________________
प्राकृतव्याकरण-चतुर्थपाद
यहाँ वच्छहे इस पंचमी एकवचन में हे आदेश है। वच्छुह गृण्हइ-वच्छहु में हु आदेश है। गृण्हइ-सूत्र ४.३९४ देखिए । फलई-सत्र ४.३५३ देखिए । तो--सूत्र ४०४१७ देखिए । जिव--सूत्र ४०४०१, ३९७ देखिए। ___४३३७ श्लोक १ --ऊँचा उडान करके ( बाद में नीचे ) गिरा हुआ खल ( दृष्ट ) पुरुष अपने को ( तथा अन्य ) जनों को मारता है। जैसे, गिरि-शिखरों से गिरी हुई शिला ( अपने साथ ) अन्यों को भी चूर-चूर कर देती है। ___ यहाँ 'सिंग इस पंचमी अ० व० में हुँ आदेश है। दूरुड्डाणे-सूत्र ४.३३३, ३४२ देखिए । जिह-सूत्र ४.४०१ देखिए।
४.३३८ श्लोक १--जो अपने गुणों को छिपाता है और दूसरों के गुणों को प्रकट करता है, ऐसे ( इस ) कलियुग में दुर्लभ होने वाले उस सज्जन को में पूजा करता हूँ।
यहाँ परस्सु, तसु, दुल्लहहो, सुअणस्सु इन षष्ठी एकवचनों में सु, हो और स्सु ये आदेश हैं । ह'-सूत्र ४.३७५ देखिए । ___ किज्जउँ--सूत्र ४.३८५ देखिए ।
४.३३९ श्लोक १-तृणों को तीसरा मार्ग ( अथवा तीसरी दशा) नहीं होती; वे अवट के कुएं के किनारे पर उगते हैं (शब्दशः-रहते हैं ); उन्हें पकड़ कर लोग (अवट ) पार करते हैं; अथवा उनके साथ वे स्वतः ( अवट में ) डूब जाते हैं।
इस श्लोक के बारे में टीकाकार कहता है-अन्योऽपि यः प्रकार-द्वयं कर्तुकामो भवति स विषमस्थाने वसति । प्रकारद्वयं किम् । म्रियते वा शत्रून् जयति वा इति भावार्थः । __यहाँ तण, इस षष्ठी अनेकवचन में हं आदेश है। लग्गिवि-सूत्र ४.४३९ देखिए।
४.३४० श्लोक १-पक्षियों के लिए वन में वृक्षों पर पक्व फल देव निर्माण करता है; ( उनके उपभोग का ) वह सुख अच्छा है। परन्तु खलों के वचन कानों में प्रविष्ट होना ( अच्छा ) नहीं।
यहाँ तरुहुँ और सउणिहें इन षष्ठी अनेकवचनों में हैं और हं आदेश हैं । सो सुक्ख-यहाँ सुक्ख शब्द पुल्लिग में प्रयुक्त किया है ( सूत्र ४°४४५ देखिए )। कण्णाहि-सूत्र ४.३४७ देखिए । प्रायो.. ..-प्रायः का अधिकार होने से, क्वचित् सुप् प्रत्यय को भी हुँ आदेश होता है। सुप् के नियमित आदेश सूत्र ४.३४७ में दिए हैं।
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org