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प्राकृतण्याकरणे
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है। सच बात यह है-प्राकृत में ऋतु"""दुइओ इत्यादि प्रयोग होते हैं, परंतु उदू, रयद इत्यादि प्रयोग तो नहीं होते हैं । क्वचित् (त का द होने वाले प्रयोग प्राकृत में) यदि होते भी हैं, तो वे 'व्यत्ययश्च' ( इस हमारे व्याकरण के ) नियम से ही सिद्ध होते हैं। ( धुति शब्द से सिद्ध होन वाले ) दिही ( वर्णान्तर ) के लिए मात्र 'धृतेदिहिः' ( यह नियम ) हम ( आगे ) कहने वाले हैं ।
सप्ततो रः ।। २१० ॥ सप्तमो तस्य रो भवति । सत्तरी। सप्तति शब्द में त का र होता है । उदा.-सत्तरी ।
अतसीसातवाहने लः ॥ २११ ।। अनयोस्तस्य लो भवति । अलसी। सालाहणो सालवाहणो । सालाहणी' भासा।
अतसी और सातवाहन इन दो शब्दों में, त का ल होता है। उदा.-अलसी... भासा ।
पलिते वा ।। २१२ ॥ पलिते तस्य लो वा भवति । पलिलं पलिअं। पलित शब्द मे त का ल विकल्प से होता है । उदा०-पलिलं, पलिमं ।
पीते वो ले बा ॥ २१३ ॥ पीते तस्य वो वा भवति । स्वार्थलकारे परे। पीवलं पीअलं । ल इति किम् । पोमं ।
पीत शब्द में, ( पोत के आगे ) स्वार्थे लकार ( प्रत्यय ) होने पर, त का व विकल्प से होता है । उदा०-पोबलं, पीअलं । ( स्वार्थे ) लकार ( आगे होने पर ) ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण पीत के भागे स्वार्थ लकार न हो, तो त का व विकल्प से नहीं होता है । उदा०-) पीनं।
वितस्तिवसतिभरतकातरमातुलिङ्ग हः ॥ २१४ ॥ एषु तस्य हो भवति । विहत्थी। वसही। बहुलाधिकारात् क्वचिन्न भवति । वसई । भरहो। काहलो। माहुलिंगं मातुलुंगशब्दस्य तु माउलुंगं ।
वितस्ति, वसति, भरत, कातर और मातुलिंग शब्दों में त का ह होता है। उदा०--विहत्थी, बसही; बहुलका अधिकार होने से, क्वचित् ( त का ह ) नहीं १. सातवाहनी भाषा ।
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