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________________ प्राकृतव्याकरणे हरिणट्ठाणे हरिणक 'जइ सि हरिणाहिवं निवेसन्तो । न सहतो चिचअ तो राहु-परिहवं से जिअन्तस्स ॥ ६ ॥ क्रियतिपत्ति (= संकेतार्थ) के स्थान पर न्त और माण (ऐसे ये ) आदेश होते हैं । उदा०- -होन्तो, होमाणी ( यानी ) अभविष्यत् ऐसा अर्थ है; हरिण - जिमन्तस्स । शत्रानशः ।। १८१ ॥ शतृ आनश् इत्येतयोः प्रत्येकं न्त माग इत्येतावादेशौ भवतः । शतृ । हसन्तो हसमाणो । आनश् | वेवन्तो' वेवमाणो । 1 शतृ और मान ( इन प्रत्ययों) के प्रत्येक को न्त और मान ऐसे ये आवेश होते हैं। उदा० - शतृ ( प्रत्यय ) को: - हसन्तो, हसमाणो । आनश् ( प्रत्यय ) को :बेबन्तो, वेबमाणो | १८३ ई च स्त्रियाम् ॥ १८२ ॥ स्त्रियां वर्तमानयोः शत्रानशोः स्थाने ई चकारात् न्तमाणौ च भवन्ति । हसई हसन्ती समाणी । वेवई वेवन्ती वेवमाणी । स्त्रीलिंग में होनेवाले शतृ और आनश् ( इन प्रत्ययों ) के स्थान पर ई, तथैव ( सूत्र में से) चकार के कारण न्त और माण (ये भी) होते हैं । उदा० - हसई" भाणी | इत्याचार्य हेमचन्द्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञशब्दानुशासनवृत्तौ अष्टमस्याध्यायस्य तृतीयः पादः ( आठवें अध्याय का तृतीयपाद समाप्त हुआ । ) १. हरिणस्थाने हरिणांक यदि हरिणाधिपं न्यवेशयिष्य : (निवेसन्तोसि ) । न असहिष्यथा एव ततः राहुपरिभवं अस्य जयतः ॥ २. √वेप् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001871
Book TitlePrakrit Vyakarana
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorK V Apte
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1996
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, P000, & P050
File Size22 MB
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