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प्राकृतन्याकरणे
स्वरस्योवृत्ते ॥८॥ व्यञ्जनसंपृक्तः स्वरो व्यञ्जने लुप्ते योवशिष्यते स उद्वृत्त इहोच्यते। स्वरस्य उवृत्ते स्वरे परे सन्धिर्न भवति ।
विससिज्जन्तमहापसुदंसणसम्भमपरोप्परारूढा ।
गयणे च्चिअ गन्धउडि कुणन्ति तुह कउलणारीओ ॥ १॥ निसामरोनिसिअरो। रयणी अरो। मणु अत्तं । बहुलाधिकारात् क्वचिद् विकल्पः। कुम्भआरो" कुम्भारो। सु-उरिसो सूरिसो। क्वचित् सन्धिरेव । साला हणो। चक्काओ । अतएव प्रतिषेधात् समासेऽपि स्वरस्य सन्धौ भिन्नपदत्वम्।
( शब्द में ) एकाध व्यंजन का लोप होने पर, उस व्यंजन से संपृक्त होनेवाला जो स्वर शेषाअवशिष्ट रहता है, उसको यहां उद्धृत्त कहा है । शब्द में एकाध स्वर के आगे उद्वृत्त स्वर होने पर ( उन दो स्वरों की ) संधि नहीं होती है। उदा.विससिज्जंत..... 'मणुअत्तं । बहुल का अधिकार होने से क्वचित् विकल्प ( यानी विकल्प से संधि ) होता है। उदा.--कुम्भमारो....."सूरिसो। क्वचित् संधि हो होती है । उदा० ..सालाहणो, चक्काओ । इसलिए ( संधि का ) ऐसा निषेध होने से, समास में भी स्वर-संधि के बारे में भिन्न पद माने जाते हैं।
- त्यादेः॥९॥ तिबादीनां स्वरस्य स्वरे परे सन्धिर्न भवति । भवति इह होइ इह ।
धातु में लगने वाले प्रत्यय इत्यादि में, अन्त्य स्वर के आगे स्वर होने पर संधि नहीं होतो है। उदा० --भवति'... "इह ।
लुक् ॥ १०॥ स्वरस्य स्वरे परे बहुलं लुग भवति । त्रिदशैशः तिअसीसो। निःश्वासोच्छ्वासौ नीसासूसासा।
एकाध स्वर के आगे ( दूसरा ) स्वर होने पर, बहुलत्व से (पूर्व रहने वाले स्वर का) लोप होता है। उदा.-त्रिदशेश""""सूसासा । १. विशस्यमानमहापशुदर्शन संभ्रमपरस्परारूढाः ।
गगम एव गंधकु (पु) टी कुर्वन्ति तव कौलनार्यः ।। २. निशाचर निशाकर।
३. रजनीकर रजनीचर ४. मनुजत्व ।
५. कुम्भकार। ६. सुपुरुष ।
७. शातवाहन । ४. चक्रवाक।
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