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________________ २२४ चतुर्थः पादः सदपतोर्डः ॥ २१९ ॥ अनयोरन्त्य हो भवति । सडइ । पडइ । (सद् और पत्) इन धातुओं के अन्त्य वर्ण का ड होता है । उदा०-सडइ, पडइ । क्वथवर्धा ढः ॥२२० ।। अनयोरन्त्यस्य ढो भवति । कढइ। वडढइ 'पवय-कलकलो। परिअड्ढइ लायण्णं । बहुवचनाद् वृधेः कृतगुणस्य वधेश्चाविशेषेण ग्रहणम् ।। (क्वथ् और वृध ) इन धातुओं के अन्त्य वर्ण का ढ होता है। उदा.कढइ... .''लायणं । ( सूत्र में वर्धाम् ऐसा ) बहुवचन प्रयुक्त होने के कारण, जिसमें गुण किया हुआ है ऐसे ( वृध का यानी ) वधं का भी कुछ भी फर्क न करते ग्रहण होता है। वेष्टः ॥ २२१ ॥ वेष्ट वेष्टने इत्यस्य धातोः कगटडं इत्यादिना ( २.७७) षलोपेन्स्यस्य ढो भवति। वेढइ । वेढिज्जइ । ____ 'वेष्ट बेष्टने' (यहाँ कहे हुए) वेष्ट धातु में 'कगटड.' इत्यादि सूत्र से (व्यंजन) का लोप होने पर, ( वेष्ट के ) अन्त्य वर्ण का ढ होता है। उदा०-वेढइ, वेढिज्जा । समोल्लः ॥ २२२ ॥ सम्पूर्वस्य वेष्टतेरन्त्य द्विरुक्तो लो भवति । संवेल्लइ । सम् ( उपसर्ग ) पूर्व में होने वाले वेष्टति ( वेष्ट ) धातु के अन्त्य थर्ण का द्विरुक्त ल ( = ल्ल ) होता है। उदा.-संवेल्लइ । वोदः ॥ २२३ ॥ उदः परस्य वेष्टतेरन्त्यस्य ल्लो वा भवति । उव्वेल्लइ । उव्वेढइ। उद् ( उपसर्ग ) के आगे होने वाले वेष्टति (Vबेष्ट् ) धातु के अन्त्य वर्ण का ल्ल विकल्प से होता है । उदा.---उध्वेल्लइ । ( विकल्प-पक्ष में ):-उब्वेढह । स्विदां ज्जः ॥ २२४ ॥ स्विदिप्रकाराणामन्त्पस्य द्विरुक्तो जो भवति । सव्वं गसिज्जिरीए। संपज्जइ । खिज्जइ" । बहुवचनं प्रयोगानुसरणार्थम् । १. वर्धते प्लवग-कलकलः । २. परिवर्धते लावण्यम् । ३. सर्वाग-स्वेदनशीलायाः । ४. सं+ पद् । ५. / खिद् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001871
Book TitlePrakrit Vyakarana
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorK V Apte
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1996
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, P000, & P050
File Size22 MB
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