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द्वितीयः पादः
उनका अर्थ ( उनके ) अन्य समानार्थक शब्दों के द्वारा कहे । उदा०- -कृष्ट (के बदले ) कुशल, वाचस्पति ( के बदले ) गुरु, बिष्टरश्रवाः ( के बदले ) हरि, इत्यादि । तथापि पीछे उपसर्ग होनेवाले धृष्ट शब्द के प्रयोग की अनुज्ञा है । उदा० - मन्दरयड' ठाणंग, इत्यादि । आषं प्राकृत में, ( साहित्य में ) जैसा दिखाई देगा वैसा, सवं ही प्रयोग ठीक ( = अविरुद्ध ) होते हैं । उदा
-घट्ठा अपुणो, इत्यादि ।
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अव्ययम् || १७५ ॥
अधिकारोयम् । इतः परं ये वक्ष्यन्ते आ बाद समाप्तेस्तेऽव्ययसंज्ञा
ज्ञातव्याः ।
( सूत्र में से अव्यय शब्द का अधिकार है । इस पाद के अन्त तक यहाँ से आगे जो ( शब्द ) कहें जाएंगे, उनको अव्यय संज्ञा है ऐसा जाने ।
तं वाक्योपन्यासे ॥
१७६ ॥
तमिति वाक्योपन्यासे प्रयोक्तव्यम् । तं ति 'असबंदि मोक्खं ।
तं ( अव्यय ) वाक्य का प्रारंभ करते समय प्रयुक्त करे । उदा० - तं तिअस" मोक्खं ।
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आम अभ्युपगमे || १७७ ॥
आमेत्यभ्युपगमे प्रयोक्तव्यम् । आम 'बहला वणोली ।
आम (अव्यय) अभ्युपगम ( स्वीकार, संमति ) करते समय प्रयुक्त करे ।
उदा० - आम
'वणोली |
वि वैपरीत्ये ॥ णवीति वैपरीत्ये प्रयोक्तव्यम् । गवि हा
१७८ ॥
वणे ।
वि ( अव्यय ) वैपरीत्य ( = विपरीतान उलटेपन ) दिखाने के लिए प्रयुक्त करे | उदा०
विवणे ।
पुणरुत्तं कृतकरणे ॥ १७६ ॥
पुणरुत्तमिति कृतकरणे प्रयोक्तव्यम् । अइ सुप्पइ' पंसुलि गोसहेहि अंगेहि पुणरुत्तं ।
१. त्रिदशवन्दिमोक्ष ।
३. हा वने । हा अव्यय ) खेद सूचक है | )
४. अयि (अति) स्वपिति पांसुला निःसहै: अंग : ( पुणरुत्तं ) ।
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२. बहलावनाली
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