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प्राकृतव्याकरणे
शील, धर्म, और साधु इन अर्थों में कहे हुए प्रत्यय को इर ऐसा आदेश होता है। उदा०-हसनशील: हसिरो। ( इसी प्रकार:-) रोविरो... . ऊससिरो। कुछ लोग कहते हैं कि 'तृन्' इस प्रत्यय को ही इर आदेश होता है; परन्तु उनके मतानुसार नमिर, गमिर इत्यादि शब्द सिद्ध नहीं होते हैं; कारण यहां तृन् ( प्रत्यय ) का र इत्यादि से बाध होता है।
क्त्वस्तुमत्तूणतुआणाः ॥१४॥ क्त्वाप्रत्ययस्य तुम् अत् तूण तुआण इत्येते आदेशा भवन्ति । तुस् । 'दळं । मोत्तुं । अत् । भमिअ। रमिअ । तूण । घेत्तण । काऊण । तुआण । भेत्तुआण' । सोउआण । वन्दित्तु इत्यनुस्वारलोपात् । वन्दित्ता इति सिद्धसंस्कृतस्यैव वलोपेन । कटु इति तु आर्षे ।
क्त्वा को तुम्, अत् तूण और तुआण ऐसे ये आदेश होते हैं। उदा०---तुम् :दटुं, मोत्तुं । अत् :-भमिअ, रमिअ । तूण :-धेत्तूण, काऊण । तुभाण-भेत्तुआण, सोउआण । वंदित्तु यह रूप अनुस्वार का लोप होकर हुआ है । वंदित्ता यह रूप संस्कृत में से ( वन्दित्वा इस ) सिद्ध शब्द में से व का लोप होकर बना है। आर्ष प्राकृत में (कृ धातु का ) कटु ऐसा रूप होता है।
इदमर्थस्य केरः ।। १४७ ॥ इदमर्थस्य प्रत्ययस्य केर इत्यादेशो भवति । युष्मदीयः तुम्हकेरो। अस्मदोयः । अम्हकेरो । न च भवति । मईअ- पक्खे पाणिणोआ।
( उसका अथवा अमुकका ) यह : होता है' इस अर्थ में होनेवाले प्रत्ययको केर ऐसा आदेश होता है। उदा०-युष्मदीय' अमृकेरो। ( कभी ऐसा आदेश ) होता भी नहीं है। उदा.-.-मईअपक्खे, पाणिणीआ।
परराजभ्यां क्कडिक्कौ च ॥ १४८ ॥ पर राजन् इत्येताभ्यां परस्येदमर्थस्य प्रत्ययस्य यथासंख्यं संयुक्तौ क्को डित् इक्कश्चादेशौ भवतः । चकारात् केरश्च । परकीयं पारक्कं परक्कं पारकेरं । राजकोयम् राइक्कं रायकेरं।
पर और राजन् शब्दों के आगे आनेवाले ( उसका किंवा अमुकका ) यह ( है ) १. क्रम से:-/दृश् । V मुथ् । २. क्रम सेः-V भ्रम् । /रम् । ३. क्रम से :-/ग्रह । । ४. क्रम ।-/भिद् । Vश्रु । ५. / वन्द् । ७. क्रमसे :-मदीयपक्षे । पाणिनीयाः ।
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