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________________ प्राकृतव्याकरण-तृतीयपाद ३६५९ ३.१२६ ङसेढुंग-सूत्र ३.८ देखिए । ३.१२७ भ्यसो ङसेश्च हिः-सूत्र ३८-९ देखिए । ३.१२८ उडें-सूत्र ३.११ देखिए । ३.१३० सर्वासां"त्यादीनाम्-विभक्ति यानी शब्दशः विभाग, या भिन्न करना । प्रथमा इत्यादि को प्रायः विभक्ति शब्द लगाया जाता है। तथैव धातुको लाये जाने वाले काल और अर्थ के प्रत्ययों के बारे में भी विभक्ति शब्द प्रयुक्त किया जाता है । (विभक्तिश्च/सुपतिङन्तौ विभक्तिसंज्ञो स्तः । पाणिनि सूत्र १.४.१०४ ऊपर सिद्धांत कौमदी)। द्विवचनस्य भवति-प्राकृत में द्विवचन ही न होने से, उसके बदले बहु (अनेक) वचन प्रयुक्त किया जाता है । ३.१३१ प्राकृत में चतुर्थी विभक्ति न होने से, उसके बदले षष्ठी विभक्ति प्रयुक्त की जाती है। अपवाद के लिए सूत्र ३.१३२-१३३ देखिए । ३.१३२ तादर्थ्य...... वचनस्य-डे यह चतुर्थी एकवचन का प्रत्यय हैं । प्रायः तादर्थ्य दिखाने के लिए चतुर्थी प्रयुक्त की जाती है। ३.१३४ द्वितीया, तृतीया, पंचमी और सप्तमी इन विभक्तियों के बदले ही क्वचित् षष्ठी प्रयुक्त की जाती हैं । ३.१३५ तृतीया विभक्ति के बदले सप्तमी विभक्ति का उपयोग विमल सूरिकृत पउमचरिय नामक ग्रन्थ में बहुत है। ३.१३८ क्यङन्तस्य......"लंग भवति-संज्ञाओं से धातु सिद्ध करने के लिए क्या और क्यक्ष ऐसे दो प्रत्यय हैं। उन प्रत्ययों से संबंधित होने वाले 'य' का विकल्प से लोप होता है। लोहित इत्यादि कुछ शब्दों को क्यक्ष प्रत्यय लगता है । उदा०-लोहित-लोहितायति-ते । सदृश आचार दिखाने के विए क्यङ् प्रत्यय जोड़ा जाता है । उदा०-( काकः ) श्येनायते (Vश्येन ) ( श्येन के समान आचार करता है)। दमदमा-एक प्रकार का बाद्य है । ३.१३६-१८० इन सूत्रों में धातु रूप विचार है। इस संदर्भ में अगली बातें भाद में रखे:-(१) प्राकृत में व्यञ्जनान्त धातु नहीं हैं; सब सातु स्वरान्त होते हैं; बहुसंख्य धातु अकारान्त होते हैं। (२) धातु का गण भेद और परस्मैपद-आत्मने पद ऐसा प्रत्यय भेद नहीं है । (३) वर्तमान; भूत और भविष्य ये तीन काल हैं; उनके संस्कृत के समान अन्य प्रकार नही हैं। भूतकालीन धातु रूपों का उपयोग अत्यन्त कम है, प्रायः कर्मणि भूतकाल वाचक धातु साधित विशेषण के उपयोग से भूतकाल का कार्य किया जाता है। (४) आज्ञार्थ, विध्यर्थं और संकेतार्थ होते हैं। विध्यर्थ के बदले विध्यर्थी कर्मणि धातु साधित विशेषण का उपयोग अधिक दिखाई देता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001871
Book TitlePrakrit Vyakarana
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorK V Apte
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1996
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, P000, & P050
File Size22 MB
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