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प्राकृतव्याकरण-चतुर्थपाद
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श्लोक २-उस सुन्दरी ( मुग्धा ) के एक आँख में श्रावण ( मास ), दूसरी आंख में भाद्रपद मास है; जमीन पर स्थित बिस्तर पर माधव अथवा माघ ( मास ) है; गालों पर शरद् ( ऋतु ) अंग पर ग्रीष्म (ऋतु ) है; सुखासिका ( = सुख से बैठना ) रूपी तिल के वन में मार्गशीर्ष मास है; और मुखकमल पर शिशिर ( ऋतु) रही है।
इस श्लोक में एक विरहिणी के स्थिति का वर्णन है। उसका भावार्थ ऐसा :-श्रावण-भाद्रपद मास की बरसात की झड़ी के जैसे उसकी आँखों से अश्रुधारा बहती थी। वसन्त ऋतु के समान उसका बिस्तर पल्लवों से बना था। शरद् ऋतु में से बादलों के समान ( अथवा काश-कुसुम के समान ) उसके गाल सफेद | फीके पड़े थे । ग्रीष्म के समान उसका अंग तप्त / गर्म था। शिशिर ऋतु में से कमल के समान उसका मुखकमल म्लान हुआ था।
इस श्लोक में एक्कहिं और अन्नहिं इन सप्तमी एकवचनों में हिं आदेश है। माहउ-माधव, वसन्त ऋतु; अथवा माधक । अंगहि --सूत्र ४३४७ देखिए । तहे -- सूत्र ४.३५६ देखिए । मुद्धहे-सूत्र ४.३५० देखिए ।
श्लोक ३ --हे हृदय तट तट करके फट जा; विलम्ब करके क्या उपयोग ? मैं देगी कि तेरे बिना सैकड़ों दुःखों को देव कहाँ रखता है ?
यहाँ कहिँ इस सप्तमी ए० व० में हि आदेश है। हिअडा--सूत्र ४.४२९ । फुट्टि-सूत्र ४.३८७ देखिए । फुट्ट धातु भ्रंश् धातु का आदेश है ( सूत्र ४.१७७ देखिए ); अथवा-स्फुट धातु म ट् का द्वित्व होकर और अन्त में अकार आकर यह धातु बना है। करि-सूत्र ४°४३६ देखिए । देक्खउँ --सूत्र ४.३८५ देखिए । पइँ–सूत्र ४.३७० देखिए । विणु-सूत्र ४४२६ देखिए।
४.३५८ श्लोक १-हला सखि, ( मेरा ) प्रियकर जिससे निश्चित रूप से रुष्ट. होता है उसका स्थान वह अस्त्रों से शस्त्रों से अथवा हाथों से फोड़ता है ।
यहां जासु और तासु इन षष्ठी एकवचनों में आसु आदेश है। महारउमहार (सूत्र ४०४३४ ) के आगे स्वार्थे अप्रत्यय ( सूत्र ४४२९ ) आया है। निच्छइ-निच्छएं ( सूत्र ४.३४२ देखिए )।
श्लोक २-जीवित किसे प्रिय नहीं है। धन की इच्छा किसे नहीं है ? पर समय आने पर विशिष्ट ( श्रेष्ठ ) व्यक्ति ( इन ) दोनों को भी तृण के समान समझते हैं।
यहां कासु इस षष्ठी एकवचन में आसु आदेश है। वल्लहउँ'-सूत्र ४.४२९,, ३५४ देखिए।
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