, वज्जणउ, भसणउ इनमें अणअ यह तन् प्रत्यय का आदेश है । पाहु-पटह, वाद्यविशेष, नौबत, नगारा । ४.४४४ नं मल्ल.... 'करहिं--यहाँ नं शब्द इव के अर्थ में आदेश है। श्लोक १.-सूर्यास्त के समय व्याकुल चक्रवाक ( नामक पक्षि) ने मृणालिका का (= कमल के डंठल का) टुकड़ा कंठ में डाला ( परंतु ) उसे छिन्न (यानी खाया) मात्र नहीं किया; मानो जीव को बाहर न निकलने देने के लिए अर्गला डाली है। श्लोक २--कंकणसमूह गिर पड़ेगा इस डरसे सुंदरी हाथ ऊपर करके जाती है; मानो वल्लभके विरहरूपी महासरोवरकी थाह ढूंढती है। श्लोक ३-दीर्घ नयन होनेवाले और लावण्युक्त ऐसा जिन वरका मुख देखकर, अतिमत्सरसे भरा हुआ लवण मानो अग्निमें प्रवेश करता है। पवीसइ–पविस में से इ सूत्र ४.३२९ के अनुसार दोघं ई हुई है। जिणवर--- श्रेष्ठ जिन । सत्र ४.८८ ऊपर की टिप्पणी देखिए । श्लोक ४-हे सखि, चंपक फूलके मध्य में भ्रमर प्रविष्ट हुआ है; मानो सुवर्ण में जड़ा हुआ इंद्रनीलमणि जैसा वह शोभित हो रहा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001871
Book TitlePrakrit Vyakarana
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorK V Apte
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1996
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, P000, & P050
File Size22 MB
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