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________________ २७२ चतुर्थः पादः काई न दूरे देक्खइ। ( ४.३३६.१ ) । 'फोडेन्ति जे हि अडउँ अप्पण: ताहँ पराई करण घृण । रक्खेज्जहु लोअहो अप्पणा बालहें जाया विसम थण ॥ २ ॥ सुपुरिस कंगुहे अणुहरहिं भण कज्जें कवणेण।। जिवं जिवं वड्डत्तणु लहहिं तिवँ तिवं नवहिं सिरेण ॥ ३ ॥ पक्षे। जइ ससणेही तो मुइअ अह जीवइ निन्नेह । बिहि वि पयारेहि गइअ धण किं गज्जहि खल मेंह ॥ ४॥ अपभ्रंश भाषा में, किम् ( सर्वनाम ) के स्थान पर काई और कवण ऐसे आदेश विकल्प से होते हैं । उदा०-जइ न. 'मझ ॥१५ काई. 'देक्ख इ. फोडेन्ति 'थण॥२॥; सुपुरिस सिरेण ॥३॥ (विकल्प-) पक्षमें:-जइ ससणेही 'मेह । ४॥ ____ युष्मदः सौ तुहुं ॥ ३६८ ॥ । अपभ्रंशे युष्मदः सौ परे तु इत्यादेशो भवति । भमर म रुण झुणि रणडइ सा दिसि जोइ म रोइ । सा मालइ देसं तरिअ जसु तुहुँ मरहि विओइ ॥ १॥ अपभ्रंश भाषा में, युष्मद् (सर्वनाम) को, सि (प्रत्यय! आगे होने पर, तुहु ऐसा आदेश होता है । उदा. भमर....."किओइ ॥ १: जस-शसो स्तुम्हे तुम्हइं ॥ ३६९ ॥ अपभ्रंशे युष्मदो जसि शसि च प्रत्येकं तुम्हे तुम्हई इत्यादेशौ भवतः । तुम्हे" जाणह । तुम्हे तम्हई पेच्छइ । वचनभेदो यथासंख्यनिवृत्त्यर्थः ।। अपभ्रंश भाषा में, युष्मद् (सर्वनाम) को जस् और शस् (प्रत्यय) आगे होने पर, प्रत्येक को तुम्हे और तुम्हई ऐसे आदेश होते हैं। उदा०-तुम्हे'' पेच्छइ । अनुक्रम की निवृत्ति करने के लिए (सत्र में) वचन का भेद (किया है। १. सूत्र ४.३५० के नीचे श्लोक २ देखिए । २. सत्पुरुषाः कङ्गो: अनुहरन्ति भण कार्येण केन । यथा यथा महत्त्वं लभन्ने तथा तथा नमन्ति शिरसा ॥ ३. यदि सस्नेहा तन्मृता अथ जीवित निःस्नेहा । द्वाभ्यामपि प्रकाराभ्याँ गत्तिका ( = गता) धन्या किं गर्जसि खल मेघ ॥ ४. भ्रमर मा रुणझुणशब्दं कुरु अरण्ये तां दिशं विलोकय मा रुदिहि । सा मालतो देशान्तरिता यस्याः त्वं म्रियसे पियोगे ॥ ५. क्रमस:--यूयं जानीथ । युष्मा० प्रेक्षते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001871
Book TitlePrakrit Vyakarana
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorK V Apte
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1996
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, P000, & P050
File Size22 MB
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