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टिप्पणियां
यहाँ किम् सर्वनाम का ही प्रयोग है । गज्जहि-सूत्र ४३८३ ।
४३६८ श्लोक १- हे भ्रमर, अरण्य में गुनगुन ( गुञ्जन की ध्वनि ) मत कर; उस दिशा को ( = दिशा की तरफ ) देख; रो मत । जिसके वियोग से तू मर रहा है वह मालती अन्य देश में है।
यहां तुहुँ यह प्रथमा एकवचन है। रुणझुणि--मराठी में रुणझुण । रणडई--अरण्य शब्द में आद्य अ का लोप (सूत्र १.६६ ) होकर रण होता है; बाद में सूत्र ४.४३० के अनुसार स्वार्थे प्रत्यय आकर रणडअ होता है; उसका सूत्र ४३३४ के अनुसार सप्तमी एकवचन । जोइ रोइ--सूत्र ४'३८७ देखिये । मरहि-- सूत्र ४.३८३ देखिये ।
४.३७० श्लोक १-हे सुन्दर वृक्ष, तुझ से मुक्त हुए तो भी पत्तों का पत्तापन ( पत्रत्व ) नष्ट नहीं होता है; परन्तु तेरी किसी भी प्रकार की छाया हो, वह तो उन्हीं पत्तों से ही है।
यहाँ युष्मद् के तृतीया ए० व० में प इं आदेश है। पत्तत्तणं -- सूत्र २.१५४ देखिए । होज्ज-सूत्र ३.१७६ देखिए । __श्लोक २-( अन्य स्त्री पर आसक्त हुए नायक को उद्देश्य कर नायिका यह श्लोक उच्चारती है :-) मेरा हृदय तूने जीता है; उसने तुझे जीता है; और वह ( स्त्री भी अन्य ( पुरुष ) के द्वारा पीडी जा रही है।
हे प्रियकर; मैं क्या करूँ ? तुम क्या करोगे ? ( एक ) मछली से ( दूसरी) मछली निगली जा रही है ।
यहां युष्मद् के तृतीया ए. व० में तइं आदेश है। मह --- --सूत्र ४.३७६ देखिए । कर--सूत्र ४१३८५ देखिए । __ श्लोक ३-तू और मैं दोनों भी रणांगण में चले जाने पर. ( अन्य ) कोन भला विजयश्री की इच्छा करेगा ? यम की पत्नी को केशों के द्वारा पकड़ने पर, बता कौन सुख से रहेगा ?
यहाँ युष्मद् के सप्तमी ए. व. में पई आदेश है। मई-सूत्र ४.३७७ देखिए । बेहि, रण गहि, केसहि-सूत्र ४.३४७ देखिए । लेप्पिणु-सूत्र ४°४४० देखिए । थक्के इ--थक्क यह स्था धातु का आदेश है ( सूत्र ४.१६ ) । एवं तइं-उदा०उदा० --- तई कल्लाण ( कुमारपाल चरित, ८३४) ___ श्लोक ४---( सारस पक्षी के समान ) तुम्हें छोड़ते तुम्हारा मेरा मरण होगा; मुझे छोड़ते तुम्हारा मरण होगा; ( कारण सारस पक्षियों में से ) जो सारस ( दूसरे सारस से ) दूर होगा, वह कृतान्त का साध्य ( यानी मृत्यु को वश ) हो जाता है ।
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