Book Title: Anusandhan 2016 12 SrNo 71
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू (ठाणंगसुत्त, ५२९) अनुसन्धान - ७१ श्रीहेमचन्द्राचार्य प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य-विषयक सम्पादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका सम्पादक : विजयशीलचन्द्रसूरि - डॉ. मधुसूदन ढांकी-विशेषांक कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि 2016 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આ અંકનું આર્થિક સૌજન્ય શ્રી બોરીવલી જૈન શ્વે.મૂ. તપગચ્છ સંઘ, મંડપેશ્વર રોડ, મુંબઈના જ્ઞાનદ્રવ્ય ખાતે Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू (ठाणंगसुत्त, ५२९) 'मुखरता सत्यवचननी विघातक छे' अनुसन्धान प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य-विषयक सम्पादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका डो. मधुसूदन ढांकी विशेषाङ्क सम्पादक : विजयशीलचन्द्रसृरि WKAWSTOP4 AIIMilan DOO०न्छन् MIRAM श्रीहेमचन्द्राचार्य कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि अहमदाबाद २०१६ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ७१ आद्य सम्पादक: डो. हरिवल्लभ भायाणी सम्पादक सम्पर्क : विजयशीलचन्द्रसूरि : c/o. अतुल एच. कापडिया A-9, जागृति फ्लेट्स, महावीर टावर पाछळ, पालडी, अमदावाद-३८०००७ फोन : ०७९-२६५७४९८१ E-mail : s.samrat2005@gmail.com प्रकाशक : कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि, अहमदाबाद ई. २०१६, सं. २०७२ प्राप्तिस्थान : (१) आ. श्रीविजयनेमिसूरि जैन स्वाध्यायमन्दिर १२, भगतबाग, जैननगर, नवा शारदामन्दिर रोड, आणंदजी कल्याणजी पेढीनी बाजुमां, अमदावाद-३८०००७ फोन : ०७९-२६६२२४६५ श्रीविजयनेमिसूरि-ज्ञानशाला शासनसम्राट भवन शेठ हठीभाईनी वाडी, दिल्ही दरवाजा बहार, अमदावाद-३८०००४ फोन : ०७९-२२१६८५५४ Email : nemisuri.gyanshala@gmail.com (३) सरस्वती पुस्तकभण्डार ११२, हाथीखाना, रतनपोल, अमदावाद-३८०००१ फोन : ०७९-२५३५६६९२ प्रति : 250 मूल्य : ₹ 300-00 मुद्रक : किरीट ग्राफिक्स - फोन : ०७९-२५३३००९५ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन 'संशोधन' नी मूळभूत प्रेरणा कई ? अने, संशोधन ते संशोधन क्यारे बने ? पहेला प्रश्ननो उत्तर छ : सत्यशोधन. शोधक ते, जेनं चित्त निरन्तर सत्यने गवेषतुं होय. तेवा चित्तने, प्रवर्तमान के प्रचलित वात, विचार, मान्यता के परम्परामां कशीक गरबड प्रतीत थाय त्यारे, ते, गरबड अने तेनां निदानोने शोधे छे - शोधवा मथे छे; अने पछी तेने बदले ते जग्याए, जे वात के विचार योग्य रीते बंधबेसतां आवतां जणाय तेनी, सप्रमाण । साधार, स्थापना करवाने उद्युक्त बने छे; आ आखीये प्रक्रियामां खोवायेला । दटायेला / झंखवायेला सत्यनुं शोधन अने पुनःस्थापन - ए ज तेने माटे प्रेरक बळ बने छे. ज्यारे आवी गवेषणा अने पुनःस्थापनानी तत्परता तथा त्रेवड नथी होती, त्यारे तेवा लोको द्वारा थतुं संशोधन ए संशोधन तो नथी ज बनतुं, बल्के एक उपहासपात्र अथवा उपेक्षापात्र वैतरूं-वहीतरुं बनीने रही जाय छे. संशोधक जो साचुकलो होय तो सौ पहेलां ते आत्मप्रतीतिथी सज्ज होय; परिश्रम, वांचन, चिन्तन - आ बधुं तेनी पोतीकी मूडी समान होय; आळस अने अनुदारतापूर्ण आग्रह - बेउथी ते वेगळो रहेतो होय; परम्परामां के संशोधनमां - क्यांय पण, पोताना हाथे के अन्य द्वारा, प्रवेशेली के प्रवेशती गलत धारणाओ परत्वे ते सतत सतर्क होय, अने तेने उलेचवा जेटली निर्भीकता ते धरावतो ज होय. आवो माणस जे संशोधन करे ते मोटा भागे हीरनी गांठ पर तेलना टीपा समुं बनी रहेतुं होय छे. एना संशोधनने, पछी, कोई पडकारी के खोटं ठरावी शके नहि. तेनुं हथियार कहो के ओजार एक ज होय : प्रमाणो. प्रमाणपुरःसर ज तेनां प्रतिपादन होय, अने तेने तेना करतां वधु मजबूत अने नवीन प्रमाणो दर्शावीने कोई पडकारे तो तेनो तत्क्षण स्वीकार करवानी तेनामां सज्जता होय. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवा नवा आवो उत्साह जोवा फंडा ऊत अने, आवा संशोधकनुं संशोधन 'संशोधन' बने ज - एवी स्पष्टता करवानी हवे जरूर नथी रहेती. परम्परागत मान्यता, समाजमां व्यापक अने ऊंडा मूळ घालीने प्रवर्तती होय, अने तेथी ते कोई वखत आवां संशोधनने - संशोधित वातने स्वीकारे नहि एवें बने, परंतु ते ए संशोधननो इन्कार के निषेध तो न ज करे, नथी ज करती. 'संशोधन' माटे आ जेवो तेवो एवोर्ड न गणाय. संशोधननो आशय, अने आग्रह, परम्पराने - पारम्परिक आस्थारूप मान्यताने ध्वस्त करवानो होय छे, एवी समजण आपणे त्यां प्रवर्तती रही छे. वैचारिक कट्टरता ए आनुं जवाबदार परिबळ छे. आ कट्टरताने कारणे, घणीवार, संशोधकोना चित्तमां । दिमागमां पण, परम्पराने ध्वस्त करी नाखवानो उत्साह के आवेश पेदा थतो होय छे. खास करीने, शोध-क्षेत्रमा नवा नवा पदार्पण करनारा तेम ज परम्परावादनी कट्टरताथी दाझेला शोधकोमा आवो उत्साह जोवा मळे. परंतु, मूलतः सत्यशोधन-प्रेरित शोधकार्यनी अंदर तेओ जेम जेम ऊंडा ऊतरता जाय, आगळ वधता जाय, अने 'परम्परा पासे पण एक पोतीकुं तथ्य होय - आस्था- तथ्य' ओ वात जेम जेम तेमने समजाती जाय, तेम तेम तेमनो ते उत्साह ठावकाईमां फेरवातो जाय छे; आवेश समाधानमां पलटातो जाय छ; अने संशोधनना सत्यने वळगी रहेवा छतां, पछी, तेओ परम्परानो निषेध के अनादर करतां नथी. . आपणे जेमने नास्तिक गणेला तेवा पण्डित बेचरदास जीवराज दोशी, पण्डित दलसुखभाई मालवणिया वगेरे विद्वानोना अंतरंग परिचये समजायेखें के आ लोको शोधक वृत्तिना होवा छतां श्रद्धाभ्रष्ट नथी, परम्परानो ध्वंस ए एमनो उद्देश नथी. एमने ते समये जे लाग्युं ते तेमणे चोक्कस कां; आपणे ते साथे सहमत न थईए, अने तेवी जरूर नहोती; परंतु तेमनी समक्ष प्रमाणो अने आधारो साथे रजूआत करवामां आवे के 'तमारी आ वात योग्य नथी,' तो तेओ पोतानी धारणा बदलवा तैयार रहेता, एटलुं ज नहि, क्षमा मागवा माटे पण तत्पर हतो, ए अनुभव थयेलो छे. घणाबधा लोकोने, खास तो साधुवर्गने, अमारा, आ विद्वानो साथेना परिचय तथा संपर्कने अंगे अचरज रहेतुं, अने अणगमो. पण. आनाथी Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 बराबर वाकेफ होवा छतां आ बाबते अमने आश्चर्य न थतुं; केम के भगवान तीर्थंकरनो अनेकान्तनो सिद्धान्त, ज्यां सुधी अनेकान्त - दृष्टिमां परिणम्यो न होय त्यां सुधी, पोतानाथी भिन्न मान्यता, विचार के समजण धरावता लोकां प्रत्ये द्वेष अथवा अरुचि थाय तो ते स्वाभाविक होय छे, एटली समज केळवाइ गई छे. जो धर्म अने शास्त्रनां सत्य तथा तथ्य पामवां होय, प्रीछवां होय, तो संशोधननी प्रक्रिया प्रत्ये के संशोधको प्रत्ये तिरस्कार राखवो पालववो न जोइए; अने आ बन्ने सत्य तथा तथ्य अमारी पासे ज छे, अमने ज समजाय बीजाने नहि, एवं मिथ्याभिमान पण छूटी जवुं जोइए. - - आपणा अग्रणी पुरातत्त्वविदो डो. हसमुख सांकळिया तथा रमणलाल महेताने मळवानुं थयेलुं त्यारे तेओ कहता के 'अमारे तो ठीकरां - पथरामाटी बोले ते सांभळवानुं. चोपडीमां लख्युं छे माटे ते ज साचुं एम मानीने अमाराथी चलाय नहि.' आ ज वात डॉ. मधुसूदन ढांकी पण कहेता, जुदी रीते, जुदा शब्दोमां. ए लोको पहेलां प्रत्यक्ष पदार्थ - प्रमाण शोधे- मेळवे, पछी ग्रन्थोना शब्दो साथे तेनो ताळो मेळवे, अने ग्रन्थोमां कई वात असल हशे, कई वात प्रक्षेप हशे, कई वात दन्तकथा हशे, तेनो अंदाज काढता रहे. तेमना मनमां एक ज आशय रहेता होय छे : "मूळ वस्तु ज स्यवं एटली बधी श्रेष्ठ अने महत्त्वपूर्ण होय छे, जे पाछळथी चडतां गयेलां चमत्कारपूर्ण आवरणोथी ढंकाइ - दबाई गई होय छे. ते मूळ वस्तुने तथ्यने तेना मूळ रुपमां पुनः अनावृत करवुं ए ज छे संशोधननो मर्म." आम करवा जतां, क्यारेक, आस्था साथै संशोधननी अथडामण थई जाय तेवुं चोक्कस बनवानुं. परंतु आस्थानुं निकंदन काढवानुं तेमना मनमां नथी होतुं तेमनो वांधो तो अन्धश्रद्धा, अणसमज के अज्ञान सामे ज होय छे, आस्था सामे नहि, अने नहि ज. अस्तु. शी. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रम सम्पादन गुणसौभाग्यापरनाम-श्रीजयवन्तसूरिविरचितः श्रीशान्तिस्तवः - सं. मुनि कल्याणकीर्तिविजय १ ज्ञानचन्द्रकृतं श्रीपार्श्वजिनस्तवनम् (अवचूर्णिसहितम्) - सं. मुनि कल्याणकीर्तिविजय ५ वादीन्द्रश्रीदेवसूरिचरितम् - सं. गणि सुयशचन्द्रविजय, मुनि सुजसचन्द्रविजय१० श्रीवादीदेवसूरि-चरित-महाकाव्य-सम्बन्धित ऐतिहासिक नोंध - सं. विजयशीलचन्द्रसूरि ८२ पूर्णतल्लगच्छीय-श्रीशान्तिसूरिविरचितटीकोपेतं घटकपरकाव्यम् - सं. मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय ८५ केटलीक लेखपद्धतिओ - सं. विजयशीलचन्द्रसूरि ९५ केटलाक पत्रो - सं. विजयशीलचन्द्रसूरि लेखपद्धतिः - सं. विजयशीलचन्द्रसूरि १०४ श्रीतिलकविजय-कृत स्तवनो - सं. मुनि धुरन्धरविजय ११८ अष्टापदतीर्थ-भरतचक्रवर्ती-ऋद्धिस्तवन - सं. जागृति डी. वोरा १२५ स्वाध्याय श्रीअनुयोगद्वारसूत्रना एक पाठनी प्रामाणिकता - मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय १३३ सौन्दर्य और शान्ति : जिनसौन्दर्य और प्रतिमाओं पर जैन विविध विचार - नलिनी बलबीर १४३ प्राकृत एवं अपभ्रंश जैनसाहित्य में कृष्ण - प्रो. सागरमल जैन १६३ डो. ढांकी द्वारा थयेलुं एक महत्त्व- अन्वेषण : नन्द्यावर्त प्रकीर्ण नवां प्रकाशनो १८१ १८६ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डो. ढांकी विशेष • ढांकीसाहेब कलाविवेचक मधुसूदन ढांकी में जेवा जोया, जेवा जाण्या ढांकीसाहेब : एक विरल व्यक्तित्व 7 बहुमुखी प्रतिभासम्पन्न विद्वान : ढांकीसाहेब आ ढांकीसाहेब ! प्रो. मधुसूदन ढांकी सूकां पर्णो वन गजवतां, शान्त लीलां सदाये डो. मधुसूदन 'ढांकी : जेटला जोया - जाण्या गुजराती भाषा-साहित्यनी स्मृति संचयिका.... अवन्तिका गुणवन्त महेता गणि सुयशचन्द्रविजय, मुनि सुजसचन्द्रविजय २१३ राजुल दवे २१६ २२० २२६ २३१ २३५ - राजेश पंड्या १९१ १९२ • उपा. भुवनचन्द्र २१० - - - • हसु याज्ञिक डॉ. जितेन्द्र बी. शाह डॉ. रमजान हसणिया 'शनिमेखला. '... - - छेलभाई व्यास २३९ २४३ - डो. रेणुका पोरवाल २४७ डो. निरंजन राज्यगुरु २४९ हसमुख व्यास २५२ मधुसूदन ढांकी : उष्मा, विनोद अने विद्वत्ता देवालयना विश्वकर्मानी विदाय ढांकीसाहेबनी में झीलेली छबी मधुसूदन ढांकी : ग्रन्थसूचि CONTRIBUTION OF DR. MADHUSUDAN DHAKY IN THE FIELD OF ARCHITECTURE प्रतिभापुञ्जनी विदाय सन्तत्वनो अहेसास करावनार विद्वज्जनने स्मरणाञ्जलि - डॉ. मनोज रावल रमण सोनी • Dr. Renuka Porwal 256 डो. कुमारपाळ देसाई २६१ - विजयशीलचन्द्रसूरि २६५ - • कनुभाई जानी २७५ - २७६ ढांकीसाहेब : संस्कृति सौरभनुं मानवरूप मधुसूदन ढांकी : मारी नजरे • शिरीष पञ्चाल मधुसूदन ढांकीनां गुजराती-हिन्दी लखाणो : एक अवलोकन - हेमन्त दवे २८१ ढांकीसाहेब नामेरी स्वजननुं एक शकलचित्र पीयूष ठक्कर २९७ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : नूतन प्रकाशन : कहावली - भाग - २ (उत्तरार्ध) कर्ता प्रकाशक : श्रीभद्रेश्वरसूरिजी सम्पादक : श्रीकल्याणकीतिविजयजी गणि : क. स. श्रीहेमचन्द्राचार्य न. ज. श. स्मृ. संस्कार-शिक्षणनिधि - अमदावाद एक प्राचीन बहुमूल्य कथाग्रन्थ- उपलब्ध एकमात्र ताडपत्र-प्रतिना आधारे अत्यंत जहेमत पूर्वक, सम्पादन-संशोधन. विद्वज्जनोने अतीव उपयोगी बने तेवू प्रकाशन. कहावलीनो प्रथम खण्ड आ पूर्वे ई.स. २०१२मां प्रकाशित थई चूक्यो छे. ( शान्तसुधारस - सम्पुट ) कर्ता गान : उपा. श्रीविनविजयजी मार्गदर्शन तथा आलेखन : श्रीविजयशीलचन्द्रसूरिजी : श्री अमित ठक्कर, श्री दीप्ति देसाई, श्री द्युति बूच चित्रांकन : श्री नैनेश सरैया प्रकाशन : किरीट ग्राफिक्स - अमदावाद, मो. ९८९८४९००९१ • शास्त्रीय तथा देशी ढाळोमां थयेलुं अद्भुत गान • शान्तरसनो यथार्थ परिचय करावतां १६-१६ कार्ड्सना त्रण सेट • शान्तरसनु रसपान करावती भूमिका आवी वैविध्यसभर सामग्रीथी ओपतुं आ प्रकारचें प्रकाशन जैन सङ्घमां प्रथम वार थयुं छे. Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ सम्पादन गुणसौभाग्यापरनाम-श्रीजयवन्तसूरिविरचित: श्रीशान्तिस्तवः - सं. मुनि कल्याणकीर्तिविजय श्रीशान्तिनाथ परमात्माना संस्कृतभाषानिबद्ध आ स्तवमां कुल २२ पद्यो छे, जेमांथी ११ पद्यो उपजाति, स्वागता, वसन्ततिलका, अनुष्टुब्, शार्दूलविक्रीडित वगेरे छन्दोमां रचायेला छे अने बाकीनां ११ पद्यो रासक-गीतिरूपे रचायेला छे. १ श्लोको ने १ रासकगीत - ए क्रमे रचना चाले छे. प्रत्येक पद्य उत्कृष्ट काव्यशैलीमां रचायेलुं छे अने यमक-प्रास वगेरे अलङ्कारोथी विभूषित छे. आ कतिना कर्ता सोळमी सदीना प्रसिद्ध मध्यकालीन कवि श्रीजयवन्तसूरिजी छे, जेमनुं बीजू नाम गुणसौभाग्यसूरि छे. तेओ वडतपगच्छनी रत्नाकरशाखाना उपाध्याय विनयमण्डनना शिष्य हता. तेओ संस्कृत काव्यशास्त्रना अभ्यासी हता एवं जाणवा मळे छे, अने संस्कृत-प्राकृत काव्यपरम्पराओनो पण एमने ऊंडो परिचय हशे, एq एमनी कृतिओ बतावे छे. एमणे गुजराती भाषामां बे रासकृतिओ - 'शृङ्गारमञ्जरी' (सं. १५५८) अने 'ऋषिदत्तारास' (सं. १५८७), तथा स्तवनो. लेख(पत्र), संवाद, फाग, बारमासा वगेरे प्रकारनी कृतिओ अने ८० जेटलां गीता रचेला उपलब्ध थाय छे. ते सिवाय संस्कृत भाषामां पण अनेक कृतिओ रची हशे, ते प्रस्तुत कृतिने जोतां अनुमानी शकाय छे. तेमनी कृतिओ जोतां तेमनी एक भावकवि तरीकेनी प्रतिभा उपसी आवे छे, अने अलङ्कारो, विविध अभिव्यक्तितराहो, वाग्भङ्गिओ, पद्यबन्धो, समस्याबन्धो, सुभाषितो वगेरे पर, कवि, अजब प्रभुत्व प्रतीत थाय छे. कविने सर्व रसोना आलेखननी फावट छे पण एमनी कृतिओमां चक्रवर्ती छे ते तो स्नेहरस ज. तीर्थङ्करस्तवना पण प्रेमलक्षणा भक्तिना रंगे रंगायेली छे. आ रीते आ आचार्य, मध्यकालीन साहित्यना एक प्रथम पंक्तिना सर्जक कवि बनी रहे छे. आ कृतिनी अवचूरि पण प्रतिमां पञ्चपाठस्वरूपे साथे ज लखायेल छे. परन्तु दुर्भाग्ये तेना मात्र एक ज श्लोक परनी अवचूरि लखाई छे, अने ते पछी लखवानी जगा खाली रही गई छे. अवचूरिना कर्ता विशे कोई निर्देश नथी. १. कविनो परिचय, सूक्ष्मदर्शी विवेचक-संशोधक-सम्पादक श्रीजयंत कोठारी सम्पादित “जयवन्तसूरिनी छ काव्यकृतिओ" ना आधारे रजू करेल छे. Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७१ प्रतिपरिचयः आ प्रतिनी झेरोक्ष नकल पूज्य गुरुभगवन्त श्रीविजयशीलचन्द्रसूरिजी म. ना संग्रहमांथी मळी छे. मूळ प्रति कया भण्डारनी छे ते जाणी शकायुं नथी. प्रतिना कुल २ पत्रो छे. अक्षरो सुवाच्य छे अने लेखन प्रायः शुद्ध छे. लेखन संवत् निर्देशायेल नथी छतां लेखनशैली जोतां १७मा सैकामां लखाई होय तेवू लागे छे. प्रतिलेखकनो कोई निर्देश नथी. कल्याणकायमोजःश्रीकल्याणकमलाकरम् । कल्याणममलं शान्ति, कल्याणदं नवीम्यहम् ॥१॥ रासक नवमङ्गलदायकमभिरामं, केवलललनालीलारामं, नतनिहतोरुदरामं । पातकपटलं व्यरिचद् राम, यस्तं परिहृतसङ्गमराम, शिवसङ्गतमविरामम् ॥२॥ युग्मम् अवचूरिः- अहं तं श्रीशान्ति नवीमि-स्तौमि । [यः] राम-श्याम, पातकपटलं रिरिचे-व्यरिचत्-निरकासयत्; रिचूंपी -विरेचने, विरेचनं - निःसारणं, पातकपटलस्य रामत्वं गौणम् । रामा स्त्री जामदग्न्यश्च, रामनाम्नौ सितासितौ । रामः पशुविशेषेऽपि, रामो दशरथात्मजः ॥ [] कल्याणकायं 'कल्याणं हेम्नि मङ्गले' इति वचनात्, तथा ओजस्तेजः, श्रीः शोभा, कल्याणं-मङ्गलं, कमला-लक्ष्मीः, ततः पदचतुष्टयस्येतरेतरे, ताः कुरुते, स तम् । तथा कल्यमाचारमणतीति, अण् शब्दे, अमलं-व्यक्तम् । तथा कल्याणदं - कलिलक्षणो य आणशब्दः, तं द्यति-स्फेटयतीति, तं, कलहनाशकं; यद्वा कल्या - दक्षाः, तेषामा-सामस्त्येन णं-ज्ञानं दत्ते; यद्वा तेषामेव आं - लक्ष्मी, णं च दत्ते स, तम् । यद्वा कल्यानां - दक्षानामा-सामस्त्येन नं - बन्धनं कार्मणं मोहात्मकं वा द्यति तम् ॥१॥ रामं यशस्ते प्रसरीसरीति, मां वावदूकं च चरीकरीति । शंश्लाघतेऽस्मै स वरीवरीति, गुणैर्जगद् यश्च परीपरीति ॥३॥ रीतिरतास्तव के महिमानं, न पनायन्ते ज्ञायसमानं, विदलितसुरभरमानम् । हरिहरिहरिहरिराजसमानं,स्वैरं जगति सदालसमानं,कृतप्रतिघादिवमानम् ॥४॥ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ मानसे निवस मे जिनहंस !, भव्यकोकनदबोधनहंस !। . जन्तुजातपरिपालनहंस !, वामकाममदभञ्जनहंस ! ॥५॥ हंसवनीपरिवर्धनकमलं, सुमतिर्यो मतिजिनपदकमलं, लभतेऽसौ शिवकमलम् । सेवकजनसम्पादितकमलं, वित्रासितदुर्गतिततिकमलं, सज्जनचातककमलम् ॥६॥ स्वान्ते स्म नाकं तव देवदाराः, कुर्वन्ति सौभाग्यगुणैर्मदाराः । प्रागल्भ्यदक्षाः कृतदेवदारा, ये या जयामासुरिमानुदाराः ॥७॥ गत्या मन्थरया सारङ्ग, कट(टि )तटगुरुभारेण सारङ्ग, तनुमध्येन सारङ्गम् । उसिरुहो युगलेन सारङ्ग, विमलाननकलया सारङ्ग, अपि च नसा सारङ्गम् ॥८॥ सारङ्गमायतविचाचलिदृग्विलासैः, सारङ्गमेव कुटिलेन भ्रुवोर्युगेन ।' सारङ्गमङ्गविलुलत्कबरीभरेण, सारङ्गधामपरिकर्मरुचा सलीलाः ॥९॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ पुरतस्ते प्रगुणितसारङ्ग, तेऽक्षिक्षेपेरितसारङ्गं, परुषायितसारङ्गम् । ननृतुर्गायन्तः सारङ्गं, प्राप्याऽवसरेतरसारङ्गं, कामुकशलभसारङ्गम् ॥१०॥ भवांस्तथा नाऽपि विकारमार !, जातो हताशस्त्वयि धीरमार ! । भवाम्बुधेर्मामव वैरमार !, देवेन्द्रवन्द्याऽऽन्तरवैरमार ! ॥११॥ औषीद् यः किल भवकान्तारं, यस्तं मनुते स तु कान्तारं, भिन्ते शिवकान्तारम् । मां मेन्द्रीं यच्छतु कान्तारं, वरिवस्येशितुरतिकान्तारं, तनुते भविकान्तारम् ॥१२॥ आबाल्याद् विमलं वपुस्तव विभो ! श्वासोऽजयत्पुष्करं, धीरं वारिधरायसे प्रविकिरंस्त्वं देशनापुष्करम् । अत्रालीढमथो रथाङ्गमनघं विद्योतयत्पुष्करं, भाति त्वत्पुरतो मनो हरति ते छत्रत्रयं पुष्करम् ॥१३॥ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . अनुसन्धान-७१ | शिवरमणीहृदयस्थलहारं, कुनयवनीदहने नीहारं, जिनमीडे वीहारम् । दुर्गतिजगतीदारणहारं, निस्तारितदूरितमोहारं, यशसा निर्जितहारम् ॥१४॥ येषां करुणेशरणे, संसारत्रस्तनिपुणजनशरणे । द्वेषस्त्वयि विगतरणे, निहि ह? )तास्ते कुमतनिशितरणे ! ॥१५॥ मूलादुन्मूलयता वालं, प्रोन्मूलितमिह मनसिजवालं, भवता दधता वालम् । तत्तेरे दुस्तरभववालं, यत्राऽऽस्ते भ्रान्तीजवालं, नौमि भवन्तमवालम्॥१६॥ नाऽलं गुरू रौद्ररसागरस्य, वक्तुं गुणांस्ते गुणसागरस्य । विभूषितब्रह्मरसागरस्य, वयं कथं नु(न्व? )द्भुतसागरस्य ॥१७॥ सुरसरितः श्रोतःसिकतारा, धाराः सारा सुमतिमतारात्, मीयेरन् दिवि ताराः । गुणमाला तेनाऽप्यतिताराः, मातुं शक्या किल विततारा, चन्द्रकलेव गतारा ॥१८॥ धन्याऽचिरा सर्ववशासु नाम, यां वासवाली रसतो ननाम । यस्याः सुतस्त्वं जगतीजनाम-हरोऽसि शान्ते ! जिन ! सत्यनाम ॥१९॥ धन्यास्ते सततं तव वदनं, येऽलं पश्यन्त्येनश्छदनं, सौम्यं शोभासदनम् । स्याद्वाद्वोदाराममगदनं, चिन्तातीतफलावलिददनं, जयकमलासंवदनम् ॥२०॥ दुःखद्रोर्लवनं प्रभावभवनं भव्यैः कृतासेवनं, श्रेयःश्रीसवनं कषायतवनं सम्पल्लतानीवनम् । श्रीशान्तेः स्तवनं भवारियवनं सौभाग्यसञ्जीवनं वाच्यापित्तवनं महःसुमवनं स्वान्तस्य सत्तेवनम् ॥२१॥ जयवन्तमीशमेवं, यः सुमतिौति शान्तिमतिमहितम् । गुणसौभाग्यवरोऽसौ, त्वरितं सुखसन्ततिं लभते ॥२२॥ ॥ इति शान्तिस्तवः ॥ * * * Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ ज्ञानचन्द्रकृतं श्रीपार्श्वजिनस्तवनम् (अवचूर्णिसहितम्) - सं. मुनि कल्याणकीर्तिविजय श्रीपार्श्वनाथ भगवान, संस्कृतभाषामय आ स्तवन कुल पांच पद्योनुं बनेखें छे. पांचे य पद्यो गेय छे अने यमकबद्ध छे. काव्यशैली सरस छे. स्तवनना कर्ता श्रीज्ञानचन्द्र नामक विद्वान् मुनि छे एवं तेनी अवचूर्णिमां करेल निर्देशथी जणाय छे, अने अवचूणि पण प्रायः ज्ञानचन्द्रजीए ज रचेली होय तेवी सम्भावना छे. अवचूणि अत्यन्त सरळ भाषामां लखायेली छे. कर्ता श्रीज्ञानचन्द्र विशे कोई माहिती प्राप्त साधनोमां मळती नथी. विद्वज्जनो प्रकाश पाडे तेवी अभ्यर्थना. __ प्रति परिचयः आ प्रति जोधपुर (राजस्थान) स्थित राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठाननी २११५०,२ क्रमाङ्कित प्रति छे. प्रति त्रिपाठ छे. पत्र १ ज छे. अक्षरो अत्यन्त सुन्दर अने सुवाच्य छे तथा लेखन शुद्ध छे. लेखन संवत् निर्देशायेल नथी छतां लेखनशैली पडिमात्रायुक्त छे ते जोतां १६मा सैकाना उत्तरार्धमां लखायेल होय तेवू अनुमान करी शकाय. प्रतिलेखकनो कोई निर्देश नथी. त्रिभुवनपूरुषतारक ! तारकतुल्यसमाज्ञ ! । सुरसेवितपदपङ्कज ! पङ्कजये सुप्राज्ञ ! ॥ शोभनधर्मप्ररूपक ! रूपकलाकलगेह ! । पार्वाऽघं मे श्याऽमल ! श्यामलताग्रिमदेह ! ॥१॥ अवचूर्णि:- त्रयाणां भुवनानां समाहारस्त्रिभुवनं, तस्मिन् त्रिभुवने ये पूरुषा:- भव्यजनास्त्रिभुवनपूरुषास्तान् तारयतीति त्रिभुवनपूरुषतारकस्तस्य सम्बोधनं- हे त्रिभुवनपूरुषतारक !; हे तारकतुल्यसमाज्ञ !- तारं- रूप्यं, तारमेव- तारकं, तत्तुल्या-तारकतुल्या-धवला निर्मला समाज्ञा- कीर्तिर्यस्य स तारकतुल्यसमाजस्तस्य सम्बोधनं- हे तारकतुल्यसमाज्ञ !; सुरैर्देवैः सेविते पदपङ्कजे- पादपद्म यस्य स सुरसेवितपदपङ्कजस्तस्य सम्बोधनं- हे Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७१ सुरसेवितपदपङ्कज!; पङ्कः- पातकमष्टप्रकारं कर्म, तस्य यो जयो-दूरीकरणं, तस्मिन् पङ्कजये, हे सुप्राज्ञ !- सुपण्डित !; शोभनो( नः)- क्षान्त्यादि गुणोपेतत्वात् मनोहरो योऽसौ धर्म:- शोभनधर्मस्तं प्ररूपयतीति शोभनधर्मप्ररूपकस्तस्य सम्बोधनं- हे शोभनधर्मप्ररूपक !, रूपं च कला च रूपकले, तयोर्योऽसौ कलो- मनोहरो(रं) गेहः(हं)- गृहः(हं) रूपकलाकलगेहः (हं), तस्य सम्बोधनं- हे रूपकलाकलगेह !; हे अमल !- हे निर्मल !, पार्श्व इति पार्श्वजिन !, मे- मम, अघं- पातकं, श्य- दूरीकुरु, हे श्यामलताग्रिमदेह ! श्यामलतायाः- प्रियङ्गलताया यानि अग्रिमानि-नवप्ररूढप्रवालाङ्कररूपाणि तानीव देहः- शरीरं यस्य स श्यामलताग्रिमदेहस्तस्य सम्बोधनं- हे श्यामलताग्रिमदेह ! ॥१॥ गतिविजितस्तम्बरम ! बेरमहाद्भुतरूप ! । जितगाम्भीर्यसमुद्र ! समुद्रनताखिलभूप ! ॥ दर्शितधर्मसमूह ! समूहरहितधृतचित्त ! । दुर्गतिपक्तेरक्षय ! रक्षय मां वृषवित्त ! ॥२॥ अवचूणि:- गतिवि० गत्या- गमनेन, विजितो- निर्जितः, स्तम्बेरमोहस्ती, येन स गतिविजितस्तम्बेरमस्तस्य सम्बोधनं- हे गतिविजितस्तम्बरम !, बेरस्य-शरीरस्य, महाद्भुतमतिप्रधानं, रूपमाकारो यस्य स बेरमहाद्भुतरूपस्तस्य सम्बोधनं- हे बेरमहाद्भुतरूप !; जितो गाम्भीर्येण- गम्भीरभावेन, समुद्रः- सागरो येन स जितगाम्भीर्यसमुद्रस्तस्य सम्बोधनं- हे जितगाम्भीर्यसमुद्र !; मुद्रया- मुक्ताशुक्तिमुद्रया सह वर्तमाना:- समुद्राः, समुद्राः नता:नम्रीभूताः, अखिला:- समस्ताः, भूपाः- पार्थिवा यस्य स समुद्रनताखिलभूपस्तस्य सम्बोधनं- हे समुद्रनताखिलभूप !, धर्माणाम् अथवा धर्मणां समूहः- क्षान्त्यादिदशविधत्वं, तद्धर्मसमूहः, दर्शित:-प्रकाशितो धर्मसमूहो येन स दर्शितधर्मसमूहस्तस्य सम्बोधनं- हे दर्शितधर्मसमूह !; सं- सम्यक्-प्रकारेण, ऊहो- विचारणं- समूहः, समूहेन रहितं, धृतं- धारितं, चित्तमन्तःकरणं येन स समूहरहितधृतचित्तस्तस्य सम्बोधनं- हे समूहरहितधृतचित्त !, न विद्यते क्षयो Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर २०१६ यस्य स अक्षयस्तस्य सम्बोधनं हे अक्षय ! मां दुर्गतिपङ्क्तेः- नरकादिदुर्गतिश्रेणे:, रक्षय- रक्षां कुरु; हे वृषवित्त- वृषः- पुण्यं धर्मानुष्ठानं, तदेव वित्तं - धनं यस्य स वृषवित्तस्तस्य सम्बोधनं हे वृषवित्त ! ||२|| वरकल्याणकृतामर !, तामरसाद्भुतपाद ! | प्रास्तसमस्तघनाघ !, घनाघनसमनिर्ह्राद ! ॥ नामविनिर्मितशिवसुख !, वसुखसमाश्रितधर्म ! | सकलकलासुमनोहर !, नो हर गर्हितकर्म ॥३॥ ७ अवचूर्णि:- वरकल्याणेति - प्रधानकल्याणानि - च्यवन - जन्म - दीक्षा - ज्ञान - निर्वाण-लक्षणानि कल्याणकानि तानि वरकल्याणानि कृतानि अमरैर्देवैर्यस्य स वरकल्याणकृतामरस्तस्य सम्बोधनं हे वरकल्याणकृतामर !; तामरसंमहोत्पलं कमलं, तद्वदद्भुतौ पादौ यस्य स तामरसाद्भुतपादस्तस्य सम्बोधनं- हे तामरसाद्भुतपाद ! प्रास्तं- दूरीकृतं, समस्तं सकलं, घनं निबिडं, अघंपातकं येन स प्रास्तसमस्तघनाघस्तस्य सम्बोधनं- हे प्रास्तसमस्तघनाघ !, घनाघनो - मेघस्तत्समो निर्ह्रादो - गम्भीरध्वनिस्वरो यस्य स घनाघनसमनिहूदस्तस्य सम्बोधनं- हे घनाघनसमनिर्ह्राद !; नाम इति कोमलामन्त्रणे, अथवा नाम्ना - नाममात्रेणैव विनिर्मितं- निष्पादितं, शिवसुखं- मोक्षसुखं येन स नामविनिर्मितशिवसुखस्तस्य सम्बोधनं हे नामविनिर्मितशिवसुख !; वसुःसंयमस्तेन खसमः- आकाशसमः, निरालम्बनत्वाद् आश्रितोऽङ्गीकृतो धर्म:स्वभावो येन स वसुखसमाश्रितधर्मस्तस्य सम्बोधनं - हे वसुखसमाश्रितधर्म !; अथवा वसुर्वीतरागस्तस्य यत् खं ज्ञानं तदर्थं समाश्रितोऽङ्गीकृतो धर्मो येन स वसुखसमाश्रितधर्मस्तस्य सम्बोधनं- हे वसुखसमाश्रितधर्म !; यत उक्तं च वीतरागो वसुर्ज्ञेयो, जिनो वा संयतोऽथवा । सरागो ह्यनुवसुः प्रोक्तः, स्थविर: श्रावकोऽपि च ॥१॥ [ ] सकलाः कलाः- सक़लकलाः, सुष्ठु - शोभनानि मनांसि - सुमनांसि, भव्यजनानां सकलकलाभिः सुमनांसि हरतीति सकलकलासुमनोहरस्तस्य सम्बोधनं- हे सकलकलासुमनोहर !; नोऽस्माकं गर्हितं कर्म - गर्हितकर्म, तं (तद्) गर्हितकर्म प्रति हर - दूरीकुरु ॥३॥ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ भवदावानलजीवन !, जीवनयस्थितिकार ! | त्याजितविग्रह ! विग्रहसाध्वसकाष्ठकुठार ! ॥ कुमतमतङ्गजचित्रक !, चित्रकराक्षरसौख्य ! | मम कर्माणि विदार!, विदारय विष्टपमुख्य ! ॥४॥ अवचूर्णि:- हे भवदावानलर्जीवन ! - भवः - संसार:, स एव दावानलः - भवदावानलस्तत्र भवदावानले जीवन: ( नं? ) - सलिलतुल्य:- भवदावानलजीवनः(नं?), तस्य सम्बोधनं हे भवदावानलजीवन !; हे जीवनयस्थितिकार !- जीवानां जन्तूनां नयस्थितिं रक्षणोपायं करोतीतिजीवनयस्थितिकारस्तस्य सम्बोधनं हे जीवनयस्थितिकार !; हे त्याजित विग्रह ! त्याजितस्त्यक्तो, विग्रहो- देहं येन स त्याजितविग्रहस्तस्य सम्बोधनं- हे त्याजितविग्रह !; हे विग्रहसाध्वसकाष्ठकुठार !- विग्रहःकलहः, साध्वसं भयं विग्रहाश्च साध्वसानि च - विग्रहसाध्वसानि, विग्रहसाध्वसान्येव काष्ठानि- विग्रहसाध्वसकाष्ठानि, विग्रहसाध्वसकाष्ठेषु कुठारः - विग्रहसाध्वसकाष्ठकुठारस्तस्य सम्बोधनं हे विग्रहसाध्वसकाष्ठकुठार !; हे कुमतमतङ्गजचित्रक ! - कुमता एव मतङ्गजा - हस्तिन:- कुमतमतङ्गजास्तेषु कुमतमतङ्गजेषु चित्रक इव, चित्रको - व्याघ्रः, कुमतमतङ्गजचित्रकस्तस्य सम्बोधनं- हे कुमतमतङ्गजचित्रक !; हे चित्रकराक्षरसौख्य !चित्रकरमाश्चर्यकरमक्षरसौख्यं - मोक्षसुखं विद्यते यस्य स चित्रकराक्षरसौख्यस्तस्य सम्बोधनं- हे चित्रकराक्षरसौख्य !; हे विदार !- विगता दारा यस्मात् स विदारस्तस्य सम्बोधनं हे विदार !; मम कर्माणि विदारयछित्त्वा दूरीकुरु; हे विष्टपमुख्य !- विष्टपे - विश्वे - त्रिभुवने, मुख्य:प्रकृष्टः-प्रधानो-विष्टपमुख्यस्तस्य सम्बोधनं- हे विष्टपमुख्य ! ||४|| -- अनुसन्धान- ७१ विलसत्सत्प्रणिधान !, निधानसमाक्षरदान ! | नतसुरनरसमुदाय !, मुदाय ! सदागतमान ! ॥ श्रीजिनपार्श्वनिशाकर !, साकरवचनविचार ! | ज्ञानं धर्मनिधे ! हि, निधेहि मयि स्फुटसार ॥५ ॥ इति श्रीपार्श्वजिनस्तवनम् ॥ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ अवचूर्णि:- हे विलसत्सत्प्रणिधान !- विलसद्- विलासयुक्तं, सत्शोभनं यत् प्रणिधानं- चित्तस्वास्थि(स्थ्य?)रूपं- विलसत्सत्प्रणिधानं, तद् विलसत्सत्प्रणिधानं विद्यते यस्य स विलसत्सत्प्रणिधानस्तस्य सम्बोधनं- हे विलसत्सत्प्रणिधान !; हे निधानसमाक्षरदान !- निधीयते- स्थाप्यते चेतसि भूमौ वा तन्निधानं, न क्षरतीत्यक्षरं- मोक्षं ज्ञानं वा, तस्य यद्दानं- प्रयच्छनं तदक्षरदानं, निधानसमं- मनोवाञ्छितार्थप्रापकत्वानिधानतुल्यमक्षरदानं विद्यते यस्य स निधानसमाक्षरदानस्तस्य सम्बोधनं- हे निधानसमाक्षरदान !; हे नतसुरनरसमुदाय !- नता-नमस्कारार्थं नम्रीभृताः, सुरनरसमुदाया- देवमनुजसमूहा यस्य स नतसुरनरसमुदायस्तस्य सम्बोधनं- हे नतसुरनरसमुदाय ! हे मुदाय !- मुतो( दो)- हर्षस्याऽऽयो- लाभो मुदायः, स मुदायो विद्यते यस्य स मुदायस्तस्य सम्बोधनं- हे मुदाय !; अथवा मुतो(दो)- हर्षस्याऽऽयोलाभो भवति यस्मात् सेवकानामिति मुदायस्तस्य सम्बोधनं- हे मुदाय !; हे सदागतमान !- सदा- सर्वदा, गतो मानोऽहङ्कारो यस्मात् स सदागतमानस्तस्य सम्बोधनं हे सदागतमान !; हे श्रीजिनपार्शनिशाकर !- श्रीमन्तो ये जिना:- श्रीजिना:-सामान्यकेवलिनस्तेषां श्रीजिनानां मध्ये योऽसौ पार्श्वनिशाकरः- पार्श्वजिनरूपचन्द्रः स श्रीजिनपार्शनिशाकरस्तस्य सम्बोधनं- हे श्रीजिनपार्श्वनिशाकर !; हे साकरवचनविचार !- सा- लक्ष्मीः, तां करोतीति साकरः, साकरो वचनविचारो- वचनरचनानुक्रमो यस्य स साकरवचनविचारस्तस्य सम्बोधनं- हे साकरवचनविचार !; हे धर्मनिधे !- धर्मस्यश्रुत-चारित्ररूपस्य, निधिरिव निधिनिधानरूपो यः स धर्मनिधिस्तस्य सम्बोधनंहे धर्मनिधे !; हि- निश्चितं, मयि- स्तुतिकर्तुज्ञानचन्द्रे, ज्ञानं निधेहि- स्थापय; हे स्फुटसार-स्फुट(टः), सारं( रो)- बलं यस्य स स्फुटसारस्तस्य सम्बोधनं- हे स्फुटसार ! ||५|| ॥ इति श्रीपार्श्वजिनस्तवनावचूणिः समाप्ता ॥ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७१ वादीन्द्र श्रीदेवसूरिचरितम् - सं. गणि सुयशचन्द्रविजय __मुनि सुजसचन्द्रविजय 'पहिरत को मुनि वस्त्र तमु, जइ इह सुगुरु न होत' (बृहद् गुर्वावलीमुनि माल) वादिदेवसूरिजी : जिनशासनना एक प्रभावक महापुरुष । एक समर्थ वादी-अनेक वादो जीतनारा, जेमना दिव्य अनुग्रहना प्रतापे ज आजे आपणे 'श्वेताम्बर' तरीके ओळखाइए छीए । एक प्रखर दार्शनिक - जेमणे 'प्रमाणनयतत्त्वालोक' ग्रन्थ तमज तेनी उपर ८४००० श्लोक प्रमाण 'स्याद्वादरत्नाकर' नामनी विद्वद्भोग्य टीका रची । ए महापुरुषना नाम अने कामथी विद्वद्जगतना प्राय: सौ कोड परिचित छ । प्रभावकचरित्र, प्रबन्धचिन्तामणी, पट्टावलीओ वगेरे ग्रन्थोना माध्यमे एमनुं जीवनचरित्र पण प्रसिद्ध छे । बन्धुत्रिपुटीमांना मुनि न्यायविजयजी म. ए तो पोतानी रसाल शैलीमां ए पुण्यपुरुषनुं चरित्र आलेखेल छे ।। अहीं पण ए महापुरुषना स्वतन्त्र संस्कृत जीवनचरित्र महाकाव्यने प्रकाशित करवामां आव्युं छे । प्रायः १३ मी सदीना पूर्वार्धमां रचायेल आ कृति अपूर्ण रूपमां विद्वद्वर्य श्रीअगरचंदजी नाहटाने प्राप्त थई हती । तेमणे प्रायः 'जैन सत्य प्रकाश' मां प्रस्तुत कृतिनो संक्षिप्त परिचय आपी सम्पूर्ण कृति प्राप्त करवानो प्रयत्न को हतो । ते प्राप्त न थतां मूल अपूर्ण कृति पण प्रकाशित थई न हती । आ वखते संयोगवश अमे बीकानेर बाजु विहार कर्यो अने प्रस्तुत कृति श्रीसंघ समक्ष मूकवानो अमने लाभ मळ्यो । __अहीं अमे पूर्व प्रसिद्ध ए महापुरुषना सम्पूर्ण जीवनचरित्रनुं पुनरावर्तन न करी, तेमना जीवननी विशेष नोंधो (तवारीखो) जुदी तारवी, प्रस्तुत काव्यनी मात्र ध्यानार्ह बाबतो नोंधी छे - १. जन्म (मड्डाहत/मधूहड) वि.सं. ११४३ २. दीक्षा (भरुच) वि.सं. ११५२ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ ११ ३. आचार्यपद (पाटण) वि.सं. ११७४ ४. प्रतिष्ठा (धोळका-उदावसहीनी) वि.सं. ११७५ ५. गुरु म. (श्रीमुनिचन्द्रसूरिजीनो काळधर्म) (पाटण) वि.सं. ११७८ ६. प्रतिष्ठा (पाटण-नाहड श्रावकना जिनचैत्यनी) वि.सं. ११७९ ७. वाद (वादी कुमुदचन्द्र दिग. ने जीत्या) (पाटण) वि.सं. ११८१ ८. प्रतिष्ठा (पाटण-राजविहारनी) वि.सं. ११८३ ९. संघयात्रा (जाल्हा शेठे जीराउला तीर्थनो सन्ध काढ्यो) वि.सं. ११८८ १०. प्रतिष्ठा (आरासण कुम्भारियामां नेमिनाथजिनालयनी) वि.सं. ११९३ ११. प्रतिष्ठा (आ.जिनचन्द्रने फलोधी मोकली फलवृद्धिपार्श्वनाथनी) वि.सं. १२०४ १२. समर्पण (राजा कुमारपाळे जालोर-स्वर्णगिरि पर-- कुमारविहार, पूज्यश्रीने समर्पित कर्यु) वि.सं. १२२१ १३. काळधर्म (नागोर) वि.सं. १२२६ प्रस्तुत कृति वस्तुत: एक महाकाव्य जणाय छे । कारण - (१) प्राप्त ४ प्रस्तावमां तो तेमना गुरु म. श्रीमुनिचन्द्रसूरिजी म. नी अन्तिम सेवा सुधीनी घटनानुं वर्णन ज छे । ते पछी तेमना द्वारा थयेल शासनप्रभावनानां कार्यो, विशेषत: वादी कुमुदचन्द्र दिगम्बर साथेना वाद जेवी महत्वपूर्ण घटना वर्णवतो काव्यखण्ड प्राप्त नथी । काव्यरचनाशैली जोता शेषकाव्यखण्ड ४/ ५ के वधु प्रस्ताव प्रमाण हशे एवं कल्पी शकाय छे । (२) महाकाव्योमां सर्गनी समाप्ति पर्यन्त कराता एक-छन्दोनिर्वाहना नियमने अहीं कवि अनुसर्या छे, तेम सर्गान्ते अन्य छन्दोनो प्रयोग पण कर्यो छ । प्राप्त खण्डमां अनुष्टुब्, इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उपजाति, भुजङ्गप्रयात, वसन्ततिलका मालिनी, शार्दूलविक्रीडित छन्दो वपराया छ । (३) महाकाव्योनी शैलीथी सज्जनस्तुति-दुर्जननिन्दा-ऋतुवर्णन-नगरवर्णननायकवर्णन-श्लेषकाव्यो(चित्रकाव्यो)-अवान्तरकथाथी काव्यने कविए वधु समृद्ध कर्यु छ । आ महाकाव्यना प्रथम सर्गमां केटलीक ऐतिहासिक विगतो आ प्रमाणे जोवा मळे छे - Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ अनुसन्धान-७१ आचार्योनां नामो : मुनिचन्द्रसूरि (६), देवसूरि (७), हेमप्रभसूरि (८), जयशेखरसूरि (९), वज्रसेनसूरि (१०). आमां हेमप्रभसूरि ए वादी देवसूरिनी शिष्य-परम्परानां आचार्य होवानी पूरी सम्भावना छे. जो के इतिहास-ग्रन्थोमां तेमनुं नाम नोंधायेखें जडतुं नथी, परन्तु एवां तो घणां नामो नथी. आ हेमप्रभसूरि पासे काव्यकारे अध्ययन कर्यु होय तेम श्लोक परथी समजाय छे. __ जयशेखरसूरि सं. १३०१मां हता अने तेमणे तपा. जगच्चन्द्रसूरिनी निश्राए क्रियोद्धार करेलो, ते पछी तेमनी 'नागोरी तपागच्छ' शाखा प्रसिद्ध थई, इत्यादि विगतो 'जैन परम्परानो इतिहास' भाग २, पृ. ४१, पृ. ४६४ (नवी आवृत्ति) मां प्राप्त छे. त्यां आ काव्य विशे नोंध छे के "तेमणे वादीन्द्रदेवसूरिमहाकाव्य रच्यु (जैन सत्यप्रकाश, क्र. ५६)" ते हवे खोटी ठरे छे. केम के आ काव्यना कर्ता तो जयशेखरसूरिने गुरुस्थाने गणीने स्तुति करे छे. तेथी काव्यकर्ता अलग व्यक्ति ज छे ते स्पष्ट छे. वज्रसेनसूरि. नागोरी वड तपागच्छ-पट्टावलीमां आ. जयशेखरसूरि पछी, ४६मा क्रमे तेओ आवे छे. आ काव्यमां कर्ताए तेमने छेल्ला याद कर्या छे, तेथी तेमना समयमां थयेला अथवा तेमना ज शिष्य होय तेवा कोई साधु-कविए आ काव्य रच्युं छे एम सिद्ध थाय छे. तेथी काव्यकर्तानो समय १४मा शतकनो पूर्वभाग होय ए वधु सम्भवित छे. १४मा पद्य प्रमाणे कर्ताए वज्रसेनसूरि आदि पासे वादी देवसूरिनी वातो सांभळी छे, अने तेना सहारे आ काव्य रच्युं छे. __ जन्मस्थान :- पद्य ४६मां 'अष्टादशशत' नामना देशनो उल्लेख छे. ११८ गामोना समूहरूप ए प्रदेश, इतिहासज्ञोए नोंध्या मुजब, आबु पर्वतनी नजीकना, गुजरातना एक प्रान्तस्वरूप हतो. (गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति, पं. बेचरदास दोशी, पृ. २२१) ते प्रदेशमा 'मधूहड' (५४) नामे नगर छे (त्यां आचार्यनो जन्म थयो छे). आ 'मधूहड' ने बीजे स्थाने 'माहड' एवा नामे वर्णवेल छे. 'माहड'नं 'मड्डाहत-मड्डाहर-मड्डार-मडार-मंडार' एम थयुं. तो केटलाकने मते 'मदुआ' गाम छे. 'मधूहड'थी 'मधूड-मधूअ-मदूअ-मदुआ' थई तो शके. वळी 'मदुआ' ने 'मडार' बन्ने स्थानो आजे पण विद्यमान छे. तो कयुं स्थान जन्मस्थान समजवू ? मोटा भागना संशोधको ‘मड्डाहड' तरीके 'मडार' (हाल- मंडार)ने ज स्वीकारे छे, 'मदुआ'ने नहि. आपणने पण ए ज वधु उचित तथ्य लागे छे. Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ १३ जन्मसमय :- उ. धर्मसागरजीकृत पट्टावलीमां वादी देवसरिनो जन्म '११३४'मां थयानो निर्देश छे. तेने बाद करतां तमाम स्थानोमां ११४३नुं वर्ष ज नोंधायेलुं जोवा मळे छे.. द्वितीय प्रस्तावमां दुष्कालनुं वर्णन घणुं वास्तवदर्शी थयुं छे - दुष्काल केवो कारमो हशे के धनिकोए पोतानी दानशालाओ (सदाव्रतो) बंध करी दीधी. पृथ्वी (लोकोनी) 'रलरोल-रडारोळ' थी दयामणी बनी. बजारोमां वेचातां दहीं जेवा पदार्थोनां भाण्ड-वासणने रांकलाओ तोडीफोडी नाखीने ढोळायेला ते पदार्थोने चोक-चोरा पर चाटता हता. (८) अन्ननी कारमी अछत सर्जावाने कारणे, प्रायः सौ लोको स्वभावत: दयाळु होवा छता मांस-भक्षण करी निर्वाह करवा लागेला. श्रावकोने त्यां साधुओ आहारार्थे जाय तो तेओ 'आहार दोषित छे - तमने नहि खपे' एम झूठे बोलीने तेमने टाळता हता. (९) गामडां उज्जड बन्यां. क्यांय रसोईनो अग्नि न रह्यो. बधे मृत जनोनां हाडकां ने मांस पथरायां. रस्ता निर्जन बन्या. अने नगरो गरीब ग्रामजनोथी उभराई गया. (१०) आपणे जेने मरुधर-मारवाड कहीए, ते देशनी आवी दशा थतां श्रेष्ठी वीरनाग हिजरत करी लाटदेशे भरूचनगरे गया. (११-१२) दुष्कालतुं ट्रंकु वर्णन पण केटलुं हृदयद्रावक कर्यु छे कविए ! पद्य ६७ मां थयेली वात जरा विलक्षण छे. पूर्णचन्द्र (काव्यनायक, वादिदेवसूरिनुं नाम) व्यापार करे छे, तेमां ते द्राक्ष खरीदीने तेना विनिमयमां चणा आपे छे. आमां द्राक्ष-चणाना विनिमयरूप व्यापार - ए बाबत जरा विलक्षण जणाय छे. आना अर्थघटन करवाना यत्न थया छे, परंतु ते अवास्तविक लागे छे. शब्दार्थ ज योग्य लागे छे (६७). अहीं प्रयुक्त 'धीवर' शब्द माछीमार अर्थमां नहि, पण बुद्धिमान एवा अर्थमां लेवानो छे. बीजी वात : तेओ व्यापारार्थे कोईना घरे गया, त्यां ते घरधणीने एक ठाममां कचरो भरी बहार नाखतो तेमणे जोयो. पूर्णचन्द्रे सहजभावे पूछ्यु के तमे आ धन (सोनुं) केम फेंकी रह्या छो ? पेलाने ख्याल आवी गयो, ने तेणे कर्वा के तुं आ फेंकायेलुं धन तारा हाथे लईने आ ठाममां भरी आप. तेम करतां ज ते कचरो मटीने धनरूपे फेरवाई गयं. श्रेष्ठीए एक मूठी सोनुं तेने भेट आप्युं, जे तेणे घेर जई पिताने सोंप्यु. (७०-७२) Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ अनुसन्धान- ७१ आ प्रस्तावमां पूर्णचन्द्रने सोंपी देवा माटे गुरुनी प्रेरणा तथा माता-पितानी वातो, भावना इत्यादिनुं वर्णन घणुं रोचक अने वास्तविक थयुं छे. त्रीजा प्रस्तावमां, श्रीमुनिचन्द्रसूरि भरूचमां ज महावीर - चैत्यमां बिराजता हता त्यां, अक्षत - भरेला हाथे पूर्णचन्द्र जाय छे, वीर विभुने प्रदक्षिणा दे छे, पछी बाह्य वेषनो त्याग करे छे, ने गुरु तेने शुभ वेळाए दीक्षा दे छे, अने मुनि रामचन्द्र एवं नाम आपे छे, ते वर्णन पद्य २८-३०मां छे. ते समयमा आम मुनिओनो ऊतारो चैत्यमां ज थतो हतो. तेथी कांई ते चैत्यवासी न थई जता. दीक्षा ११५२मां थई (पद्य ६८). श्लो. ३९ मां 'गुरुबन्धवः' पदनो प्रयोग करी वाचक विमलचन्द्रअशोकचन्द्र-हरिचन्द्र-सोमचन्द्र - पार्श्वचन्द्रने एमना गुरुभाईओ तरीके जणाव्या छे । ज्यारे प्रभा. चरित्रमां तेओ 'सखायः- मित्र' तरीके जणाव्या छे । जैन परं. इति. भा. २ मां आ कथननो अर्थ जणाव्यो छे के 'वा. विमलचन्द्र ते उपा. विमलचन्द्र गणि, हरिचन्द्र ते वडगच्छना हरिभद्रसूरि ( चन्द्रप्रभचरित्र - प्राकृत सं. १२२३ ना कर्ता), अशोकचन्द्र ते सुविहितशाखाना आ. अशोकचन्द्रसूरि, सोमचन्द्र ते कलि. सर्व.हेमचन्द्रसूरि, पार्श्वचन्द्र ते राजगच्छना आ. चन्द्रसूरि ए सौ समकालीन विद्वान मुनिवरो हता । अने तेओ परस्पर अत्यन्त प्रेमभाव राखता हता । - - प्रभा. चरित्रमां गुरुबान्धवोना नाममां शान्ति ( पिष्पलकगच्छना स्थापक आ. शान्तिसूरि ) - ए वधु एक नाम छे । वादिदेवसूरिजीए धोळकामां शिवसौख्य (सुख) नामना ब्राह्मणने, सत्यपुर(सांचोर)मां काश्मीरकीर नामना पण्डितने, चित्रकूटमां सोल्लकराजानी सभामां वसुभूति नामना मीमांसकने, नागपुर (नागोर) मां अर्णोराजनी सभामां दिगम्बर गुणचन्द्रने तेमज अन्य वादीओने वादमां जीत्यानी नोंध प्रस्तुत काव्यमां छे । ( श्लो. ४८/४९/५०/५१/५३/६८) ज्यारे प्रभा. चरित्रकारे धोळकामां धंध नामना शैव वादीने, सांचोरमां काश्मीरना सागर नामना वादीने नागोरमां गुणचन्द्र दिगम्बरने, चित्रकूटमां भागवतमतना शिवभूति नामना वादीने, गोपगिरिमां गंगाधर, धारामां धरणीधर, पोकरणमां पद्माकर, भृगुक्षेत्र ( भरूच) मां कृष्ण नामना ब्राह्मणने वादमां जीत्यानुं ध्छे । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ नड्डूल (नाडोल) नगरमां आसलराजाना राज्यमां मुनिचन्द्रसूरिजीए आम्नायपूर्वक भगवतीजी सूत्रनुं गणि रामचन्द्रने वांचन कराव्युं (श्लो. ६८) । अहीं 'आम्नाय' शब्दनो 'योगोद्वहनपूर्वक' अवो अर्थ करीए तो योग्य लागे छे। श्रीसंघनी प्रार्थनाने मान आपी सं. ११७४ मां महा. सुद १०, गुरुवारे, पाटण नगरना श्रीआदिनाथ-जिनालये श्रीवीराचार्यजीनी हयातीमां आसूमन्त्रीए करेल महोत्सवपूर्वक गणि रामचन्द्रने आचार्यपद आपवामां आव्यु । (श्लो. १ थी ७) अहीं कविए मुहूर्त विशे वधु प्रकाश करता - 'सुलग्ने रामचन्द्राय, धरातत्त्वे वहत्यलम्' पद वापर्यु छ । उत्तम लग्नवेळाए अने पृथ्वीतत्त्व वही रह्यं हतुं त्यारे पदार्पण कर्यु एम समजाय छे. मुनिचन्द्रसूरिजी म. ए रामचन्द्र गणि (देवसूरिजी)नी पदवी प्रसंगे तेमना माता-पिता-बहेन-भाणी तेमज भाईने दीक्षा आपी । तथा तेमनी बहेन चन्दनबालिका जे पहेलां साध्वी थई हती तेने महत्तरापदं आप्युं हतुं । (श्लो. १४) यद्यपि आ अपूर्ण चरित्रमा क्यांय तेमनी बहेन-भाई वगेरेनां नामो नथी । छतां आ उपरोक्त हकीकत जणावाइ छे । ज्यारे प्रभा.चरित्रमा आवी नोंध पण नथी । तेमां सा. चन्दनबालाने देवसूरिजीनी बहेन न कहेतां वीरनागनी बहेन कही छे । जैनपरं. इति. पृ. ४६० पर 'विमलचन्द्र उपा.'ने वादिदेवसूरिजीना भाई जणाव्या छ । ___ अर्बुदाचलपर्वतनुं वर्णन करतां कविए. अचलेश्वर(महादेव)-वशिष्ठाश्रमप्रमुख तीर्थोनां नाम जणाव्यां छे (२१) । तेमज अधिष्ठायिका 'श्रीमाता'ने पण याद कर्यां छे (२७) । ___ते रीते 'चण्डकौशिक-प्रतिबोधनी घटनाभूमि कनकखल(सुवर्णखल) तापसाश्रम अहीं हतो' एवं जणावी आ अर्बुद प्रदेशने. प्रभुवीरनी विहारभूमि (विचरणभूमि) मानवामां आवती होवा अंगे एक प्रमाण वधार्यु छे । (श्लो. २८) अर्बुदाचल पर्वत पर आवेला विमलविहारना मलनायक श्रीआदिनाथभगवाननां दर्शन करी अत्यानन्दित थयेला तेओ वसन्ततिलकानां ८ पदोमां प्रभुनी स्तुति करे छ । तेमां कवि पोतानी प्रतिभाथी प्रभुने ब्रह्मा-विष्णु-महेश तरीके वर्णवे छे, ते पद्यो अद्भुत छे । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ अनुसन्धान-७१ आम प्रस्तुत अपूर्ण काव्य अने प्रभा.चरित्रना आधारे केटलीक विशेष विगतो जुदी पाडी छे । आ सिवायनी ए महापुरुषना जीवननी अनेक छूटक विगतो विमलप्रबन्ध-पर्यकथासंग्रह-मुद्रितकुमुदचन्द्रनाटक-उपदेशसप्ततिका-प्रबन्धचिन्तामणी वगेरे ग्रन्थोमां जोवा मळे छ । विशेष जिज्ञासुओए ते-ते ग्रंथो जोवा जोईए । __ प्रस्तुत काव्यना त्रीजा प्रस्तावमां आवतुं वीरभद्रनुं कथानक त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितना छट्ठा पर्वना बीजा सर्गमां वर्णित ए ज कथानक साथे घणी शाब्दिक समानता धरावे छे. तेथी तेना आधारे अत्रे घणुं सम्मार्जन करवामां आव्युं छे । ___कर्ता :- प्रस्तुत काव्य अपूर्ण होई तेना कर्ता, रचनासमय, गुरुपरम्परा विशे वधु विगतो प्राप्त नथी । परन्तु आ काव्यना दरेक प्रस्तावना अन्ते आवतुं 'पूर्णभद्र' पद - कर्ता तरीके 'पूर्णभद्र' नामना के उपनामना कोइ कविने कर्ता तरीके मानवा प्रेरे छे । दरेक प्रस्तावनी लेखनप्रशस्तिमां पण 'पूर्णभद्राङ्के' पद आवे छे. जे पण ए ज निर्देश करतुं जणाय छे । आ. वज्रसेनना परिवारमा पूर्णभद्र नामे कोई साधु-कवि होय अने तेमणे आ काव्य रच्यु होय तेवू अनुमान, आ उपरथी करी शकीए । आभार :- प्रस्तुत कृति सम्पादनार्थे आपवा बदल बीकानेर-श्री अगरचंदजी नाहटा पुस्तकालयना व्यवस्थापक श्रीसूरजमलजी तेमज ऋषभभाईनो खूब-खूब आभार । _ विशेष - पू. विद्वद्वर्यश्री जिनविजयजीनी तैयार करेल 'श्रीवादिदेवसूरिचरित्र' नी प्रेसमेटर एल. डी. इन्स्टीट्युट ओफ इन्डोलोजी-अमदावादमां होवानुं जाणवा मळ्युं छे । पण जोवा मळी न होवाथी विशेष कशुं लखी शकायुं नथी । ___Clo. निकेश संघवी 'संयम', कायस्थ महोल्लो, गोपीपुरा, सूरत-१ So ॥ वादीन्द्रश्रीदेवसूरिचरित्रम् ॥ अहँ नमः ॥ नमः श्रीदेवसूरिगुरवे ॥ प्रथमः प्रस्तावः कल्याणमन्दिरमपास्तसमस्तदोषं, विश्वाचितं सजलमेघगभीरघोषम् । सज्ज्ञानदर्शनविशुद्धगुणैरमेयं, नाभेयदेवमहमिद्धमहं महेयम् ॥१॥ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ १७ य: केवल्यपि वल्लते(?) त्रिजगती यं सेवते लम्भितो, मोक्षं येन वधूजनोऽपि हरयो यस्मै नमस्कुर्वते । यस्मात् स्यात् शमृषिव्रजस्य विशदं यस्याऽऽज्ञया चाऽम्बरं (?), यस्मिन् सन्ति गुणा: समे जिनपतिर्वीरः स मेऽस्तु श्रिये ॥२॥ भव्योत्तमाङ्गेषु यदीयपाद-नखाशवः स्वर्गनदीजलाभाः । पुण्याभिषेकं विदधुर्मुदे मे, भूयासुरन्येऽपि जिनेश्वरास्ते ॥३॥ भव्याम्बुजवनस्याऽभूद्, यत्करस्पर्शमात्रतः । तत्कालं केवलोल्लासो, गौतमार्कः स वः श्रिये ॥४॥ यत्सन्ततिर्दुःप्रसभा( हा )भिधानं, यावद् भवित्रीह युगप्रधानम् । त्रैलोक्यवन्द्योऽस्तु स पञ्चमो नः, श्रिये सुधर्माख्यगणाधिनाथः ॥५॥ भव्यप्राणिगणाम्बुजाकरसमुल्लासैकवैहासिकादोषोच्छेदविधायिनः परमतध्वान्तव्रजध्वंसिनः ।। सच्चक्रातिहरा बृहद्गणनभोऽलङ्कारकल्पाश्च ये, श्रीमन्तो मुनिचन्द्रसूरिरवयस्ते सन्तु नः श्रेयसे ॥६॥ श्रीसिद्धराजपरिषद्यबलाजनस्य, मुक्तिं तथा सकलकेवलिनां च भुक्तिम् । योऽस्थापयत् कुमुदचन्द्रदिगम्बरेन्द्रं, जित्वा मुदे स भवतान्मम देवसूरिः ॥७॥ श्रीहेमप्रभसूरीणां, कोऽप्यपूर्वो वचोऽम्बुदः । विभिद्य मुद्गशैलं मा-मपि यः सरसं व्यधात् ॥८॥ सच्चारित्रपवित्रगावविदिता मौनीन्द्रमार्गस्पृशः, साक्षादार्यमहागिरेः सुचरितं यैरेवमाविष्कृतम् । येषामद्भुतपुण्यपण्यमहिमा लोकैः सदा श्रूयते, श्रीमन्तो जयशेखराख्यगुरवस्ते सन्तु मे सौख्यदाः ॥९॥ येषां प्रसादमपसादमवाप्य सम्यग्, लेभे मयाऽपि दृशदेव जने प्रतिष्ठा । श्रीवज्रसेनयतिनायकसूत्रधारा-स्ते मे मनोऽभिलषितं लघु पूरयन्तु ॥१०॥ यस्याः प्रसादाद् गुरुशास्त्रसिन्धोः, पारं परं याति जडोऽपि सद्यः ।। सा चिन्त(न्ति)तां कामगवीव सिद्धि, श्रीशारदा यच्छतु मे सदैव ॥११॥ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७१ एभिः स्तभै(वै)विघ्नविनायका मे. निरस्यमानाः प्रलयं प्रयान्तु । प्रपीडयन्तो रजसां कलापा, जनं प्रवृद्धैर्मुदिरैरिवाऽऽशु ॥१२॥ क्व देवसूरेश्चरितं पवित्रं ?, क्व मादृशोऽनक्षरकुक्षिमुख्यः ? । सोऽहं तितीपुर्जलधि भुजाभ्यां, यास्यामि हास्यास्पदतामवश्यम् ॥१३|| श्रीवज्रसेनादिमुनीन्द्रवृन्दै-रुक्तं पुराऽपि प्रथितं यदेतत् । तत् केवलं भक्तिभरेरितोऽहं, वक्ष्ये किलाऽधीः स्व-परोपकृत्यै ॥१४।। एतच्चरितं सुकविप्रणीतं, महान् हा(ह)सो मे भविता विवक्षोः । धौरेयकोत्पाटितमप्रमाणं, भारं विवक्षोरिव तर्णकस्य ॥१५॥ दानाम्बुसिक्तावनिपीठहस्ति-राजव्रजोत्पाटितभूरिवृक्षे । वने भवेदेव गजाभकौघः, स्वच्छन्दचारी सुलभः सदाऽपि ॥१६।। पूर्वान् कवीनेव करावलम्बं, सम्प्राप्य शास्त्राम्बुधियानपात्रम् । महीयसोऽस्याऽस्मि चरित्रसिन्धोः, समुद्यतोऽहं तरणार्थमत्र ॥१७॥ त एव लोके कवयस्त एव, विचक्षणा राजसभावतंसाः । येषां कवीनां ननु भारतीयं, प्रपद्यते धर्मकथाङ्गभावम् ॥१८॥ पुण्यानुबन्धिन्यखिलाऽपि या स्यात्, सैव प्रशस्या कविता कवीनाम् । शेषा च पापाश्रवहेतुरेव, सम्यक्प्रयुक्ताऽपि भवेदवश्यम् ॥१९॥ मिथ्यादृशः केचन नव्यकाव्यं, ग्रनन्ति कर्णामृतकल्पमुच्चैः । विवेकिनां स्यात् तदधर्मकर्मा-नुबन्धकत्वान् [न] मुदे कदाऽपि ॥२०॥ आदाय केचित् कविमानिनोऽन्य-वच:सुधासागरविप्रुषोऽल्पा: । छायामिहाऽन्यां किल कल्पयन्ति, वणिग्ब्रुवौघा इव चीवरेषु ॥२१॥ केचित् प्रवीणा रचयन्ति वाणी, वर्णोज्ज्वलां चारुतरार्थशून्याम् । सा जातुषीहारलतेव याति, छायां न सन्मानसहर्षकीम् ॥२शी केचित् पुनः प्राप्य विशिष्टमर्थ-मप्यत्र तद्योग्यपदानुयोगैः । न प्रीणनाय प्रभवो बुधानां, लब्धा यथाऽलब्धधनाः पुमांसः ॥२३॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ अहो! अनभ्यस्तसमस्तविद्याः, शश्वत् कलाशास्त्रबहिष्कृताश्च । वाञ्छन्ति काव्यानि विधातुमुच्चैः, केचिज्जनाः पश्यत साहसत्वम् ॥२४॥ अभ्यस्य शास्त्राण्यखिलानि तस्मा-दुपास्य सम्यग्(क्) कविराजमार्गम् । धर्म्य यशस्यं च सदा प्रशस्यं, कुर्वन्तु काव्यं सुधियो नवीना(न)म् ।।२५।। कवीश्वरो नैव बिभेतु जातु, परप्रदत्तासमदूषणौघात् ।। विदारयन् शार्वरमन्धकारं, नोदेति भास्वान् किमुलुकभीते: ? ॥२६।। तुष्यन्तु चाऽन्ये भुवनेऽत्र मा वा, स्वार्थं कविः केवलमीहतां तु । श्रेयः पराराधनतो न जातु, तत् स्यात् परं सत्पथदर्शनाद् यत् ॥२७॥ सौशब्द्यमिच्छन्ति हि केचन ज्ञाः, केचित् पुनः केवलमर्थजातम् । केचित् समासाधिकतां नितान्तं, पदावली व्यस्ततरां परे च ॥२८॥ भिन्नाभिसन्धित्वत इत्यभिज्ञा-स्तावत् समाराधयितुं न शक्याः । पृथग्जनोऽप्येष सदाऽनभिज्ञः, सूक्तेष्वतो दुर्ग्रह एव लोके ॥२९॥ शङ्के फणि-स्तेन-खला-ऽन्तकाद्यान्, परापकाराय ससर्ज वेधाः । निरीक्ष्यमाणाः सुखिनं जनौघं, तुदन्ति बाढं कथमन्यथाऽमी ? ॥३०॥ खलः कवीन्द्रैरुपचर्यमाणो-ऽप्यनेकधा नोज्झति वक्रिमाणम् । परोपतापप्रवणः प्रकामं, वह्निर्दहत्येव निषेव्यमाणः ॥३१॥ खलेन साधुः सुतरां विनिन्द्य-मानोऽपि कुर्यात् स्वगुणैर्हितार्थम् । दोदूय्यमानोऽपि विधुः सुधाभिः, प्रीणाति राहुं न किमुज्ज्वलाभिः ॥३२॥ मन्येऽहमेकेन दलेन धात्रा, कृताः सुधा-ऽऽदित्य-धने-न्दु-सन्तः । निरर्थकं चाऽपरथोपकारं, कुर्वन्त्यमी किं सततं जनानाम् ? ॥३३॥ कथां सदोषामपि शुद्धचेता, निरस्तदोषां सुजन: करोति । प्रोद्यच्छरत्काल इवाऽम्बुजाढ्यां, प्रणष्टपङ्कां सरसी सपङ्काम् ॥३४|| सन्तोषयन्तं सुजनं गुणौघै-र्लोकं खलः कुप्यति वीक्ष्य वीक्ष्य । विभूषयन्तं रुचिभिस्त्रियामां, विधुन्तुदः किं ग्रसते न चन्द्रम् ? ॥३५॥ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० पवित्रमाकर्ण्य सतां चरित्रं, खलस्य दोदूयत एव चेतः । सन्मन्त्रविद्यामिव संनिशम्य, महाग्रहोदग्रविकारभाजः ||३६|| मिथ्यात्वपङ्कावृतमानसानां रुचिप्रदं सच्चरितौषधं न । स्फुरन्महापित्तजुषामिवाऽस - दिवाऽऽविभातीह सदप्यजस्रम् ॥३७॥ अगण्यपुण्याय वदेत् पवित्रं सतां चरित्रं श्रुणुयाच्च धीमान् । चेष्टाः सतां यत् किल पुण्यहेतो- रेवाऽखिला नो जनरञ्जनार्थम् ||३८|| सम्यक्त्वतः स्यात् शिवशर्मलाभ - स्तच्चाऽऽमलं सद्गुणकीर्तनेन । श्रीदेवसूरेश्चरितं मयाऽतः, प्रतन्यते किञ्चिदधीमताऽपि ॥३९॥ इत्युक्तमस्माभिरपि प्रवीण - वाक्यानुसारेण कथामुखं वः । वक्ष्याम एतर्हि कथावतार-सम्बन्धगन्धं श्रुणुतैकचित्ताः ||४०|| अनुसन्धान- ७१ तथाहि द्वीपोऽस्ति जम्बूपपदः प्रसिद्धः सम्पूर्णपीयूषमयूखतुल्यः । समन्ततोऽन्यैः परिषेव्यमाणो, द्वीपैर्महीपैरिव चक्रवर्ती ॥४१॥ तत्राऽस्ति तद् भारतनामधेयं, क्षेत्रं पवित्रं जिनधर्मसत्रम् । मिथ्यात्वविद्वेषिपराजयाय, कोदण्डदण्डः प्रकटीकृतः किम् ? ॥४२॥ अनन्यसाध्यैर्यदखण्डखण्डै-चक्राधिपाना (नां) मुदमत्रकल्पम् । व्रतं मुनीनामिव षड्भिराव - श्यकैः प्रदत्ते श्रियमद्वितीयाम् ॥४३॥ वैताढ्य - सिन्धु - त्रिदशापगाभि: षोढा यदासीच्च विभज्यमानम् । त्रिभिर्मनो - वाग्-तनुरूपयोग - रेकैककर्मेव शुभाशुभाख्यैः ॥ ४४ ॥ गङ्गाम्बुकम्बुज्ज्वलवारिपूर्णा, यत्राऽङ्गिसन्तापभिदः सुवाप्यः । विभान्ति रम्योभयतीरशाखि - छायानिरुद्धोष्णभराः प्राश्च ॥ ४५ ॥ सुरा नरैरप्सरसोऽङ्गनाभि- भूपैः सुरेन्द्राः सदनैर्विमानाः । विजिग्यिरे यत्र समस्ति देशः, शतोत्तरोऽष्टादशनामधेयः || ४६ || भित्वाऽवनिं प्रोज्ज्वलरत्नमौलि - नेवोद्यतो वीक्षितुमूर्ध्वलोकम् । यस्येह शेषाहिरिवेन्दुशुभ्रो, विभाति शैलोऽरिगणैरलङ्घ्यः ॥४७॥ - , Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ २१ अनेकभावादिविकारनक्रा, वेश्यामनोवृत्तिरिव प्रकामम् । अप्राप्यमध्या विरराज यत्र, सुदुःप्रवेशा परिखा समन्तात् ॥४८॥ विकोशभावः सरसीरुहेषु, रामाजनेष्वेव सभीरुतोच्चैः । दन्तच्छदेष्वेव सदाऽधरत्वं, निस्तुं(स्त्रिं)शता खड्गलतासु यत्र ॥४९।। भङ्गस्तरङ्गेषु जलाशयानां, मदप्रकर्षश्च गजोत्तमेषु । सरस्सु नित्यं जलसंग्रहश्च, छत्रेषु दण्डश्च न यत्र पु(पुं)साम् ॥५०॥ यत्राऽन्तरिक्षोषितचारुशृङ्गा, भात्युच्छलद्वादशतूर्यनादा । कलिप्रवेशं ध्वजलोलहस्तै-निषेधयन्तीव विहारपङ्क्तिः ॥५१॥ चैत्येषु तूर्यध्वनि-काकतुण्ड-धूप-प्रदीपैरवगत्य वर्षाः । यस्मिनकाण्डेऽपि कलापिनः स्या(स्वा)न्, नृत्यन्ति विस्तार्य चिरं कलापान् ॥५२॥ सत्पात्रदानेषु जिनार्चनेषु, यत्राऽऽदरः स्वः-शिवसौख्यदेषु । प्रीतिर्नृणां कैरव-दन्तिदन्ता-वदातशीलेषु च धार्मिकेषु ॥५३॥ यस्मिन् विवेकी विनयी समुद्रः, परोपकारी सुभगः सुवृत्तः । जनः कुलीनो वसति प्रवीणैः(णो), मधूहडाख्यं नगरं तदस्ति ॥५४॥ तत्र प्रसिद्धोऽजनि वीरनागः, श्रेष्ठी समाराधितवीतरागः । विकस्वरं पद्ममिवेन्दिराया, देव्या निवासाय पवित्रपात्रम् ॥५५।। सहोदरं ज्येष्ठमिवाऽनुघलं, स धीधनः पूजयति स्म धर्मम् । अबाधया पालयति स्म सम्यग्, लघू इव प्रेमपरोऽर्थकामौ ॥५६।। स प्रार्थनामर्थिजनस्य नित्यं, प्रपूरयामास धनैर्मनीषी ।। स्मरातुराणां तु पराङ्गनानां, [न] जातुचिच्चङ्गनिजाङ्गसङ्गः ॥५७।। स्वमानसे श्रीमुनिचन्द्रसूरि-हंसं सदा धारयता च येन । न्यवारि मिथ्यात्वतमो वि(व्य)काशि, सम्यक्त्वपसं(ञ) च शिवाध्वदीपः ॥५८|| जडालयोऽब्धि: शशभृत् कलङ्की, भानुः प्रतापी कठिनः सुमेरुः । यद् गोत्रभेदी मघवा बभूव, तत् ते समाना अभवन् न यस्य ॥५९॥ योऽन्धः सदा वीक्षितुमन्यकान्ता, न वीतरागप्रतिमाश्च कान्ताः । अशक्तिमान् कर्तुमवद्यकर्म, न शर्मदं निर्मलधर्मकर्म ॥६०॥ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ अनुसन्धान- ७१ मूकोऽन्यदोषग्रहणे सदा यो न धर्मशास्त्रार्थविचारणेषु । परार्थसार्थापहृतौ निरस्त - हस्तौ (तो) न जैनक्रमपुजनेषु ॥ ६१ ॥ शचीव शक्रस्य रमेव विष्णो-र्मन्दाकिनीवेन्दुविभूषणस्य । पत्न्येकपत्नी जिनदेवीनाम्नी, यस्याऽतिभक्ताऽजनि सर्वकालम् ॥६२॥ सा चेतसाऽपीन्दुमरीचिलीलं, न खण्डयामास कदाऽपि शीलम् । स्वं मण्डयामास सदाऽपि तेन यन्मण्डनं बाह्यमसारमेव ||६३|| जैनक्रमाराधनबद्धकक्षा, जीवादितत्त्वार्थविचारदक्षा । सा सम्यगाराधितजैनधर्मा, प्रायः सदावर्जितपापकर्मा ॥६४॥ साऽनेकरूपेव कुलत्रयं स्व- -मेकाऽपि कामं समकालमेव । विभूषयामास विकास [ ] -सङ्काशशीलाभरणार्चिताङ्गी ॥६५॥ तया स्वदेहे विनिवेश्य सम्यग् व्यभूषताऽलङ्करणं पवित्रे । तस्या निसर्गप्रवराङ्गयष्ट्या - स्तद् भारभूतं तु समस्तमेव ॥६६॥ नार्यां क्वचिन्मानसहर्षि रूपं, शीलं जगत्संवननं परस्याम् । अगण्यपुण्याद् द्वयमप्यनन्य- लभ्यं तदानीं तदभूच्च तस्याम् ॥६७॥ रूपेण गत्या विनयेन मत्या, शीलेन चाऽन्यैरपि चेष्टितैश्च । एकैव धुर्याऽजनि योषितां सा, सरस्वतीनामिव जाह्नवीह ॥६८॥ सा सेवमाना सह वल्लभेन, पुण्यार्जितं वैषयिकं सुखं च । बभार गर्भं जिनदेविनाम्नी, तीर्थेशपद्मप्रभकेवलाहे ॥६९॥ तस्य प्रभावाद् रजनीविरामे, सुप्ता तदा सा शयनेऽभिरामे । विलोकयामास मुखारविन्दे, निजे विशन्तं परिपूर्णमिन्दुम् ॥७०॥ गत्वा तदैव द्विरदेन्द्रगत्या, सा स्वप्नमाह स्म मुदा प्रियाय । श्रेष्ठी तदाकर्ण्य सहर्षचेताः, स्वप्नार्थवेत्ता वदति स्म जायाम् ॥७१॥ कुलप्रदीपं कुलसिन्धुचन्द्रं, कुलावतंसं कुलपस ( ) हंसम् । स्वप्नानुभावात् प्रसविष्यसे त्वं पुत्रं हि पूर्णे सति गर्भकाले ॥७२॥ १. चैत्रराकायां - इति टिप्पणी । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ श्रुत्वेति पत्युर्वचनं मनोजं, व्यजिज्ञपत् सा पुलकाङ्किताङ्गी । भूयादिदं देव-गुरुप्रसादात्, त्वद्भाषितं सर्वमपीश! सत्यम् ॥७३॥ आपाण्डुगण्डश्रिमुखारविन्दं, पयोधरौ श्याममुखौ नितान्तम् । नेत्रे तदानीं प्रसृतोज्ज्वले च, सालस्यमुच्चैर्वचनादिसर्वम् ॥७४|| इत्यादिभिर्लक्ष्मभिरङ्गभाग्भि-गर्भोद्भवैः सुन्दरविग्रहाऽपि । विशेषतः सा सुमुखी तदानीं, मनोहराङ्गवयवा बभूव ॥७५|| युग्मम् ॥ गर्भानुभावाच्छुभदौ«दानि, तस्या अभूवन् किल यानि यानि । अपूरयत् श्रेष्ठ्यपि वीरनागो, बुद्ध्या धनैर्मङ्घ स तानि तानि ॥७६।। यत् तस्य गर्भस्य हितं मितं च, पुष्टिप्रदं सम्मदकारकं च । आरोग्यताहेतु च यत् तदेव, चकार पाना-ऽशनकादिकं सा ॥७७|| प्राय: प्रदत्ताखिलविश्वहर्षे, हुताशना-म्भोधि-मही-न्दुवर्षे । षष्ठ्यां तपोमासि सितेतरस्यां, हस्तर्भगे चन्द्रमसीन्दुवारे ॥७८॥ वंशे प्रशस्ये रवियोग उच्च-स्थानस्थिते खेटगणेऽस्तदोषे । कुमारयोगे रविभे च वाम-जानुस्थिते चन्द्रमसो दशायाम् ॥७९॥ सिंहीव सिंहं कमलेव कामं, प्राचीव भानुं सरसीव पद्मम् । वज्रं सुनन्देव गुहं सतीव, दयेव धर्मं सुषुवे सुतं सा ॥८०॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ प्रियंवदाख्या पुलकाङ्किताङ्गी, दासी तदैव प्रभुवीरनागम् । वर्धापयामास कुलप्रदीपं(प)-कुलावतंसात्मजजन्मना तम् ॥८१॥ वितीर्य वस्त्राभरणादि तस्यै, हर्षप्रकर्षादथ वीरनागः । विधापयामास धनीति पुत्र-जन्मोत्सवं लोचनकैरवेन्दुम् ॥८२।। विमोचयामास नरेन्द्रकारा-गारस्थितान् सर्वजनांस्तदानीम् । प्रदापयामास यथेप्सितं च, दानं सुधीर्दीन-वनीपकेभ्यः ।।८३॥ निर्मापयामास जिनेन्द्रहर्ये-ष्वष्टाहिष्टा(का)द्युत्सवमादरेण । सधर्मसाधर्मिकपूजनं च, विधापयामास नवं नवं सः ॥८४|| १. सं. ११४३ । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७१ आयासिषुस्तत्र महे महेभ्य-गेहव्रजेभ्योऽक्षतपात्रहस्ताः । कौसुम्भवस्त्राभरणाभिरामा, रामा रमाभा विहिताङ्गरागाः ॥८५।। गान्धर्वगीतैरमृतोपमेयै-नृत्तैस्तथा वारविलासिनीनाम् । मनोहरैर्मङ्गलतूर्यनादैः, सा पूस्तदाऽऽनन्दमयीव जज्ञे ॥८६।। कुलाङ्गना आद्यदिने स्वकीय-कुलस्थितिं चक्रुरवक्रचित्ताः । दिने तृतीयेऽर्क-शशीक्षणं च, षष्ठे दिने जागरणं च रात्रेः ॥८७|| दूरं गते कर्मणि सर्वथैवा-ऽशुचौ ततो भोजनमण्डपं सः । श्रेष्ठी विशालं विरचय्य सर्वं, निमन्त्रयामास निजं कुटुम्बम् ॥८८।। भुक्त्वा समं तेन चतुष्प्रकार-माहारजातं विधिनाऽथ तच्च । सत्कृत्य वस्त्रा-ऽऽभरणादिनैवं, स्फुटाक्षरं स्माऽऽह स वीरनागः ।।८९।। गर्भस्थितेऽस्मिस्तनये यदेषा, प्रिया प्रिया मे परिपूर्णचन्द्रम् । विलोकयामास विशन्तमास्ये, तदस्य नामाऽस्त्विति पूर्णचन्द्रः ॥१०॥ हस्तक्षपादे प्रथमेऽभिरामे, यज्जन्म जातं [त]नयस्य तस्य । द्विजोत्तमेनाऽपि तदस्तदोषे, नामेति चक्रेऽहनि पूर्णचन्द्रः ॥९१॥ धात्रीभिर्लाल्यमानः कुसुममिव नवं पञ्चभिः पण्डिताभी, राजेव श्वेतपक्षे सुरगिरिशिखि(ख)रे कल्पशाखीव बालः । सत्राऽऽशाभिः स पित्रोर्जननयनमनःपद्मखण्डांशुमाली, शश्वव(त्) सम्पूर्णभद्रः शिशुरिह ववृधे पूर्णचन्द्राभिधानः ।।१२।। ॥ इति श्रीसुरसरिज्जलपवित्रे वादीन्द्रश्रीदेवसूरिचरिते निरङ्केऽपि पूर्णभद्राङ्के प्रस्तावना-पूर्णचन्द्रजन्मादिवर्णनो नाम प्रथमप्रस्तावः ॥ छ। ग्रं. १२९, श्लो. अ. ११२४ ॥छ। द्वितीयः प्रस्तावः बालश्चचाल शनकैः क्रमतः क्रमाभ्यामव्यक्तमल्पमवदच्च मुदे स पित्रोः । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ देवान् गुरूंश्च जननीवचसा ननाम, गर्भाष्टमोऽजनि जनेक्षणपस(घ)सूर्यः ।१।। प्राणप्रिये! कुलकलङ्ककरो दरिद्री, मूर्खः सुतो व्यसननीरनिधिर्भवेद् यत् । तन्नन्दनं सुमुखि! सम्प्रति पाठयावः, स्नेहं सुते त्वमधुना च वृथा कृथा मा ॥२॥ इत्थं प्रबोध्य गृहिणी गुरुपुष्पयोगे, शृङ्गारिताङ्गमुपपाठकमात्मपुत्रम् । श्रेष्ठी यथोक्तविधिना पठनाय हर्षात्, स प्राहिणोद् धवलमङ्गलगानपूर्वम् ॥३॥ प्रज्ञाबलेन महता ह्यभियोगयोगात्, सत्पाठकाधिकतया च विशुद्धचेताः । भक्त्याऽतितोषितगुरोः सकलाः कला: स, जग्राह पुण्यवशतोऽल्पतरेऽपि काले ॥४॥ प्राग्वाटवंशगगनाङ्गणपूर्णचन्द्रः, शाली कलाभिरभितः खलु पूर्णचन्द्रः । वाचा सुधां किरति वेति स पूर्णचन्द्रः, सत्याभिधोऽजनि ततो भुवि पूर्णचन्द्रः ॥५।। प्राग्वाटवंशगगनाङ्गणमाप्तशोभं, कुर्वन् कलाभिरभितः परिपूर्णमूर्तिः । उल्लासयन् कुवलयं स्वगवीप्रचारैः, सत्याभिधा(धो)ऽजनि ततो भुवि पूर्णचन्द्रः ॥६॥ जातेऽन्यदा नगरनाय(श)कविड्वरेऽतिघोरे जनान्तकसमे गु[रु]रौरवे च । लोकस्य नित्यमभवत् सुयतेरिवौनौदर्यं तदाऽनदुरवापतयाऽल्पभोक्तुः ॥७॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७१ संवबिरे धनिभिरप्युरुसत्रशालाः, सर्वत्र चाऽभवदिला रलरोलपूर्णा । विक्रीयमाणदधिभाण्डगणं व(च) रङ्का, भक्त्वाऽलिहन् गृहमृगा इव चत्वरे तम् ॥८॥ प्रायः समग्रजनता पिशिताशनाऽऽसीदनस्य दुर्लभतया सदयाऽपि चित्ते । श्राद्धा अपि व्रतिजनेऽशनदोषजातं, भिक्षागते प्रकटयन्त्यसदप्यकस्मात् ॥९॥ ग्रामेषु विश्वगपि चोद्वसतां गतेषु, निर्धूमधामसु परासुर(प)लास्थिमत्सु । मार्गाः खिलाः समभवनिखिला अपीह, रङ्गैर्वृतानि नगराणि समन्ततश्च ॥१०॥ सौराज्यशालिनममर्त्यपुरोपमेयं, गौरी-कवीन्द्र-विबुधेश्वरकोटिसेव्यम् । तस्मात् पुरादथ जगाम स लाटदेशं, वापी-तडाग-वन-देवगृह-र्षिरम्यम् ॥११॥ यत्राऽश्वबोधमकरोन् मुनिसुव्रतोऽथ, साधुद्वयी शकुनिकां प्रति मन्त्रराजम् । श्रेष्ठी स तां भृगुपुरीमगमत् तदादौ, वक्ष्यामि तच्चरितमेव समासतोऽहम् ॥१२॥ देवादिभिः परिवृतो जनतोपकारी, चन्द्रादिसाधुसहितः मुनिसुव्रतेशः । एकाश्वबोधनकृते निशि योजनानां, षष्ठिं विलछ्य भृगुकच्छपुरं किलाऽगात् ॥१३॥ कोरिण्टकाभिधबहुद्रुमराजितेऽहंस्तन्नाम्नि चारुणि वने समवासरत् सः । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ २७ जात्यं तमेव जितशत्रुनृपोऽथ तार्क्ष्यमारुह्य नाथमभिवन्दितुमाजगाम ॥१४॥ मुक्त्वा हयं तमथ राजतदुर्गमध्ये, तीर्थाधिपं प्रणमति स्म नृपोऽतिभक्त्या । श्रोतुं गिरोऽमृतकिरो जिननायकस्य, स्थाने महीभृदुचिते समुपाविशच्च ॥१५॥ संसारसागरतरीं सकलाङ्गिवर्गभाषानुगामखिलसंशयनाशनी च । स्वामी सुमित्रकुलकैरवपूर्णचन्द्रः, सद्देशनामकृत विश्वजनोपकारी ॥१६॥ भीतोऽश्वमेधयम(ज?)तो जितशत्रुनाम्नो, भूपस्य जात्यतुरगः सुभगः सरङ्गः । निष्पन्ददृष्टिर श्रुणोत् प्रभुदेशनां तामूर्वीकृतश्रुतियुगः पुलकाङ्किताङ्गः ॥१७॥ वल्गान्वितः प्रवरपल्ययनाभिरामः, सौवर्णशृङ्खलविभूषितकण्ठपीठः । कुर्वंस्ततोऽधिकतरं तुरगश्च हेषां, व्याख्यानसंसदमियाय स साधुवाही ॥१८॥ चन्द्राभिधो गणधरः प्रथमस्तदैवं, पप्रच्छ तत्र समये मुनिसुव्रतेशम् । व्याख्यानपर्षदि विभोऽद्य जिनेन्द्रधर्म, क. पुण्यवानिहतरामुररीचकार ॥१९॥ पद्माङ्गजोऽप्यवददत्र न कोऽपि धर्ममङ्गीचकार भवदावनवाम्बुवाहम् । एकं तुरङ्गममृते जितशत्रुनाम्नो, भूमीधवस्य यतिनायक! पञ्चभद्रम् ॥२०॥ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮ अनुसन्धान-७१ तीर्थेश्वरं नरपतिर्जितशत्रुरप्यपृच्छत् सविस्मयमना जितशत्रुवृन्दः । कोऽयं हरिस्त्रिजगतीपतिवन्धपाद!. यः प्रत्यपद्यत वृषं प्रभुरित्यथोचे ॥२१॥ स्वर्गोपमे विबुधराजिनि पद्मिनीखण्डाख्ये पुरेऽजनि धनी जिनधर्मनामा । सुश्रावको जिनपतिक्रमपद्महंसः, सद्धर्मकर्मकरणप्रवणः सदैव ॥२२॥ मित्रं तदीयमजिन(जनि)ष्ट विशिष्टचेष्टः, श्रेष्ठी महीरमणसागरदत्तसज्ञः । श्राद्धेन भद्रकतया सह तेन सोऽगाच्चैत्येषु पौषधगृहेषु च नित्यमेव ॥२३॥ शुश्राव सोऽन्यदिवसे मुनिनायकेभ्यो, बिम्बानि कारयति यो जिनपुङ्गवानाम् । अन्यत्र जन्मनि भवोदधियानपात्रं, धर्मं जिनेन्द्रगदितं समवाप्नुयात् सः ॥२४॥ आकर्ण्य तत् सपदि सागरदत्तनामा, सौवर्णमार्हतमनन्यसमं च बिम्बम् । लग्ने समस्तगुणराशिनि कारयित्वा, द्राग्(क्) प्रत्यतिष्ठिपदथो ऋषिभिः समृद्ध्या ॥२५॥ द्रङ्गस्य तस्य बहिरम्बरलस(ग्न)शृङ्ग, तत्कारितं शिवगृहं च पुरा बभूव । तत्रोत्तरायणदिने स जगाम धर्मबुद्ध्या निजद्धिभरनिर्जितयक्षराजः ॥२६॥ प्राक्सञ्चिताः समभवत्(न्) गिरिशार्चकैर्ये, स्त्यानाज्यकुम्भनिचया बहवोऽपि तत्र । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ आरेभिरे समनुकष्टुमतित्वरैस्तैस्ते साधु पश्यति जने घृतकम्बलार्थम् ॥२७|| तेषामधो बहुतरा उपदेहिकौघा, लग्ना बभूवुरतिप(पि)ण्डितपिण्डभागाः । सर्वत्र वर्त्मनि निपेतुरुरुप्रमाणास्ताः पश्यतो बहुविधस्य तदा जनस्य ॥२८॥ ईशार्चकेन बहुशो भ्रमता जनेन, सञ्चर्यमाणवपुषो ह्युपदेहिकास्ताः । संविक्ष्य सागरवणिक् कृपयाऽऽर्द्रचित्तः, प्राक्रस्त सम्यगपनेतुमथाऽम्बरेण ॥२९॥ "रे रे! जडप्रकृतिभिः सितभिक्षुभिस्त्वं, किं शिक्षितोऽसि करुणा"मिति जल्पताऽथ । एकेन दुष्टमनसा शिवपूजकेन, पादेन बाढमखिला अपि चूर्णितास्ताः ॥३०॥ श्रेष्ठी दयालुरथ सागरदत्तनामा, वैलक्ष्यमात्मनि विधाय पुनः पुनश्च । तस्मिन् क्षणे वदनपङ्कजमालुलोके, तच्छिक्षणार्थमवनीश्वर! तद्गुरोः सः ॥३१॥ तस्मिन्नपि प्रकटपापमुपै(पे)क्षमाणे, तत् सागरश्चरमसागरवद् गभीरः । एवं तदा स हृदि चिन्तयति स्म धीमान्, "नि(नि:)शूकमस्तकमणीन् धिगमूनधर्मान् ॥३२॥ येषां न चेतसि दया जननी वृषस्य, सत्यं समस्तजनसौख्यकरं न वाचि । हस्ते परस्वविमुखत्वमिहेक्ष्यते न, शीलं न वर्मणि परिग्रहवर्जनं नो ॥३३॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. अनुसन्धान-७१ ये पातयन्ति यजमानयुतं भवान्धकूपे स्वमेकभवसौख्यकृते च पापाः । तेऽमी कथं गुरुधिया सुधिया नृशंसा(सा:), पूज्यन्त उज्झितसमस्तस(सु)धर्मकृत्याः" ॥३४॥ युग्मम् ॥ इत्थं विचिन्त्य मतिमानपि दृष्टिरागयोगात्(द्) विधाय तदकर्म तदोपरोधात् । सम्यक्त्वलाभरहितः शुभदान-शील-, वाञ्छाधिकः प्रकृतिभद्रकतां प्रपन्नः ॥३५॥ आरम्भवान् स्वधनरक्षणबद्धकक्षः, काले विपद्य सममजिततिर्यगायुः । जात्यस्तवाऽभवदयं तुरगः पुरीं तत्, तद्बोधनाय जितशत्रुनृपाऽहमागाम् ॥३६॥ प्राग्जन्मकारितजिनप्रतिमाप्रभावादस्माकमेतदुपदेशवचो निशम्य । लोकेऽष्टमङ्गल इति प्रथिताभिधोऽयमत्र क्षणादपि हयः प्रतिबोधमाप ॥३७|| एवं तदा भगवता मुनिसुव्रतेशा(ना)ऽऽख्यातेऽखिलैरपि जनैर्बहुवर्ण्यमाण:(नः) । आरोहणादिनिजदोषगणं विनिन्द्य, स्वच्छन्दचार्यथ कृतस्तुरगः स राज्ञा ॥३८॥ प्राग्जन्मसंस्मरणतो भवभीतिभीतो, वैराग्यरञ्जितमनास्तुरगप्रधानः । नत्वा ततः सुमुनिसुव्रततीर्थराजमेवं विजिज्ञपदिलातललग्नमौलिः ॥३९॥ "मिथ्यात्वमोहकनकावृतलोचनोऽहं, नाऽनंशिषं सुखद! पूर्वभवे भवन्तम् । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ आराध्य दोषशतदूषितमीश्वरादिदेवं ततो हयभवेऽभवमेवमीश! ||४०|| स्ते ( स्ने) ही पितेव [ त]नयेन चिरप्रवासी, मेघश्च मेघसुहृदेव रजोपहारी । दृष्टो मया त्वमधुना सदयः सहर्षं, तत् पाहि पाहि जिन! मा मिति सम्यगुक्त्वा ॥४१॥ स्वाम्यन्तिकेऽनशननामनि चित्रभानौ, हुत्वा निजं वपुरनन्यमनाः स वाजी । प्रापाऽष्टमत्रिदि (द) शमन्दिरमिन्दिरायाः, क्रीडागृहं शिवपुरं क्रमतश्च गन्ता ॥४२॥ [ युग्मम्] अश्वावबोध इति दुष्कृतशत्रुघाति, भूकामिनीतिलककल्पमनल्पसौख्यम् । तीर्थं ततः प्रभृति चारु समस्तलोके, प्रख्यातमेव भृगुकच्छपुरं बभूव ॥४३॥ तस्मिन् पुरे समभवत् सं(स) तपात्ययाख्यः, कालोऽन्यथा (दा) विरहिवर्गकरालकालः । स (सु) केतकीकुटजबन्धुरगन्धलुब्धमुग्धभ्रमद्भ्रमरभूषितदिग्विभागः ॥ ४४ ॥ मार्गा ययुर्जलभरेण सुदुर्गमत्वं, जित्वेव गर्जति निदाघपुरं पयोदः । हंसाश्च मानसमगुर्मलिनोदयं हि, वीक्षे च ( वीक्ष्येव ) यत्र यतयो गमनं न चक्रुः ॥४५॥ श्रीकण्ठकण्ठ-पिक-षट्पद - कज्जलाभा, १ यत्राऽम्बरे घनघटाः कुतः । उत्पत्तिकारणमशेषमहामहानामुच्चैश्चकासति पयोधिकदानदक्षाः ||४६ ॥ १. भूमौ । ३१ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ धाराधरः किल तदा मुशलप्रमाणधाराभिरन्वहमवर्षदहानि सप्त । तन्वन् भयं क्षणिकयोरु यवासकानां म्लानिं ददच्छिशिरगन्धवहानुयातः ॥४७॥ कोरिण्टकाभिधवने शकुनी तदे ( दै) का, जातप्रसूतिरभवन् (त्) क्षुधया कृशाङ्गी । जीमूतवृष्टिविरतौ प्रचचाल चूर्णि, कर्तुं पुरान्तरपयातभयाशया सा ॥४८॥ विद्वे (द्धे ) षुणा मृगयुणाऽस्तदयेन सोच्चव्यम्नः पपात भुवि कण्ठगतासुराशु । तत्राऽऽययौ व्रतियुगं तदगण्यपुण्ययोगादतर्कितममु[द्र] कृपासमुद्रम् ॥४९॥ तस्यै ददौ सुगतिसङ्गतिकारणं द्राक् प्रज्ञातपञ्चपरमेष्ठिनमस्कृतिं तत् । मृत्वा ततः सपदि सिंहलनामधेयद्वीपाधिपस्य तनयाऽजनि तत्प्रभावात् ॥५०॥ जन्मोत्सवं तनयवत् प्रविधाय पित्रा न(त)स्या द[दे]ऽवितथनाम सुदर्शनेति । धात्रीगणेन परितः परिपाल्यमाना, सोच्चैरवर्द्धत च कल्पलतेव बाला ॥५१॥ बुद्धया जितर्भुगुरुणा गुरुणा नरेन्द्रस्तामध्यजीगपदशेषकलाकलापम् । कन्दर्पसम्भवविकारसरोजसूर्यं, तारुण्यमाप च ततो युवकर्मणं सा ॥५२॥ सम्पूर्णचन्द्रवदनां सरसीरुहाक्षीमुत्तप्तकाञ्चनतनुं स्मरहस्तभल्लीम् । १. भक्षम् । अनुसन्धान- ७१ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ 33 सम्यग् विभूष्य रुचिराम्बरभूषणायैस्तां प्राहिणोदथ पितुः सविधे सवित्री ॥५३।। गत्वा ननाम पितृपादसरोजयुग्मं, लक्ष्मीगृहं विविधराजमरालसेव्यम् । कृत्वा ततः शिरसि चुम्बनमुर्वरेन्द्रः, स्वाङ्के विशालिनि निवेशयते स्म पुत्रीम् ॥५४॥ रूपं विलोक्य सुचिरं रुचिरं सुतायाः, प्रोचे स्वमन्त्रिणमथो अवनीबिडौजाः । "कोऽस्या भविष्यति वरः प्रवरः पृथिव्यां ?," चिन्तेति मां दहति किं करवाणि ? धीमन्! ॥५५॥ श्रुत्वेत्यवोचदथ सोऽञ्जलिबन्धपूर्वं, "लावण्य-रूप-गुणसम्पदमत्रकल्पा । येनेयमीश! विहितो(ता)ऽस्ति कनीदृशी ते, तस्यैव विष्टपविभोरखिलाऽपि चिन्ता" ॥५६।। चिन्ताविषं तदथ तद्वचनामृतेन, पीतेन कर्णघु(पु)टकेन जगाम राज्ञः । हृत्पूरपूर इव गोपयसा समस्तः, प्रद्योतनांशुभिरिवाऽखिलमन्धकारम् ॥५७॥ अत्रान्तरे भृगुपुरात् परमार्हतश्चैत्, सांयात्रिकोऽतनुधनः पुरि तत्र कश्चित् । नन्तुं नरेन्द्रमगमद् वणिजां च पुत्रैः, सार्द्धं तदेव सदुपायनपात्रहस्तैः ॥५८।। श्रेष्ठी ननाम नृपतिपुरतो निधाय, नानाविधानि विधिना सदुपायनाति(नि) । श्रीसिंहलाधिपतिनाऽऽदरपूर्वमुच्चैस्तस्याऽऽसनं शुभमदाप्यत चाऽऽत्मपार्श्वे ॥५९।। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७१ उच्चार्य पञ्चपरमेष्ठिन आद्यपादं, जाते क्षुतेऽथ समुपाविशदासने सः । श्रुत्वा च तं सकलपूर्वभवं निजं सा, सस्मार मारगृहिणीसमरूपसम्पत् ॥६०॥ सत्याभिधा नृपसुताऽथ सुदर्शनाख्या, सत्कृत्य कृत्यविदलं तमुपासकं सा । पप्रच्छ तत्र नृपपर्षदि शुद्धचित्ता, विश्वातिशायिभृगुकच्छपुरस्वरूपम् ॥६१॥ अश्वावबोधचरितं सकलं निशम्य, सम्यक् पुरा निगदितं श्रवणामृताभम् । सा सिंहलेशतनयेक्षितुमुत्सुकाऽभूदाखण्डलार्चितपदं मुनिसुव्रतेशम् ॥६२॥ याचे प्रभोऽद्य शुभवन्तमहं भवन्तं, किञ्चित् प्रपूरयसि चेन्मम वाञ्छितार्थम् । स्माहेति सा नृपसुताऽऽत्मपितुः पुरस्तादश्वावबोधभवनाभरणं दिदृक्षुः ॥६३।। "पाणिग्रहे कृतभवभ्रमणाग्रहे नो, वाञ्छा न राज्यसुखसम्पदि सर्वथा मे । एकां पुनः पितरहं मुनिसुव्रतांहिसेवां सदाऽप्यभिलषामि सुखेभरेवाम्" ॥६४॥ साऽब्धि विलय तरणीशतसप्तकेन, पित्राज्ञया धनभृतेन ययौ पुरं तत् । तत्राऽर्हतः समुदधारयदश्वबोधकर्तुहं निजकपूर्वभवान्वितं च ॥६५।। आजन्म ब्रह्मनिरता मुनिसुव्रताख्यतीर्थङ्करक्रमसरोरुहराजहंसी । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ सा ध्यातपञ्चपरमेष्ठिनमस्क्रियाऽगादीश(शा)ननाम सुरधाम निजायुषोऽन्ते ॥६६।। बालोऽप्यबालचरित: पुरि तत्र पूर्णचन्द्रश्चकार सुतरां नितरां वणिज्याम् । पुण्योदयादनुदिनं च स धीवरेभ्यो, द्राक्षा ललौ समतया चन(ण)कान् वितीर्य ॥६७॥ किञ्च - तत्रैकदा पुरि वणिग्जनकर्म कुर्वन्, कस्याऽपि मन्दिरमियाय स पूर्णचन्द्रः । तत्सौधनाथमवलोकयति स्म वंशपात्रेण कच्चरभरं च बहिस्त्यजन्तम् ॥६८|| पुण्याधिकेन किल तेन तत: स उक्तो, द्रव्यं प्रभूततरमुज्झसि किं मुधेदम् ? | तन्मन्दिराधिपतिनाऽवगतं स्वचित्ते, कोऽप्येष नूनमधिकः शिशुरत्र पुण्यैः ॥६९।। उक्त[:] सुधा-मधुकिराऽथ गिरा स तेन, गेहाधिपेन पृथुक! त्वमिदं धनं मे । सर्वं प्रयच्छ विहिताधिकपुण्यभार!, कृत्वैतया पिटिकयैव कुरु प्रसादम् ॥७०॥ तत्तेन वंशपिटके निहिते सदाशु, द्रव्यं बभूव निखिलं तदगण्यपुण्यात् । तस्मै ददे गृहपतिः प्रसूति तदैकां, दीनारकाञ्चनभृतां लघु तस्य मध्यात् ॥७१।। गत्वा गृहेऽथ निजकेऽर्पयति स वीरणागाय तां प्रसृतिकां सकलां धनस्य । १. 'तां च' - एवो पाठ मूळ प्रतमां छे ।। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ पृष्टश्च तेन जिनदेवियुतेन सर्वमामूलचूलमवदच्च स तत्स्वरूपम् ॥७२॥ लाभं तमद्भुततमं तनयस्य दृष्ट्वा, तौ दम्पती मनसि चिन्तयतः स्म हृष्टौ । " चिन्तामणिः किमुत कल्पतरुः समागादस्माकमोकसि किमेष निधिर्नवीनः " ॥७३॥ दोषापहोऽपि शुचिरप्यनिशं जने यो नो तापनो न सगदः पुरुषोत्तमोऽपि । दोषाकरो न न कलङ्कयुतः कलावानप्युच्चकैः कुवलयप्रतिबोधकोऽपि ॥७४॥ वक्रो न र्यो (यो) गिनिवहे कृतमङ्गलोऽपि, सौम्योऽपि यो बत बुधोऽपि न कृष्णकायः । रम्यैर्गुणैर्गुरुरपीह कविद्विषन् न, द्वेषी कलावति न यः कविरप्यजस्रम् ॥७५॥ मण्डो (न्दो) मनागपि न यश्च शनैश्चरोऽपि, यो ब्रह्मचार्यपि सदा नहि तारकारिः । कन्दर्पदर्पदलनोऽपि न कृत्तिवासा, आजन्म सत्यसुमना अपि नाऽकुलीनः ॥७६॥ तत्याज यः षडपि सद्विकृतीर्महात्मा, प्रायो ऽस्तदोषमपिबच्च सदाऽऽरनालम् । नानाविधस्व-परशास्त्रसमुद्रपार गामी पवित्रचरणा (णः) शरणं जनानाम् ॥७७৷৷ यस्तारि (र) कैरिव शशी कलभैरिवेभः, शक्रः सुरैरिव नृपैरिव चक्रवर्ती । वाचंयमैः परिवृतः परितः सदर्पकन्दर्पसर्पति(वि)नतातनयैरनेकैः ॥७८॥ अनुसन्धान- ७१ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ नानाविधेषु विषयेषु मनोहरेषु, ग्रामा-ऽऽकर-प्रवरपत्तनभूषितेषु । कुर्वन् विहारमनघं नवभिः स कल्पैस्तत्राऽन्यदा पुरि समैन्(द्) मुनिचन्द्रसूरिः ॥७९॥ षड्भिः कुलकम् ॥ तस्य प्रवेशसमयेऽकृत वीरणाण(गः), सर्वोत्तमं महमनन्यमनाः ससङ्गः । सुश्राविकागणयुता जिनडे( दे )विनाम्नी, तद्नेहिनी गुरुगुणांश्च जगौ मनोज्ञान् ॥८०॥ सोऽश्वावबोधकरण] प्रवणं जनानां, कल्याणकारणमकारणमित्रमेकम् । तस्मिन् पुरे यतिपतिः शकुनीविहारे, भक्त्या जिनेन्द्रमनमन्मुनिसुव्रताख्यम् ॥८१।। सङ्घन सार्द्धमगमद् वसतौ प्रभाते, श्रोतुं गिरो निजगुरोः किल वीरणागः । व्याख्यामथाऽकृत दया-गुरु-देवपूजादानादिधर्मकलितां मुनिचक्रवर्ती ॥८२॥ आदाय तं स्वतनयं गुरुसन्निकर्षे, श्रेष्ठ्यन्यदाऽगमदुपांशु तदीयहस्ता(स्त)म् । तेषामदर्शयदुवाच च "कीदृशोऽयं, बालो भविष्यति ?" निवेदय मे प्रसद्य ॥८३।। आपादशीर्षमतिशायिनमादरेण, दृष्ट्वा पिबन्निव गुरुर्गुणरत्नसिन्धुम् । द्वात्रिंशदुच्चपदसम्पदवाप्तिदक्षसल्लक्षणाङ्किततनुं तमथाऽऽलुलोके ॥८४|| नाभौ ध्वनौ विशदसत्त्वगुणे गभीरस्त्वक्-केश-पर्व-नख-दन्तगणेषु चाऽणुः । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 अनुसन्धान-७१ भाला-ऽऽस्य-हृत्सु विपुलो मुख-कक्ष-वक्षःकामाङ्कशा-ऽवदु(टु)-नशा(सा)सु भृशं तथोच्चैः ॥८५|| दीर्घोऽति बाहु-हनु-हन्-नसि तालुजिह्म-पादौ-ष्ठ-पाणि-नयनान्त-नखेषु रक्तः । जङ्घा-सलिङ्ग-धमनीलघुरेभिरासीच्छ(च्छ)ङ्गारितो द्विगुणषोडशलक्षणैः स ॥८६॥ रेजेऽस्य शस्यकचपाशमिषेण चित्रं, वक्त्रामृतांशुरुपरिस्थितनित्यराहुः । अर्द्धन्दुतुल्यममलं विरराज भालं, दोलाकलं श्रुतियुगं सुकृतश्रियः किम् ? ॥८७|| नासा स्वभावसरला गरुडस्य चञ्चुर्वोचु(ढुं) क्षमाविह महाव्रतभारमंसौ । चारित्रभूपतिसदो हृदयं विशालं, नाभिर्बभौ लवणिमाम्बुभृतेव कूपी ॥८८॥ दोरस्य दीर्घ-सरल: पततो भवाब्धावृद्धर्तुमिच्छुरिव भव्यजनानशेषान् । कूर्मोनतं पदयुगं नतदत्तसौख्यं, सा(ज्ञा)त्वेति तस्य जनको गुरुभिस्तदोचे ॥८९।। "श्रेष्ठिन्नमुं यदि ददासि निजं तनूजमस्मभ्यमाशु शुभलक्षणलक्षिताङ्गम् । नूनं तदा भवति सर्वमुनीन्द्रमुख्यः, शश्वत् प्रभावकतया प्रथितः पृथिव्याम्" ॥१०॥ श्रुत्वा वचो निजुगुरौ(रो)रिति वीरणागः, श्रेष्ठी जगाद गृहमेत्य जनीं प्रतीदम् । "अत्यादरेण गुरवो मम मार्गयन्ति, पुत्रं प्रिये! किमुचितं प्रतिभासते ते ?" ॥९१॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ सा प्रत्यवोचदिति तं गुरुभक्तियुक्ता, "धन्योऽसि सद्यतिजने जननीसमान! । दूरे गतोऽद्य मनसस्तव नाथ! पाप्मा, त्वां याचते गुरुरयं यदमुं तनूजम्" ॥१२॥ ऊचेऽन्यदा स्वतनयं जिनदेविनाम्नी माता"ऽद्य वत्स! सुचिरं क्व भवान् स्थितोऽभूत् ?" | पुत्रस्ततोऽवद "दहं मुनिचन्द्रसूरिं, नन्तुं गतोऽभवमनङ्गकुरङ्गसिंहम् ॥१३॥ मातर्मयाऽद्य मुनिचन्द्रगुरोः सकाशादश्रावि मोक्षसुखदोत्तमदेशना च" । श्रुत्वेति हर्षितमना जननी तदानीमाह स्स(स्म) चन्द्रवदनं प्रतिपूर्णचन्द्रम् ॥१४॥ "श्रीजैनशासनकुशेशयभास्करण, का देशनाऽद्य गुरुणा विहिता हिता ते । श्रोतुं ममाऽपि कुतकं महदस्ति तां तत्(), द्राक् कथ्यतामतितरामियमुद्यताऽस्मि" ॥९५|| संयोज्य पाणियुगलं स्वललाटपट्टेऽथाऽऽह स्म सोऽपि जननी जननीं सुखानाम् । "यद्यप्यमहँगुरुणाऽप्यखिला न शक्या, सा वक्तुमम्ब! कथयामि तथापि किञ्चित् ॥९६।। तथाहि - रत्नाकरे पतितरत्नमिवाऽङ्गभाजामादाविदं मनुजजन्म दुरापमत्र । तत्राऽपि पुण्यविकलस्य निधानवत् स्याद्, धर्मः कुकर्महदलं च दुरासदोऽयम् ॥९७॥ तत् प्राप्य पुण्यवशतो नरजन्म रम्यं, कल्पद्रुवत् सुखकृदन कथं-कथञ्चित् । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० अनुसन्धान-७१ धर्मे सदाऽपि यतितव्यमिहैव जैने, स्वर्गापवर्गसुखसम्पदभग्नपात्रे ॥९८॥ लब्ध्वाऽपि तन्मनुजजन्म विवेकहीना, आपातमात्रमु(सु)खकारणभोगलीनाः । हा! हारयन्ति गृह-मित्र-कलत्र-पुत्रद्रव्यादि मोहवशगा बहवोऽङ्गिनोऽत्र ॥९९।। किञ्च - भो भो! जना इह भवेऽर्जभ(थ) यनिमित्तं, द्रव्यं तथा कुरुत(थ) मित्र-कलत्रवर्गम् । विद्युल्लतेव जलबुबुदवत् कुशाग्रलग्नाम्बुबिन्दुरिव तच्चपलं शरीरम् ॥१००।। तथा - एते पुनर्जगति कस्य न वल्लभाः स्युश्चेतोहराः सुखकरा विषया: प्रकास(म)म् । चो(चे)न्नो पतेदसमये गुरुमृत्युघाटी, सर्वस्वसंहरणलम्पटमानसोग्रा ॥१०१।। किञ्चोज्ज्वलखि(लाग्नि)शिखानिचयातिभीष्मे, तीक्ष्णासिपत्रवनशाल्मलिकाद्रुमोग्रे । कामं पतद्विशिख-मुद्गर-वज्र-कुन्तशेल्ल-त्रिशूलगणदुस्सहदुक्खगेहे ॥१०२।। तद्रक्षकासुरविनिर्मितवैक्रियोगरूपातिभीतिजनके शिशिरातपाद्ये । श्रीकण्ठकण्ठसदृशेन तमोभरेण, श्यामीकृताखिलहरित्तरुणीमुखे च ॥१०३|| सर्वत्र चोत्स(च्छ)लदनर्गलदुष्टगन्धे, शस(श्व)द् वसा-रुधिरपूरसकर्दमेऽलम् । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ V9 उद्वेगकारिणि सदाऽखिलनारकाणां, घोरारवै: सकरुणैविरसैः प्रकामम् ॥१०४|| एतादृशे प्रपततां नरके प्रियाभिः, कामं प्रियाभिरपि सुन्दरविग्रहाभिः । मत्तद्विपेन्द्रगमनाभि-रनङ्गचङ्गक्रीडालिभी रणरणत्पदनूपुराभिः ॥१०५।। चन्द्राननाभिरिभकुम्भपयोधराभिस्त्राणां क्रियेत न मनागपि देहभाजाम् । द्रव्येण नैव कलधौत-मणि-प्रवालमुक्ताफलप्रभृतिना बहुनाऽपि किञ्चित् ॥१०६।। मित्रैः पवित्रचरितैरपि नाऽद्वितीयप्रेमालयैरपि न बन्धुजनैः कदाचित् । दृप्तद्विषद्विरदवृन्दमृगाधिपेन, स्वीयेन नो भुजबलेन जनाधिकेन ॥१०७।। घोरे यथा नरकधाम्नि तथा समस्ततिर्यग्गतावपि जरामरणादिदुःखैः । तप्तस्य जन्तुनिवहस्य सुहृत्-प्रियाऽर्थ-पुत्रादिभिः शरणमत्र न सर्वथाऽपि ॥१०८।। तथाहि भव्या यदा निरुपमाऽऽतप-शीत-तीव्रोदन्या-क्षुधाप्रभृतिसम्भवदुःखभारैः । तिर्यद्भ(ग्भ)वेऽप्यसुभृतोऽक्ष(कृ)तधर्मकृत्याः, क्लिश्यन्त्यलं किमु तदा शरणं तु तेषाम् ॥१०९॥ एवं नरा नरभवेऽपि पुलिन्द-डुम्बमातङ्ग-वागुरिक-सौनिक-धीवराणाम् । सज्जात्यमन्दमदतो जननेष्वधर्महर्येषु जातजनुषां जननिन्दितेषु ॥११०॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ अनुसन्धान-७१ दौर्भाग्य-वार्धक-शुगामय-मृत्युरौद्र-दारिद्र्यसम्भवमहार्तिकर्थितानाम् । त्राणं कुतोऽपि न शरीरभृतां समस्ति, नानाविधाधिविषघूर्णितमानसानाम् ॥१११॥ ईर्ष्या-विषाद-मद-मन्मथ-मोह-लोभमाया-क्रुदादिजनितां भजतामिहाऽऽतिम् । सौख्यं मनागपि न देवभवेऽपि भव्या[:]!, संसारिणामधमनिर्जरतामितानाम् ॥११२।। ज्ञात्वेति चेतसि जनाः! कुरुत प्रयत्नं, नित्यं समस्तसुखकारिणि जैनधर्म । सद्योऽसुघातिनि यथा पतिते प्रचन्द्र(ण्डे), मार्तण्डनन्दन-हरौ न विधत्त शोकम् ॥११३।। अपि च - प्राणातिपात-वितथादिसमस्तदोषहेतू सदाऽपि भवतोऽत्र शरीरभाजाम् । दौर्गत्यकारणमस्त(मू) स्फुटमर्थकामौ, तद्धीधनास्त्यजत तावनिशं पुमर्थौ ॥११४।। यतः - प्राणातिपात-वितथप्रतिपादनाद्यैयैरजिताऽतिविपुला कमला मनुष्यैः । स्रोतस्विनीश इव सर्वमहापगानां, ते भाजनं समभवन्निखिलासुखानाम् ॥११५।। द्वेष्यो न कश्चिदपि कोऽपि न वल्लभश्च, दर्भाग्रसंस्थितपयःकणचञ्चलायाः । अन्यान्यमर्त्यपरिषेवनचेतसोऽत्राऽस्याः पण्ययोषित इवाऽच्युतवल्लभायाः ॥११६।। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ सौख्यार्थिनामपि भवेत् कुटिलस्वभावैः, सौख्यं कुतोऽल्पमपि देहभृताममीभिः । पञ्चप्रकारविषयैर्भुजगैरिवोद्मश्चेतोविकारजनकैर्मरणावहैश्च ॥११७।। यैनिर्जिताः करणसज्ञकवैरिणोऽमी, तैर्निर्जितं जगदिदं सममप्यवश्यम् । तस्मादहनिशमपीन्द्रियनिग्रहेऽपवर्गप्रदे शमधनैर्यतितव्यमुच्चैः ॥११८।। शश्वद्वषीकवशगा भविनो भवन्ति, निःशेषलोकवशवर्तिन उर्वरायाम् । नानाविधोन्नतमनोरथपाशबद्धास्तीव्राण्यमी अनुभवन्त्यमु(सु)खानि चोच्चैः ॥११९|| सौख्यं कदाऽपि यदभीष्टसमागमे स्याच्चक्षुःसरोरुहविकाशकृदल्पकालम् । संसारिणां विषयतर्षितमानसानां, स्वप्नाप्तसङ्ग इव तज्जनयेन्न तृप्तिम् ॥१२०।। एवं विबुध्य पुरुषोत्तमवल्लभायाः, सारेतरेत्वमिह भोगसुखस्य चोच्चैः । एते विमुच्य शिवकारिणि सत्पुमर्थे, धर्माभिधे कुरुत तत्सततं प्रयत्नम् ॥१२१॥ इत्यादि तद्वदनपङ्कजजातमद्य, पीतं वचोमधु मया भ्रमरेण सृष्टम् । तन्मां विसर्जय तदन्तिक आशु लब्धास्वादो न तिष्ठति यदम्ब! कथञ्चनाऽपि" ॥१२२।। "यस्मिन् व्रते निरतिचारतया धृते स्यात्, स्वर्गापवर्गपदवी न दवीयसी सा । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ अनुसन्धान-७१ युक्तो हि ते तदुद(र)रीकरणाग्रहोऽय" - मानन्द्य तं प्रथममेवमथाऽऽख्यदम्बा ॥१२३।। तत् तु व्रतं तनय! दुर्धरमङ्गभाजां, सन्तोष-साहस-विवेकविवर्जितानाम् । ध्या(धा)र्याणि नित्यमिह पञ्च महाव्रतानि, यद् रात्रिभोजननिवृत्तियुतानि सम्यक् ॥१२४।। रम्येऽप्यलं वपुषि निर्ममता विधेया, ग्राह्यं तथाऽशनमपास्तसमस्तदोषम् । अष्टास्वलं चरणमातृषु सर्वकाल:(लं), भाव्यं सुतोद्यमवता भवतोऽवता स्वम् ॥१२५।। मासादिका रविमिता: प्रतिमा विशुद्धा, वाह्यास्तपो बहुविधं सततं च कार्यम् । धार्यं चतुर्विधमभिग्रहदृद(वृन्द)मेकचित्तेन नित्यमवनीशयनं विधेयम् ॥१२६।। कार्यं सदा गुरुकुले वसनं कचानामुत्पाटनं बहुगमागमवाचनं च । द्वाविंशतिः सुखहरास्तु परीषहाश्च, सह्या अस(म)ज्जनविधिः सततं विधेयः ॥१२७|| दौ(दो)ामपां निधिरयं तरणीय उच्चैरूमिगभीरिमयुतोऽतिगुरुप्रमाणः । भ्राम्यं सदैकमनसा निशिताऽसिकोटावस्वादुरेणुकवलः खलु चर्वणीयः ॥१२८॥ देदीप्यमान-गुरुमानहुताशनाचि:पानं विधेयमतिकष्टकरं सहेलम् । स्वर्णाचलस्तु च(तु)लया परितोलनीय, एकाकिनाऽरिबलमुग्रबलं च जेयम् ॥१२९।। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ कार्योऽष्टचक्रपथपुत्तलिकाक्षिवेधो, जित्वोपसर्गगणमुग्रपरिषहांश्च । एकाकिनाऽतिविषमा ह्यगृहीतपूर्वा, ग्राह्या जगत्रितयजैत्रपताकिकेह ॥१३०।। वत्साऽमुना तव कथञ्चन कोमलेन, कष्टं व्रतस्य वपुषा कथितस्वरूपम् । शक्यं न सोढुमधुना क्रकचप्रहारः, स्तम्भेन मङ्गलपुषेव शिशोः कदल्याः ॥१३१॥ दीक्षाग्रहं त्यज ततो मम लाहि शिक्षा, शक्ये हि वस्तुनि कृतोद्यमता विभाति । वंशावतंस! परिपालय गोत्रमेतत्, पाणिग्रहं कुरु गृही भव भुक्ष्व भोगान् ॥१३२।। तावत् कुरु त्वमधुना गृहमेधिधर्म, दीक्षामिमामपि जरन् पुनराददीथा[:]" | स्नेहप्रकाशकमिदं वचनं जनन्याः, श्रुत्वेत्यभाषत पुनः प्रतिमातरं सः ॥१३३।। "ज्ञात्वा चलान् स्वतनु-यौवन-जीवितादीस्तिष्ठे कथं भवपथेऽम्ब! निराकुलोऽहम् । कार्याणि दुष्करतराण्यपि यद् भवन्ति, सर्वाणि साहसवतां सुकराण्यवश्यम् ॥१३४|| तन्मां व्रतार्थमधुनाऽपि विसर्जयाऽम्ब!, विज्ञप्य मज्जनकमेष तवाऽस्मि दासः । बाढं बिभेमि भवचारकवासतो यत्, तस्माद् गुरोः श्रुतचतुर्गतितीव्रदुःखः" ॥१३५।। दीक्षाग्रहं स्वतनयस्य निशम्य जन्यास्तद्याचनं च मुनिचन्द्रगुरोविचिन्त्य । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७१ सङ्घ(ङ) समाह्वयदथौकसि वीरणागः, पुत्र(त्रं) क्षमाश्रमणमात्मनि(नो) दातुकामः ॥१३६।। सम्बन्धिवर्गमखिलं परिपृच्छ्य धीमानानीय वेश्मनि गुरून् गुरुगौरवेण । सङ्घ प्रपूज्य विधिना प्रतिकर्मिताङ्ग, श्रेष्ठी ददौ स्वगुरवे निजनन्दनं तम् ॥१३७।। "तीर्णः प्रभो! दुरितः(त)सिन्धुरयं च योऽग्रः, कल्पद्रुमोऽजनि फलेग्रहिरद्य तद् यत् । दत्वोद्वहं स्व(सु)गुरुकृत्यमिदं व्यधास्त्वं", साऽबोधयत् पतिमपत्यवियोगचि(खि)न्नम् ॥१३८॥ यत्र क्षणे शिरसि तस्य सुतस्य वासक्षेपं चकार सुगुरुर्मुनिचन्द्रसूरिः । बालोऽप्यबालचरितः स तदेति मेने, "तीर्णो मया भवपयोधिरवश्यमेषः" ॥१३९।। लब्धे लब्धिसुधाम्बुधौ गुणनिधौ सौभाग्यभाग्यावधौ, पात्रे तत्र समस्तसङ्घसहितास्ते पूर्णभद्रास्तदा । श्रीमन्तो मुनिचन्द्रसूरिगुरवः सञ्जज्ञिरेऽथ व्रतं, दातुं तस्य समुद्यताः शुभदिनं संशोधयाञ्चक्रिरे ॥१४०॥ ॥ इति वादीन्द्रश्रीदेवसूरिचरिते निरङ्केपि पूर्णभद्राङ्के शिशुत्वा-ऽश्वावबोध-शकुनीचरितधर्मदेशना-गुरुपुत्रप्रदानादिवर्णनो नाम द्वितीयः प्रस्तावः ॥ तृतीयः प्रस्तावः सदागमाम्भोजविकासभानवः, सुशिष्यकल्पद्रुमरत्नसानवः । रत्नत्रयानन्दितसर्वसूरयः, संमु(सन्तु) श्रिये वो मुनिचन्द्रसूरयः ।।१।। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ अथाऽन्यदा श्रीमुनिचन्द्रसूरिः, पात्राय तस्मै चरणोचिताय । दीक्षां प्रदातुं समयं समीक्ष्ये-त्यूचे प्रमोदाज्जिनदेविजानिम् ॥२॥ श्रेष्ठिन्! वयं ते तनयस्य दीक्षां, दातुं समीहेमहि निर्विलम्बम् । लग्नादितो यत्र(न) विशुद्धमन्यत्, कालेऽस्ति भूयस्यपि शोध्यमानम् ॥३॥ श्रेष्ठी समाकर्ण्य वचः प्रभूणां, कुटुम्बसांमत्यमथो विधाय । अमेलयद् वस्तु समस्तमाशु, तद् यद् विधेस्तस्य बभूव योग्यम् ॥४|| ऐयुः समं कुङ्कमपत्रिकाभिः, सार्मिका देश-विदेशतोऽपि । बालश्च स स्नानविलेपनाद्यै-गुहे गृहे सत्क्रियते स्म नित्यम् ॥५॥ श्रेष्ठ्यद्भुतं मण्डपमुत्पताकं, विस्तीर्णमुच्चै रचयाञ्चकार । तत्राऽभिषेकं विदधुः कुमार-स्याऽऽचारवत्यो निजगोत्रनार्यः ॥६।। दुकूलवास: परिधार्य पूर्व, श्रीखण्ड-चन्द्रद्रवर्चिताङ्गम् । हारा-ऽर्द्धहारादिविभूषणैस्तं, रामा अलञ्चक्रुरलं कुमारम् ॥७॥ आज्ञाऽर्हतां चाऽस्य शिशोश्चकासा-मासाऽवतंसच्छलतो हि शीर्षे । भालेऽष्टमीचन्द्रनिभे ललाम(म), प्रणामवत् पूज्यजनस्य चोच्चैः ॥८॥ तत्कर्णयोः कुण्डलयुग्ममिन्दु-सूर्यानुकारि श्रुतवद् बभासे । ताम्बूलमास्ये बिभराम्बभूव, भूषावहं सूनृतवाक्यवच्च ॥९॥ धर्मोपदेशालिरिवाऽस्य कण्ठे, न्यस्ता बभौ नूतनपुष्पमाला । क्रोडे नवश्रेणिमयं स(सु)हारं, ब्रह्मव्रतस्येव बभार गुप्ताः(प्ती:) ||१०|| भूषा बभावङ्गद-कङ्कणाद्या, सोडी(शौण्डी)रिमेवाऽस्य भुजद्वयेऽपि । कराङ्गुलीषु व्रतिधर्मभेदा, इवोमिका रेजुरलं दशात्ताः ॥११॥ इत्थं मनोहारिविभूषणौघै-बर्बाह्यान्तरैर्भूषितकाययष्टिः । सुवासिनीभिर्विहितोपचारः, प्रमोदसम्पूर्णमनाः कुमारः ॥१२॥ कान्तिविधोर्ध्वान्तरिपोश्च दीप्ति-विकाशभाव: कमलाकराच्च । गुणा गुरुप्रेमतयेव सर्वे, प्रापुस्तदास्ये सहयोगितां ते ॥१३॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. अनुसन्धान-७१ क्षयं शशाङ्कोऽनुनिशं प्रयाति, सङ्कोचमम्भोजवनं नितान्तम् । विकाशि पूर्णं च सदैव केनो-पमीयते तद्वदनं मनोज्ञम् ? ॥१४॥ कान्तौ कपालाववलोक्य तस्यो-ल्लसद्द्युती शीतकरः समन्तात् । शङ्के जण(गा)म स्वपराजयोत्थ-विषादतोऽद्याऽपि कलङ्कितान्तम् ॥१५॥ तद्भू(भ्रू)लते रम्यतरे समाने, अत्यूजितामादधतुश्च लीलाम् । सद्वैजयन्त्याविव विश्वविश्व-जये स्मरक्षोणिभृतोच्छिते ते ॥१६।। विरेजतुस्तच्चरणौ स्वकान्त्या, लक्ष्मी विजित्येह पयोरुहस्य । विसारिभिश्चारुनखप्रभाभि-विस्तारयन्ताविव हास्यमुच्चैः ॥१७॥ विलोक्यते स्म क्वचिदेष(व) तस्य, नाऽन्यत्र तद्रूपमनन्यरूपम् । चन्द्रातपश्चन्द्रमृतेऽपरत्रा-ऽप्यालोक्यते किं नयनामृतं वा ? ॥१८॥ अश्वं समारुह्य चचाल यावद्, गेहाद् ददत् स्पर्शनमर्थिनां सः । व्रतं जिघृक्षुमु(M)निचन्द्रसूरि-क्रमाम्बुजद्वन्द्वसमा(मी)पदेशम् ।।१९।। तत्रान्तरे मङ्गलतूर्यनादं, निशम्य बालाः प्रविहाय कार्यम् । स्वं स्वं तदालोकनसावधानाः, परस्परं जल्पमकी(का)पुरव[म्] ॥२०॥ उवाच काचिद् “यदि मां मदम्बा, दद्यादमुष्मै कुलजाय सख्यः! । मानुष्यकं जन्म फलेग्रहि स्यात्, तदा ममेदं नवयौवनं च" ॥२१॥ अन्या बभाषे सुमुखी सखीं "किं, गत्वाऽऽत्मनाऽमुं सुभगं वृणोमि ? | सा प्रत्युवाचेति न तेऽस्मि भाग्यं, येनाऽयमूरीकुरुते सखि! त्व(त्वा)म्" ॥२२।। आह स्म काचिद् विदुरा सरागा(गां), तस्योपरि द्रागवलोक्य काञ्चित् । "मुग्धे! कथं त्वां भजते(ती)ह सैष, मनो विरक्तं विषयेषु यस्य ॥२३।। हहा! किमिच्छं(त्थं) जिनदेविमातर!. व्रतं गृ(ग्र)हीतुं भृशमुत्सुकोऽभूः ? । भोगानलं भुक्ष्व विचारय त्वं, क्वेयं तनुस्ते क्व च साधुताऽसौ ॥२४|| धन्येयमम्बा जिनदेव्यभिख्या, याऽसूत पुरत्नमिमं गुणाढ्यम् । अरक्ष्यताऽऽत्मीयमिदं कुटुम्बं, येनाऽखिलं दुर्गतितीव्रदुःखात् ॥२५॥ श्रीमान् जयन्तः किमु ? किं कुमार: ?, किं वा जराभीरुरयं शरीरम् । इत्थं कथा श्रोत्रसुखा वधूभ्यः, शृण्वन्नगाज्जैनगृहोपकण्ठम् ॥२६।। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर २०१६ अश्वादथोत्तीर्य जिनं न(नि) नंसु - विवेश चैत्येऽक्षतपूर्णहस्तः । प्रदक्षिणीकृत्य विभुं ववन्दे, श्रीवर्द्धमानं महिमाप्रधानम् ॥२७॥ तत्रैव चैत्ये सपरिच्छदान् स, ननाम सम्यग् मुनिचन्द्रसूरीन् । आसन्नतामीयुषि तत्र लग्ने, बाह्याङ्गभूषां च मुमोच धीमान् ॥२८॥ सामायिकं सर्वनिवृत्तिरूपं तस्मै तदाऽदो (दा) त् स समर्प (प्र्प्य) ये (वे ) षम् । तस्याऽभिधा(धां) चाऽकृत रामचन्द्र, इति स्वशिष्यस्य मुनीन्द्र (न्दु) सूरिः ॥२९॥ गुणालया शाश्वतसौख्यहेतु - जिनेन्द्रधर्मावनिपालपुत्री । पूर्वं वृताऽऽसीदमुना चरित्र - लक्ष्मीर्महीभूरिव राघवेण ||३०|| स्वकर्मतातास्खलिताज्ञयाऽसौ वसन्नरण्ये भवदण्डाख्ये । स्व(स?)ल्लक्ष्मणालङ्कृतपार्श्वदेश-स्तां नाऽऽप्तवान् मोहदशास्यनीताम् ॥३१॥ जित्वा स्मरं साहसगत्यभिख्यं, सुग्रीवमित्रं सुगुरु: (रुं ) स चक्रे । प्राप्य श्रुतज्ञानसमीरपुत्र - बलाच्च शुद्धिं निजवल्लभायाः ||३२|| आरुह्य चारित्रगिरेः स शृङ्गं चक्रे भवोदन्वति सेतुबन्धम् । मिथ्यात्वलङ्कावरुणं निरुध्य, जघान संमोहदशाननं च ||३३|| चारित्रलक्ष्मीर्जगृहेऽमुनाऽद्य, श्रीरामचन्द्रेण महीसुतेव । रामस्य तुल्योऽन्यजनो न कश्चित् (द्), यथा तथाऽस्याऽप्यभिधेयमासीत् ||३४|| श्रेष्ठी श्रियां धाम निकामधन्यं मन्यस्ततो हर्षभरातिनम्रः । श्रीवीरनागः स्वतनूद्भवस्य प्रव्राजनानन्दिमहं विधाय ॥३५॥ सोऽपूपुजत् सद्गुरु-पुस्तकर्षीन्, साधर्मिकौघं बहु सच्चा । अभूषयद् विप्रवनटा (विप्र-नटा - ) ऽर्थिसार्थान्, कलेर्गलेऽदात् पुनरर्द्धचन्द्रम् ॥३६॥ ॥युग्मम् ॥ प्राग्वाटवंशार्णववृद्धिकारी, तमोपहारी जनतोपकारी । दस्त्रेषुशम्भुप्रमिते स वर्षे, जग्राह दीक्षां मुनिरामचन्द्रः ||३७|| १. सं. ११५२ । ४९ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७१ पूर्वं तदीया गुरुबन्धवोऽमी, सद्वाचकः श्रीविमलेन्दुनामा । अशोकचन्द्रो हरि-सोम-पार्श्व-चन्द्राभिधानाश्च बुधा बभूवुः ॥३८॥ चक्री यथा राजसु भेषु चन्द्रः, शैलेषु मेरुर्दूषु कल्पवृक्षः । सुरेषु वज्री पुरुषेषु विष्णु-बृहस्पतिर्मन्त्रिषु बुद्धिमत्सु ॥३९॥ चम्पाधिपस्त्यागिषु सव्यसाची, मघा भटेषूद्भटविक्रमेषु । शिष्येषु सर्वेषु तथा स तेषु, रराज कामं मुनिरामचन्द्रः ॥४०॥ युग्मम् ॥ दशाहिकाद्युत्सवपूर्वकं ते, स्थित्वा दिनान् कत्यपि तत्र भक्तम् । भार्यादिनिःशेषकुटुम्बयुक्तं, तं वीरमा( ना )गं विधिनोपगृह्य ॥४१॥ ततो विजहु(हु)र्मुनिचन्द्रसूरि-पादाः प्रवादिद्विपसिंहनादाः । उद्यविहारेण पवित्रयन्तः, क्षोणी नग-ग्राम-पुराभिरामाम् ॥४२॥ पूज्येषु तन्वन् विनयं सदैवा-ऽचिरक्रियः साधुजनस्य शिक्षाम् । अपि द्विधा शिक्षितवाननूना-मनन्यचेताः मुनिरामचन्द्रः ॥४३॥ पपाठ षड्जीवनिकायमादौ, स बुद्धिमानध्ययनं ततो द्राक् । महाव्रतारोपणपूर्वमुच्च-रुत्थापनां तस्य गुरुश्चकार ॥४४|| छन्दः-कथा-ज्योतिष-लक्षणा-ऽल-ङ्कार-प्रमाणा-ऽऽगम-नाटकादीन् । ग्रन्थानशेषानपि स क्रमेण, धीमानधीते स्म गुरोः सकाशात् ॥४५॥ उदूढयोगो विधिना वितन्द्रो, जिनागमाम्भोनिधिपारदृश्वा । गुरुप्रसादात् क्रमतः स साधु-र्बभार गीतार्थशिरोमणित्वम् ॥४६॥ ययौ कदाचिद् धवलक्काख्यं, पुरं स धीमान् विहरंश्च तत्र । ब्राह्मण्यशास्त्रेषु नदीष्णबुद्धिं, जिगाय विप्रं शिवसौख्यसञ्झम् ॥४७॥ अथैकदोर्वीवलये विहारं, कुर्वन्नगात् सत्यपुरं पुरं सः ।। तत्राऽप्यजैषीत् स्व-परागमज्ञत(ज्ञः), काश्मीरकीराभिधलब्धवर्णम् ॥४८॥ अलञ्चकार स्वविहारहार-स्रजा पुरं चारु स चित्रकूटम् । तत्राऽजयत् सोल्लकभूधवाग्रे, मीमांसकं श्रीवसुभूत्यभिख्यम् ॥४९॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ नरवरनगर धीसार-नारायणाख्य-मजयदसमबुद्धिः शुद्धमीमांसकं च । त्रिभुवनगिरिदुर्गे हेलया रक्तवस्त्रं, स्व-परसमयवेत्ता रामचन्द्रः कवीन्द्रः ॥५०॥ प्रभावनां [श्री]जिनशासनस्य, कुर्वन् स इत्थं गणिरामचन्द्रः । ततो धरित्रीरमणीललाम(मं), श्रीपत्तनाख्यं नगरं जगाम ॥५१।। अथाऽन्यदा श्रीमुनिचन्द्रसूरि-र्ययौ पुरं नागपुरं सशिष्यः । वृत्तश्च पौरेर्धनदेवमुख्यै-रौनृपः सम्मुखमाजगाम ॥५२।। सद्देशनानन्दितभव्यलोका, नत्वा जिनेन्द्रान् वसतिं ययुस्ते । भूपाग्रहात् तत्र दिनानि कत्य-प्यस्थुश्च चारित्रपवित्रिताङ्गाः ॥५३।। अथ भ्रमंस्तत्र दिगम्बरेन्द्रो, विद्याविलुप्तो गुणचन्द्रनामा । निर्ग्रन्थतायां विवदंस्तदानी-मागादहङ्कारगजाधिरूढः ॥५४|| पत्रावलम्बं पृथिवीशसंस-द्याशाम्बरस्तत्र चकार दर्पात् । अभ्यर्थ्य राजा गणिरामचन्द्र-मकारयत् तेन सहाऽथ वादम् ॥५५॥ लोके तदानीं मिलिते प्रभूते, प्रतिष्ठितेऽथो चतुरङ्गवादे । आदौ स वादी गुणचन्द्रनामा, स्वपक्षकक्षामिति जल्पति स्म ॥५६।। "मतेऽर्हतां मुक्तिवधूपभोगे, निर्ग्रन्थतां साधनमाद्यमाहुः ।। सचीवरत्वे भवतां कथं सा ?, श्वेताम्बराग्रेसर! कथ्यतां मे" ||५७|| दिगम्बरं प्रत्यवदत् स साधु-"hणोत मुख्या भवतां म[ते] सा । मुख्यैव चेत् तर्हि मता ममाऽपि, सतां यतः सम्मत एष पन्थाः ॥५८।। मिथ्यात्व-वेदत्रय-हास्यषट्क-समन्वितं क्रोधचतुष्टयं यत् । आभ्यन्तरं ग्रन्थमुशन्ति जैनाः, सग्रन्थकास्तज्जयिनः कथं तत् ? ॥५९।। ग्रन्थस्तु कोपादिचर्तुदशाख्यः, स नाऽस्ति येषां मुनिपुङ्गवानाम् । निर्ग्रन्थता तेषु सदाऽस्त्यवश्यं, बाह्येष्वनास्था वसनादिकेषु ॥६०|| यदेतदायात्युपयोगमत्रा-ऽनवद्यचारित्रहिताय धीमन्! । तद् वस्त्रपात्रादि सदाऽपि धर्मो-पष्टम्भकं ग्राह्यमृषिव्रजेन ॥६१॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ अनुसन्धान-७१ षड्जीवसङ्के यतनापरैर-प्यहर्निशं ज्ञानदशाविहीनैः । जैनैर्दया प्राणिगणस्य सम्यक्, शक्येत कर्तुं कथमन्यथेह ? ॥६२।। ज्ञानावलोकोज्झितमानसोऽत्रा-ऽभिमानशाली पुरुषोऽल्पबुद्धिः । यो वस्त्र-पात्रेऽपि परिग्रहस्य, शङ्कां विधत्ते स हि हिंसकः स्यात् ॥६३|| परिग्रहेच्छा(च्छां) य इहाऽपि धर्मो-पष्टम्भके वस्तुनि ही विधत्ते । अज्ञाततत्त्वार्थविचारसारान्, बालानहो! रञ्जयितुं स इच्छेत् ॥६४।। पृथ्वी-जलो-षर्बुध-गन्धवाह-वनस्पति-द्वीन्द्रियमुख्यजन्तून् । भवेत् समर्थो मुनिरुद्यतोऽपि, त्रातुं न धर्मोपकृति विनाऽत्र ॥६५॥ यदार्षम् - जं पि वत्थं च(व) पायं वा, कंबलं पायपुंछणं । तं पि संजमलज्जट्ठा, धारिति परिहरंति य ॥१॥ न मो(सो) परिग्गहो वृत्तो, नायपुत्तेण ताइणा । मुच्छा परिग्गहो वृत्तो, इइ वुत्तं महेसिणा" ॥२॥ निरुत्तरीकृत्य दिगम्बरं [तं], राजप्रदत्तं जयपत्रमित्थम् ।। आदाय चोच्चैः स कृतोत्सवार्या(!), ननाम पूज्यान् वसतिं समेत्य ॥६६।। ततो विजहु(हु)नगराद् गणेशा, वसुन्धरां ग्रामपुराभिरामाम् । प्रासाद-सौधा-ऽऽपणचक्ररम्यां, क्रमेण नड्डूलपुरं च जग्मुः ॥६७|| तत्राऽऽसलोर्वीपतिसेव्यपादः, श्रीपञ्चमाझं मुनिचन्द्रसूरिः । तं वाचयामास महार्थकोशं, साम्नायमुच्चैर्गणिरामचन्द्रम् ॥६८॥ सद्देशनाबोधितभव्यसत्त्वाः, क्रमाद् बृहद्गच्छसरोमरालाः । ते गुर्जरो/तिलकायमाने, ययुः पुरे श्रीमति पत्तनाख्ये ॥६९॥ आदेशतः श्रीमुनिचन्द्रसूरेः, समग्रशास्त्रार्थविचारदक्षः । सुधाकिरा तत्र गिरा चकारे-ति देशनां पण्डितरामचन्द्रम्(न्द्रः) ॥७०।। दानोपदेशं प्रथमं जिनेशो-ऽप्यदाद् यत: केवलतां प्रपन्नः । दास्ये तमेवाऽहमपि स्वशक्त्या, सङ्घाय कल्याणकरं द्विधाऽपि ॥७१॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ "दानं निदानं शुभसम्पदां [य]द्, भोगप्रदं कीर्तिकरं च लोके । मत्वेति भव्या! इह वीरभद्रं(द्र)-वदन्वहं तद् विधिना प्रदेयम् ॥७२।। श्रीवीरभद्रोऽभवदत्र भोगी, यथा तथा स्यादपरोऽपि दानात् । ज्ञात्वेति नित्यं शुभपात्रदाने, कार्या मतिर्जातमिदं तु तस्य ॥७३|| स धारणी-षण्मुखयक्षसेव्य-मानक्रमः स्वर्णसुवर्णवर्णः । त्रिंशद्धनुर्मान्(न)वपुश्च नन्द्या-वर्ताङ्कितः स्वःपतिनिर्मितार्चः ॥७४।। सुरासुरैः शश्वदमुक्तपार्श्व-देशा(शो) विवस्वानिव पारिपाश्र्वैः । भव्याम्बुजं(ज)श्रेणिविकाशकारी, सन्देहमन्देहहरस्तमोहा ॥५॥ ज्ञान-क्रियाबृद्धिभृतां च पञ्चा-शता सहसैर्वतिनां समेतम् । तीव्रव्रतानां किल पञ्चषष्ट्या-ऽन्वितः सहस्रैरनगारिणीनाम् ॥७६।। न्यस्यन्नरः स्वाहियुगं जिनेन्द्रः, सौवर्णपद्धेषु कदाचनाऽपि । श्रीपद्मिनीखण्डमखण्डपद्मा-क्रीडागृहं पत्तनमाजगाम ।।७७|| चतुर्भिः कलापकम् ।। सद्देशनां तत्र विधाय धर्मां, निवर्त(ति)ते सत्यरतीर्थराजे । चकार कुम्भो गणधारिधुर्य-स्तामग्रतः संशयनाश(शि)नी द्राक् ।।७८।। तत्रैकको वामनकः समेत्यो-पाविक्षदाकर्णयितुं सुधर्मम् ।। श्रेष्ठी तदा सागरदत्तनामा, कुम्भं नमस्कृत्य जगाद चैवम् ॥७९॥ "भवप्रकृत्या भविनः सदाऽपि, प्रायोऽखिला दुःखिन एव देव! । विशेषतः सम्प्रति दुःखितोऽहं, सुखस्य लेशोऽपि न मे यदस्ति ॥८०॥ पत्न्येकपनी जिनमत्यभिख्या, ममाऽलये सर्वकलासु दक्षा । तत्कुक्षिजाता प्रियदर्शनाख्या, सत्याभिधाना तनयाऽजनिष्ट ॥८१।। चन्द्राननेन्दीवरपत्रनेत्रा, सुवर्णवर्णांसविलग्नकर्णा । बिम्बाधरा-ऽऽदर्शसदृक्कपोला, सुपर्णचञ्चूपमनासिका च ॥८२।। वलित्रयालङ्कृतमध्यदेशा, कृशोदरी सुन्दरपाणिपादाः(दा) । अलक्षणैः षोडशभिविहीना, द्वात्रिंशता स्त्रैणगुणैस्तु युक्ता ॥८३।। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ अनुसन्धान-७१ अगण्यलावण्यकलाकलाप-सौभाग्यभाग्याद्भुतरूपपात्रम् । साऽनन्यसामान्यमनङ्गचङ्ग-क्रीडावनं यौवनमाससाद ॥८४॥ तस्या अपश्यन्ननुरूपकान्तं, प्रभोऽभवं दुःख्य[ति]दुःखितोऽहम् । उक्तस्तदाऽहं जिनमत्यभिख्य-सत्या 'प्रियाऽऽप्तोऽसि किमद्य चिन्ताम् ?' ||८५|| 'त्वनन्दनायाः प्रियदर्शनाया, अन्वेषयन्नप्यहमायताक्षि! । वरं मन:प्रीतिकरं समन्तात्, प्राप्नोमि कुत्राऽपि न तेन दूये' ॥८६॥ ततो बभाषे जिनमत्यपीति, 'स्वामिस्त्वया बुद्धिमता विचार्य । ग्राह्यो वरः श्रेष्ठतरः स कोऽपि, येनाऽऽवयोः स्यात् प्रिय! नाऽनुतापः' ॥८७।। मयाऽपि तत्सम्मुखमेवमूचे, 'प्रिये! प्रमाणं तव चाऽत्र [वाक्यम्] । सदाऽऽत्मनीनः सकलो हि कोऽपि, स्तोकाभिलाषी भुवि नाऽऽत्मनोऽस्ति' ॥८८।। उक्त्वेति गच्छन् निजपण्यशालं, पूस्तामलिप्त्या अहमागम(तं) द्राक् । अपश्यमीशर्षभदत्तसझं, महद्धिकं प्रापणिकं तदैकम् ॥८९॥ सार्मिकप्रीतिवशाच्चिरं मे, स्नेहोज्ज्वलस्तेन समं बभूव । आलाप उच्चैः क्रय-विक्रयादि-वार्ताश्रितः सर्वकलार्णवेन ॥१०॥ अथाऽन्यथा श्रेष्ठिवरः स रम्यं, कुतोऽपि हेतोर्मम हर्म्यमागात् । समालुलोके च चिरं सहर्ष, स(म)नन्दनां तां प्रियवर्शनाख्य(ख्या)म् ॥९१॥ 'श्रेष्ठिन्नियं कस्य कनी'ति तेन, पृष्ठोऽब्रवं 'भद्र! ममाऽऽत्मजेयम् । प्रसद्य सद्यः कथय प्रकामं, त्वयेक्ष्यते कारणतः कुतोऽसौ ?' ॥१२॥ सुधाकिरोवाच गिरर्षनो(भो)पि, ‘श्रेष्ठिन्! सुतो मे नवद्यौ(यौ)वनोऽस्ति । कलानिधानं सुकृतप्रधानो-ऽभिधानतः सम्प्रति वीरभद्रः ॥९३।। रूपेण सोऽतित्रिदशो-ऽतिवाच-स्पतिगिरा-ऽतिद्विजराट् कलाभिः ।। मनोज्ञगीतेन सदाऽतिहूहू-विज्ञानयोगादतिविश्वकर्माः(1) ॥९॥ कवित्वशक्त्याऽतिमघाभवश्चा-ऽतितुम्बुरुः सुन्दरवीणया तु । विनोदविद्यास्वतिनारदोऽति-सहस्ररश्मिर्निजदेहभासा ॥९५|| Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ महद्धिकामर्त्य इवेह कामः(म)-रूपः प्रशस्याद् गुटिकाप्रयोगात् । किञ्चाऽन्यदस्त्यत्र न सा कला यां, ब्रह्मेव जानाति न रा(स) क्षमायाम् ॥९६।। तस्याऽनुरूपां सुभगां तु कन्यां, कुत्राऽपि नाऽद्राक्षमहं महेभ्य! । इयं तु कन्या ददृशे मयाऽद्य, चिरात् सखे! तस्य समानरूपम्(पा)" ॥१७॥ मयाऽप्यभाणीति "सुहन्ममाऽपि, पुत्री कला-कौशलशालिनीयम् । ग्रस्तश्चिरं दुस्सहयाऽनुरूप-वरार्थमस्या हृदि चिन्तयामि(ऽस्मि?) ॥९८|| दैवानुकूल्यात् सुहृदोरकस्मात्, साङ्गत्यमेतद् दृढमावयो(योः) स्तात् । प्रीतिस्पृशोरश्चेतयो(शोश्चेतरयो)र्द्वयोश्च, वधूवरत्वाच्चिरमेतु वृद्धिम् ॥९९।। योग(ग्य)स्नुषालाभवशात् प्रहृष्टो, गत्वा पुरीं स्वामसमर्द्धिमु(यु)क्ताम् । स यज्ञयात्रासहितं स्वपुत्रं, श्रीवीरभद्रं प्रजिघाय सद्यः ॥१००|| वरं विलोक्य प्रवरं तदा तं, समासदं सम्मदमद्वितीयम् । तद्वीजिनिर्दिष्टतदीयरूप-गुणद्धिसंवादविलोकनाद्धि ॥१०१।। प्रदत्त्व(त्त)तोष(षे) दिवसेऽस्तदोषे, पुत्री पवित्रां प्रियदर्शनां मे । प्रोद्यन्मुदोपायत वीत( र )भद्रः, कुलाङ्गनामङ्गलकृत्यपूर्वम् ॥१०२॥ कत्यप्यहानीह स सौख्यभाञ्जि, स्थित्वा पुरीं स्वामगमत् सभार्यः । स्वर्गोपमेऽपि स्वसुरस्य गेहे, न मानिनो जातु चिरं वसन्ति ॥१०३।। अथाऽन्यदाऽ श्रौषमहं स वीर-भद्रो निशायाः प्रहरे चतुर्थे । विहाय सुप्तां मम नन्दानां ता-मेकाक्यगच्छत् क्वचिदप्यकस्मात् ॥१०४॥ कोऽप्यानयत् सम्प्रति वामनोऽत्र, तस्य प्रवृत्तिं मुनिचक्रि(क्र)वतिन्! । परं न वक्ति प्रकटं कुतश्च(श्चि)-द्धेतोस्त्वमाचक्षू(क्ष्व) मम स्फुटं तत्" ॥१०५॥ दुःखौकसः सागरदत्तनाम्नः, सुश्रावकस्येति निशम्य वाचः । आह स्म कुम्भो गणधारिमुख्यः, कृपासुधासिन्धुरुदारचित्तः ॥१०६।। "स चिन्त्यामास तदेति धीमां-स्तस्यां निशि त्वत्तनयाविवोढा । 'अहं कलानां निलयः कलानां, मन्त्राश्च सिद्धा बहवो ममाऽमी ॥१०७॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७१ विज्ञानवर्गे सकलेऽप्यनन्य-सामान्यमापे चतुरत्वमत्र । मया च बुद्धा गुटिकाप्रयोगा, दिव्या जगद्विस्मयकारिणश्च ॥१०८॥ निरर्थकं तच्च समस्तमेवा-ऽप्रकाशनादल्पमपीह लोके । नियन्त्रितोऽस्म्यत्र सदाऽपि मातृ-पित्रादिपूज्यान्तिकताहियोच्चैः ॥१०९।। सकूपमण्डूकवदत्र तिष्ठ-नहो! अहं कापुरुषाग्रणीकः । गत्वाऽन्यदेशेषु गुणान् स्वकीयान्, सर्वांस्तदाऽऽशु प्रकटीकरोमि ॥११०॥ ध्यात्वैवमुत्थाय स सूक्ष्मदर्शी, विचारयामास हृदीति भूय(यः) । प्रिया प्रियाऽसौ यदि कूटनिद्रा-श्रिता भवेत् तद् गतिविघ्नहेतुः ॥१११।। उत्थापयामास ततः स काम-क्रीडाकृते तामलसेक्षणां श्राक् । सा प्रत्युवाचेति 'शिरो व्यथा मे, प्राणेश! किं मां व्यथयस्यभीकः' ॥११२।। 'कस्याऽथ दोषेण शिरोव्यथा ते, प्राणेश्वरि! ब्रूहि' ततस्तदुक्ता । 'तवैव' साऽप्येवमुवाच सद्यः, स 'कीदृशेने'ति जगाद भूयः ॥११३।। उवाच साऽपि 'प्रिय! यत् तवेयं, वैदग्ध्यवाणी समयेऽप्यमुष्मिन्' । स आचचक्षे 'हरिणाक्षि! मा त्वं, कुपः करिष्ये पुनरीदृशं न' ॥११४॥ तां क्रीडयामास सुधी: स साभि-प्रायं भणित्वेत्यधिकं मृगाक्षीम् । सुष्वाप संवेशनविह्वला सा-ऽप्यजानती तां सरलेभ(त)रोक्तिम् ॥११५।। तां सत्यसुप्तेति विहाय गाढा-मुक्तान्तरीयः सुतरामलक्षः । अपासरत् चार इवाऽथ वीर-भद्रो बृहत्पुण्यसखः स्वगेहात् ॥११६।। आत्मानमुच्चैर्गुटिकाप्रयोगात्, स श्यामवर्णं विदधे तदैव । प्रयाति रूपं लघु नव्यकाव्य-वदन्यतां वर्णविपर्ययेण ॥११७।। प्रकाशयन्नेष कलाकलाप-विज्ञानविद्यातिशयं स्वकीयम् । बभ्राम विद्याधरवत् स्वरुच्या, नानाविधग्राम-पुरादिषूच्चैः ॥११८|| आपृच्छ्य सम्यक् श्वशुरौ सती सा, तातालयेऽगात् प्रियदर्शना तु । कुलाङ्गनानां रमणं विना य-नाऽन्यत्र कुत्राऽपि मतो निवासः ॥११९॥ १. कामुकः । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ ५७ द्वीपे कदाचिन्मणिधाम्नि सिन्धा-ववस्थिते सिंहलनाम्नि रम्ये । ययौ पुरं रत्नपुराभिधानं, परिभ्रमन् नैगमवीरभद्रः ॥१२०॥ स श्रेष्ठिशङ्खस्य चिशुद्धशङ्खो-ज्ज्वलान्वयस्योप्र(प)विवेश हट्टे । पृष्टश्च तेनाऽसदृशर्द्धिभाजा, 'कुतस्त्वामागा वद भद्र! सद्यः' ॥१२१।। श्रीवीरभद्रोऽप्यवदत् स 'ताम्र-लिप्त्या नगर्या निजरम्यहात् । पिता(त्रा) रूषित्वा निसृतः क्रमेण, भ्राम्यन्निहैकाक्यहमाजगाम' ॥१२२॥ श्रेष्ठ्यप्यभाषिष्ट स शङ्खनामा, 'न वत्स! हृद्यं भवता कृतं तत् । यदीदृशे ही सुकुमारदेह-भृता विदेशभ्रमणं वितेने ॥१२३।। कर्तव्यमेतत् तव वक्रमप्य-वक्रेण देवेन कृतं ह्यवक्रम् । यदक्षताङ्गस्तनयाऽऽजगामा-ऽकस्माद् भवानद्य मयो(मो)पकण्ठम्' ॥१२४।। उक्त्वेति तं स्वाश्रयमाशु नीत्वा, स्वपुत्रवच्छेष्ठिवरोऽद्य(थ) शङ्खः । नाना-ऽशना-ऽऽच्छादनकादिकृत्यं, विधाप्य सस्नेहमिदं जगाद ॥१२५।। 'अजातपुत्रस्य मम त्वमेव, पुत्रः पविकुलदीपप्रदीप: (पुत्रः पवित्रः कुलदीप्रदीपः?)। भूत्वा प्रभुस्त्वं विभवं मदीयं, भुड्क्ष्वेच्छया देहि च याचकेभ्यः ॥१२६।। प्रीतिं कुस(रु) स्फातिमती कुमार!, मल्लोचनानां विलसन् यथेच्छम् । सुप्रापमेव द्रविणं यदत्र, पुत्रो दुरापः खलु तस्य भोक्ता' ॥१२७॥ प्रकाशयन् प्रश्रयमप्रमाणं, स वीरभद्रो सिल(ऽपि) त दैवमूचे । 'विनिर्गतोऽपि स्वपितुर्निशान्तात्, पुनः पितुर्मन्दिरमागतोऽस्मि ॥१२८॥ अहर्निशं तात! तवाऽहमेष, शिष्यस्तवाऽऽज्ञावशवर्त्यहं यत् । इहौरसः पापस(सु)तः पितः! स्या-दहं पुनः केवल धर्मपुत्रः' ॥१२९।। ततः सुखेनैव स वीरभद्रः, शङ्खस्य गेहे स्थितवानजस्रम् । विस्मापयन्नागरिकाननेकै-विशिष्टविज्ञानकलाविनोदैः ॥१३०॥ रत्नाकरक्ष्माधिपतेरनङ्गा(ङ्ग)-सुन्दर्यभिख्या तनया बभूव । पुंद्वेषिणी तत्र सदात्मरूप-जितामर श्रीसुतसुन्दरीका ॥१३१॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७१ तस्याः समीपमगमत् प्रतिवासरं श्री-शङ्खात्मजी(जा) विनयवत्यभिधा विनीता । यासि स्वसः! क्व सततं त्वमितोऽन्यदेत्यु क्ता तेन सत्यमवदनिजबन्धवे सा ॥१३२॥ सा ते सखी सम्प्रति कैविनोदैः, कालं स्वसर्यापयती विशिष्टा । श्रीवीरभद्रेण विशुद्धचित्ता, वीणादिकैरित्यवदत् ततः सा ॥१३३।। तोगमिष्याम्यहमप्युपांश्चि(श्वि)-त्युक्ता सती तेन बभाण सा तु । न बालकस्याऽपि नरस्य बन्धो!, तत्र प्रवेशः सुलभ कुतस्ते ? ॥१३४।। सम्यक् करिष्याम्यहमङ्गनाया, रूपं भगिन्येवममन्दमुक्त्वा । तत्सम्मतः सन्नटवत् स सद्यः, स्त्रीवेशमुच्चैरुररीचकार ॥१३५।। तया समं तत्र जगाम वीर-भद्रः सखीयं सह का भवत्या ? । पृष्टेति राजात्मजया मदीया, स्वसेति सा शङ्खसुता बभाषे ।।१३६।। तदा च रत्नाकरराजपुत्र्या, सद्वर्णकैः काञ्चनगौरमूर्त्या । प्रारम्भि हंसी फलके वियोगा(ग)-दुःखादिताङ्गी लिखितुं स्वशक्त्या ॥१३७।। तामित्यभाषिष्ट स वीरभद्रो, विज्ञानवत्या विरहादितेयम् । प्रारम्भि हंसी लिखितुं भवत्या, दृष्ट्यादिचेष्टौ(ष्टा) परमीदृशी न ॥१३८॥ तालिख त्वं विदुषीति सोक्ता(सोक्त्वा), सुवर्णकं तत्फलकं विशालम् । अनङ्गसुन्दर्यपि राजपुत्री, समर्पयामास तदेव तस्मै ॥१३९।। स तादृशां हंसवधूं लिखित्वा, तत्कालमेवाऽर्पयति स्म तस्यै । गुणिप्रिया सर्वकलाकलाप-पारीणधीर्वीक्ष्य बभाण सैव[म्] ॥१४०|| आलेखनैपुण्यमहो! समस्ता-न्तरस्थभावातिशयप्रकाशि । तथा ह्यमुख्या(ष्या) नयनं विसारि, कदुष्णबाष्पाश्रुकणप्रवर्षि ॥१४१॥ विच्छायमेतत् सुतरां मुखाब्जं, चञ्चूः श्लषो(थो)पात्तमृणालखण्डा । ग्रीवाऽप्यपीना शिथिला प्रकामं, पक्षद्वयी चोत्पतनासमर्था ॥१४२॥ अवस्थितिश्चयमतीव शून्या, वियोगतीव्रातिमतीमवस्थाम् । आभाषते व्यक्तमभाषिताम-प्यस्याः स्वयं पश्यत म(प)श्यताऽऽल्यः।।१४३।। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ कस्मादियत्कालमियं भवत्या, सखीदृशी सर्वकलाप्रवीणा । नाऽऽनायि पार्श्वे मम मन्दिरे किं, क्षिप्त्वा धृता जीवितवद् वदाऽऽशु ॥१४४।। इत्याचचक्षे लघु वीरभद्रो-ऽप्याशङ्कया पूज्यजनस्य गुा । नाऽऽनायिषि क्ष्मापतिनन्दनेऽत्र, स्वस्राऽनया कोऽप्यपरो न हेतुः ॥१४५।। अनङ्गसुन्दर्यवदत् तवेति, त्वया सदाऽतः परमात्मनीने! । समं भगिन्याऽऽगमनीयमत्रा-ऽभिधानमस्याः सखि! किं सुस्वस्ते! ॥१४६।। झगित्यभाषिष्ट स वीरभद्रो, ममाभिधा वीरमतीति भद्रे! । अनङ्गसुन्दर्यवदत् पुनः किं, कला(:) कला वेत्स्यपरा अपि त्वम् ॥१४७|| शङ्खात्मजेति प्रतिभाषते स्मा-ऽचिरात् स्वयं ज्ञास्यसि राजपुत्रि! । भवेत् प्रतीतिः परभाषितेषु, गुणेषु नाऽऽश्चर्यकरेष्वपीह ॥१४८॥ सख्येवमस्त्वित्यभिधाय पश्चा-दनङ्गसुन्दर्यतिहर्षमि(यु)क्ता । सत्कृत्य शङ्खाङ्गभुवं कृतज्ञा, व्यसर्जयद् वीरमतीसमेताम् ॥१४९।। वेषं युवत्याः सदने विमुच्या-ऽगाद् वीरभद्रः पुनरापणे स्वे । शङ्खस्य पार्वं पितृभक्तिरद्यु(ज्जु)-नियन्त्रितेः(तः) सर्वकलासुधाब्धिः ॥१५०॥ सप्रश्रयं श्रेष्ठ्यपि भाषते स्म, क्वाऽस्था इयत्कालमिलावतंस! । त्वां पृच्छतामत्र भृशं जनानां, खिन्नोऽस्मि कामं ददा(द)दुत्तरं यत् ॥१५१।। स प्रत्युवाचेति करौ ललाट-पट्टे नियोज्याऽद्य गतोऽस्मि तात! । उद्यानमेवं वदति स्म शङ्ख-श्रेष्ठी यदीत्थं तदकारि हारि ॥१५२।। दिने द्वितीयेऽपि तथैव तत्र, कलाकलापामृतवीचिमाली । जगाम तां सर्वकलाप्रवीणां, वीणामपश्यच्च स वादयन्तीम् ॥१५३।। इत्युच्चकैस्ताम[व]दत् स वीर-भद्रो न तन्त्री खलु सुस्वरैषा । यदस्त्यनुस्य(स्यू)त उरूप्रणामो(माणो) ऽमुष्मा(ष्यां) नृकेशः क्षितिपालबालो(ले!) ॥१५४॥ कथं पुनञ्जयत इत्यमन्द-मुक्तस्तदेदं स जगाद धीमान् । विज्ञायते तद्भवरागभङ्ख-निर्वाहसंवीक्षणतो गुणज्ञे! ॥१५५।। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७१ समर्पयामास ततो विपञ्ची, सा वीरभद्राय नरेन्द्रपुत्री । उत्कीलयामास च सोऽपि तद्वित्, तत्तन्त्रिकां तत्क्षणमेव सर्वाम् ॥१५६।। तन्मध्यभागात् स मनुष्यबालं, शल्यं महीयो हृदयादिवाऽऽशु । आकृष्य सन्दर्शयति स्म तस्या, विस्मापयन् मानसमेणदृष्ट्याः ॥१५७।। तन्त्रीं तदीयामथ सर्जयित्वा, भूयः प्रवाले च नियम्य सम्यग् । .. कोणेन तां वादयति स्म वीणां, प्रवीणतानिर्जिततुम्बरुः सः ॥१५८॥ वाद्यप्रकारं सकलं समाश्रि-त्याऽनन्यचेता लघु निष्कलं च ।। रागं सरागं श्रवणामृताभं, विस्तारयामास च घोषवत्या ॥१५९।। रत्नाकरोर्वीरमणस्य कन्या, सा सा च सञ्चत्(पर्षत्) प्रमदप्रकर्षात् । अतिष्ट(ष्ठ)दालेख्यगतेव कामं, यद्वा कुरङ्गा अपि गीतहार्याः ॥१६०।। सा वीरभद्रस्य निशम्य सम्यग्, वीणाश्रितं गीतमभीतचित्ता । दध्यौ गुणज्ञा गुणवत्सराणा-मपीदृशं पात्रमहो! दुरापम् ॥१६१॥ जन्माऽपि किं चाऽफलमत्र नूनं, विनाऽनया मे गुणरत्नखान्या । विभान्ति देवप्रतिमाः सुगन्धि-पुष्पस्रजैवाऽप्रतिमा अपीह ॥१६२।। तस्या यथाकालमबालबुद्धि-स्तच्चित्त-वित्तप्रविरोधकोभम् । सन्दर्शयामास कलासु सा(चा)ऽन्या-स्वपि प्रवीणत्वमनेकरूपम् ॥१६३।। आत्मानुरत्का(क्ता)मथ वीरभद्रो-ऽवगत्य रत्नाकरराजपुत्रीम् । स श्रेष्ठिनं शङ्खमुपांशु शुद्ध-बुद्धिर्जगाद स्फुटवर्णमेवम् ॥१६४।। त्वनन्दनायाः किल पृष्ठतोऽद्य, कल्ये पितः! प्रत्यहमप्यभीतः । अहं व्रजामि क्षितिपालपुत्र्याः, पार्वेऽङ्गनावेषविशेषधारी ॥१६५।। तत् तात! युष्माभिरभीतचित्तै- व्यं तथाऽहं स्वधिया करिष्ये । यथा न भावी भवतामनर्थो, भविष्यति प्रत्युत गौरवं हि ॥१६६।। मह्यं प्रदातुं स्वकनी नरेन्द्र-स्त्वां तात! चेत् प्रार्थयते कदाचित् । तदा तु मान्यं प्रथमं न किञ्चि-दत्याग्रहे सत्यथ मान्यमाः ॥१६७।। १. दण्डे । २. अत्रान्तरे वीणावादनवर्णनस्यैकः श्लोकः पतितोऽस्ति । दृश्यताम् त्रिषष्टि० ६।२।१८२ । ३. चौरः । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ श्रेष्ठ्यप्यभाणीदिति वेत्सि वत्स!, त्वमेव बुद्ध्याऽभ्यधिको विशुद्ध्या । आचक्ष्महे त्वेकमनेकलोका-धार! त्वया स्वस्य शुभं विधेयम् ॥१६८|| स वीरभद्रः प्रतिभाषते स्म, मनागपि त्वं विमना: स्म मा भूः । अतुल्यकल्याणकरं स्वधर्म-पुत्रस्य कर्माऽऽर्य! विलोकयोस्त्रैः(च्चैः) ॥१६९।। त्वं वत्स! वेत्सीति निवेद्य सद्यः, श्रेष्ठ्यश्रयन्मौनमनूनचेताः । रत्नाकरस्याऽवनिवल्लभस्य, स्थाने तदाऽभूदिति किंवदन्ती ॥१७०॥ कश्चिद् युवा सम्प्रति तामलिप्त्याः, समाययौ शङ्खगृहे विपश्चित् । पुरेऽवनिस्त्रीपदनूपुरे सो-ऽचित्रीयताऽशेषकलाकलापैः ॥१७१॥ वैदेशिकत्वाच्च न तस्य पुंसो-ऽवगस्य(म्य)ते ज्ञातिरनङ्गमूर्तेः । महाकुलोद्भूत इति प्रजानां, प्रव्यक्तमाख्याति तदाऽऽकृतिस्तु ॥१७२॥ दध्यावथेत्थं धरणीधवोऽयं, युवा सदाचारपर: सुबुद्धिः । कलासुधाम्भोधिरनङ्गचङ्ग-मूर्तिः कुलीनः शुभधर्मलीनः ॥१७३।। गुणानुरूपो मम नन्दनायै, चेद् रोचतेऽयं प्रवरो वरा(रो)ऽस्यै । सदोषता नैव तथा विधातुः, सुवर्णबन्ध[प्र] विधायकस्य ॥१७४।। स वीरभद्रो वदति स्म धीमान्, तदा महीपालसुतामुपा(पां)शु । समा(साम)ग्रिकायां सुकृतादियत्या-मासादितायां किम(मु) भोगबाह्या ॥१७५॥ अनङ्गसुन्दर्यवदत् तदेति, भोगा अभीष्टाः सखि! कस्य नैते । सुदुर्लभः किन्तु कुरङ्गनेत्रे!, प्रियः कुलीनः सकल(लः) सुरूपः ॥१७६।। वरं मणिः सुन्दरि! केवलैव, न काचमुद्रानुगताऽमलाऽपि । वरं नदी नीरविवर्जिताऽपि, न जातु यादःकुलसङ्कला तु ॥१७७।। शाला विशालाऽपि वरं हि शून्या, मलिम्लुचव्रातभृता तु नैव । वाटी वरं वृक्षविवर्जिताऽपि, न तु प्रवी(की)णविषवृक्षयुक्ता ॥१७८॥ वरं कुमारी प्रमदाऽभिराम-लावण्यरूपादिगुणान्विताऽपि । अज्ञानिना नीचकुलोद्भवेन, विडम्बिता नैव तु वल्लभेन ॥१७९।। ॥ त्रिभिविशेषकम् ॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ अनुसन्धान-७१ दैवादियत्कालमहं समान-गुणं वरं न प्रियसि(स)ख्यपश्यम् । कृत्वा पति त्वल्पगुणं गुणज्ञे!, हास्यास्पदं स्या(स्यां) कथमात्मना ना(नो) ॥१८०।। स वीरभद्रः पुनरेवमूचे, वरो वरः सर्वगुणानुरूप: । ममाऽत्र नाऽस्तीति नृपाङ्गजे! मा, वादीधरेयं बहुरत्नसूर्यवत्(सूर्यत्) ॥१८१॥ किं तेऽनुरूपं वरमेणनेत्रे!, सम्पादयेऽद्यैव सुखैकगेहम् ? | अरोचकिन्यङ्गसुखाः प्ररोचि-ष्यन्ते परं ते नियतं न भोगाः ॥१८२।। ततो बभाषे नृपकन्यकाऽपि, त्वमेवमाशाधनसम्प्रदानात् । किं मे समाकर्षयसे रसज्ञा-मिमामथाऽऽख्यामि शुभे मृषाऽदः ॥१८३|| त्वद्भाषितं चेदनलीकमेतत्, ततो वरं दर्शय मेऽनुरूपम् ।। यथा कृतार्थं सकलं मदीयं, स्याद् रूप-लावण्य-कला-कुलादि ॥१८४।। एवं तयोक्तो लघु वीरभद्रो, रूपं निजं दर्शयति स्म तस्यै । साऽप्याचचक्षे त्वदधीनदेहा-ऽस्मि तमुहं त्वं मम जीवितेशः ॥१८५।। अथाऽवदत् सोऽपि तदैवमस्तु, मा स्माऽपवादो भवदात्मनीति । एष्यामि नाऽतः परमत्र भद्रे!, त्वयेतिविज्ञप्य इलापतिस्तत् ॥१८६।। यथाऽयमायुष्मति! सोपरोधं, वदत्यदः श्रेष्ठिनमाशु शङ्खम् । श्रीवीरभद्राय सुता मदीया, सङ्गृह्यतामस्तसमस्तदोषा ॥१८७। उक्ते तयाऽऽमेति स वीरभद्रो-ऽज्ञातस्वरूपोऽगमदात्मगेहम् । आहूय सद्यो जननीमनङ्ग-सुन्दर्यपीत्थं वदति स्म सोत्का ॥१८८॥ लावण्य-रूपाद्यनुरूपकान्ता-भावादियत्कालमभूवमुच्चैः । निष्केवलं खेदनिमित्तमम्ब-पित्रोरहं शल्यमिवोरसीह ॥१८९।। लावण्य-सौभाग्य-कला-वयोभि-रात्मानुरूप: परिचिन्तितोऽस्ति । स श्रेष्ठिशङ्खस्य सुतोऽद्य वीर-भद्राभिधानो मयका वरोऽम्ब! ॥१९०।। अद्यैव मां देहि वराय तस्मै, विज्ञाप्यतां च स्वयमेव तातः । तथा यथा श्रेष्ठिवरं तमम्ब!, शङ्खाभिधं प्रार्थयते मदर्थे ॥१९१।। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ ६३ आभाषितैवं मुदिते(ता) च राज्ञी, गत्वा द्रुतं भूपतिमित्यवोचत् । त्वं वच॑से जीवितनाथ! दिष्ट्या, वत्सानुरूपप्रियलाभतोऽद्यः ॥१९२।। त्वदीयपुत्र्या स्वयमेव भर्ता, परीक्षितो नाथ! निजानुरूप: ।। शङ्खाभिधे(ध) श्रेष्ठिसुतोऽद्य वीर-भद्राभिधानस्तरुणः कलावान् ॥१९३।। ऊचे नृपश्चिन्तयतो ममेद-मित्युच्चरन्ती मधुरस्वरेण । चिन्तामणीवा-ऽसमकामधेनु-रिव त्वमागाः कमलाननेऽद्य ॥१९४॥ स्थैर्य तथा दाक्ष्यमहो! सुतायाः, परीक्षणे सुन्दरवल्लभस्य । स्थित्वा न्वियत्कालमपीदृशो यद्, ववे वरः सर्वकलाभिरामः ॥१९५|| आह्वायितो भूपतिनाऽपि सद्यो, बह्वस्तिमान् नैगमवृन्दयुक्तः । शङ्खाह्वयः श्रेष्ठिवरः समागात्, क्षोणीपतिं च प्रणनाम धीमान् ॥१९६।। ततश्च स श्रेष्ठिनमेवमूचे, शङ्खाभिधानं वसुमत्यधीशः । कोऽप्यागतः सम्प्रति ताम्रलिप्त्याः, पुर्या युवा वेश्मनि विद्यते ते ॥१९७।। संश्रूयते सर्वकलाकलाप-श्रो(स्रो)तस्विनीवल्लभपारदृश्वा । अनन्यसामान्यगुणाभिरामः, कुन्देन्दुशुद्धान्वयसम्भवस्य(श्च) ॥१९८॥ शङ्खोऽप्युवाच क्षितिवल्लभैवं, गुणान् पुनर्वेत्ति जनोऽस्य सर्वः । विश्वम्भरेशोऽप्य[नु] भाषते स्म, श्रेष्ठिस्तवाऽऽज्ञावशग(गः) स नो वा ॥१९९।। शङ्खोऽप्यभाणीदिति नम्रमूर्द्धा, किमुच्यतेऽदः प्रतिपक्षतः! । तस्यैव कम्बुप्रतिमैर्जनोऽयं, क्रीतो गुणैर्यद् वशवर्त्यशेषः ॥२००।। रत्नाकरोर्वीपतिराचचक्षे, भूयस्तदर्थं दुहिता मदीया ।। अद्यैव शङ्ख! प्रतिगृह्यतां च, योगश्चिरादस्त्विह योग्ययोर्द्राक् ॥२०१॥ श्रेष्ठ्यभ्यधान्नस्त्वमिनः सदैव, प्रजा वयं ते परिपालनीयाः । सम्बन्धभावः सखिता च राजन्!, समानयोरिव(रेव) विराजतेऽत्र ॥२०२।। एवं नृपोऽप्यादिशदिभ्य! किं मां, प्रत्यादिशस्युत्तरभङ्गितस्त्वम् ? । आज्ञां मदीयां कुरु निर्विचारं, गत्वा च सज्जो भव निविलम्बम् ॥२०३।। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ अनुसन्धान-७१ आदृत्य शङ्खो धरणीधवाज्ञा-मागत्य चाऽऽत्मीयगृहे सहर्षः । आचष्ट विस्पष्टगिराऽथ वीर-भद्राय सर्वं नृपशंसनं तत् ॥२०४।। महाविभूत्योभययोस्ततोऽज-क्षीरोदपुत्र्योरिव शुद्धलग्ने । तयोः शुभे चाऽहनि वीरभद्र-क्ष्मापालकन्योर्ववृते विवाहः ।।२०५।। परस्परं प्रीतिरवर्धताऽह-न्यहन्यनन्योपमवंशभाजोः । स्वयंवर-स्त्रीवरयोर्भवेत् सो-त्तरोत्तरा निर्मलचेतसोर्यत् ॥२०६।। जैनं दिशन् धर्ममनारतं सः, सुश्राविकां तां विदधे नितान्तम् । आस्तां सतां सङ्गतिरत्र नूनं, लोके परस्मिन्नपि यत् सुखाय ॥२०७।। पटे स जैनप्रतिमां चतुर्धा, सङ्घ लिखित्वाऽर्पयति स्म तस्यै । परोपकारी स्फुटमात्मनोच्च-स्तां ज्ञापयामास च वीरभद्रः ॥२०८।। अन्येधुरेवं सुमुनिः(सुमतिः) स दध्यौ, विलोक्यते प्रीतिपरा मयीयम् । स्त्रीणां प्रकृत्या चलमानसानां, स्थैर्ये(यू) परं तन्वपि निश्चयेन ॥२०९।। भवत्वमुष्या अहमाशयं द्राक(ग्), ज्ञास्यामि चेत्थं स विमृश्य धीमान् । रत्नाकराख्यावनिपालपुत्री-मित्याचचक्षे सरसीरुहाक्षीम् ॥२१०।। भवत्सकाशात् करभोरु! किञ्चि-न्नाऽन्यन्ममाऽभीष्टतमं जगत्याम् । आत्मीयदेशव्रजनार्थमस्म्या-पृच्छे तथाऽपीन्दुसमानने! त्वाम् ॥२११।। चिरं यतो मत्पितरौ मदीय-वियोगरोगादितकाययष्टी । यदि त्वमाख्यासि ततः स्वयं तौ, सम्प्रीणयामि द्रुतमस्मि गत्वा ॥२१२॥ इहैव तिष्ठेस्त्वमदीनचित्ता, भूयोऽपि चैष्याम्यहमाशु कान्ते! । आयुष्मती यद् भवती विना न, स्थातुं समर्थोऽस्म्यपि निश्चयेन ॥२१३॥ सगद्गदं सा गदति स्म बाला, सङ्कल्पितानल्पविकल्पजाला । त्वमार्यपुत्रैकपदेऽपि दोषं, विना किमेवं मयि निष्ठुरोऽभूः ? ॥२१४|| तयैवमुक्तो लघु वीरभद्रः, प्रोचे पुनर्भामिनि! मा कुपस्त्वम् । सहाऽऽत्मना त्वन्नयनेऽप्युपायो, विचिन्तितोऽयं मयकाऽस्ति चित्ते ॥२१५।। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ ६५ आत्मीयदेशं प्रति गन्तुकामः, कामाभिरा[म? ]स्स तया सहैव । ततः सनिर्बन्धमहंयुमाप-प्रच्छे महीपालमबालबुद्धिम् ॥२१६।। विसर्जयामास स वीरभद्रं, प्रियान्वितं भूमिपतिः कथञ्चित् । या(जा)मातृ-पुत्रीविषयो वियोगः, प्र(प्रा)यो यत: कस्य न दुस्सहः स्यात् ? ।२१७/ जलाध्वनाऽतो गुरुयानपात्रा-रौ(रू)ढौ ततश्चेलतुरेकचित्तौ । प्रवर्तनं सत्त्वर(व)तां समानं, जलस्थलाध्वद्वितयेऽपि यस्मात् ॥२१८।। धनुर्लतोन्मुक्त इवाऽऽशुगः स, नीडोत्थितः पक्षिवदर्णवान्तः । ततः प्रकामं प्रससार पोतो-ऽनुकूलवातेरित इष्टदायी ॥२१९॥ कियन्तमप्यत्यगमत् स पोतो-ऽध्वानं च यावत् पवनानुकूल्यात् । कल्पान्तवान्तप्रतिमस्तु तावन्-महासमीरः प्रववावकस्मात् ॥२२०।। तदैव कल्पान्त इवाऽऽपगेशः, समुद्भू(भ्र)मन् भीषणमूर्तिरुच्चैः । उला(ल्ला)लयामास वहित्रकं तन्-मत्तद्विपेन्द्रस्तृणपूलवद् द्राक् ॥२२१।। उच्छाल्यमानं मुहू(हु)रूमिवृन्दै-विभ्रम्य विभ्रम्य दिनत्रयीं तत् । ग्रावोपरि भ्रष्टविहङ्गमाण्ड-मिवाऽस्फ(स्फुटत् कर्मवशादकस्मात् ॥२२२।। वि(व)हित्रकेऽपि स्फुटितप्रमात्रे, सम्प्राप रत्नाकरभूपपुत्री । एकं विशालं फलकं तदीयं, मृत्युभवेन्नाऽत्रुटितायुषो यत् ॥२२३।। उल्लाल्यमाना लहरीगणेन, हंसीव रत्नाकरराजपुत्री । आसादयामास तटं च पञ्च-रात्रेण सैकं विपिनाभिरामम् ॥२२४।। विदेशगत्या निजबान्धवानां, वियोगदुःखेन च दुस्सहेन । सा विप्रयोगेन च वल्लभस्य, भङ्गेन चोच्चैर्वहनस्य तस्य ॥२२५।। अत्यर्थमर्थापगमेन चञ्चत्-कल्लोलमालाधिकघट्टनेन । क्षुधा तृषा चाऽतिकर्थिताङ्गी, नीराद् बहिस्ताज्जलमानुषीव ॥२२६।। अवा(ना)प्तसञ्ज्ञा पतिता पृथिव्यां, निसर्गसंसिद्धदयान्वितेन । सा भूपभूस्तापसबालकेन, तत्राऽऽगतेनैक्षि दृशाऽऽर्द्रयाऽथ ॥२२७।। ॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ अनुसन्धान-७१ कथञ्चिदुत्थाप्य निनाय बालां, निजाश्रमे स्वां भगि(नी)मिवाऽसौ । विश्रब्धचित्ता तनयेऽत्र तिष्ठे-त्युवाच तां तापसनायकश्च ॥२२८।। सा तापसीभिः प्रतिपाल्यमाना, दिनैः कियद्भिर्जननीसमाभिः । स्वच्छा(स्था) बभूव स्वपितुर्निशान्त-स्थितेव रत्नाकरराजपुत्री ॥२२९।। तदीग(य)रूपातिशयादथेति, वि(व्य)चिन्तयत् तापसनायकोऽपि । अत्र स्थितेयं मम तापसानां, समाधिभङ्गाय भवेदवश्यम् ॥२३०॥ ततः स्फुटं तापसवृद्ध ऋद्ध-स्तप:श्रिया तामिति भाषते स्म । इतो न दूरे तनये! प्रसिद्धं, श्रीपद्मिनीखण्डपुरं समस्ति ॥२३१।। प्रायेण सन्तो निवसन्ति तत्र, जनाः स्वलक्ष्म्या विजितालकेशाः । तत्र स्थिति त्वं विदधत्यवश्य-मासादयिष्यस्यभिवाञ्छितार्थम् ॥२३२॥ तत्रैव पत्या सह सङ्गमश्च, वत्से! न(भ)वत्या भविता त्ववश्यम् । तद्गच्छ तस्मिन्नगरेऽधुनैव, समं जरद्भिर्मम तापसैस्त्वम् ॥२३३।। इत्याज्ञया तापसनायकस्य, परिष्कृता वृद्धतपस्विभिश्च । सा पादचारेण मरालिकेवो-पपद्मिनीखण्डमगात् क्रमेण ॥२३४।। अस्माकमहौ(ों) नगरे प्रवेशः, पतिव्रते! नेत्यभिधाय सद्यः । बहिः पुरोऽपि प्रविहाय तां ते, व्यावृत्य सर्वेऽपि तपस्विनोऽगुः ॥२३५।। नभस्तलं संविदधत्यकाण्डे, स्वदृष्टिपातैरिव कैरवाढ्यम् । विलोकमाना] ककुभः समग्रा, यूथच्युता त्रस्तकुरङ्गकेव ॥२३६।। आगच्छ(म्य)मानां सह संयतीभिः, शरीरचिन्तार्थमनन्यशीला । श्रीसुव्रताख्यां गणिनी ददर्शा-ऽऽत्मीयां सवित्रीमिव सुव्रतां सा ॥२३७।। - ॥ युग्मम् ॥ सस्मार चैवं विदुषी यदेवा(षा)-स्ता वल्लभेन स्वकराम्बुजेन । विश्वाभिवन्द्या अनवद्यदेहाः, पटे लिखित्वा मम दर्शिता याः ॥२३८।। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ ६७ संस्मृत्य सैवं विधिनाऽऽशु पूर्वा-भ्यस्तेन निःशेषकलाप्रवीणा । आगत्य पादानथ सुव्रताया:(या), मुदा ववन्दे व्रतिनीश्च सर्वाः ॥२३९।। श्रीसिंहलद्वीपगतानि मात-श्चैत्यानि वन्दस्व गिरा मम त्वम् । ललाटपट्टे रचिताञ्जलिः सा, श्रीसुव्रतामित्यभणत् तदानीम् ॥२४०।। तां सुव्रताऽपीत्यवदत् पवित्रा, श्रीसिंहलात् किं समुपागताऽसि ? | एकाकिनी त्वं कथमाकृतिर्य-नैषा न घे(हि) स्यात् परिवारहीना ॥२४१।। सुस्था भणिष्यामि समस्तमेव-मुक्ता तया सार्द्धमखण्डशीला । श्रीसुव्रताख्या गणिनी जगाम, प्रतिश्रयं स्वं सपरिच्छदाऽपि ॥२४२॥ तां वन्दमानां बहुमानपूर्वं, निरस्तमानां व्रतिनी: समस्ताः । श्रेष्ठिन्! ददर्श प्रियदर्शनाख्या, तत्राऽऽत्मजा ते प्रियदर्शनोच्चैः ॥२४३।। पृष्टा च सा सुव्रतया गणिन्या, तदा भवनन्दनयाऽपि चौच्चैः । निवेदयामास निजं स्वरूपं, श्रीसुव्रतासगणिनीक्षणान्तम् ॥२४४॥ तामाचचक्षे प्रियदर्शना च, श्रीवीरभद्रस्य चकोरनेत्रे! । कलादिसंवाद्यखिलं सखि! त्व-माचक्ष्व वर्णेन स कीदृशस्तु ? ॥२४५॥ तया व(च) श्याम इतीरिते श्राक्, प्रभाषते स्म प्रियदर्शनाऽपि । विसंवदत्येकक एव वर्णो, मत्प्राणनाथस्य न सर्वथाऽन्यत् ॥२४६।। श्रीसुव्रताख्या गणिनी जगाद, धर्मस्वसेयं प्रियदर्शना त्(ते) । सहाऽनया तिष्ठ विशिष्टधर्मा-नुष्ठाननिष्ठाऽस्यकुतोभयेह ॥२४७।। पतिव्रता सुव्रतयैवमुक्ता, श्रेष्ठिस्त्वदीयात्मजयाऽपि चाऽलम् । संदर्शितानन्यसमादराऽस्थात्, सा तत्र रत्नाकरराजपुत्री ॥२४८।। प्रवीणतास्थानमिता(त)श्च वीर-भद्रोऽपि भग्ने वहने तदानीम् । एकत्र रम्ये फलके विलग्न:, स ताड्यमान: परितस्तरङ्गः ॥२४९।। कृपैकधाम्ना रतिवल्लभेन, विद्याधरेणाऽवनिवल्लभेन । दुःखादितोऽदर्शि स सप्तमेऽह्नि, निन्ये च वैताढ्यमहीध्रमूनि ॥२५०॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ अनुसन्धान-७१ स्वश्चारिणस्तस्य च मञ्जुकाख्या, प्रिया प्रियाऽऽस्ते मदनोपपादा । तस्याः सुतत्वेन समर्पित(तः) स. तेनाऽसुतेन स्वयमादरेण ॥२५१।। पृष्टस्तु ताभ्यां स समुद्रपात-वृत्तान्तमन्यूनमनूनचेता(ताः) । संगेहिनीकस्य तदात्मनश्चा-ऽऽदितो निवेद्यैवमुवाच पश्चात् ॥२५२।। तात! त्वया(य)वाऽऽचकृषे कृतान्त-चक्रादिवाऽहं जलधेरगाधात्म(त्) । रत्नाकरोर्वीपतिनन्दना सा, कथञ्चिदस्तीति पुनर्न जाने ॥२५३॥ आभोगिनीसज्ञकविधयाऽव-गम्याऽऽचचक्षे रतिवल्लभो द्राक् । तव प्रिये द्वे प्रियदर्शनाभि-ख्या-ऽनङ्गसुन्दर्यभिधे प्रिये ये ॥२५४॥ श्रीपद्मिनीखण्डपुरेऽभिरामे, प्रतिश्रये सुव्रतसुव्रतायाः । विशुद्धशीलं प्रतिपालयन्त्यौ, स्नेहाद् भगिन्याविव तिष्ठतस्ते ॥२५५॥ युग्मम् ।। तयोदया(ईयो)रप्यतिशुद्धशील-वत्योः स्वपत्न्योः शुभकं विदन्त्या(विदित्वा) । स वीरभद्रः स्व(श्व)सिति स्म कामं, सर्वाङ्गमासिक्त इवाऽमृतेन ॥२५६।। उत्तीर्णमात्रोऽप्युदधेः स धीमान्, श्यामत्वक/ गुटिकां विहाय । समाददे स्वर्णसवर्णमङ्गे, सकर्णवयं सहजं स्ववर्णम् ॥२५७॥ रत्नप्रभाख्यामथ वज्रवेग-वतीसतीकुक्षिभवां तनूजाम् । तेन स्वकीयामुदवाहयत् स, विद्याधरेन्द्रो रतिवल्लभस्तु ॥२५८|| स वीरभद्रः शुचि बुद्धदास, इत्यात्मनो नाम शशंस तत्र । सार्द्धं च रत्नप्रभया गृहिण्या-ऽन्वभूत् सुखं वैषयिकं मनोज्ञम् ॥२५९।। सम्भूय यातस्त्रिदशप्रकारान्, विद्याधरानैक्षत सा(सो)ऽपरेछुः । एते क्व गच्छन्त्यतिशीघ्रगत्ये-त्यपृच्छदात्मीयपरिग्रहं च ॥२६०।। रत्नप्रभाऽप्येमुवाच नाथ!, शैले जिनानामिह शाश्वतानाम् ।। यात्रां विधातुं सह खेचरीभि-विधाधरा यान्त्यतिवेगतोऽमी ॥२६१।। एवं समाकर्ण्य स बुद्धदासा-भिधः सुधीः श्रावकमौलिरत्नम् । वैताढ्यभूमीरुहमारुरोह, समं तया शीलपवित्रमूर्त्या ॥२६२।। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ तत्राऽनमच्छाश्वतवीतराग-मूर्तीः स भक्त्या जिनमन्दिरान्तः । रत्नप्रभाऽप्यद्भुतगीतनृत्त-प्रभृत्यकार्षीच्च जिनेश्वराग्रे ॥२६३।। सोऽथाऽऽचचक्षे विकचाम्बुजाक्षि!, देवो मयाय(ऽयं) न विलोकितोऽग्रे । श्रीसिंहलद्वीपनिवास्यहं यद्, बुद्धाभिधानः कुलदेवता मे ॥२६४|| रत्नप्रभाऽपि प्रतिभाषते स्म, हेतोस्ततस्त्व(स्त्वं) प्रिय! भाषसेऽदः । देवो ममाऽदृष्टचरोऽयमर्हत्(न्), परोपकार्येष तु देवदेवः ॥२६५।। भावारिदन्ताबलपञ्चवक्त्र-स्त्रैलोक्यपूज्यः सकलार्थवेदी । यथास्थिताशेषपदार्थदर्शी, देवो जिनेन्द्रः शिव-सौख्यकारी ॥२६६।। देवा न बुद्धा-ऽम्बुरुहासनाद्याः, स(सं)सारयाद:पतिपातिनोऽमी । मोहादिचिह्न स्फुटमात्मनोऽपि, सदाऽक्षसूत्रादि च धारयन्तः ॥२६७।। नानाविधाभी रममाणयोः सत्-क्रीडाभिरुच्चैर्विदुषोस्तयोश्च । काल: कियानप्यगमत् सदर्प-कन्दर्पकेल्यम्बुधिमग्नतन्वोः ॥२६८।। स बुद्धदासो रजनीविरामे-ऽन्यदा जगाद प्रणयप्रधानम् । रत्नप्रभे! दक्षिणभारता॰, रेतुं(रन्तुं) व्रजावश्चिरकालतोऽद्या(द्य) ॥२६९॥ आमेति जल्पत्यथ सा विनीता, स धूर्तराजोऽपि च विद्यया द्वौ । श्रीपद्मिनीखण्डपुरे प्रयातो(तौ), प्रतिश्रयं सुव्रतसुव्रतायाः ॥२७०॥ स्थित्वा क्षणं तद्वसतेरुपान्ते, तदा जगौ तामिति वीरभद्रः । आचम्य चाऽऽयामि कृशाङ्गि! यावन्-मदाज्ञया तावदिहैव तिष्ठेः ॥२७१॥ उक्त्वेति भूमिं कियती वजित्वा, तद्रक्षणार्थं पुनरस्तदोषः ।। तत्रैव तस्थौ स निलीय सम्यक्, सद्राजकीयस्पशवन् महेभ्य! ॥२७२।। एकाकिनी चक्र(क्रि)कुटुम्बिनीच(व), क्षणान्तरादूर्ध्वमनल्पशोका । सा रोदितुं हाऽऽरभते स्म तारं, स्त्रीणां स्वभावः स्फुटमीदृशोऽयम् ॥२७३।। श्रुत्वा तदीयं करुणं निनादं, श्रीसुव्रताऽथो करुणास्रवन्ती । उद्घाटयामास कपाटयुग्मं, स्वयं ह(द्रुतं तां च विलोकते स्म ॥२७४।। १. परिशुद्धबोधः इति पाठान्तर टिप्प. । २. संदर्पितचित्त-तन्वोः इति पाठान्तर टिप्प. । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० अनुसन्धान-७१ इत्यभ्यधाच्च व्रतिनी गुणज्ञे!, का त्वं ? कुतोऽदः पुरमागताऽसि ? । एकाकिनी वा(चा)ऽत्र कुतो(त)श्च हेतो, रोदिष्यनाथा हरिणीव तारम् ? ॥२७५॥ प्रणम्य साऽवोचदिहाऽहमागा(गां), वैताढ्यशैलात् सह वल्लभेन । अद्याऽपि साध्या(स आ)व(च)मनाय यातः, प्राणेश्वरो मे चिरयत्यतीव ॥२७६।। मुहूर्तमप्यम्ब! न मां विना स, स्थातुं कदाचित् सहते कलावान् । आशङ्कते तेन मदीयमेत-च्चेतो महत्कारणमातुरं सत् ॥२७७।। सा सानुकम्पं गणिनी बभाषे, पतिव्रताग्रेसरि! मा स्म भैषीः । प्रतिश्रये तिष्ठ सुखेन तावद्, यावन्(त्) समायाति स वल्लभस्ते ॥२७॥ अनन्यसामान्यगुणं ग(गु)णशं, सस्नेहमद्वैतकलं सुरूपम् ।। एतर्हि तं रुच्यमृते न मातः!, प्राणानहं धारयितुं समर्था ॥२७९॥ एवं गणिन्या प्रतिबोधितोच्चैः, प्रतिश्रयं सा प्रविवेश सद्यः । स्थाने गतां वीक्ष्य सर्मिणी स्वा-मया(पा)सरत् सोऽपि महेभ्य! धूर्तः ॥२८०॥ निजेच्छया वामनरूपधारी, स पर्यटन्नत्र पुरेऽभिरामे । जहार चेतः पुरवासिनां द्राक्, प्रकाशयन्नङ्गकला विचित्रा: ।।२८१॥ ईशानचन्द्रावनिपालमप्य-त्यर्थं सदा रञ्जयति स्म सोऽथ । एकाऽपि चित्तं हरते कला स(य)त्, पुंसां पुनः किं सकला: कलास्ताः? ॥२८२।। अनङ्गसुन्दर्यभिधा कुलीन!, त्वदात्मजा च प्रियदर्शनाख्या । रत्नप्रभां तामिति जल्पते स्म, कस्ते पतिः ? सुन्दरि! कीदृशश्च ? ॥२८३।। रत्नप्रभाऽपीति जगाद बुद्ध-दासाभिधानो मम जीवितेशः । श्रीसिंहलद्वीपनिवास्यशेष-कलानिधिः स्वर्णसुवर्णवर्णः ॥२८४|| अथाऽऽचचक्षे प्रियदर्शनाऽपि, स संवदत्येव ममाऽसुनाथः । त(न) सिंहलद्वीपनिवासिता तु, न बुद्धदासेत्यभिधा च सख्ये! ॥२८५॥ अनङ्गसुन्दर्यवदत् तदानीं, वर्णस्तथा सिंहलवासिता च । विसंवदत्यद्भुतबुद्धदासा-भिधा च मद्भर्तुरुपेन्द्रमूर्तेः ॥२८६।। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ ७१ तिस्रोऽपि ताः सख्य इवैकचित्ता-स्तपो-जिनार्चा-ऽध्ययनैकनिष्ठाः । पुंकिंवदन्तीमपि वर्जयन्त्यः, प्रतिश्रये निर्मलमानसायाः ॥२८७||* तिस्रो रमण्यो नवयौवनस्था, महात्मिकाः सत्यभिरामगात्राः । धात्रीपवित्रीकरणानि तस्या-स्त्रीण्येव रत्नानि तमोपहानि ॥२८८॥ शुद्धाशयास्ताश्च सती: सतीः स्य(स्व)-कुलोचितेऽध्वन्यधरीकृताथे(ऽन्ये) । कश्चित् पुमान् भाषयितुं न चाऽल-म्भूष्णुः कला-रूप-गुणान्वितोऽपि ॥२८९|| अथो मृषावामनकः स ऊचे, क्रमादहं ताः खलु भाप(ष)यिष्ये । समर्थता(तां) पश्यता(त) मामकीनां, कर्मण्यमुष्मिन्नयि(पि) दुष्करेऽद्य ॥२९०।। परिकृ(ष्कृ)तो राजनरैः कियद्भि-रपि प्रधानैर्गुण-शीलवद्भिः । अन्वीयमानो विविधैश्च पौरैः, स सुव्रताया वसति जगाम ॥२९१।। प्रतिश्रयद्वारभुवि स्थितः स, इत्यन्वशात् तान् सहचारिणः स्वान् । तस्मिन् भवद्भिः परिपृच्छनीयं, कथामपूर्वां वद कामपि त्वम् ॥२९२॥ प्रतिश्रयं तं स ततो विविक्त-परिच्छदः प्राविशदस्तदोषः । श्रीसुव्रताख्यां गणिनी च वन्दे, शुद्धव्रतास्तद्वतिनीश्च पश्चात् ॥२९३।। निर्गत्य बाह्ये गुरुमण्डपे स, उपाविशद् वामनरूपधारी । आयासिषुस्ता व्रतिनीसमेता-स्तिस्रोऽपि तदर्शनकौतुका(को)त्काः ॥२९४|| अथाऽवदद् वामनकोऽपि यावत्, सेवाक्षणो नाऽवनिवल्लभस्य । स्थास्याम एवाऽत्र वयं विनोद-व्याक्षिप्तचित्ताः शुभभाजि! तावत् ॥२९५॥ कश्चित् ततो राजपुमानवोचत्, सकौतुकां शंस कथां कलाब्धे! । किं सुन्दरां वच्मि कथामथाऽहं, सद्वृत्तकं वामन इत्यवादीत् ॥२९६।। पृष्टः कथा-वृत्तकयो(:) सुभेदं, प्रोचे मृषावामनकः प्रवीणः । आत्मानुभूतं भुवि वृत्तकं प्राक्-पुंसां चरित्रं च कथामुशन्ति ॥२९७॥ ★ अत्रान्तरे ईशानचन्द्रराजसभायां तासां तिसृणां रमणीनां विषये या कथा प्रवृत्ता तत्सूचकः श्लोकः पतितोऽस्ति । दृश्यतां त्रिषष्टि० ६।२।३१४ । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ सद्वृत्तकं तर्हि निवेद्यतामि-त्युक्तेऽवदद् वामनकः पवित्रे । क्षेत्रेऽत्र नाम्ना भरते समृद्धा, श्रीताम्रलिप्त्यस्ति पुरी प्रसिद्धा ॥ २९८ ॥ युक्तः समृद्ध्यर्षभदत्तनामा, श्रेष्ठी गुणैः श्रेष्ठतरोऽस्ति तस्याम् । वणिज्यया सार्थयुतोऽन्यदाऽगात्, सपद्मिनीखण्डपुरं वयस्याः ! ||२९९|| मनोरमां सागरदत्तकन्यां विलोक्य तत्र प्रियदर्शनाख्याम् । स वीरभद्रेण निजाङ्गजेनो- दवाहयत् सर्वकलार्णवेन ||३००|| तया समं वैषयिकं सुखं सो- न्वभून्नितान्तं कतिचिद्दिनानि । तामर्धरात्रे गृहीणीमलीक - सुप्तामुदस्थापयदन्यदा च ॥३०१|| मा मां विभो! जातशिरोर्तिमुच्चैः, कदर्थयेत्थं वदति स्म साऽपि । दोषेण कस्येत्यथ तेन वो (चो) क्ते, तवैव दोषेण जगाद शैवम् ॥३०२॥ तमात्मदोषं लघु तेन पृष्टा, सा भाषते स्म प्रियदर्शनाऽथ । अनेहसीदृश्यपि यद्यवाय-स्तवाऽयमस्त्युत्कटकामधामन्! ॥३०३॥ अनुसन्धान- ७१ १ नैवं करिष्यामि पुनः प्रियेऽह - मुक्त्वेति तां सोऽरमयन् नितान्तम् । स्वभावसुप्तां च विहाय तस्याः पतिर्विदेशे व्रजति स्म सद्यः ||३०४ || , आभाष्य धीमानिति वामनस्तु ममाऽधुना राजकुले कुलीनाः । सेवाक्षणोऽतिव्रजतीत्युदस्थात्, ससम्भ्रमस्तत्क्षणमिङ्गितज्ञः ॥ ३०५ ॥ १. जीवितेश !, विदग्धता किं सुतरां तवैषा ? तं सादरं सा प्रियदर्शनाख्यो- त्तिष्ठन्तमेवं पुनरप्यवोचत् । स वीरभद्रः क(क्व) गतोऽस्ति भद्र!, ब्रूहि ध्रुवं वामन! वेत्सि यत् त्वम् ॥३०६|| अथैवमाह स्म स वामनोऽपि, परस्त्रिया सार्द्धमहं कदाचित् । जल्पामि न स्वल्पमपीन्दु - कुन्दो-ज्ज्वलस्ववंशैककलङ्कभीतः ॥३०७॥ स्मित्वा[ऽवद]त् साऽपि कुलोचितं हि शीलं यश: कारि किमुच्यते ते ? | दाक्षिण्यतो नः कथयाऽग्रतस्तद्-गुणाः कुलीनस्य यदादिमोऽयम् ॥३०८॥ श्वः शंसिता तर्हि पतिव्रतेऽह - मेवं गहि (दि) त्वा लघु वामनोऽगात् । तस्मिन्नुदन्ते कथितेऽवसर्पे(पैं)-वि (वि) सि(षि)ष्मयेऽत्यर्थमिलाधिपोऽपि ॥३०९॥ इति पाठा० टिप्प Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ ७३ दिने द्वितीयेऽप्यगमत् तथैव, प्रतिश्रयं वामनको गणिन्याः । अत्यादृतानां तिसृणां च तासां, कथामिति व्याहरति स्म भूयः ॥३१०।। निर्गत्य पुर्या निशि वीरभद्रो, भूत्वा च कृष्णो गुटिकाप्रयोगात् । अटन्ननेकान्युपवर्तनानि, स सिंहलद्वीपमथाऽऽससाद ॥३११॥ तत्राऽसमे रत्नपुरे महेभ्य-शङ्खापणेऽथो निषसाद धीमान् । स श्रेष्ठिना श्रेष्ठतमेन तेन, .................. ॥३१२॥ ................ तस्थौ सुखं तत्र पुरे जनानां, नित्यं कलाभिः कृतविवसय(विस्मय)श्च ॥३१३॥ स श्रेष्ठिपुत्र्या विनयाच्च वत्य-भिधानया सार्द्धमगात् कदाचिद् । अनङ्गसुन्दर्यवनीशकन्या-गृहेऽबलावेषधरः कलावान् ॥३१४॥ कामं कलाभिर्हतमानसां तां, स ज्ञापितात्मा क्रमशः सुलग्ने । हर्षदुपायंस्त पिनृ(तृ)प्रदत्ता(तां), यदृच्छयाऽभुक्त चिरं च भोगान् ॥३१५।। भार्यां गृहीत्वा व्रजतश्च तस्य, तां ताम्रलिप्ती नगरी प्रति द्राक् । दुर्दै(4)वयोगान्जलधावकस्मात्, सहाऽऽशयाऽभज्यत यानपात्रम् ॥३१६।। अहं व्रजिष्याम्यधुना त्ववश्यं, भूपालसेवावसरोऽयमाप्ताः(प्तः) । सवां(सेवां) विना भूपतिसेवकाना-माजीविका भज्यत एव यस्मात् ॥३१७॥ अनङ्गसुन्दर्यभिधा ततः सा, तं वामनं स्माऽऽह च सोपरोधम् । स वीरभद्रोऽस्त्यधुना क्व ? भद्र!, ब्रूहि प्रसाद्याऽन्यजनोपकारिन्! ॥३१८|| सुश्राविके! श्वः कथयिष्यतेऽद, उक्त्वेति भूपालगृहं ययौ सः । तमाशु वृत्तान्तमिलाधिपाय, गत्त्वा शशंसुः क्षितिभृत्पुमांसः ॥३१९।। ततस्तृतीयेऽपि दिने स तत्रा-ऽऽगत्यैवमुच्चैर्वदति स्म खर्वः । श्रीवीरभद्रः शुभकर्मयोगात्, प्राप प्रशस्यं फलकं तदैकम् ॥३२०॥ ततः कृपावान् समुपाजगाम, विधाधरेशो रतिवल्लभाख्यः । विलोकयामास च तं निनाय, वैताढ्यशैले निजमन्दिरे श्राक् ॥३२१॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ अनुसन्धान- ७१ रत्नाकरादुद्धृतमात्र एवा - ऽपकृष्य वक्त्रात् गुटिकां प्रवीणः । श्यामत्वदां गौरतनुर्बभूव, स्थितः स पुर्यामिव ताम्रलिप्त्याम् ॥३२२॥ श्रीसिंहलद्वीपनिवासनं स्वं तत्राऽभिधानेन च बुद्धदासम् । शशंस पृष्टः स गुणैरभीष्टो, विधाधरेन्द्रो (न्द्र) रतिवल्लभस्य ॥ ३२३ ॥ रत्नप्रभाख्यां तनयां सुरूपां स तेन दत्तां लघु पर्यणैषीत् । सुखेन तस्थौ रमयंश्च धीमान्, नानाविलासोपवनादिषूच्चैः ॥३२४॥ तया सह क्रीडितुमन्यदैतत् प्रतिश्रयद्वारभुवं स आगात् । मुक्त्वाऽह(थ) तामाचमनछलाच्चा - ऽन्यतोऽगमत् तत्क्षणमेव सभ्याः ! || ३२५|| यास्याम्यहं साम्प्रति(त)मेवमुक्त्वा, समुत्थितो वामनकः स सद्यः । ऊचे च रत्नप्रभया स बुद्ध - दासोऽधुना कुत्र वद प्रसद्यः (द्य) ॥३२६॥ निवेदयिष्याम्यपरं प्रगेऽह-मुक्त्वेत्यथाऽऽसीदनिव (वे) दितात्मा । संवादतस्ता (ताः) पुनरेकपत्युं - स्तिस्रोऽपि सत्योऽलमुदश्वसंश्च ॥ ३२७॥ धीसागरः सागरदत्त! युष्म- ज्जामातृको वामनकः स एव । पतिव्रतानां तिसृणां च तासां, पतिर्विनोदेन ददौ वियोगम् ॥३२८॥ तदा जगादेति स वामनोऽपि, प्रणम्य वाचंयममुख्यमुख्यम् । नह्यन्यथा विश्वनमस्य! युष्मद्-ज्ञाने क्षणालोकितमेवमेतत् ॥ ३२९॥ द्वितीयपौरुष्यवसानकाले, कुम्भाभिधानो गणधारिधुर्यः । सद्देशनां तां विससर्ज तावत्-कालैव तेषां किल देशना यत् ॥३३०॥ प्रणम्य कुम्भं गणधारिमुख्यं, सहैव दक्षेन स वामनेन । श्रेष्ठी ययौ सागरदत्तनामा, प्रतिश्रयं तं मुदितो गणिन्याः ||३३१ || आयान्तमालोक्य च वामनं तं, तिस्रोऽपि तास्तत्क्षणमेव पल्यः । उपाययुः सुन्दरपत्युदन्त - हरश्चरः कस्य न वल्लभो हि ? ||३३२|| प्रोचे मुदा सागरदत्तनामा, श्रेष्ठी पतिर्वस्तिसृणामयं हि । ताभिः कथङ्कारमिति न्यगादि, तदा बभाषे सकलं स इभ्यः ॥३३३॥ १. भर्तुः । २. मेन ( मुख्यम् इन ! ) पाठां. टि. । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ तिस्रोऽपि ताः सुव्रता( तया) गणिन्या, समं ययुर्विस्मयमद्वितीयम् । अन्तः प्रविश्याऽथ स वामनोऽपि, तद्वामनत्वं प्रमुमोच शीघ्रम् ॥३३४|| अनङ्गसुन्दर्यभिधानयैक्षि, श(स) यादृशस्तादृगजायताऽऽदौ । श्यामत्वमुत्सृज्य पुनः प्रपेदे, प्रतप्तचामीकरगौरवर्णम् ॥३३५।। सर्वाभिरानन्दितमानसाभि-तिः स ताभिर्निजजीवितेशः । एवं गणिन्याऽनि(भि)दधे च विद्या-समुद्र! चक्रे भवता किमेतत् ? ॥३३६।। सोऽप्याचचक्षे भगवत्यकाले, केल्यैव गेहान्निरगां स्वकीयात् । उपेक्षित: केवलि(केलि)वशो(शा)दिहाऽपि, मयाऽयमासां विरहो दुरन्तः ।।३३७।। मा(सा) सुव्रताख्या गणिनी यथार्था-भिधैवमूचे वचनं सतत्त्वम् । देशान्तरे दूरतरेऽतिभीमे-ऽरण्ये गिरौ नीरनिधावगाधे ॥३३८|| अन्यत्र वा दुःखप्रदे प्रयाति, यत्राऽङ्गिनोऽमी कृतपुण्यपोषाः । तत्राऽपि सौख्यं विपुलं लभन्ते-ऽवश्यं निजावासवदस्तदोषाः ॥३३९॥ ॥ युग्मम् ॥ भवन्ति भोगाः सु(शु) भपात्रदाना-नुभावतोऽत्रेति वचो जिनानाम् । अनेन कस्मै प्रदवे(दे) पुरेति, पृच्छाम इत्वा विधिनाऽरनाथम् ॥३४०।। श्रीसुव्रता-सागरदत्त-वीर-भद्रस्तदीयं गृहिणीत्रयं तत् ।। अभ्येयुरष्टादशतीर्थराजं, विश्वाभिवन्द्यं विधिना च नेमुः ॥३४१॥ कमॆष किं भोगफलं विभौ(भो!) प्राग्-भवे व्यधाच्छ्रावकवीरभद्रः ? । पृष्टो गणिन्येति जिनोऽरनाथः, परोपकाराय जगाद सद्यः ॥३४२।। इतस्तृतीयेऽस्मि भवेऽस्य जम्बू-द्वीपस्य सत्पूर्वविदेहवर्षे । वत्साभिधे राड् विजये सुसीमा-पुर्यामभूवं धनपत्यभिख्यः ॥३४३।। राज्यं विहायाऽऽत्तजिनेन्द्रदीक्षो, भ्राम्यन् यथाविध्यवनावपाप्मा । श्रीसुन्दरे रत्नपुरेऽहमागां, क्रमाच्चतुर्मासतपः कृशाङ्गः ॥३४४।। सद्भावसारो मम तत्तपान्ते, श्रेष्ठी तदाऽसौ जिनदासनामा । दोषैरशेषैरहितां च भिक्षा-मक्षामहर्षाश्रुभृतेक्षणोऽदात् ॥३४५॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ अनुसन्धान-७१ अगण्यपुण्येन च तेन देवः, स ब्रह्मलोकेऽजनि दीप्रकान्तिः । च्युत्वा ततो यत्र बभूव भव्या-स्तच्छूयतां साम्प्रतमेकचेतैः ॥३४६।। अस्यैव पूर्णेन्दुसमस्य जम्बू-द्वीपस्य रम्यैरवताख्यवर्षे । । देवः स काम्पील्यपुरे महेभ्य-पुत्रोऽजनिष्ट धुभवायुरन्ते ॥३४७|| तत्राऽपि विद्वान् परमा(म)द्धिमांश्च, सुश्रावकत्वं प्रतिपाल्य सम्यक् । मृत्वाऽच्युतेऽभूत् त्रिदशस्ततोऽसौ, च्युत्वा महात्माऽजनि वीरभद्रः ॥३४८|| पुण्येन तेनेह भवेऽपि पुण्या-नुबन्धिना बन्धुरमूतिरेषः । भुङ्क्ते सुभोगान् ननु यत्र तत्र, पुण्यं हि नित्यानुचरं जनानाम् ॥३४९।। एवं समाख्याय जिनाधिनाथः, सम्बोध्य भव्यान् सुखशाखिपाथः । विध्वंसयन् विश्वतमस्तमोरि-रिवाऽन्यतोऽगाद् विहरन्नराख्यः ॥३५०|| तद्दानोद्भवपुण्यतस्तु तिसृभिस्ताभिः समं [यौवने], लावण्यामृतकूपिकाभिरसमान् संसेव्य भोगांश्चिरम् । चारित्रं [परि]पाल्य कुन्दविशदं श्रीवीरभद्रस्ततः, सक्षेत्रोऽपि दिवं जगाम सशिवं याता शिवं च क्रमात् ॥३५१।। चरित्रं त्विदं वीरभद्रस्य लोका-स्सकर्णाः समाकर्ण्य कर्णामृताभम् । सदा पूर्णभद्रपदे दानधर्मे, विधत्त प्रयत्नं विवेकप्रधानम् ॥३५२।। इत्यादिसद्धर्मकथासुधाम्बु-सेकात् तडित्वानिव रामचन्द्रः । तदा स तत्राऽकृत साधुलोकान्, कृपार्णवः संसृतितापमुक्तान् ॥३५३।। गम्भीरतां तस्य जितेन्द्रियत्वं, युगप्रधानागमतां च दृष्ट्वा । श्रुत्वा जनाद् वादिजयप्रशस्ति, सम्भूय हर्षातिशयोक्तचित्तः ॥३५४|| अस्मन्मुदे सूरिपदप्रतिष्ठा, विधीयतां सम्प्रति रामचन्द्रे । इत्यह्निकान्ते मुनिचन्द्रसूरी-नभ्यर्थयामास समस्तसङ्घः ॥३५५॥ युग्मम् ।। व्याह(हा)रं तं यतिपरिवृढाः सर्वसङ्घोक्तमुच्चरूरीचक्रुर्गणधरपदस्योचित्तं तं विदित्वा । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ ७७ हर्षादेव मनसि निजके चिन्तयन्तः कृतेऽस्मिन्, गच्छाधीशे वयमपि सदा पूर्णभद्रा भवामः ॥३५६॥ ॥ इति वादीन्द्रश्रीदेवसूरिचरिते निरङ्केऽपि पूर्णभद्राङ्के पूर्णचन्द्रव्रतग्रहणो-त्थापनाकरण-योगोद्वहन-सकलस्वपरशास्त्राध्ययनदिगम्बरेन्द्र-गुणचन्द्रादिवादिजयन-वीरभद्रपवित्रचरित्रप्रकाशनगणिरामचन्द्राचार्यपदस्थापन-विषयसङ्घाभ्यर्थनादिवर्णनो नाम तृतीयः प्रस्तावः ॥३॥ ॥छ। ॥ चतुर्थः प्रस्तावः ॥ ख्यातस्तदा धनी द्रङ्गे, प्राग्वाटज्ञातिदीपकः । आसूनामा महामन्त्री, श्रीमतः सिद्धचक्रिणः ॥१॥ धुर्यो धर्मरथोद्वाहे. गुरून् सोऽथ व्यजिज्ञपत् । अहं कारयिताऽऽचार्य-पदनन्धुत्सवं प्रभो! ॥२॥ एवमस्त्विति तैरुक्तः, पुलकाङ्कितविग्रहः । साधर्मिकैः सहाऽऽलोच्य, सामग्रीमकरो[द्] द्रुतम् ॥३॥ सर्वे कुङ्कमपत्रीभि-राहूताः सूरयो रयात् । सङ्घन सहितास्तत्रा-ऽऽजग्मुः प्रमुदिताशयाः ॥४॥ श्रीवीराचार्यसत्ताके, युगादिजिनमन्दिरे । नन्दी प्रवर्तयामासुः, श्रीमुनीन्द्र( न्दु)मुनीश्वराः ॥५॥ वेद-सौख्य-ऽन्धकाराति-(११७४)मितेऽब्दे नृपविक्रमात् । तपोमासि दशम्यां च, शुक्लायां गुरुवासरे ॥६॥ युग्मम् ॥ मन्त्रन्यासमथाऽऽकार्पु-गुरवो गुणशालिने । सुलग्ने रामचन्द्राय, धरातत्त्वे वहत्यलम् ॥७॥ देवैर्विहितसान्निध्यः, सेव्यो भाव्येष सूरिभिः । ततस्तस्मै गुरुर्देव-सूरिरित्यभिध(धां) ददौ ॥८॥ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ अनुसन्धान-७१ भोज्य-ताम्बुल-सत्कारै-र्वस्त्रा-ऽलङ्कारमादिभिः । आसूनामा महामन्त्री, सङ्घर्चा विधिना व्यधात् ॥९॥ सा काऽपि देशना तत्र, चक्रे श्रीदेवसूरिभिः । यया चित्ते चमत्कार, विदधुः सुधियोऽधिकम् ॥१०|| उलूलुध्वनिसंवीतैः, स्फीतसङ्गीतमर्दलैः । सूरयो वसति भेजुः, पठद्भिर्भट्टपेटकैः ॥११॥ आसूनामा महामन्त्री, भूषणैश्चीवरैवरैः । याचकांस्तोषयामास, मेघोऽद्भिश्चातकानिव ॥१२॥ आचार्यमन्त्रमाराध्य, तपसा जाप्य(प)कर्मणा । लब्ध्वा(ब्ध्या) गौतमदेशीया, बभूवुर्देवसूरयः ॥१३॥ पितरौ देवसूरीणां, भगिनी भागिनेय्यपि । भ्राता च दीक्षिताः सर्वे, श्रीमुनीन्द्र(न्दु )मुनिश्वरैः ॥१४॥ पूज्यैः श्रीदेवसूरीणां, स्वसा चन्दनबालिका । महत्तरापदे साध्वी, चक्रे वक्रेतराशयैः ॥१५॥ तेभ्यो योग्यतमेभ्यस्ते, गुरवो प्रमुदोऽन्यदा । रहस्यं सर्वविद्याना-माविश्चक्रू रहःस्थिताः ॥१६॥ अथ श्रीदेवसूरीणां, प्रभावातिशयो जनाः! । सतामाश्चर्यजनको, वर्ण्यमानो निशम्यताम् ॥१७।। बोधयन्तो जनाम्भोजं, नाशयन्तस्तमस्ततीः । पावयन्तो निजैः पादै-भूतलं भास्करा इव ॥१८॥ प्राप्याऽऽदेशं गुरोश्चेलुः, पुरं नागपुरं प्रति । बहुः(हु)शिष्यपरिवाराः, पूज्या: श्रीदेवसूरयः ॥१९॥ युग्मम् ॥ ददृशुः पथि गच्छन्त-स्तीर्थमर्बुदसञकम् । रुद्धविष्णुपदं शृङ्ग-र्मूलप्तरसातलम् ॥२०॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ ७९ अचलेश्वर-वासिष्ठा-श्रममुख्यानि भूधरे । लौकिकान्यपि तीर्थानि, यत्र सन्ति सहस्रशः ॥२१॥ पुन्नाग-नाग-नारङ्ग-पु(फ)नसा-ऽऽम्रा-ऽर्जुनादयः । दृश्यन्तेऽनेकशो यत्र, सच्छाया: सरला द्रुमाः ॥२२।। यूथिका-माधवी-जाति-फलिनी-कुन्द-चम्पकाः । यत्र पुष्प-फलाकीर्णा, राजते वनराजयः ॥२३।। स्थाने स्थाने श्रवद्वारि-हारिनिर्जरराशयः । सरित्-सरो-हद-वाता, वीक्ष्यन्ते शिशिराम्भसः ॥२४॥ श्रीवीरवाक्सुधासेकाद्, यत्र कौशिकपन्नगः । सुवर्णखलके पूर्व, शान्तदृष्टिरर्ज(जा)यत ॥२५॥ दृष्टं पि(वि)नष्टसंतापं, पुनाति स्पृष्टमङ्गकम् ॥२६।। सतीमतल्लिका यत्रा-ऽधिष्ठात्री चाऽस्ति देवता । श्रीमाता जनमातेव, विघ्नव्यूहविनाशिनी ॥२७॥ प्राग्वाटवंशजः श्रीमान्, मन्त्री विमलनायकः । यं पुरा कारयाञ्चक्रे, यशःपुञ्जमिव स्वकम् ॥२८॥ तत्राऽऽरूढाः परीवार-वृताः श्रीदेवसूरयः । ईक्षन्ते स्म विहारं तं, श्रीनाभेयजिनेशितुः ॥२९॥ युग्मम् ॥ हर्षोत्तालगिरस्तत्र, चञ्चद्रोमाञ्चकाम्बुकाः(कञ्चकाः) । पूज्यास्तदाऽस्तुवन्नेवं, श्रीयुगादिजिनेश्वरम् ॥३०॥ तथाहि - भक्त्या नमत्रिदशनायकमौलिमौलि-स्रस्तप्रशस्तकुसुमार्चितपादपद्मम् । श्रीअर्बुदाचलशिरोमणिमादिनाथं, संवर्द्धमानबहुमानममानमीडे ॥३१॥ श्रीनाभिसम्भव! जिनेन्द्र! सुरेन्द्रवन्ध!, वन्द्यक्रमाम्बुज! महोदय! शर्महर्म्य! । खिन्नेव(न) संसृतिमरौ मयका कथञ्चिद्, दृष्टोऽसि कल्पतरुकल्प इह त्वमद्य ॥३२॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७१ वर्षं ममेदमखिलं जिन! जातहर्ष, मासोऽप्ययं सकलमङ्गलसन्निवासः । श्रीवासरः पुनरजायत वासरोऽसौ. यल्लोचनातिथिरभूत् त्वमनङ्गजेतः! ॥३३॥ नाभेयदेव! तव पादपयोरुहेऽस्मिन्, रोलम्बतां दधदहं भुवनावतंस! । लोकोत्तरं किमपि शर्म समासदं तद्, यस्याऽग्रतः सुरसुखान्यपि नो गुरूणि:(णि)।३४। पोतस्य मध्यमधिगम्य तरन्ति सिन्धु, लोका युगादिजिनचन्द्र! किमत्र चित्रम् ? । दृष्टे पुनस्त्वयि विभो! मरुदेविमातुः, पोते भवाब्धिमतरंस्तदतीव चित्रम् ॥३५।। नीति त्वयोपदिशता जगतां हितां तां, धर्त्यां कृपामुदुहृदा व्यवहारशुद्धाम् । सत्यापिताऽवनितले नियतं युगादौ, श्रीनाभिभूरिति कथा प्रथिता जिनेन्द्र! ॥३६|| त्वं पुण्डरीकनयनः पुरुषोत्तमस्त्वं, लक्ष्मीसमाश्रितवपुश्च सनातनस्त्वम् । त्वं तारकारिरमरा→पदाच्युतस्त्वं, श्रीनाभिसम्भव! परं न जनार्दनोऽसि ॥३७॥ मृत्युञ्जयस्य भुवनत्रितयेश्वरस्य, कन्दर्पदर्पदलनस्य च शङ्करस्य । सर्वज्ञतामधिगतस्य जटाधरस्य, युक्ता विभाति भवतो वृषभासितेयम् ।।३८।। इति वृषभजिनोऽसावर्बुदाद्रौ निविष्ट(ष्टो), विमलवसतिकायां विश्वविश्वातिशायी। दिविषदधिपवृन्दैर्वन्द्यपादारविन्दो, दिशतु सुखसमिद्धं पूर्णभद्रं पदं मे ॥३९॥ स्तुत्वा जिनं ततश्चारु-फलिनीतरुसन्निधौ । अम्बिकायै स्तुतिं दातुं, ययुः श्रीदेवसूरयः ॥४०॥ स्तुतिं दत्त्वा प्रचेलुस्ते, यावन्नागपुरं प्रति । ततः(तावत्) स्त्रीरूपमाधाय, वन्दित्वाऽवोचदम्बिका ॥४१॥ श्रीजैनशासनाधार!, मा गा नागपुर:पुरम् । तयो(यतो)ऽवशिष्यते मासा-ष्टकमायुर्भवद्गुरोः ॥४२॥ त्वं तु तीर्थोन्नतेः कर्ता, जैनशासनभास्करः । दुःखमादूषणैर्वत्स! कदाचिन्नैव लिख्य(खिल्य?)से ॥४३॥ अथाऽम्बा जगतामम्बा, जल्पिच्चैवं(त्वैवं) तिरोदधे । व्यावृत्त्य पत्तनमगु(गुः), तच्छ्रुत्वा प्रभवः पुनः ॥४४॥ नत्वा(त्वो)चुस्ते यथावृत्त(त्तं), स्वगुरुभ्यो गुणार्णवाः । जहषुर्गुरवोऽप्यन्तः, श्रुत्वा तद् दैवतं वचः ॥४५॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ स्वायु:स्वरूपमाकर्ण्य, मुनिचन्द्रर्षिचक्रिणः । स्थापयामासुराचार्यां-मू(स्त)दानीमात्मसन्निधौ ॥४६॥ श्रीसिद्धान्तानुगां तत्र, भवनिर्वेदकारिणीम् । चक्रुः पीयूषदेशीयां, देशनां देवसूरयः ॥४७॥ किञ्च - भव्याः! शीलं सदा पाल्यं, भाग्यसौभाग्यकारणम् । अमन्त्र-तन्त्र-मूलं स्व-र्मोक्षलक्ष्म्याश्च कार्मणम् ॥४८॥ समीपे सम्पदः सर्वा-स्तस्याऽऽदेशकराः सुराः । कीर्तिः स्फूर्तिमियीह, यस्य शीलं विभूषणम् ॥४९॥ सिद्धयोऽप्यणिमाद्यास्ताः, स्युः सदा तस्य पार्श्वगाः । मित्रन्ति शत्रवोऽप्युच्चै-र्यस्य शीलं विधे(धो)ज्ज्वलम् ॥५०॥ अचौर-भूमिभृद्वा(धा)र्य-मद्वितीयं सनातनम् । नराणामङ्गनानां च, शीलमेव विभूषणम् ॥५१॥ यान्त्यापदः क्षयं तेषां, व्याघ्र-व्याला-ऽनलादिकाः । पापपङ्कजलं शै(शी)लं, ये सदा बिभ्रते नराः ॥५२।। शीलमञ्जनसुन्दर्या, सत्येवाऽनन्यचेतसा । दुष्पालं पाल्यते येन, स स्यात् कल्याणभाजनम् ॥५३॥ तथाहि - द्वीपस्य जम्बूपपदस्य दत्त-हर्षप्रकर्षे भरताख्यवर्षे । वैताढ्यनामा गिरिरस्ति विद्या-धरोभयश्रेणियुगादिशुभ्रः ॥५४॥ बुधानुपास्तं वृषभूषितं च, सदप्सरःसंहतियुक्तमस्ति । तत्र श्रियाऽऽदित्यपुरं पुरं स्वः-पुरोपमं न त्वकुलीनसेव्यम् ॥५५॥ वज्रीव तस्मिन्नरिचक्रवाल-कालप्रतापस्फुरदालवालः.... (एतावदेवोपलब्धमिदं काव्यम्) Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७१ श्रीवादीदेवसूरि-चरित-महाकाव्य-सम्बन्धित ऐतिहासिक नोंध -शी. (१) आशापल्यां नेमिचैत्यं ॥ घटिकागृहं ॥ श्रीदेवसूरयः ॥ पं०माणिक्यः ॥ चाहडप्रभृतिदिगम्बर श्रावकाः ॥ (२) कुमुदचन्द्रः ॥ दिगम्बरश्राद्धाः || श्रीदेवसूरिसमीपे दिगम्बर भट्टः...... पठति ॥ (३) कुमुदचन्द्रः ॥ वृद्धार्यिकां नर्तयति गर्वात् ॥ श्रीदेवाचार्याग्रे वृद्धार्या रोदिति ॥ दिगम्बरः ॥ भट्टः ॥ वणिजः ॥ मालाकारभटाः ॥ (४) श्रीदेवसूरयः पत्तनं प्रति प्रचलिता रथशकुनमभिनन्दयन्ति ॥ (५) कुमुदचन्द्रः ॥ . (६) कुमुदचन्द्रः सर्प पश्यति ॥ स्वभ्रवती नदी ॥ दिगम्बरः घटिकागृह पाश्चात्यप्रतोली - राजान्तःपुरं ॥ आ अङ्कमां श्रीवादिदेवसूरिचरित महाकाव्यनो उपलब्ध चार प्रस्तावात्मक अंश प्रकाशित छे. तेमना जीवननी एक अद्भुत, यशस्वी अने ऐतिहासिक घटना एटले दिगम्बर जैन साधु वादी कुमुदचन्द्र साथे वादनी घटना. ते घटना इतिहास-सिद्ध घटना छे. अनेक ग्रन्थो तथा प्रबन्धोमां ते विषे नोंधो छे. एक नाटक पण ते घटनाना आंखे देख्या अहेवाल जेवं, ते दिवसोमां ज, लखायुं छे. तो ते समग्र प्रसंगने आलेखतां चित्रो धरावती काष्ठपट्टिका पण, ते अरसामां ज चित्रित, उपलब्ध छे. तेनी अन्यत्र प्रकाशित तसवीरो, आ महाकाव्यना अनुषङ्गे अहीं (टाइटल-३,४) पुन: प्रकाशित थाय छे. ताडपत्र-पोथीनी पाटली लाकडानी बनती. ते पाटली उपर क्वचित् आवां चित्रो आलेखवामां आवतां. आ एक ज पाटली छे. तेनी बेय तरफ आ प्रसङ्ग दोरायेलो छे. अलबत्त, पाटली हमेशां जोडीमां होय. आ एक ज छे, तेथी प्रसंगनो पूर्वार्ध मळे छे, उत्तरार्ध नहि. जोडीनी बीजी पाटली होय ज, परन्तु ते कालग्रस्त होय अथवा ते परनुं चित्राङ्कन उखडी जईने नामशेष थयुं होय तेम मानवू पडे. Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ ८३ पाटली उपरना अक्षरो लेखना आरम्भे प्रकाशित छे. ते अनुसार परिचय करीए : चित्र १ : आशापल्ली (आशावल, हाल- असारवा- अमदावाद, त्यां नेमिनाथनुं चैत्य छे. तेनी बहार घटिकागृह (चोघडियां वगाडवानुं स्थान, नगारखानु) छे. चैत्यना परिसरमांनी 'वसति'मां आ. देवसूरि, सामे शिष्य पं० माणिक्यचन्द्र छे. तेमने मळवा 'चाहड' आदि दिगम्बर गृहस्थो आव्या - बेठा छे. चित्र २ : दिगम्बर कुमुदचन्द्र, सामे एक शिष्य, पछी दिगम्बर श्रावको (२) छे. तो, देवसूरिजी पासे दिगम्बरोनो भाट सन्देशो कहेतो जणाय छे. (वाद माटेनो हशे.) चित्र ३ : (देवसूरिनां माता जैन साध्वी (आर्या) छे. ते बहार जईने आवतां हशे, तेमने दिगम्बर आचार्ये जोयां. पासे बोलावीने आज्ञा करी के मारी सामे नाच. तेना भक्तोए तेनो बलात् अमल कराव्यो हतो. पोते राजमान्य होवाना उन्मादमां आ कार्य करेलुं. ते सन्दर्भमां-) गर्वोद्धत कुमुदचन्द्र वृद्ध आर्यिकाने नचावे छे. (त्यांथी छूटेलां-) आर्या देवसूरि पासे जईने रहे छे, (धा नाखे छे के तारा जेवो दीकरो होय ने मारी आ हालत थाय ?). पछी दिगम्बर आचार्य छे, तेनी सामे पेलो भाट (सन्देशो पहोंचाडीने पाछो फर्यो हशे) छे, ते पछी वणिग्जनो, माळीओ व्यापार करतां देखाय छे. (अहीं पट्टिकानी एक बाजु समाप्त थाय छे.) चित्र ४ : (पट्टिकानी बीजी बाजु :) श्रीदेवसूरि पाटण भणी जवा पगपाळा नीकळे छे, ने सामे भगवानना रथनां शुकन थाय छे - वाजिन्ननाद साथे. तो ते पछी तरत दिगम्बर कुमुदचन्द्र पालखीमां बेसीने (पाटण भणी) जई रह्या देखाय छे. चित्र ५ : ते कुमुदचन्द्रने सर्प आडो ऊतरतो देखायो. वाटमां श्वभ्रवती - साबरमती नदी आवी छे. (हवे राजमाता मीनलदेवी मूळे कर्णाटकनां अने दिगम्बर मतनां हतां. आ आचार्य तेमना परिवारना गुरु हता. तेथी तेमणे मीनलदेवीनो पाछला दरवाजे सम्पर्क साधीने राजा पोताना पक्षे रहे तेवी पेरवी Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७१ करेली. ते सन्दर्भे-) दिगम्बर (कुमुदचन्द्र). घटिकागृह (राजभवन- नोबतखानु). पाछली पोळ, राजानुं अन्तःपुर (बे स्त्रीओ देखाय.) (अहीं पाटलीनी बीजी बाजु पूरी थाय.) आगळनो घटनाक्रम ढूंकमां जोईए : राजमाताए उघाडा पक्षपातनो इन्कार कर्यो, पण आचार्यनी बहु ज समजावटथी वादनी शरतमां ढील स्वीकारी. वाद पूर्वे शरत थई के जो श्वेताम्बरो हारे तो ते तमाम श्वेताम्बरोए दिगम्बर थई जवान. अने दिगम्बरो हारे तो तेमणे गुजरातमांथी नीकळी जवानु. (पक्षपात स्पष्ट छे. अन्यथा तेमणे श्वेताम्बर थर्बु पडे.) राजसभामां वाद थयो. तेनुं वर्णन मळे ज छे. अन्ते दिगम्बरो हारी गया. देवसूरिनो विजय थयो. कुमुदचन्द्र जवाब न आपी शकतां निरुत्तर थतां हारेला जाहेर थया. ते वखते एक कविए आ श्लोक लख्यो : यदि नाम कुमुदचन्द्रं नाऽजेष्यद् देवसूरिरहिमरुचिः । कटिपरिधानमधास्यत कतमः श्वेतम्बरो जगति ? ॥ आ समग्र घटना- तादृश वर्णन कवि-साधु यशश्चन्द्रे 'मुद्रितकुमुदचन्द्र' नामना लघु-नाटकमां कयें छे, जे प्राप्य छे. उल्लेखनीय छे के आ वाद-समये हेमचन्द्राचार्य पण देवसूरिजीनी साथे उपस्थित हता. * * * Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ पूर्णतल्लगच्छीय-श्रीशान्तिसूरिविरचितटीकोपेतं घटकपरकाव्यम् - सं. मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय पूर्णतल्लगच्छीय श्रीवर्धमानसूरिना पट्टधर, न्यायावतार-वार्तिकवृत्तिकार तेम ज तिलकमञ्जरीटिप्पनककार शान्तिसूरिजीए पांच अजैन यमकाद्यलङ्कृत खण्डकाव्यो पर वृत्ति रची छे. जेमांथी वृन्दावनकाव्य (अनुसन्धान-६७), मेघाभ्युदय (सम्बोधि - १/१, एप्रिल १९७२), शिवभद्र (सम्बोधि - २/२, जुलै १९७३ अने २/३. ओक्टोबर १९७३) तेमज चन्द्रदूत (सम्बोधि - २/३, ओक्टोबर १९७३) ए चार काव्यो वृत्ति-सहित पूर्वे प्रकाशित थई चूक्यां छे. पांचमुं घटकर्पर काव्य वृत्तिसहित अत्रे प्रकाशित थई रह्यं छे. काव्यना कर्ता अज्ञात छे. वृत्तिकार श्रीशान्तिसूरिजीनो सत्तासमय अनुमानतः वि.सं. १०५०-११७५ वच्चे निर्धारित थयो छे. तेमनो विस्तृत परिचय पं. श्रीदलसुखभाई मालवणिया द्वारा सम्पादित न्यायावतारवातिकवृत्तिमां (प्र.-सरस्वती पुस्तकभण्डार, अमदावाद, ई. २००२) अपायो छे. घटकपरकाव्य मुख्यत्वे प्रोषितभर्तृका विरहिणी स्त्रीनी वियोगवेदनाने वर्णवतुं काव्य छे. २१ श्लोकना आ नानकडा काव्यनी विषयवस्तु आम छे : श्लोक १-६. विरहिणी स्त्री, सखी प्रत्ये कथन, ७. कामवर्धक मेघ प्रत्ये विरहिणीनो आक्रोश. ८-१३. मेघ द्वारा प्रियने मोकलावातो सन्देश, १४-२०. सखी, सर्जवृक्ष, कदम्ब व. ने उद्देशीने विरहिणीनो विलाप, २१. काव्यकर्ता, आत्मगौरवभर्यु कथन. आ छेल्ला पद्यमां कविए पोतानी काव्यकुशलता वर्णवतां कर्तुं छे के "जे कवि मने यमक वडे हरावशे ते कवि माटे हुं घटकर्परमां-घडाना टुकडामां पाणीनु वहन करीश." आवा 'घटकर्पर'ना लाक्षणिक प्रयोगने लीधे आ काव्य ‘घटकर्पर'ना नामे ओळखातुं थयुं होवू जोइए. काव्य, अने वृत्तिनुं सम्पादन कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर-कोबास्थित ६२४७ क्रमाङ्कनी हस्तप्रतने आधारे थयुं छे. प्रत सं. १८५१मां लखाई छे. प्रतनी वाचना घणी ज अशुद्ध छे. पण अर्थसङ्गतिना आधारे यथाशक्य शुद्धीकरण करीने वाचना तैयार करी छे. प्रतनी नकल आपवा माटे संस्थाना कार्यवाहकोना अमो आभारी छीए. नजीकना भविष्यमां पांचे काव्यो- संयुक्त प्रकाशन करवानी भावना छे. Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ अनुसन्धान-७१ निचितं खमुपेत्य नीरदैः, प्रियहीनाहृदयावनीरदैः । सलिलैर्निहितं रजः क्षितौ, रवि-चन्द्रावपि नोपलक्षितौ ॥१॥ ___"प्रोषितप्रमदयेदमुच्यते" इति वक्ष्यति (श्लो. ६) । ततश्चाऽयमर्थः - प्रोषितप्रमदया- गतभर्तृकया सख्या अग्रत इदं पूर्वोक्तं निचितमित्यादिकं वक्ष्यमाणं चोच्यते । हे सखि! । कीदृशि! ? कुन्दसमानदन्ति!- कुन्दकलिकासमदशने! । निचितं- छन्नम् । किं तत् ? खमाकाशम् । कैः ? नीरदैः । कीदृशैः ? प्रियहीनाहृदयावनीरदैः- प्रियेण- भा, हीना- रहिताः काश्चिन् मृतेन देशान्तरगतेन वा, तासां हृदयं- चित्तं, तदेवाऽवनी- भूमिः, तां रदन्तिविदारयन्तीति ते तथोक्तास्तैः, गतभर्तृका-मनोदाहदैरित्यर्थः । किं कृत्वा निचितम् ? उपेत्य- आगत्य । ___ तथा सलिलै लैर्निहितं- स्थापितम् । किं तद् ? रजो- धूलिः । कस्याम् ? क्षितौ- भूमौ । तथा रविचन्द्रावपि नोपलक्षितौ- मेघैराच्छादितत्वाद् न दृष्टौ ॥१॥ हंसा नदन्मेघभयाद् द्रवन्ति, निशामुखान्यद्य न चन्द्रवन्ति । नवाम्बुमत्ताः शिखिनो नदन्ति, मेघागमे कुन्दसमानदन्ति! ॥२॥ तथा हंसा:- चक्राङ्गा, द्रवन्ति- गच्छन्ति । कस्मात् ? नदन्मेघभयाद्गर्जद्घनत्रासात् । तथाऽद्याऽधुना निशामुखानि- प्रदोषा न वर्तन्ते । कीदृशानि ? चन्द्रवन्ति- शशियुक्तानि । तथा शिखिनो- मयूरा, नन्दन्ति- शब्दायन्ते । कीदृशाः सन्तः ? नवाम्बुमत्ता:- नूतनजलहृष्टाः । एतत् सर्वं कस्मिन् काले ? मेघागमे- मेघानामागमो यस्मिन् काले, मेघागमो वर्षाकालस्तस्मिन् । कुन्दसमानदन्ति!, व्याख्यातमेतत् ॥२॥ मेघावृतं निशि न भाति नभो वितारं, निद्राऽभ्युपैति च हरिं सुखसेवितारम् १. इदं पदमग्रेतनश्लोकस्थम् । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ ८७ सेन्द्रायुधश्च जलदोऽद्य रसन्निभानां, संरम्भमावहति भूधरसन्निभानाम् ॥३॥ तथा निशि- रात्रौ, न भाति- न शोभते । किं तद् ? नभ- आकाशम् । कीदृशम् ? वितारं- विगतास्तारास्तारका यत्र तत् तथोक्तम् । ____ तथा निद्रा- स्वापश्चाऽभ्युपैति- प्राप्नोति । कम् ? हरिं- विष्णुम् । कीदृशम् ? सुखसेवितारं- सुखं सेवते- अनुभवतीति सुखसेवितारम् । चः समुच्चये । यद्वा शुभसेविताऽरम् । निद्रा वा कीदृशी ? शुभसेविता । शुभेनकल्याणेन सेविता- श्रिताऽरं- शीघ्रमभ्युपैति । ___ तथा जलदो- मेघः संरम्भम्- आटोपमावहति- बिभर्ति । क्व ? अद्य- अधुना । कीदृशः ? सेन्द्रायुधः- इन्द्रचापसहितः । किं कुर्वन् ? रसन्- गर्छन् । केषां संरम्भम् ? इभानां- करिणाम् । कीदृशानाम् ? भूधरसन्निभानां- गिरितुल्यानाम् ॥३।। सतडिज्जलदार्पितं नगेषु, स्वनदम्भोधरभीतपन्नगेषु । परिधीररवं जलं दरीषु, प्रपतत्यद्भुतरूपसुन्दरीषु ॥४॥ ___तथा प्रपतति- वहति । किं तत् ? जलं- पयः । कासु ? दरीषुकन्दरासु । कीदृशीषु ? अद्भुतरूपसुन्दरीषु- अद्भुतमाश्चर्यकारि यद् रूपं, तेन सुन्दर्य:- शोभनास्तासु । कीदृशं जलम् ? परिधीररवं- गम्भीरशब्दम् । तथा सतडिज्जलदार्पितं- सविद्युन्मेघमुक्तम् । केषु ? नगेषु- पर्वतेषु । कीदृशेषु ? स्वनदम्भोधरभीतपन्नगेषु- गर्जन्मेघत्रस्तसपेषु ॥४॥ क्षिप्रं प्रसादयति सम्प्रति कोऽपि तानि, कान्तामुखानि रतिविग्रहकोपितानि । उत्कण्ठयन्ति पथिकान् जलदाः स्वनन्तः, शोकोऽप्यवर्द्धत च तद्वनितास्वनन्तः ॥५॥ कोऽपि- कश्चिदप्यनिर्दिष्टनामा, क्षिप्रं- शीघ्रं, प्रसादयति- परितोषयति । क्व ? सम्प्रति- इदानीम् । कानि ? कान्तामुखानि- प्रियाननानि । कीदृशानि सन्ति ? रतिविग्रहकोपितानि- रतौ- सुरते, विग्रहो- युद्धं, तेन कोपितानिविमुखानि । कथम्भूतानि ? तानि- प्रसिद्धानि चन्द्रसमादीनि । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७१ अपि सम्भावनायाम्, सम्भाव्यते एतत् । तथा जलदा- मेघा उत्कण्ठयन्ति- उत्सुकयन्ति । कान् ? पथिकान्- अध्वगान् । किं कुर्वन्त: ? स्वनन्तः- गर्जन्तः । ____ तथा शोक:- सन्तापोऽवर्धत - वर्धते स्म, तद्वनितासु- पथिकभार्यासु । किंभूतः ? अनन्त:- अपर्यवसान: । चः समुच्चये ॥५॥ छादिते दिनकरस्य भावने, खाज्जले पतति शोकभावने । मन्मथे च हृदि हन्तुमुद्यते, प्रोषितप्रमदयेदमुद्यते ॥६॥ ____प्रोषितप्रमदया- गतभर्तृकयेदं पूर्वोक्तं वक्ष्यमाणं चोद्यते- भण्यते । क्व सति ? भावने सति, भासां वनं- वृन्दं भावनं- दीप्तिवितानं तस्मिन् । कीदृशे ? छादिते- पिहिते । कस्य ? दिनकरस्य । तथा खाज्जले- पानीये, पतति- वहति सति । कीदृशे जले ? शोकभावने- सन्तापजनके। ___तथा मन्मथे- कामे सति । कीदृशे ? उद्यते- सोद्यमे । किं कर्तुम् ? हन्तुं- ताडयितुम् । क्व ? हृदि- मनसि । कैः ? शरैरिति शेषः ॥६॥ सर्वकालमवलम्ब्य तोयदा, आगताश्च दयितो गतो यदा । निघृणेन परदेशसेविना, मारयिष्यथ हि तेन मां विना ॥७॥ ___ हे तोयदा!- मेघाः । हिर्व्यक्तम् । मारयिष्यथ- विनाशयिष्यथ । के ? यूयम् । काम् ? माम् । कथम् ? विना- अन्तरेण । केन ? तेन- प्रियेण । कीदृशेन ? परदेशसेविना- अन्यदेशरतेन । तथा निघृणेन- निष्करुणेण । कीदृशा यूयम् ? आगता- उपस्थिताः । किं कृत्वा ? अवलम्ब्य- विलम्ब्य । क्व ? सर्वकालम् । कदा आगताः ? यदा गतो- गमनप्रवृत्तः । कोऽसौ ? दयितो- वल्लभः । ___ "आगताः स्थे"ति पाठान्तरम् । तत्र चाऽयमर्थः - प्राप्ता यूयं स्थभवथेति ॥७॥ ब्रूत तं पथिकपांशुलं घना!, यूयमेव पथि शीघ्रलङ्घनाः । "अन्यदेशरतिरद्य मुच्यतां, साऽथवा तव वधूः किमुच्यताम् ?" ॥८॥ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ हे घना!- मेघा!, ब्रूत- भणत । के ? यूयमेव- भवन्त एव । कं ब्रूत ? तं- प्रियम् । कीदृशम् ? पथिकपांशुलं- पान्थनिकृष्टम् । यतः कीदृशा यूयम् ? शीघ्रलङ्घना- वेगगामिनः । क्व ? पथि- मार्गे । किं ब्रूत ? अद्यअधुना, अन्यदेशरतिः- परदेशप्रीतिर्मुच्यतां- त्यज्यतां युष्माभिः । अथवायदिवा, यदि न त्यज्यते तदा, तव- ते, वधूः- भार्या, किमुच्यता- किं भण्यताम् ? ॥८॥ हंसपक्तिरपि नाथ! सम्प्रति, प्रस्थिता वियति मानसं प्रति । चातकोऽपि तृषितोऽम्बु याचते, दुःखिता पथिक! सा प्रिया च ते ॥९॥ __ हे नाथ!- स्वामिन्! । हंसपङ्क्तिरपि- चक्राङ्गाजिरपि, प्रस्थिताचलिता, सम्प्रति- इदानीं, मानसं प्रति- मानससरो लक्ष्यीकृत्य । क्व ? वियत्याकाशे । तथा चातको- बप्पीहकोऽपि याचते- प्रार्थयते । किं तद् ? अम्बुजलम् । कीदृशः ? तृषितः- पिपासितः । तथा हे पथिक!- अध्वग! । सा च ते- तव प्रिया- वल्लभा दुःखितादुःखप्राप्ता वर्तते । अपि-चकाराः परस्परापेक्षया समुच्चये ॥९॥ नीलशष्पमतिभाति कोमलं, वारि विन्दति च चातकोऽमलम् । अम्बुदैः शिखिगणो विनाद्यते, का रतिः प्रिय! मया विनाऽद्य ते ? ॥१०॥ ___ अतिभाति- अतिशयेन शोभते । किं तत् ? नीलशष्पं- कृष्णबालतृणम् । कीदृशम् ? कोमलं- सुकुमारम् । तथा वारि- जलं, विन्दति- लभते । कोऽसौ ? चातको- बप्पीहकः । कीदृशं वारि ? अमलं- निर्मलम् । चः समुच्चये । तथाऽम्बुदैः- मेघैः, शिखिगणो- मयूरवृन्दं, विनाद्यते- शब्दं कार्यते । हे प्रिय! ते- तव, का रतिः- का प्रीतिः, अद्य- अधुना । कथम् ? विना- अन्तरेण । कया ? मया- माम् ॥१०॥ मेघशब्दमुदिताः कलापिनः, प्रोषिताहृदयशोकलापिनः । तोयदागमकृशा च साऽद्य ते, दुर्धरेण मदनेन साद्यते ॥११॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० अनुसन्धान-७१ कलापिनो- मयूरा वर्तन्ते । कीदृशाः ? प्रोषिताहृदयशोकलापिनः, प्रोषिताया- गतभर्तृकाया, हृदयं- मनः, तस्य शोकं- सन्तापं, लपन्ति- ब्रुवन्ति जनयन्ति वाऽनेकार्थत्वात्, ते तथोक्ताः । कथम्भूताः सन्तः ? मेघशब्दमुदिताघनरवहृष्टाः । कृतकेकाशब्दा इत्यर्थः । सा च ते भवदीयभार्याऽद्येदानी साद्यते- खेद्यते वेवीद्यते च । केन ? मदनेन- कामेन । कीदृशेन ? दुर्धरेण- दुःसहेन । कीदृशी ? तोयदागमकृशा- मेघागमकृशा- मेघागमदुर्बला ॥११॥ किं कृपाऽपि तव नाऽस्ति कान्तया, पाण्डुगण्डपतितालकान्तया । शोकसागरजलेऽद्य पातितां, त्वद्गुणस्मरणमेव पाति ताम् ॥१२॥ हे प्रिय! किं कृपाऽपि- करुणाऽपि, तव- ते, नाऽस्ति- न विद्यते ?, अपि सम्भावनायाम् । कया ? कान्तया- प्रियया । कीदृश्या ? पाण्डुगण्डपतितालकान्तया- पाण्डुगण्डयो:- शुभ्रकपोलयोः, पतिता:- श्रिता, अलकानां- कुटिलकेशानामन्ताः- पर्यन्ता यस्याः, सा तथोक्ता तया । तां- त्वद्भार्यां, त्वद्गुणस्मरणमेव- गुणस्मृतिरेव, पाति- रक्षति, अद्यइदानीम् । कीदृशीम् ? पातितां- प्रवेशिताम् । केन ? त्वयैवेति गम्यते । क्व ? शोकसागरजले- शोक एव सन्ताप एव सागरजलं, बहुत्वाद् गम्भीरत्वाच्च, तत् तथोक्तं तस्मिन् ॥१२॥ कुसुमितकुटजेषु काननेषु, प्रियरहितेषु समुत्सुकाननेषु । वहति च कलुषं जलं नदीनां, किमिति च मां समुपेक्षसे न दीनाम् ? ॥१३॥ __ हे प्रिय! किमिति- किमर्थं न मां समुपेक्षसे- न स्मरसि ? । कीदृशीम् ? दीनां- दैन्यापन्नाम् । यद्वा मानियोध! किं मां न समुपेक्षसे ? अपि तु समुपेक्षसे एव । प्रियां कीदृशीम् ? दीनाम् । केषु ? काननेषु । कीदृशेषु ? कुसुमितकुटजेषुपुष्पितकुटजवृक्षेषु । तथा प्रियरहितेषु- वल्लभहीनेषु सत्सु । कीदृशेषु ? समुत्सुकाननेषु- समुत्सुकमुत्कण्ठितमाननं- मुखं येषां ते तथोक्तास्तेषु । ___ तथा वहति च- सर्पति च । किं तद् ? जलं- पानीयम् । कीदृशम् ? कलुषं- मलिनम् । कासाम् ? नदीनां- सरिताम् । इति हेतोः किं [न] समुपेक्षसे इत्यर्थः ॥१३॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ मार्गेषु मेघसलिलेन विनाशितेषु, कामो धनुः स्पृशति तेन विना शितेषु । गम्भीरमेघरसितव्यथिता कदाऽहं, जह्यां सखि ! प्रियवियोगजशोकदाहम् ॥१४॥ हे सखि!- मित्र!, कदा- कस्मिन् काले, जह्यां- त्यजेयम् । कम् ? प्रियवियोगजशोकदाहम्- प्रियेण [दयिते ]न वियोगो- विरहस्तस्माज्जातः प्रियवियोगजः, स चाऽसौ शोकदाहश्च- सुकीडा च (?) स तथोक्तस्तम् । कीदृशी ? गम्भीरमेघरसितव्यथिता- गम्भीरघनगर्जितपीडिता, यतस्तेनप्रियेण विना । कोऽसौ ? कामोऽनङ्गो धनुश्चापं स्पृशति- आमृशति । कीदृशम् ? शितेषु- तीक्ष्णबाणम् । केषु सत्सु ? मार्गेषु- पथिषु । कीदृशेषु ? विनाशितेषु- भग्नेषु । केन ? मेघसलिलेन- घनजलेन इत्यर्थः ॥१४॥ सुसुगन्धितया वनेऽजितानां, स्वनदम्भोधरवातवीजितानाम् । मदनस्य कृते निकेतनानां, प्रतिभान्त्यद्य वनानि केतकानाम् ॥१५॥ हे प्रिय! अद्य- अधुना, प्रतिभान्ति- शोभन्ते । कानि ? वनानिकाननानि । केषाम् ? केतकानाम् । कीदृशानाम् ? निकेतनानां- निवासानाम् । किमर्थम् ? कृते- निमित्तम् । कस्य ? मदनस्य- कामस्य । तथाऽजितानाम्अनभिभूतानाम् । कया ? सुसुगन्धितया- सुष्टु शोभनगन्धेन । क्व ? वनेकानने । तथा स्वनदम्भोधरवातवीजितानां- स्वनन्तश्च तेऽम्भोधराश्च, तेषां वातो- वायुस्तेन वीजिता- विशेषेणेजिता:- कम्पितास्तेषां, गर्जन्मेघमरुत्कम्पितानामित्यर्थः ॥१५॥ तत् साधु यत् त्वां सुतलं ससर्ज, प्रजापतिः कामनिवास! सर्ज! । त्वं मञ्जरीभिः प्रवरो वनानां, नेत्रोत्सवश्चाऽसि सयौवनानाम् ॥१६॥ ___ हे सर्ज! । कीदृश! ? कामनिवास!- मदनवसते! । तत् साधु- शोभनं, यत् त्वा- भवन्तं, ससर्ज- सृष्टवान् । कोऽसौ ? प्रजापतिः- ब्रह्मा । कीदृशं त्वाम् ? सुतलं- चारुवृक्षम् । यतस्त्वमसि- भवसि । कीदृशः ? प्रवरःश्रेष्ठः । केषां मध्ये ? वनानां- वृक्षाणाम् । काभिः ? मञ्जरीभिः । न केवलं प्रवरो, नेत्रोत्सवश्च- नयनानन्दकारी चाऽसि । केषाम् ? सयौवनानांतरुणानाम् ॥१६॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ अनुसन्धान-७१ नवकदम्ब! शिरोऽवनताऽस्मि ते, वसति ते मदनः कुसुमस्मिते । कुटज! किं कुसुमैरुपहस्यते, निपतिताऽस्मि सुदुःप्रसहस्य ते ॥१७॥ ___ हे नवकदम्ब!, ते- तव, शिरोऽवनता- मूर्द्धप्रणता, अस्मि- भवामि । यतो वसति- तिष्ठति । कोऽसौ ? मदन:- काम: । क्व ? कुसुमस्मितेपुष्पहास्ये । कस्य ? ते- तव । ___तथा हे कुटज! किमुपहस्यते- हासः क्रियते? । कै: ? कुसुमैः । निपतिताऽस्मि- प्रणताऽस्मि । कस्य ? ते- तव । कीदृशस्य ? सुदुःप्रसहस्य- सुष्ठु दुःसहनीयस्य ॥१७|| तरुवर! विनताऽस्मि ते सदाऽहं, हृदयं मे प्रकरोषि किं सदाहं । तव पुष्पनिरीक्षिताऽपदेऽहं, विसृजेऽहं सहसैव नीप! देहम् ॥१८॥ हे नीप!- कदम्ब! । कीदृश! ? तरुवर!- वृक्षश्रेष्ठ! । ते- तव विनताऽस्मि- प्रणताऽस्मि, सदा- सर्वकालमहम् । किं किमर्थं, प्रकरोषिविदधासि । किं तत् ? हृदयं- मनः । कीदृशम् ? सदाहं- ससन्तापम् । कस्य ? मे- मम । किञ्च, विसृजेऽहं- त्यजाम्यहम् । हे नीप!, कम् ? देहं- शरीरम् । कथम् ? सहसैव- झटित्येव । क्व ? अपदे- अस्थाने । कीदृशि ? अहं तव- ते, पुष्पनिरीक्षिता- कुसुमावलोकिता सतीत्यर्थः ॥१८।। कुसुमैरुपशोभितां सितै-र्घनमुक्ताम्बुलवप्रभासितैः । मधुनः समवेक्ष्य कालतां, भ्रमरश्चुम्बति यूथिकालताम् ॥१९॥ ___ भमरो- भृङ्गश्चम्बति- पिबति । काम् ? यूथिकालताम् । किं कृत्वा ? समवेक्ष्य- दृष्ट्वा । काम् ? कालतां- प्रस्तावम् । कस्य ? मधुन:पुष्परसस्य । कीदृशाम् ? कुसुमैः- पुष्पैरुपशोभिता- विभूषिताम् । कीदृशैः ? सितैः- शुभैः । तथा घनमुक्ताम्बुलवप्रभासितैः- घनेन मुक्ताश्च तेऽम्बुलवाश्चजललेशाश्च घनमुक्ताम्बुलवास्तैः प्रभासितानि- शोभितानि तैः ॥१९॥ तासामृतुः सफल एव हि या दिनेषु, सेन्द्रायुधाम्बुधरगर्जितदुर्दिनेषु । रत्युत्सवं प्रियतमैः सह मानयन्ति, मेघागमे प्रियसखीश्च समानयन्ति ॥२०॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ हि- स्फुटं, तासां- वनितानां, सफल एव- सार्थक एव वर्तते । कोऽसौ ? ऋतुः । या रत्युत्सवं- सुरतमहं मानयन्ति- सेवन्ते । कैः सह ? प्रियतमैः सह- प्रियैः समम् । केषु सत्सु ? दिनेषु- दिवसेषु । कीदृशेषु ? सेन्द्रायुधाम्बुधरगर्जितदुर्दिनेषु- सेन्द्रचापमेघस्य गर्जितानि- रसितानि दुर्दिनानि च- मेघतिमिराणि च येषु तानि तथोक्तानि तेषु । तथा प्रियसखीश्च- वल्लभवयस्याश्च समानयन्ति- पूजयन्ति ॥२०॥ इदानी कविः प्रतिज्ञां करोति - भावानुरक्तवनितासुरतैः शपेय-मालभ्य चाऽम्बु तृषितः करकोशपेयम् । जीयेय येन कविना यमकैः परेण, तस्मै वहेयमुदकं घटकर्परेण ॥२१॥ शपेयं- शपथं करोम्यहम् । गणकृतस्याऽनित्यत्वात् 'शपथे शप' इत्यात्मनेपदं न भवति । कैः शपेयम् ? भावानुरक्तवनितासुरतैः- भावेनचित्तेन परमार्थेन वाऽनुरक्ता रागयुक्ताश्च ता वनिताश्च- प्रियाश्च तास्तथोक्तास्तासां सुरतानि- मैथुनानि तैः, तानि न सेवेऽहमित्यर्थः । तथा वहेयं- वहामि । किम् ? उदकं- जलम् । कस्मै ? तस्मै- कवये । केन ? घटकपरेण- कुम्भखण्डेन । येन परेण- अन्येन कविना जीयेयपराभूयेय । कोऽसौ ? अहम् । कैः ? यमकैः । किं कृत्वा वहेयम् ? आलभ्य- प्राप्य । किं तद् ? अम्बु- जलम् । कीदृशम् ? करकोशपेयंहस्तमुकुलपातव्यम् । कीदृशोऽहम् ? तृषित:- पिपासितः सन् ॥२१॥ श्रीपूर्णतल्लगच्छसम्बन्धिश्रीवर्धमानाचार्य-निजपदस्थापित-श्रीशान्तिसूरिविरचिता घटकर्पराख्यकाव्यवृत्तिः समाप्ता ॥ घटकर्परकाव्यस्य, वृत्तिं कृत्वा सुनिर्मलाम् । यदर्जितं मया पुण्यं, तेन निर्वान्तु देहिनः ।। ताडपत्रादुत्तीर्णा । संवत् १९५१ भाद्रशुक्ल ८म्यां भृगुदिनोऽयम् ॥श्रीः॥ * * * Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ अनुसन्धान-७१ केटलीक लेखपद्धतिओ - सं. विजयशीलचन्द्रसूरि अहीं त्रण नाना पत्रो आपेल छे, तेमां १ महासती एटले के साध्वीजी महाराजने लखवाना पत्रनो नमूनो छे, १ श्राविका उपर साध्वीजीए लखवाना पत्रनो नमूनो छे, अने त्रीजामां आचार्य के गच्छपति वगेरे उपर लखवाना पत्रमा कोने माटे केवां केवां विशेषणो/वर्णनो लखाय तेना नमूना आपवामां आव्या छे. त्रणे पत्रो संस्कृतमां प्रगल्भ शैलीए लखाया छे, वाचकोने चमत्कृति पमाडे तेवा छे, तेथी अत्रे आप्या छे. प्रथम बे पत्रो एक पत्रमा छे, ते पत्र पाटण-सागरगच्छना ज्ञानभण्डारमा डा. १९७ नं. ८०१३ पर नोंधायेल छे, तेनी जेरोक्स परथी उतारेल छे. तथा त्रीजो पत्र एक प्रकीर्ण पत्रमांथी उतारेल छे. ॥ महासतीलेखपद्धतिः ॥ निजशिष्यणीजनमनःकमनीयवनीसंसेवनसुधाऽऽसारधाराधरधोरणीकादम्बिनीनां, शारदसितकरकरनिकरव्यतिकरविस्तारिहारियशोभरभृतविष्टपोदरीणां, त्रिजगतीजीवयोनिनिःकारणकारुण्यवरेण्यसोदरीणां, सकलगणिनीमण्डलीमण्डलपुरन्दरसुन्दरीणां, गङ्गाजलपुष्करावर्तजलधरधाराधोरणीनिर्मलशीलालङ्कारधारिणीनां, जीवाजीवपुण्यपापाश्रवसंवरनिर्जराबन्धमोक्षादिविचारिणीनां, शृङ्गारवीरकरुणा(ण)हास्याद्भुतभयानकरौद्रबीभत्सशान्तादिरसनवरसविशेषनवमरसमयव्याख्यावनीवनपल्लवनव्यपीयूषसारिणीनां, राजीमतीद्रौपदीमन्दोदरीसुरसुन्दरीसुन्दरीसुन्दराचारविचारकारिणीनां, अपारसंसारासारपारावारपारतारिणीनां, पापतापसन्तापव्यापारनिवारिणीनां, सुश्राविका-जनमनोवनीनां, गुणगणमणिखनीनां, अमुकगणिनीनां, सस्नेहं सोत्कण्ठं सप्रणयं सबहुमानं सविनयं विज्ञपयति । यथा कार्यं चेत्यादि । इति महासतीलेखपद्धतिः ॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ ॥ श्राविकालेखपद्धतिः ॥ दृढदेवगुरुभक्तियुक्तिभावितचित्त(त्ता) जिनभवनबिम्बपुस्तकमाहात्म्य(महात्मा) महासतीप्रमुखसप्तक्षेत्रविक्रीयमाणवित्त(त्ता) उभयकुलदीपनदीपिका सकललावण्य रसदीर्घिका अपूर(व)पुण्यकरणीयकारिका अभीष्टसखीमानसपञ्जरसुखीकरण सारिका सुखदुःखसर्वगुह्यप्रकाशिनी आजन्म अकृत्रिमस्नेहसंजीविनी नयविनयविवेकविचारसदाचारविश्वत्रयपाविनी वैराग्यतरङ्गरङ्गभाविनी यावज्जीवप्रतिज्ञा पालिनी निरन्तरनिजसखीसङ्गमविलोकिनी प्रीतिनीतिसमुल्लासनी अनुपमरूपस्वरूपनरनारीचित्तहारिणी मनोवाञ्छित-अतिविषमकार्यसाधिनी कामितफलप्रदायिनी सर्वप्रकारेण सुखसमाधिविधायिनी अतिचतुरिमागरिमामहिमागुणमहीजनमनोहरणी कमलदलसुकोमलसुलोचनविजितहरिणी अतिप्रौढलवणि मारूढनवयौवनी दानपुण्यावर्जितगुरुगुरुणी निजरूपनिर्जितसुरतरुणी स्वस(सं?). दर्शनदर्शनानन्दनी श्रीजिनशासनप्रणीतधर्मानुरागिणी सखीमनुष्यकथितसौख्यलक्षानुगामिनी लीलाविलासानुकृतगजगतिगामिनी त्रिजगतीयुवतीसतीजनशिरोमणिस्वामिनी विविधविलासविनोदकथाविहितक्षणमात्रयामिनी स्ववचन रचनारञ्जितानेककामिनी अमुक श्राविका योग्यमित्यादि । इति श्राविकालेखपद्धतिः ॥ ॥ विज्ञप्तिलेखप्रकारवर्णनात्मको लेखः ॥ श्रीपूज्याराध्यध्येय-सुगृहीतनामधेय-परमामेयभागधेयान् अनेकबुद्धिसिद्धिसमृद्धिप्रवृद्धि-युगप्रधानपदवीपूर्वाचलचूलालङ्करणप्रभाकरान् मन्मन:-पङ्कजमार्तण्डान् धैर्यौदार्यगाम्भीर्यसौन्दर्यचातुर्यादिगुणमणिकरण्डान् निकलङ्कलन्दिकाब्धितरणतारणतरण्डान् अनन्यसामान्यज्ञानविज्ञानादिविद्वज्जनचित्तचमत्कारकमहाप्रभावैरखण्डान् स्ववचनरचनामधुरत्वनिराकृतसुधारसकुण्डान् सकलकलापूर्णपूर्णिमामण्डलतुण्डान् अनवद्यविद्याविद्याधरीकण्ठकन्दलमौक्तिकहारानुहारान् विमलयशःपटलपूरपूरितदिगन्तरान् विमलतरशङ्खोदरयशोभरधवलीकृतभूमिवलयान् परमानन्दभन्दसन्दर्भगर्भसरसव्यवहारव्याहारसारपद्यविततसुकृतवल्लरीवेल्लदवता(दा?)त Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ अनुसन्धान-७१ यशःकुसुमपरिमलाभिरामाकृतपञ्चमारकवनान्तरान् अस्तोकलोकराजीवराजीव बान्धवबन्धुरान् प्रबलतरकुमतततिप्रततिविततिपरासनसिन्धुरान् श्रेयः श्रेयोमहीरुह वितानधाराधरान् हारानिव सकलगुणवारधारान् रत्नाकरानिव नानाजिनागमछन्दो ऽलङ्कारप्रमाण-नाटकप्रकरपयोधरानपि कमलाश्रयानपि अलब्धमध्यभागानपि नदीनान् निजशेमुषीप्राग्भारगरिष्टसभाविशिष्टदर्पिष्टवादीन्द्रवृन्ददन्तावलबलदलन हरिणाधीश्वरान् दर्पाधिककुसुमचापाहिभरपक्षीश्वरान् विद्वज्जनजलधिसमुल्लासनकुमुद बान्धवकरप्रका(?भा?)नुकारान् सिद्धापगासलिलविमलचन्द्रचन्द्रचन्द्रकरनिकरवारिधिकल्लोलशङ्खकुलहरहिमकासशंकाशयशः-प्रसरधवलीकृतसर्वदिगन्तरान् साधुजनमानसमानसमरालावतारान् रमणीजनानिव नानालङ्कारधरानपि नानाश्लेष कलाकोविदानपि न कामसङ्गान् कनकाद्रीनिव कल्याणमयानपि लोकमध्य स्थानपि विबुधवातसेविनानपि सन्नन्दनाम(न)पि न कूटसंसर्गधारान् स्वीयकुलन भोनभोमणीन् सकलपञ्चजनमनोमतप्रापणचिन्तामणीन् निव(बि)डतमतमःस्तोम तरणीन् शमदमयमनियमधैर्योदार्यचातुर्यकारुण्यदाक्षिण्यादिसारवस्तुजातविपणीन् विनम्रकम्रकविजननराधिपश्रेणीन् निर्वाणपुरवरनिःश्रेणीन् रसालरसालद्राख्या(क्षा)रसखण्डवर्षोपलशर्कराप्रकरमधुरसुधाप्रवाहसोदरवाग्भरमी(?प्री?)णितभविक जनप्रकरान् हिमकरकरनिकरनिकुमल(?)(निभकुमत?)भञ्जनसुजनपञ्चकुर?ज?)नकुमुदवनविकाशनदक्षानपि स्वस्तीतस्था(?)ज्ञान-तम:ध्वान्तप्रकरनिकांकरण(निराकरण?). सज्जानपि विबुधजनमानसजलधिसनंकरानपि (?) जगज्जीवहितान् न कलङ्कोपेतान् अपारसंसारपारावार[पार]प्रापणपोतान् अनल्पसङ्कल्पकल्पद्रुमकल्पान् निरा कृतकुवादिकुविकल्पजल्पान् षट्त्रिंशद्गुणगणालङ्कृतशरीरान् धीरिमाधःकृतमेरुमहीधरान् अनवद्यपद्यगद्यहृद्यविद्याविलासरसरसिकीकृतसूरिनिकरान् प्रबलतममिथ्यात्वसन्तमसनिरासदिनकरान् विगतकषायविषयदरान् श्रीजिनमतमहीरुहप्रकरजलधरान् प्रणतनरनिकरान् रूपशोभाजितपुरन्दरान् विमलविनयगुणगणधरान् चरणश्रीवसन् सकलजन्तुजातत्राता(तृ)न् निराकृतकुगतिपातान् दुःकृतनिराकृता(ति)सुकृतभरान् श्रीजिनशासनपालनपरान् मदनमानहरान् परमतवादिकेसर(रि). किशोरान् निःशेषसंशयभरनिशाकरकरकवलनस्वर्भानून् विततमिथ्यात्वनिकर तिमिरवितिमिरकरणभानून् परमधर्मदेशनामृतरसनिःस्यन्दमहोदधीन् कुसुमकोदण्डचण्ड Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ दोर्दण्डकुण्डलितकोदण्डमुक्तकाण्डखण्डनैकपण्डितान् डिण्डीरपिण्डपाण्डुरयश:पुण्डरीकखण्डमण्डितब्रह्माण्डभाण्डभाण्डमण्डपान् । श्रीभट्टारकविशेषणानि - अमेयगुणरत्नरोहणाचलान् चारुचारित्रपात्रान् रञ्जितानेकनागरिकजनान् सप्त दशसंयमभेदप्रकरणगुणरोहणाचलान् कलिदिका(?कालिन्दिका?)कमलिनीसमुल्लासनसहस्रकरान् निजविशदयशोराशिप्रसरा(र) पराजितनिशाकरान् प्रगुणगुणमणि धोरणीबन्धुतानुकृतरत्नाकरान् सकललक्षणतर्कसाहित्यछन्दोऽलङ्कृत(ति)प्रमुखाने कशास्त्रप्रयोगहीरकनिकरवज्राकरान् स्ववचनमधुरिमप्रगुणगुणावगणितशर्करान् अक लकलिकालविकरालाहंकार(रा)धिकारशङ्करान् निजवचनरचनाचतुरिमाचरण बोधितानेकभव्यलोकप्रकरान् सकलसेवकजनमनोरथसिद्धिकरान् परमेश्वरशासनविकाशनभोमणीन् सकलसुविहितचूडामणीन् पूज्याराध्य: धे(ध्ये)य: सुगृहीतनाम धेय: त्रिभुवनाद्भुतभागधेयः तान् अनन्यजन्य(न)सौजन्यवर्यधी(धै)ौदार्यसत्य शीलसन्तोषाद्यनेकप्रगुणगुणमणिरोहणभूधरान् ।। अथ साध्वी(?) - स्वस्ति श्रीस्फाराङ्गुलीमञ्जुलदलमालि[ङ्ग]नमाश्रितामितांशुमदुद्धरणाखिललोकविसृत्वरविमलयशःसौरभ्यावर्जितसकलाखण्डलप्रमुखलखि(लेख)शिलीमुखमुखरितसनिकर्षस्थलमनन्तचतुष्टयीविशिष्टपरमेष्टिजिनचलनकमलयुगलमलममलान्तष्क(न्तःक)रणेन शरणीकृत्य श्रीअमुकपुरे ज्ञानादिगुणाविरलोज्ज्वलमुक्ताफलप्रवालजालधवलितोपकण्ठदिग्मण्डलैकादिसममध्यानन्तपर्यन्तनयभङ्गरचनातरङ्ग सङ्गोत्तरङ्गितानन्तनयसरित्प्रपातजातप्रवृद्धिमद्विशेषचतुर्दशनयरत्नालङ्कृतषण्मतानल्पजल्पोच्छलल्लोलकल्लोलकल्लोलिताप्राप्यतलागमजलधिनिस्तरणतरणिप्रतिमप्रतिभाप्राग्भारविनिर्जितोन्मदवादिसन्दोहासादितविजयगणा: अमुकजिद्गणिगणिगणचणाः जैवातृकअमुकोपासितचरणाः श्रीअमुकविहितनिलयेन समुद्भूतामेयप्रणतेन सविनयं अमुक(के?)ना(न?) स्वीयान्तष्करणवयुदन्तजाताविष्करणप्रवणपर्णमप्रमाय विकर्तनप्रमितावर्तप्रणामैः प्रणम्यन्ते । श्रीमदर्हतोऽनुग्रहदृष्टिवृष्टिवर्षणादुभयत्रातपत्रासनादासादयतुतरां स्फारविस्तारं कुशलव्रततिततिरिति प्रतिघस्रं प्रकाम्यते प्रकामम् । तथा च श्रीमन्तः पूज्याः पुरुहूतपुरोहितोद्धतकवित्वगर्वापहारिणो नः Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७१ परमोपकारिणो वर्तन्ते, तत् किं भूयस्तराक्षरपलाशविन्यासायासेन ? । प्रतिक्षणं क्षणान् क्षणदश्रीमद्गुणस्मरणं चरीकरीमि ब्रह्मण इव ब्रह्मज्ञाः । तथा यथा सततं गुणगरिष्ठर्मदुपरिष्टात् कृपादृ[ष्टि]रनुष्ठीयते तथैव तृतीयज्ञानततम(तृतीय?)भेदरूपा नुष्ठेया । अपरञ्च – पत्रनेत्रासत्रानेत्रामृतपात्रानुरूपमत्रभवतां श्रीमतां पत्रमियायाऽत्र । तद् वाचंवाचं मामकीनमहीनपीनप्रेमवन्मानसं परमहर्षोत्कर्षमगमद्, अगमत् प्रभूताहस्समुद्भूतासातजातं, जातं च धन्यतममहः । तथाऽस्मदुचितकार्यलिखने नाऽन्तरता गण्या पुण्याशयैः । सकलमुनिवर्गो मन्नाम्ना नन्तव्यो यथायोग्यं इति । तथाऽतः श्रीमतां पत्रं पूर्वमपि प्रहितमासीत्, परं तदध्वगेनाऽध्वन्येव गमितं, तेन भूयो लिखितमद इति ज्ञेयम् ॥ * * * Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ केटलाक पत्रो - सं. विजयशीलचन्द्रसूरि प्रकीर्ण हस्तलिखित पानांमांथी केटलाक पत्रो उपलब्ध थतां रहे छे, तेमांना चारेक पत्रो अत्रे प्रगट थाय छे. आम तो विविध भण्डारोमां आवा असंख्य पानां मळे अने तेमांथी प्राप्त थता आवा पत्रोमांथी अनेकविध ऐतिहासिक तथा सामाजिकधार्मिक माहितीओ सांपडे. कोई शोधक जो आ काम हाथ पर ले तो घणुं महत्त्वनुं काम थाय. पत्र १ :- सूरतमा बिराजता पं. शान्तिविजयजी उपर विक्रमपुर (बीकानेर)थी तेमना मित्र श्रीक्षमासुन्दरे आ पत्र पाठव्यो छे. तपगच्छना मुनि पर खरतरगच्छीय मुनिनो पत्र होवानुं सहेजे समजाय. गच्छभेद नथी नडतो. बन्ने वच्चेनो स्नेह पत्रगत शब्दोमां टपके छे. ___भाषानी असर तपासवा जेवी. 'किं घनलिखनेन ?' अहीं 'घन' एटले 'घj' 'वलत् पत्रं देयं' - अहीं 'वलत्-वळतो पत्र'. आ बधा गुजराती के मारुगुर्जर शब्दोने संस्कृत संस्कार आपीने नीपजावेला शब्दो छे, जे 'जैन संस्कृत' नी लाक्षणिकता गणाय. पत्र २ :- आ पत्र एक खरडो - Draft छे. कोईए कोईने संस्कृतमा पत्र लखवो होय तो ते केम लखाय ? ते समजावतो आ नमूनानो पत्र छे. ते पण पं. क्षमासुन्दरनो ज लखेलो छे. पत्र ३ :- आ पत्र एक राजकीय पत्र होय एम जणाय छे. घणा भागे बीकानेरना राज्य-कारभार साथे संकळायेल ‘खवास आनन्दराम' खरतरगच्छना भट्टारक आ. श्रीजिनसुखसरि पर आ पत्र मोकल्यो छे. आचार्यने जे विशेषणो वडे वर्णव्या छे तेथी आचार्य, महत्त्व तो खलं ज, साथे तेमनी विद्वत्ता पण स्थापित थती जणाय छे. पत्रलेखके आचार्यने २ काम सोंपेलां छे ते करवा माटेनी विनंति आमां थई छे. पत्रलेखक पण राजमां महत्त्वना होद्दे हशे ज. 'खवास' ज्ञातीय होवा छतां प्रारम्भे 'श्रीनाभिनन्दनो विजयतेतराम्' एवं वाक्य, जैनो प्रति तेना आदरनो संकेत आपी जाय छे. पत्र ४ :- आ पत्र वीसमा सैकाना तपगच्छनी यतिपरम्पराना श्रीपूज्य श्रीमुनिचन्द्रसूरिए लखेलो छे. पत्र उदयपुरना महाराणा फतहसिंहजी उपर लखायो छे. Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० अनुसन्धान-७१ राणाओ तपगच्छनी गादीनुं तथा गादीपति-श्रीपूज्यनुं हमेशां सन्मान करता. श्रीपूज्यजी अने राणाजी सतत सम्पर्कमा रहेतां हशे, पत्र व्यवहार सतत थतो हशे, तेवू आ पत्र परथी जणाई आवे छे. पत्रारम्भे श्रीपूज्यजीए राणाजी माटे लखेलां विशेषणो तेओना पारस्परिक सम्पर्को तथा सद्भावोनी गवाही पूरे तेवां छे. बाकीनुं तो पत्र ज बतावी दे छे. पं. शान्तिविजयं प्रति लेखो मित्रमुनेः ॥ स्वस्तिश्रीपरमोदार-दारक्रीडापराक्रमः ।। शमी सुमीनवल्लीनः, सच्चिदब्धौ सुखाय यः ॥१॥ तं श्रीमन्तं जिनं नत्वा, श्रीमद्विक्रमद्रङ्गतः । प्रीतिपत्रं विपत्रं वै क्षमादिसुन्दरो मुनिः ॥२॥ लिखति प्रष्ठमुदय-सुन्दरो नरसुन्दरः । श्रीमति सूरतिस्थाने, मित्रमुद्दिश्य श्रेष्ठकम् ॥३॥ त्रिभिः सण्टङ्कः ॥ तत्र गुणगणगरिष्ठ कविप्रष्ठ वन्दिष्ठ प्रेष्ठ चतुर्दशविद्यागरिष्ठानां पण्डितोत्तमपण्डितश्री २१ श्रीशान्तिविजयजित्कानां पण्डितसच्छिष्ययशस्विमीठाचन्द्रादिपरिच्छदसेवितपादपद्मानां पादपद्मे नतिततिरास्तां चाऽस्माकं मुनिजनानाम् । तथाऽत्र सर्वत्र सुखमस्ति समयानुसारेण । तत्रत्यं सुखं समीहाम:(महे) । श्रीमतां भवतां पत्रमेकं प्राक् प्रामि(पि)तमासीत् । इतो दलं न दत्तं तत्, किञ्चिद्देहे विकारतः । साम्प्रतं स्वास्थ्यमङ्गे तु, जातं श्रीजिनदेवतः ॥१॥ तथा चाऽस्माकं यूयं पूज्याः स्थो वृद्धाः स्थः । नाऽन्तरं गण्यम् । सदाऽत्रोचितं कार्यं लेख्यम् । तथा भवद्भिः श्रीमद्भिः श्रुताभ्यासं कृतं श्रुतं चाऽस्माभिः तद् भव्यं कृतम् । पुनरप्यध्ययने श्रमो विधेयः । श्रुताध्ययनात् स्वसमयवक्तव्यतायाः स्वात्मगुणः प्रकाशो भवेदिति विधिः । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ १०१ अचिरेणैव कालेन भवदाननदर्शनम् । यथा भवेत्तथा कार्यं मनसा प्रतिवासरम् ॥१॥ देशकालविप्रकृष्ट सख्यौ साक्षाददर्शने । तत्र मानसप्रत्यक्षे सख्ये मनःप्रमाणता ॥२॥ तथा अस्मदीयगच्छस्थमुनीनां समाचारो व्यक्तितो लेख्यश्च, तेभ्यो वन्दना दातव्या । अभिधानज्ञानस्य स्पष्टतया (ज्ञानस्याऽस्पष्टतया?) तेषां न ज्ञायतेऽस्माभिस्तद्धेतुतो नो लिखितानि नामानि । पंडित सच्यादासजीनै वंदना कहिज्यौ । किं घनलिखनेन ? वलत् पत्रं देयम् । मिती चैत्रवदि १॥ ॥ सकलपण्डितप्रकाण्डपण्डितशिरोरत्न श्रीशान्तिविजयजित्कानां सपरिबर्हाणां बर्हम् ॥ पं. क्षमासुन्दरस्य लेखः ॥ स्वस्तिश्रीकैवल्यप्रोज्ज्वलजलजलधिगानदीष्णेभ्यः । नित्यमनुत्सिक्तेभ्यः प्रणमामि महासमुद्रेभ्यः ॥१॥ येन ज्ञानप्रदीपेन द्योतितं विश्वमन्दिरम् । तं जिनेनं नमस्कृत्य पत्रं मित्राय मुच्यते ॥२॥ अथ च श्रीमति मरोट्टकोट्टे सिन्धुजनपदघट्टे वाचनाचार्यवर्यधुर्यान् वा० श्रीअमुकाभिधानान् पं. अमुकशिष्यादिभिरन्वासितान् प्रणमन्ति श्री अमुकपुरतो पं. क्षमासुन्दरादयः । तथाऽत्र श्रीमद्विद्यमानविदेहक्षेत्रविहारिणां सीमन्धरस्वामिजिनेन्द्राणां सौम्यदृष्ट्या कुशलमस्ति । श्रीमतां शुभवतां प्रीतिपत्रं समीहाम: (महे) । भवतां पत्रं प्राक् आगतं, तदन्तर्गता उदन्ताः समवगताः, हृष्टं चेतः । यूयं बुद्धाः पूज्याः स्थः । किं घनलिखनेन ? । आवयोः प्रीतिर्दुग्धजलयोरिवास्ति, सा तु तथैव धार्या । विश्वविद्विद्वद्वरिष्टान् पं. अमुकचन्द्रान् अमुकः Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ अनुसन्धान-७१ प्रणमतितरां नितराम् । इहोचितं कृत्यं लिखनीयम् । वलमानं पत्रं सत्वरं प्रदातव्यम् । अग्रे मितिः दातव्या ॥ भ. श्रीजिनसुखसूरि प्रति खवास आनन्दरामस्य लेखः ॥ श्रीनाभिनन्दनो विजयतेतराम् ॥ स्वस्ति श्रीमत्सौगत(सर्वज्ञ? मतानुगतानुशासनव्याकृतिप्रवहद्गाङ्गनीरप्रतिमधीरगम्भीरवागनुरञ्जिताशेषनागरवरनैगमनिकरवृन्दारुतरचारुमूर्द्धावतंसवन्दितोदार पादारविन्दासनेषु विततन्यायविशेषवैशेषिकशास्त्रावगमोद्गतविविधजल्पबहुविध वितण्डोद्दण्डदन्तचण्डाभिघातविद्रावितप्रतिवादिवारणव्रजवादिवारणनिवारणैकपञ्चा ननेषु प्रखरतरतपोभूरिषु श्रीजिनसुखसूरिषु, प्रकृत्याभिरामाणां खवास श्रीमदा नन्दरामाणां विनयप्रणतयः सविशेषाः सन्तु । अत्र भवतां सुदृष्ट्याऽमृतवृष्ट्या परमानन्दसन्दोहपरम्परा महत्तरा वर्ततेतरां नितराम् । सैव तत्र भवतात् तत्रभवतामपि । सौहार्दविद्भिः सद्भिः श्रीमद्भिरहर्दिवमस्मासु यादृशी कृपा विधीयते प्रत्यहं तदधिका विधेया, देया च स्नेहतः प्रसादपत्री । श्रीमन्महाराजानां हार्दविद्भिः परोपकारकृद्भिर्भवद्भिरिदं कार्यद्वयमवश्यं कार्यमित्यलमतिप्रलपनेन बहुविदां पुरतः । विविधविद्याविशारदयोः श्रीश्रीपूज्या[नु] कम्पाधिगत-महोपाध्यायपदयोः श्रीऽमुकगण्योर्वन्दनं आवेदनीयम् ॥ श्रीतपागच्छीय श्रीपूज्य भट्टारक मुनिचन्द्रसूरेः पत्रं राणा श्री फतहसिंहजी प्रति ॥ स्वस्ति श्रीमत्परमेश्वरचरणारविन्दमभिनम्य श्रीसवाणागढनयरतो लिखन्ति भ. श्री श्रीविजयमुनिचन्द्रसूरयस्सपरिकराः श्रीउदयपुरगढमहादुर्गे शुभसुथाने Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ १०३ अखण्डप्रचण्डदोर्दण्डसाधितसकलक्षितितलपरबलदलनिर्दलनसबल सकल कलाविमल सकलभूपालमौलिमाणिक्यमाला-सकलगुणविराजमान सौभाग्य निधान अखण्डप्रताप अमृतसममधुरालाप पूर्णिमाचन्द्रवदन समुद्रसमगम्भीर षड्दर्शनप्रतिपालक सबलशत्रुभञ्जन दुष्टमुखगञ्जन सकलकलासुन्दर न्यायनीति प्रधान अखण्डपराक्रम सिंहविक्रम विपुलवक्षःस्थल सर्वजनवत्सल गंगजल निर्मल भूपालभालतिलक दुर्द्धरवैरिनिवारक इत्याद्यनेकशुभओपमाविराजमान राजराजेश्वर महाराजाधिराज महाराणा श्री श्री श्री ५ श्री श्री फतहसिंहजी चिरंजीवी धर्मासिस वंचावसि । आप अम्हारे घणी वात छो । आपने देखीसुं, धर्मासिस देइसुं ते दिवसे आणंद पामिसुं । अप्रंच लिखवा कारण ए छई जे - श्रीहजूरनी खुशीनो पत्र नहि, ते लिखावशोजी । खुशीनो पत्र आववाथी आनन्द वरते छे । बीजो नुतरानु समीचार हमारा चोमासी गीतार्थ ऊठे है सो मालुम करावेगा । हमे तो श्रीहजुरना शुभचिंतक छईये तेवी हमारी मर्यादा तेवी श्रीहजुरनी बांधेली छे सो श्रीहजुर निभावसी । हमे तो सदैव ध्यान स्मरणमां माला फेरीये छीये । * * * Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ अनुसन्धान-७१ लेखपछति: - सं. विजयशीलचन्द्रसूरि __ पत्रलेखन एक कला गणाय छे. तेनी शिक्षा परम्पराथी - सदीओथी अपाती आवी छे. अहीं प्रगट थती 'लेखपद्धति' ए एक आवी ज शिक्षा आपती कृति छे. कोणे, कोने, केवी रीते पत्र लखवो, तेनुं शिक्षण आमां आपेलुं छे. ए रीते आ बहु रसप्रद वस्तु छे. ___ पत्र ए मानव-हृदयनी संवेदनाओने अभिव्यक्त करवानू माध्यम छे. बीजां गमे तेटलां साधनो तथा माध्यमो विकसे. परन्तु पत्रलेखनथी जे परितृप्ति मळे छे. अने जेवी अभिव्यक्ति थई शके, ते अन्यत्र के अन्यथा शक्य नथी - नहीं बने. प्रस्तुत रचनाना कर्ता अज्ञात छे. आवी रचनानी स्थिति लोकगीत जेवी होवानी : तेना कर्ता कोण ते कदी जाणी नहि शकाय; केम के ते लोक द्वारा सार्वत्रिक स्वीकृति पामे छे. आमां प्रथमतः १८ श्लोकोमा पत्रनो प्रारम्भ केवी रीते करवो तेनाथी मांडीने कया शब्दने के नामने कया लिङ्गमां, विभक्तिमां, वचनमा प्रयोजवो ते वगेरे, शास्त्रीय कहीए तेवी समजण आपी छे. केवो पत्र, केटलां पृष्ठनो, केवी रीते अपायन अपाय, तेनी वात पण आमां थई छे. पछी कुल २२ प्रकारना पत्रोना मुसद्दा - Drafts अहीं आलेखाया छे. कोण, कोने पत्र लखे तो ते केवी रीते लखे ? तेनुं मार्गदर्शन आमां छे. मूळ श्लोकपाठ जोतां ते कोई ब्राह्मण-रचित कृति लागे, तो २२ पत्रोमां प्रथमना २ पत्र - मुसद्दा जोतां ते बधा कोईक जैन यति के विद्वानना बनावेला लागे छे. ___पत्रोमां अशुद्धि तो होय ज. ते लगभग यथावत् रहेवा दीधी छे. वळी, बोलचालनी भाषामां पत्रो लखाता होई भाषाना शब्दना संस्कृतमां थता तात्कालिक रूपान्तर धरावता प्रयोगो पण घणा जोवा मळशे. एकंदरे विविध अनेक भावोनी अभिव्यक्ति दर्शावता आ पत्रलेखो छे. वर्षो पूर्वे गायकवाड्ज ओरिएन्टल सीरीझ - वडोदरा तरफथी 'लेखपद्धति' नामक ग्रन्थ प्रगट थयो होवानुं याद आवे छे. तेमां पण प्रायः आ प्रकारना ज श्लोको । लेखो हता. 8. GOS. No. 19. ed. C.D.Dalal and G.K.Shrigondekar 1925. Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ १०५ प्रस्तुत रचनानी एक प्रति सूरतना श्रीजनानन्द पुस्तकालयना सङ्ग्रहमांथी जेरोक्सरूपे मळी छे. तेना आधारे आ सम्पादन थयुं छे. अन्य पण २-३ 'लेखपद्धति'-प्रतो मळी हती, परन्तु ते थोडा थोडा तफावत साथे आना जेवी ज वस्तु हती. अने पाठान्तरो नोंधवानी बहु आवश्यकता न जणायाथी ते पण नथी नोंध्या. ॥ लेखपद्धतिः ॥ विघ्नेशं भारती नत्वा, भक्त्या वक्ष्यामि पद्धतिम् । लेखानां मुग्धबोधार्थं संखे(क्षे)पा[त्] सुगमोवहां (मामहम्) ||१|| न चैषां(?षा?) लक्षणज्ञानां विबुधानां कृते कृता । केवलं यदि केताय (?)मुध(बोध)मुत्पादयिष्यति ॥२॥ श्रीकारमादितः कुर्यात् स्थाने प्र(प्रा)कारवेष्टिते । गुरोर्नृपस्य नामादौ मन्त्रिणां चाऽधिकारिणाम् ॥३॥ मण्डलाधिपतेर्नाम्नि राज्ञो दारसुता हित (दिषु) । तप्तो(पो?)रुद्रप्रसादानां व्रतीशानां च युज्यते ॥४॥ स्वस्थान(ने) पञ्चमी देया परस्थाने तु पञ्चमी (सप्तमी) । आत्मनः प्रथमा देया द्वितीया च परस्य च ॥५।। अकारान्ते पदस्थाने लेख: प्रस्थाप्यते तदा । कुर्यात् तदेकमात्रान्तं नगरं ग्राममेव वा ॥६॥ तया(तथा?) सबिन्दुकर्णान्तं ईकारान्ते तु तत् कुरु । प्रा(?आ?)कारान्ताच्च तत् कुर्याद् विसर्गकर्णयान्तिकम् (?) ॥७॥ यः प्रस्थापयते लेखं तन्नाम सविसर्गकम् । ईकारान्तं स्त्रियश्चापि एवं नाम विनिर्दिशेत् ॥८॥ आदन्तमपि तन्नाम तदवस्थं प्रकल्पयेत् । स प्रस्थापयते लेखं द्वौ जनौ च यदा पुनः ॥९॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ अनुसन्धान-७१ आदीदन्तौ यदि स्यातां औकारान्तौ(?) च तौ कुरु । ईकारान्तौ यदा तौ च ईकारान्तौ तदा कुरु ॥१०॥ आकारान्तौ च तौ कुर्या-देकारान्तौ सुनिश्चितम् । प्रस्थापयन्ति च यदा लेखं च बहवो जनाः ॥११॥ ते च कुर्यास्त्रिवर्णान्ता आदन्ताः सविसर्गकाः । ईकारान्तास्तु ते यान्ता ईदन्तास्तु सपिण्डिका (?) ॥१२॥ यस्य प्रस्थाप्यते लेख: कस्यापि चात्मनो लघोः । सानुस्वारं तु तन्नाम कुर्याद् वेधे(?)रनन्तकम् ॥१३॥ यदि प्रस्थाप्यते लेखो द्वयोस्तन्नाम पूर्ववत् । कुर्याद् गुरोर्बहूनां वा दीर्घपूर्वं वनान्तकम् ॥१४॥ तमगुरु स्त्रियां कार्यं (?) दीर्घान्तं सविसर्गकम् । गुरुमातृपितृष्वसृ-बृहद्भ्रातृपितृव्यकाः ॥१५|| मातुलः श्वसुरश्वश्रू-स्वामिप्रभृतयश्व ये । पूज्या त(स्त)नाम पादान्तं कुर्यात् तत्पूर्विका पुरः ॥१६॥ कार्याच(श्च) लघवो येऽन्ये पश्चात् तेषां च पूर्विका । तदुदाहृतयः का(का)श्चित् कथ्यन्तेऽतः परं यथा ॥१७॥ एकपुटे नापि दीर्घ रजोहीने त्वसंवृते । त्रिभिः काकमिते लेखे नास्ति सिद्धिः करार्पिते ॥१८॥ ॥ श्रावक गुरुलेखः ॥ स्वस्ति श्रीपार्श्वजिनमानम्य अमुकनगरे प्राणातिपातादिविरतिलक्षणपञ्चमहाव्रतपरिपालनैकमानसान् व्याकरणसाह(हि)त्यच्छन्दोऽलङ्कारप्रमाणागमचरितकथानकसिद्धान्तादिसकलशास्त्रावगततत्त्वान् विनिर्जितक्रोधादिकषायचतुष्टयारातीन् पूज्यश्री अमुकसूरिपादारविन्दान् अमुक गणि पं. अमुक गणि पं. अमुक महत्तरा श्री अमुका अमुकगणिनी प्रभृति साधुसाध्वीवृन्दोपेतान्, Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ १०७ अमुकस्थानात् सदाज्ञाभि(वि?)धायी साहु अमुकप्रभृति समस्त श्रावक तथा श्राविकाश्च द्वादशावर्त्तवन्दनेनाभिवन्द्य सविनयं विज्ञपयति । कार्यं चेदं । पूज्यानां प्रसादेन निरामयम् । तत्रत्यात्मीयनिरामयकुशलवार्ताभिः प्रत्यहमानन्दनीया वयम् । अपरं च पूज्यैरुपदिष्टमार्गे विहितदेववन्दनाप्रतिक्रमणस्वाध्यायादिधर्मानुष्ठाना तिगच्छामः(?) (ष्ठानतिरता वयं कालं गमयामः) । अन्यच्च पूज्यैः प्रसादं विधाय कलिकालकल्मषकलुषिता वयं विमलसद्धर्मलाभवारिणा सत्वरमिहागत्य प्रक्षालनीयाः । पुस्तकोपकरणादिप्रयोजनेन यत्कृत्यादेशोऽनवरतं प्रसादीकार्यः ॥छ। गुरुविज्ञप्तिका ॥१॥ * आचार्याः प्रस्थापयन्ति श्रावकस्य लेखः ॥ स्वस्ति श्रीमहावीरजिनं नत्वा अमुकपुरात् श्रीअमुकसूरयः सपरिकरा अमुकस्थाने देवगुरुवन्दनप्रतिक्रमणस्वाध्यायादिधर्मानुष्ठाननिरतान् सन्न्यायोपार्जितार्थपरितोषा(षिता)र्थिजनान् परमश्रावक अमुक अमुकादीन् प्रभृति सकुटुम्बोपेतान् कलिकालकल्मुषमखी(षी)प्रक्षालनवारिणा सकलकल्याणकारिणा सद्धर्मलाभाशीर्वादेनानन्द्य सबहुमानमादिशन्तो वं(वयं/शन्त्येवं) । यथा कार्य चेदं-निरामया वयं सपरिकरास्तिष्ठामः । तत्रत्यस्वीयकुशलवार्तया वयमनवरतमानन्दनीयाः । अपरं च-समस्तैरपि इहपरलोकसुखसन्दोहजनकोचितधर्मानुष्ठाने प्रतिदिनं यत्नो विधेयः । यतः - धर्मादवाप्यते सम्पत् धर्मात् सुखफलोदयः । धर्मादवाप्यते सर्गः तस्माद्धर्मं समाचरेत् ॥ साम्प्रतं कतिपयदिनानां मध्ये भवतां वन्दनाय वर्तमानयोगेन वयं तत्रागच्छामः लग्नाः । तत्रत्यसमस्तसुश्रावकाणां सद्धर्मलाभो वाच्यः ॥ इति गुरूणां श्रावकाय लेखः ॥२॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ अनुसन्धान-७१ ॥ माहेश्वरिकगुरुलेखः ॥ स्वस्ति अमुकस्थाने अनवरतक्रियमाणवेदाध्ययननिर्मलीकृतमानसान् अष्टादशस्मृतिपुराणादिधर्मशास्त्राभ्यासनिरतान् गहनज्योतिःशास्त्रावगततत्त्वान् दुष्टग्रह शाकिनीभूतप्रेतमुद्गलोच्चाटनमन्त्रवादपरिस्फुरणावाप्तपरमप्रसिद्धीन् हरमुरारिप्रभृतीष्ट देवताराधनसंक्रान्तिा]न्तः करणान् पूज्याराध्य अमुकपादान्, अमुकस्थानात् सदाज्ञाविधार्या(यी) शिष्यामुक क्षत(क्षिति)तलनिह(हि)तोत्तमाङ्गेन साष्टां[गं] प्रणम्य सविनयं विज्ञपयति । यथा कार्यं च-पूज्यपादप्रदत्ताशीर्वादानुभावतः सर्वमानुषाणां कुशलमिह । तत्रत्यात्मीयकुशलतावार्ता मम सन्तोषपोषायाऽनवरतं प्रसादीकार्या । अपरंच - पूज्यपादानामतीवाऽहमुत्कण्ठितोऽस्मि । अतः स्वीयदर्शनामलजले नागत्य कलिमलाघलिप्तं मदीयमङ्गं निर्मलीकरणीयम् । तथा पर्वद्व[य]याजन द्वयप्रभृति पर्वसुकृतकल्पनाकृतव्रतोद्यापनकादिकं च समेत्य स्वीयं प्रतिग्राह्यम् । अन्यच्च - पूज्यपादानां मदीयमातृ अमुक भगिनी अमुकती सुत(?) अमुकभार्या अमुकादिसमस्तगृहलोकः सविनयमना नमस्कारं करोति । यत्कृत्यादेशोऽनवरतं प्रसादीकार्य(यः) ॥ महेश्वरजटाधरभगवन्तवीनती ॥२॥ * ॥ शिष्यलेखः ॥ स्वस्ति यथास्थानात् आचार्य अमुक अमुकस्थाने अनवरतसद्धर्मानुष्ठान-- पयःप्रक्षालितकलिमलकलङ्कं सन्न्यायमार्गकप्रवर्त(वृत्तं) वरगुणगणालङ्कृतशरीरं परमधार्मिकशिष्य अमुकं वेदचतुष्टयोक्ताभिराशीभिरभिनन्द्य साञ्जसं सबहुमानं कुशलं वार्तयति । यथा कार्यं च-कुशलमत्राऽस्माकम् । तत्रत्यात्मीयकुशल वार्ता अनवरतं प्रहेया । अपरं च-प्रतिदिनं प्रातरुत्थाय शुचिर्भूत्वा भवता स्वगुरूपदिष्टमार्गेण देवपितृतर्पणाग्निद्विजातिथीनां पूजा करणीया । तथा पितृमातृप्रभृतिवन्यजनशुश्रूषा चानवरतं विधेया । दुःस्थाऽनवस्थितभाग्ने(गिने)यदौहित्रादिपोष्यवर्गावज्ञा न कार्या । विद्वद्विप्रवदनारविन्दे निर्गच्छमान धर्मशास्त्रार्थमधुरसास्वादलालसमधुपेन भवितव्यम् । साधुभव्यजनसंसर्गो(र्गः) सर्वदा विधातव्यः । सन्न्यायोपार्जितवृत्तौ च मन: समाधेयम् । किं च बहुना ? इह परलोका हितं] यत् कर्म तदनवरतमनुष्ठेयमिति ॥छ।। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ १०९ ॥ पितृलेखः ॥ स्वस्ति श्रीअमुकस्थाने पूज्याराध्यपि[४] अमुकपादान् अमुकस्थानात् सदाज्ञानि(वि)धायी पुत्र अमुकः साष्टाङ्गं प्रणम्य सविनयं विज्ञपयति । यथाकार्यं च - सर्वमानुखा(षा)णां कुशलमत्र । तत्रत्यात्मीयकुशलवती वार्ता अनवरतं प्रसादीकार्या । अन्यच्च-पूज्यपादप्रदत्तशिष्या(क्षा)पनया गृहभारधुरं वहन् तिष्ठामि । तथा पूज्यानां गुरुतराज्ञाप्रभावतः कर्मकरादिजन: सर्वोऽपि अधिक तरमुद्यमपरो वर्तते । किं बहुना ? अत्रत्यावसेरी कस्मिन्नप्यर्थे न करणीया । पूज्यैर्विश्वस्थी(स्ती) भूय तत्रत्यसमस्तप्रयोजनानि सारयित्वा ततः समागन्तव्यम् । यत्कृत्यादेशोऽनवरतं प्रसादीकार्यः ॥छ।। ॥ पुत्रलेखः ॥ स्वस्ति अमुकस्थानात् अमुकः अमुकस्थाने सुविनयवैदग्धादिकरण न(नि). रतान्(तं) षंजनानन्दं(?) (वैदग्धादिवरगुणजनिताशेषजनानन्दं) आयुष्मन्तं पुत्र अमुकं सोत्कण्ठं सस्नेहं गाढमालिङ्ग्य कुशलं वार्त्तयति, यथाकार्यं च-कुशलमत्र । तत्रत्यसमस्तमानुषाणां कुशलता सततं प्रहेया । अपरं च-यावद्वयमा गच्छामस्तावत् समस्तगृहप्रयोजनविषये अप्रमादिना भाव्यम् । अन्यत्-निजमातुः सर्वदा भक्तिविधेया । भगिनीभागनेयीप्रभृतिकुलयकालोकस्य भोजनाच्छादनादिना अनवरतं महती सारा भविक्ति(भक्ति) [श्च] करणीया । अन्यस्यापि यद् यथायोग्यं तत् तथायोग्यं अनुष्ठेयमिति ॥छ।। ॥ मातृलेखः ॥ स्वस्ति अमुकस्थाने परममातृवात्सल्योपेतान् प्रियालापयथोचितगौरवकारणावर्जिताभ्यागतचित्तान् पूज्यभग[वती]मातृ अमुकीपादान् अमुकस्थानात् सदादेशकारी सुतअमुकः साष्टाङ्गं प्रणम्य सविनयं विज्ञपयति । यथाकार्यं चपूज्याभिः प्रदत्तआशी:प्रभावतोऽहमिह कुशलेन तिष्ठामि । तत्रत्यसमस्तमानुषाणां कुशलवार्ता च प्रतिदिनं प्रसादीकार्या । अन्यत् - पितृव्यकमातुल-बृहद्भ्रातृपितृ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० अनुसन्धान- ७१ ष्वसृमातृष्वसृभगिनीप्रभृतिसमस्तपूज्यलोकस्य मदीयनमस्कारो वाच्यः । अपरं च भवतीप्रभृतितत्रत्यात्मीयलोकस्याऽहमतीवोत्कण्ठितः परमद्यापि अभिमतप्रयोजनसिद्धिर्न भवति ततो विलोबो (विलम्बो) वर्तते । सञ्जातप्रयोजनसिद्धयां कतिपयदिनानां मध्येऽहं समागच्छामि लग्नः || मातावीनती ॥७॥ ॥ माता प्रस्थापयति पुत्रलेखः ॥ स्वस्ति अमुकस्थानात् अमुका अमुकस्थाने सकलगुणगणोपेतं आयुष्मन्तं पुत्रममुकं सोत्कण्ठं सबहुमानं मूर्ध्नि समाघ्राय कुशलमाशीर्वादयति । यथाकार्यं च समस्तमानुषाणां कुशलमत्र । तत्रत्यस्वीयशरीरारोग्यकुशलवार्ताऽस्माकं सन्तोषायाऽनवरतं प्रहेया । अन्यत् - पितृव्यक- मातुलक - मातृ (ष्व) सृ-भगिनीप्रभृतिसमस्तगुरुजनैस्तवाशीर्वादः प्रस्थापितः । अपरं च तत्र दिने भवता पुनरागमनाय प्रस्थानं कृतं तद्दिनपूर्वकं अस्माकं तथा मातृष्वसृ-पितृष्वसृबृहद्भगिनीप्रभृतीनां एकवेतालिकानि वर्तन्ते । साम्प्रतं भवान् क्वापि भुङ्क्ते, कुत्रापि शेते, इत्यधीरतया अस्माकं महती अवसेरी वर्तते । स पुण्यदिनः कदा भविष्यति यत्र क्षेमकुशलेन भवान् समेष्यति ? । गोत्रदेवता - खे (क्षे ) त्रपालवलभीनाथादीनां वर्द्धापनकोपयाचितानि अनेकानि जल्पितानि सन्ति, इति मत्वा लेखदर्शनादेव शीघ्रं समागन्तव्यम् ॥८॥ - ॥ श्वसुरलेखः ॥ स्वस्ति अमुकस्थाने पूज्यतमश्वसुर अमुकपादान् अमुकस्थानात् अमुकः सादरं प्रणम्य सविनयं विज्ञपयति । यथाकार्यं च कुशलमत्र तत्रत्यकुशलवार्ता प्रहेया । अपरं च - युष्मदीयदौहितृ अमुकाय (क्या) अमुकतिथौ विवाहो भविष्यति । यदि मां चित्ते धारयथ तदा सकुटुम्बैर्भवद्भिः समागत्य मध्येभूय विवाहः करणीयः । यदि नागमिष्यथ तदाऽऽजन्मावधि भवतामुपरिरुषिष्यामि, इति मत्वा नान्यथा विधेयम् ||छ|| श्वसुरलेखः ||९|| - Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ ॥ श्वश्रूलेखः ॥ स्वस्ति अमुकस्थाने पूज्यतमा अमुकीपादान् अमुकस्थानात् अमुकः सादरं प्रणम्य सविनयं विज्ञपयति । यथाकार्यं च - कुशलमत्र । तत्रत्यकुशलवार्ता प्रहेया । अन्यत् - युष्मदीयदुहितुः समानयनाय मया आत्मीयलघुभ्राता वेलाद्वयं वयं प्रहितः । परं केनापि कारणेन भवतीभिः स्वदुहिता न मुत्कलिता । 'मुक्तिः श्वश्रूजनादिभ्यः सञ्जाता सुखकारणम्' । अथ ‘मदीयदर्शितपराभवकारणं' तच्चानया कथयित्वा भवतीनां चित्ते खेदः समुत्पादितः, तत् यदि सत्यमेवैवत् तदपि चित्ते न किमपि धरणीयम् । संवाहयित्वा मोक्तव्या। अहं समागच्छामि लग्नः ॥छ। ॥१०॥ ॥ जामातृलेखः ॥ स्वस्ति अमुकस्थानात् यथास्थाने अमुक वरगुणगणाविःकृतशरीरं प्रियंवदं यामातृ-अमुकं सस्नेहं साञ्जसं गाढमालिङ्ग्य कुशलं वार्तयति । यथाकार्यं च - कुशलमत्राऽस्माकम् । तत्रत्याऽऽत्मीयकुशलताऽनवरतं प्रहेया । अपरं च - भवान् तावदस्माभिर्दुहितरं दत्वा पुत्रो गृहीतः । अतो भवता सर्वारम्भेण तत् कर्तव्यं यथा अस्माकं सर्वप्रयोजनेषु संवित्तिः सम्पद्यते । तत् यदि अस्मदीयपुत्रिका अज्ञानतया तीक्ष्णतया वा सन्मुखीभूय दुर्वाक्यप्रत्युत्तरदानेन समादिष्टादेशाकरणेन वा श्वश्रू-ननान्द्रादिलोकस्य वा सन्तापमुत्पादयति, तथा सर्वं सहनीयम् । अस्याः कस्मिन्नप्यर्थे पराभव(वो) नोत्पादनीयः । स(भ)व्येन सह भव्यः सर्वोऽपि भवति । उक्तं च - अपकारिणि यः साधुः स साधुः सद्भिरुच्यते । उपकारिणि यः साधुः साधुत्वे तस्य को गुणः ? ॥१॥ कार्यप्रयोजनमनवरतं कथाप्यम् ॥११॥ स्वामिलेखः ॥ स्वस्ति अमुकस्थाने दुःस्थितजनाधारान् अवगतगुणागुणतोपपादिताश्रितयथोचितचित्तवृत्तिविभागान् निजगुणगणाच्छादितराजलोकान्तपरमप्रभावान् पूज्याराध्य Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ अनुसन्धान-७१ अमुकपादपद्मान्, अमुकस्थानात् सदादेशकारी अमुकः क्षितितलनिहितो त्तमाङ्गेन साष्टाङ्गं प्रणम्य सविनयं विज्ञपयति । यथा - विज्ञपनीयमिदम् । पूज्यैः प्रदत्तशिष्यापनया अहं व्यापारं कुर्वन् तिष्ठामि । पूज्यानां प्रतापेन झटत्येव प्रारब्धप्रयोजनानां सिद्धिर्भविष्यति । तथा चोक्तं - शाखामृगस्य शाखायां(याः) शाखां गन्तुं पराक्रमः । यत् पुनस्तीर्यतेऽम्भोधिः प्रभावः प्राभवो हितः (हि सः) ॥१॥ अपरं च-अत्रत्यस्वरूपकथनव्याजेन पूज्यपादानाम्भोजानां (पूज्यानां पादाम्भोजानां) नमस्करणाय स्तोकदिनानां मध्ये तत्रागच्छामि लग्नः । अत्रत्या ऽनिवृत्तिः कस्मिन्नप्यर्थे न विधेया । यदि किमपि अत्र मया विनश्यति तदा पूज्यैः परीक्षा मम कृता नैव इत्यवधार्य सर्वथा ममोपरि प्रसादमादि शति(मादेश्यः?) । यथाकृत्यादेशोऽनवरतं प्रसादीकार्यः ॥छ। ॥१२॥ भृत्यलेखः ॥ स्वस्ति अमुकस्थानात् ठक्कुर अमुकः अमुकस्थाने अमुकं सप्रसादमादिशति यथा - आदेष्टव्यमिदम् । भवता तथा कथमपि व्यापारणीयं यथा पिशुनप्रवेशो न भवति । सावष्टम्भतया व्यापारणीयम् । न मन्दप्रतापेन भवितव्यम् । तत्रत्यस्वरूपं अनवरतं विज्ञाप्यम् ॥छ।। ॥१३॥ मित्रलेखः ॥ स्वस्ति यथास्थाने विद्वन्न(त्ता)दाक्ष्यौदार्यादिवरगुणगणालङ्कृतशरीरं परमप्रेमवत्सलं वयस्य अमुक अमुकस्थानात् अमुक सोत्कण्ठं सस्नेहं साञ्जसं दूरप्रसारितबाहुभ्यां गाढमालिङ्ग्य कुशलं वार्तयति । यथाकार्यं च - कुशलमत्र । तत्रत्यकुशलवार्ता प्रत्यहं प्रहेया । अन्यत् - यद्दिनपूर्वं मम त्वया सह विप्रयोगः सञ्जातः, तद्दिनावधि रणरणकः समावृतो मनसो मम । न च बुभुक्षा न च दृट(तृ?) नहि नहिद्रा(निद्रा)मु(सु)खानि वर्तन्ते । सह क्रीड(डि)तविलसितानि स्मृत्वा स्मृत्वा सखेदं मनः सम्पद्यते । इति मत्वा लेखदर्शनादेव यदि मां चित्ते धारयसि तदा प्राघूर्णकेन शीघ्रमेव समागन्तव्यम् । यदुक्तं - Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर २०१६ ददाति प्रतिगृह्णाति । अन्यत् सर्वं गुह्यस्थानं मित्रं वर्तते । तद् विना कस्य हृदयगतसमस्तसुखानि कथ्यन्ते ? तथा चोक्तं - - सो कोवि नत्थि सुयणो जस्स कहिज्र्ज्जति नि (हि) ययदुक्खानि । आवंति जंति हियए पुणोवि कंठे विलिज्जति ॥१॥ कार्यप्रयोजनमनवरतमाख्येयम् ॥१४॥ ११३ प्रसन्नभार्या भर्तुः प्रति लेखं प्रस्थापयति ॥ स्वस्ति यथास्थाने शान्तदान्तादिवरगुणोपेतान् दुःस्थाऽनाथबन्धुकुलयिका वर्गाधारान् भर्तृ अमुकपादान् अमुकस्थानात् सदाज्ञाविधायिनी अमुकी सस्नेहं सोत्कण्ठं सविनयं विज्ञपयति । यथाकार्यं च सर्वमानुषाणां कुशलमिह । स्वशरीरारोग्यवती वार्ताऽनवरतं प्रसादीकार्या । अपरं च युष्मत्प्रदर्शितमार्गानुसारेण सर्वस्यापि गतायातस्य जनस्य पोष (ष्य) वर्गस्य च चित्तमनुव्रजमानाऽनुदिनं तिष्ठामि । तथा गृहक्षेत्रधनकणादिविषये कृतसारा तप्तिकरणे अहोरात्रमपि कृतोद्यमा तिष्ठामि कस्मिन्नपि विषये अत्रत्याऽवसेरी न करणीया । अन्यत् तत्र यद्यपि स्वीयगुणैः युष्माकं सर्वः कोऽपि गौरवं करोति, अतो यूयं सुखेन तिष्ठथ । तथाप्यत्र ममाऽनिवृत्तिर्वर्तते । तथा बालापत्यानामपि युष्माकीयाऽवसेरी महती वर्तते, अतस्तत्रत्यप्रयोजनानि कृत्वा शीघ्रं समागन्तव्यम् ॥१५॥ - * संरुष्टा (ष्ट) भार्या भर्तृलेखः ॥ स्वस्ति यथास्थाने भर्तृ अमुकपादान् अमुकस्थानात् अमुकी सादरं कुशलं वार्तयति । यथाकार्यं च सर्वमानुषाणां कुशलमत्र । तत्रत्यकुशलवती - वार्ताऽनवरतं प्रहेया । अन्यत्-यतः त्वं गतः, ततः तव पाश्चात्यं गृहद्वारापत्यादिकं समस्तमपि विस्मृतम् । तव यत्रैव वर्तनं तत्रैव पत्तनम् । त्वया गच्छता व(य)त् शम्बलं मुक्तं तेन मासमेकं यावत् गृहे भवनी (तवनी) (?) संजाता । ग्रहणकानि अड्डाणकानि । हट्टे मुक्ता उद्धारपद्धारादिना अपत्य Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ अनुसन्धान- ७१ पौ (पो) ष्यक्रिया अकारि । साम्प्रतं महाकष्टं वर्तते । यदि तत्र त्वं अनवरतं महिलायाः कस्याश्चिदासक्तस्ततो अत्रागतो (न्तुं) नु (न) शक्नोषि । तथा बालकेनापि व्यापादितेन हत्या गलीयके भवति । कुटुम्बस्यापि सारामात्रं कर्तुं युज्यते । इत्यादि परिभाव्य निष्ठुरहृदया यदि सा मुत्कलयति तदा साराकरणाय समागन्तव्यम्, नो वा शम्बलं प्रहेयम् । यद्येतत् शीघ्रं न करिष्यसि तदा त्वदीयगृहादिकं परित्यज्य अहं डिम्भाणि गृहीत्वा पितृगृहे गमिष्यामि । इति मत्वा यत् सुखावहं तदनुष्ठेयम् ॥१६॥ गुप्तप्रियतमालेखः ॥ स्वस्ति अमुकस्थाने विनिर्जितमकरध्वजलावण्यान् छेकत्वौदार्यसौभाग्यादि गुणगणापहृतयुवतिजनमानसान् वल्लभजन अमुकपादान्, अमुकस्थानात् सदादेशकारिणी अमुका सोत्कण्ठं सस्नेहं दूरि ( र ? ) प्रसारितबाहुभ्यां गाढमालिङ्ग्य विज्ञपयति । यथाकार्यं च कुशलमत्र । तत्रत्यात्मीयकुशलवती वार्त्ताऽनवरतं प्रया । यद्दिने युष्माकं (? यूयं ? ) विजययात्रायां चलिताः तद्दिनपूर्वं विरहदुःखानलेन तप्यमानमानसा रात्रिदिनं सौख्यं क्वापि नानुतिष्ठामि । तथा चोक्तं - विरहहुयासकरालि वि वहिं कहि सहि होसइ जंप । जाम न रइरसविमलजलि पिम्मद्दहि कय झंप ॥१॥ अपि च मा जाणह वीसरी (रि)यं तुह मुहकमलं विदेसि भमणम्मि । सुन्नं भमइ सरीरं जत्थ तुमे जीवियं तत्थ ॥२॥ - इत्यादि परिभाव्य ममोपरि दयां कृत्वा बहून्यपि तत्र प्रयोजनानि त्यक्त्वा अत्रागत्य निजदर्शनामृतवर्षि (र्षे)ण विप्रलम्भपावकदह्यमानं मदीयमङ्गं विध्यापनीयम् । कालक्षेपो न करणीयः ||१७|| भर्त्ता प्रस्थापयति भार्यालेखः ॥ स्वस्ति अमुकस्थानात् पतिः अमुक अमुकस्थाने परमपालितपतिव्रतगुणां सुशीलशालिनीं अवगतास्मद्भवनसकलनीतिमार्गां त्रिवर्गफलसम्प्रदायिनीं Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ ११५ विनयवात्सल्यप्रियंवदतादिवरगुणावर्जितसकलनिजजनमानसां भार्याममुकां सस्नेहं साञ्जसं सबहुमानं कुशलं वार्तयति । यथाकार्यं च - कुशलमत्र । तत्रत्यसमस्तमानुषाणां कुशलवार्ताऽनवरतं प्रहेया । अस्माभिरागच्छद्भिर्या शिक्षापना दत्ता तया शिक्षया भव्यगत्या गृहं पालनीयम् । गतायाता अन्यागतकुलयिका कर्मकरप्रभृतिजनो बहिरप्रसिद्धि नारोपयति तथाऽनुष्ठेयम् । अस्माभिरत्र कियन्त्यपि प्रयोजनानि कृतानि सन्ति, कियन्त्यपि कर्तव्यानि विद्यन्ते । ततोऽस्माकं विलम्बः । समस्तप्रयोजनानि साधयित्वा स्तोकवासराणि मध्ये समागच्छामि लग्नः । अत्रत्याऽवसेरी कापि न कर्तव्या । यावद् वयमागच्छामस्तावत् गृहे यथा कलापि न विनश्यति तथा कर्तव्यम् ॥१८॥ सरोषपतिः प्रस्थापयति लेखः ॥ स्वस्ति अमुकस्थानात् अमुकः अमुकस्थाने भार्याममुकीं सादरं कुशलं वार्तयति । यथा कार्यं च - कुशलमत्रास्माकम् । तत्रत्यसमस्तमानुषाणां कुशलवार्ता प्रहेया । अन्यत् - ततः स्थानात् यः कोऽपि समायाति सः सर्वोऽपि गृहसत्कां रावां करोति । यत्रापि वयं न भवामः तत्रापि...... ति । यदस्माभिर्मासा(स)द्वित्रयाणां शम्बलं मुक्तं तत् त्वयापि दिनाष्टादशनि(भि)र्भक्ष(क्षि)तं । त्वया पदे पदे वयं दग्धाः । परं तव न दोषोऽस्मदीयकर्मण एव दोषः । तथा चोक्तं - पूर्वदत्ता तु या कन्या पूर्वदत्तं तु यद्धनम् । पूर्वदत्ता तु या विद्या अग्रे धावति धावतः ॥१॥ किं बहुना ? यत्तव कुलसदृशं तत् करणीयम् ॥१९॥ सानुरागः प्रस्थापयति गुप्तप्रियतमालेखः ॥ स्वस्ति अमुकस्थानात् अमुक अमुकस्थाने निजतनुकान्तिविनिर्जितप्रत्यग्रकनकभासं किशलयकोमलचरणां पूर्णेन्दुमण्डलसमानाननां चकितहरिणीशावनयनां सुदृशं कुन्दकलिकाकारदशनां मत्तेभकुम्भोपमतद्वत्पीनस्तनां रम्भास्तम्भ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ अनुसन्धान-७१ करिकरभोरुयुगलां कलकण्ठीकलरवां दृष्टिवागुराकर्षितकामिजनां दयितां अमुकीं सोत्कण्ठं सस्नेहं निर्भरं गाढमालिङ्ग्य कुशलं वार्तयति यथा - कुशलमत्रा ऽस्माकम् । तत्रत्यात्मीयशरीरारोग्यवती वार्ताऽस्मद्धतये अनवरतं प्रहेया । अन्यत् - तदा समागच्छमानैरस्माभिनिर्भरमालिङ्ग्य यत्र दिने त्वं मुत्कलापिता तद्दिने सर्वं रणरणकोपेतशून्यमानसानां क्षुत्पिपासायुक्तानां चास्माकं सन्तापैकजनका वासरा यान्ति । अन्यच्च - दससु वि दिसासु दीससि हिंडसि इच्छासु वससि मह हियए । तुममयमिह सयलजयं तुह विरहे मुद्धि! पिच्छामि ॥१॥ तद्दिनमिह किं भविता विरहानलशान्तिजलदजलवर्षम् । यत्र तवामृतपूरं वदनं द्रक्ष्यामि मृगनेत्रे! || इति परिभाव्य यथा प्रवासतस्करः प्रेमसर्वस्वमावयो पहरति तथा विधेयम् । स्तोकदिनानां मध्ये वयमागच्छामो लग्नाः ॥२०॥ कनिष्टभ्रातृलेखः ॥ स्वस्ति अमुकस्थानात् अमुक अमुकस्थाने भ्रातृ अमुकं सस्नेहं साञ्जसं गाढमालिङ्ग्य कुशलं० । कार्यं च - कुशलमत्राऽस्माकम् । तत्रत्यकुं(कु)श० यावत् वयमागच्छामः । पूर्वमानुषैः सह भव्येन भाव्यम् । गृहखे(क्षे)त्रधनादौ तपनिशु(?) करणीया । यदि महिला सूयाणि(?) राटि रटन्ति तदा सामवाक्यैर्निवारणीयानि । कस्यापि पक्षपातो न विधेयः । गृहस्वरूपं प्रतिलेख(खे?)नाऽनवरतं कथाप्यम् ॥२१॥ पूर्वोक्तपूज्येभ्यो नव्यबृहत्तरस्यापि सामान्यप्रतिपत्तिलेखः ॥ स्वस्ति अमुकस्थाने व्यावहारिकममुकं अमुकस्थानात् अमुक: साञ्जसं कुशलं वार्तयति । यथाकार्यं च - अस्माकं प्रयोजनवशात् यदि बहवो दिवसा लगन्ते ततो अस्माकं गृहे सारा करणीया । यदि मानुषाणि सीदन्ति तदाऽस्माक मुद्धार्य यत् गृह्णन्ति त(द्) दातव्यम् । वयमागताः सन्तोऽग्रेतनोद्धारस्य साम्प्रतो Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ ११७ द्धारस्य सर्वविशुद्धिं करिष्यामः । साभिज्ञानमिदं । तदाऽस्माभिरागच्छमानैर्गृहे गत्वा रात्रौ युष्माकं पार्वे शम्बलार्थं दश द्रम्मा गृहीताः । कार्यं अनवरत माख्येयम् ॥२२॥ तान् स्ववस्थितान् कृत्वा नार्थं विबुध्य च । लिखेत्तत्सदृशान् लेखान् नानाभूयान् यथाक्रमम् ॥ लेखपद्धतिः समाप्तः ॥ षड् गुरुं स्वामिनं पञ्च द्वौ भ्राता द्विगुणा रिपुः । श्रीकाराश्च विज्ञेया एकैकं पुत्रभार्ययोः ॥१॥ * * * Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ अनुसन्धान-७१ - श्रीतिलकविजय-कृत स्तवनो - सं. मुनि धुरन्धरविजय (नोंध : मुनि श्रीधुरन्धरविजयजीनी नोंधपोथीमाथी प्राप्त आ पांच स्तवनो उपाध्याय श्रीलक्ष्मीविजयजी-शिष्य श्रीतिलकविजयजीए रचेलां छे. स्तवनो बहु प्रासादिक छे. कोईक भण्डारनी जूनी प्रतमांथी तेमणे ऊतारेलां छे. ते यथातथ अत्रे प्रगट करीए छीए. आमां सुविधिनाथ-स्तवन ते दीवबन्दरना सुविधिनाथनुं स्तवन छे, तो छेल्लु स्तवन अझाहरातीर्थ-पार्श्वनाथनुं छे. ते परथी चिन्तामणि पार्श्वनाथ देलवाडाना होय अने नेमनाथ ऊनाना होय एम अनुमान थई शके खरुं. 'गुजराती साहित्यकोश - खण्ड १, मध्यकाल' एमां पृ. १५५ पर आ तिलकविजयजी नोंधायेला जोवा मळे छे.) केटलाक शब्दो जीवाज्योन जीवयोनि १/१२ हस्तक हाथनी नृत्यभङ्गी १/१३ सोहवि पहिडइ १/३ सधवा २/३ (१) श्रीचिन्तामणिपार्श्वनाथ-स्तवन ॥ महोपाध्यायश्रीलक्ष्मीविजयगणिगुरुभ्यो नमः ॥ (राग-सारंग) ब्रह्माणी हो तुं वरदात वरदात कि, सेवकनी सुणी वीनती । जिन थुणवा हो दीजे मुझ मात कि, सुंदरवाणी शुभमती ॥१॥ गुण गाउं हो चिंतामणि पास कि, आस पूरे जे अतिघणी । कर जोडी हो हुं करुं अरदास कि, तुं साचो त्रिभुवनधणी ॥२॥ हुं पडीओ हो भवकूपमझारि कि, रडवडिओ चिहुं गति मिली । चउरासी हो लखि जीवाज्योन कि, वार अनंती वलिवली ॥३॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ ११० मई सहियां हो दुख दारुण देव कि, नरग तीर्यंच निगोदमां । साते व्यसने हो भरिओ भरपूर कि, वरत्यो विविध विनोदमां ॥४॥ रंगि राती हो माती मदमस्त कि, रूपे रंभा रूयडी।। हरिलंकी हो चालि गजगेल कि, मानिनी जे मानइ चडी ॥५।। भ्रूभंगी हो भली भामिनी देख कि, मोह्यो मोहवशई करी । विषयारस हो हुँ रसीओ नाथ कि, वसीओ दुखमां फिरिफिरी ॥६|| कूडकपटई हो रसलंपटभावि कि, आण्या ओलंभा आकरा । जो दीर्छ हो में तुझ दीदार कि, करि करुणा करुणाकरा ||७|| तुं तरीओ हो जनतारणहार कि, सार करो हवइ हुं तरुं । दुख दारिद्र हो दर दूरि टालि कि, करुणानिधि सेवा करुं ॥८॥ तुझ भेटण हो भावई भविलोक कि, थोक इहां आवइ घणा । गुण गावई हो सुरनरना बंद कि, निरखी पास सोहामणा ॥९॥ सुखदाता हो त्राता तूं तात कि, मूरति मुझ चितमां वसी । भयभंजन हो भेट्यो भगवंत कि, हियडा हेजई में हसी ॥१०॥ कलकंठी हो कामिणि मतिवंत कि, चिंतामणि चितमां धरी । नृत्य नाचइ नानाविध छंद कि, पदमिणी पगे ठवी घूघरी ॥११॥ वंशवीणा हो वाहई ताल मृदंग कि, हस्तक हाथ देखावती । मुखि मटकइ हो लटकइ लोचन कि, गोरी जिनगुण गावती ॥१२॥ घणुं घसीओ हो केसर घनसार कि, जाइ जूइ चंपककली । ओ भेली हो चरच्युं प्रभुअंग कि, सोहवि सवि टोलि मिली ॥१३॥ इम पूजइ हो प्रणमइ नरनारि कि, अश्वसेन कुलकेशरि । वामासुत हो सुखलखिमीदान कि, तिलकविजयने द्यों भरि ॥१४|| इम थूण्यो तारक सुक्खकारक पापवारकि जगधणी, दारिद्रचूरक पुण्यपूरक जिम सुरतरुवर सुरमणी । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० अनुसन्धान-७१ बहुभावभगतिं भली युगति श्रीजिनपासचिंतामणी, उवज्झाय लक्ष्मीविजयसेवक तिलक कहें द्यो शिवरुद्धि घणी ॥१५॥ ॥ इति श्रीचिंतामणीपार्श्वनाथस्तोत्र संपूर्णं ।। श्रीसुविधिनाथ-स्तवन सुविधि सुविधि जिणेसर सेवो, अलवेसर अवतार रे । सिंहासन बइठां बहुजन मन, मोहें जिन दीदार रे ॥१॥ आगलि ऊभा ओलग कीजइ, तो साहिब मन रीझइ रे । साची सेवा जो प्रभु जाणइ, तो सेवा फल सीझइ रे ॥२॥ आप वडाइ तेह ज साची, जे चित राची आपइ रे । प्रारथना कीधी नवि पहिडइ, निज थानके लेइ थापइ रे ॥३।। मोटि मता देखी न पतीजइ, जे सेव्यो नवि भीजइ रे । गीरुओ ठाकुर तेह कहीजइ, जेहथी सुख लहीजइ रे ||४|| ग्यानंदृष्टि निरखंता निरख्यो, नाथ सुविधिजिन परख्यो रे । त्रिभुवननायक अह ज साचो, हुं देखी हियडई हरख्यो रे ॥५॥ तुह्म सुरति अह्म हृदय धरीनइ, भीत(भीम)-भवोदधि तरीइ रे । जिम नर नव नावाइ करीनइ, दुस्तर जलधि उतरीइ रे ॥६॥ दीवनयरनो संघ सोभागी, वडभागी नित जेह रे । सुविधिजिणेसर सेवाजलस्युं, पवित्र करई निज देह रे ||७|| सकल सुराधिप मधुप निरंतर, अणहुंतइ अक कोडि रे । जिनवर विकसित पदपंकजनी, सेव करइ कर जोडी रे ॥८॥ ओ जिन जेहनइ मनगृह रमस्यई, ते शिवरमणी वरस्यइ रे । लखिमीविजयउवज्झायपसाई, तिलकविजय जय धरस्यइ रे ॥९॥ . ॥ इति श्री सुविधिजिनस्तवन संपूर्णं ॥ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ १२१ (३) श्री नेमिजिन स्तवन (ढाल - १) सखि सखि सुणि सुणि वातडी, मुझ पीउडो पनोतो पेखि हो । नयण निहाली निरखीइं, इनुं रूप अनोपम देखि हो ॥१॥ मुझ पिउडो पनोतो पेखि हो सखि... जान लेइ तोरन आवई, ओ तो समुद्रविजयनो नंद हो । रायराणे करी राजतो, जाणे सुरपरिवरिओ इंद हो. सखि. ॥२॥ गयणंगणथी आवीनइं, मिल्या भूतल सुरनरवृंद हो । देखीनई दरिसण प्रभुतणुं, कहें अभिनवो सूर किं चंद हो. सखि. ॥३॥ गीत गाती गजगामिनी, बोलइ चिरंजीवो जगदीस हो । इम आसी जे द्यइ धणी, तेह- दुःख टालइ मुझ ईश हो. सखि. ॥४॥ तव चंद्राननी सखि वदइ, घणुं फूलि म राज्युलनारी हो । अवगुण ओक मोटो दीसइं, इनुं देह काजल अनुहारि हो. सखि. ॥५॥ * (ढाल - २) (राग - धन्याश्री) सा राजुल वलि अनुवदइ, सुणि अहनो वृत्तांत; सुरंगी सुंदरी । श्यामवरण तनु देखीनइं, अवगण्यो तई मुझ कंत. सुरंगी ॥६॥ गौरपणुं अति स्युं करें, गुण नवि दीसई कोइ, सु. । अगनिना कण घणुं उजला, जो झालें बालइ सोइ. सुरंगी ॥७॥ जल वरसइं जग उद्धरें, गगन गाजें घनश्याम सु. । माता मयगल हाथीया, भांजइ भीम संग्राम. सुरंगी ॥८॥ उज्वलरूप सोहामणा, खारा लवणना पुंज, सु. । धवलकेश नवि शोभी, जोनई विचारि तुं ज. सुरंगी ॥९॥ नयणतारा अति श्यामली, साहइ कस्तूरि कृष्ण, सु. । तिम मुझ कंत कालो अछइं, जोय. जिम श्रीकृष्ण. सुरंगी ॥१०॥ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ पुरुषरयण अ माहरो अवगुणनो नही ठाम, सु. । वात अहवी मुख उच्चरइ, लोचन फरुक ताम. सुरंगी ॥११॥ तब आसीस दइ सहु सखि, तुझ थाओ कोडि कल्लाण. सु. । अनुक्रमैं पसूयां दुःख सुणी, वलीआ नेम सुजाण. सुरंगी ॥१२॥ ( ढाल अनुसन्धान- ७१ ( राग ३) धन्याश्री) ततखिण सा पाछलि थइ, किहां रथ फेरि जाय रे, साहिब सुणि मोरा; अष्ट भवंतर प्रीतडी, छोडी किम भरतार रे, साहिब. उत्तम अह नहीं रीतडी, आवो तोरण बारि रे. साहिब. ॥१३॥ मृगलोचनादिक मुझ सखी, मूढपणई कहें बाल रे, सा. । पुरुषरहित नेम जाणीओ, ओ हासी तुझ टालि रे. साहिब. ॥१४॥ चंद - चकोरनो नेहलो, चातक चितडई मेह रे, सा. । काममनई जिम रतिरामा, तिम मुझ तुझस्युं नेह रे. साहिब. ॥१५॥ मोहनगारा साहिबा, यौवन जल वहें पूर रे, सा. । मदन- दवानल पापीओ, काया दहें चकचूर रे. साहिब. ॥१६॥ अहवुं जाणीनई कीजइ, मुझ अबलावीवाह रे, सा. । इणी परिं राजुल वीनवे, माने नहि जगनाह रे. साहिब. ॥१७॥ वैरागिणी पीउ सह चली, गिरुडं गढि गिरनारी रे, सा. । चारित्र लेइ बेहु जणा, पहोता मुगतिदुआरि रे. साहिब. ॥१८॥ शिवमंदिर सुख मीठडां, पाम्या श्रीजिनराय रे. सा. । वाचक लखिमीविजयतणो, तिलक नमइ तुझ पाय रे. साहिब. ॥१९॥ ॥ इति श्रीनेमिजिनस्तवनं संपूर्णं ॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ १२३ (४) श्रीनेमिजिन स्तवन सरसति सामिनि मात, मुझ दीजइ दया धरी रे । विविध वचन विख्यात, गाउं नेम सेवा करी रे ॥१॥ मात शिवादे नंद, सोहे पन्यम चंदलो रे । संयम लेवा जिनंद, करें नवनवो फंदलो रे ॥२॥ भाई कहे गोपाल, परणो ओक ज गोरडी रे । नहीं तो अबलाबाल, मनावइ माननी मोरडी रे ॥३॥ सहस बत्रीसें नारी, मिली कामिनी कान्हनी रे । तेड्यो नेमकुमार, चाली वनखं[ड] भामिनी रे ॥४॥ गाइं सरले सादि, वाहे वाद्य सोहामणा रे । खेलती वादोवाद, लीइं नेमना भामणा रे ॥५॥ देउर नेमकुमार, लाहो यौवन लीजिइ रे । परणो ओक ज वार, नाहनी राजुल दीजिइ रे ॥६॥ साहिब सामलियो नेम, करे परणवा आखडी रे । भोजाइ बोले अम, तुझ धीठी छइ छातडी रे ॥७॥ रामा मिली बे-च्यार, कीधो नेमने आकलो रे । अम्हो कहुं धुं वारोवार, हवे मान वीवाहलो रे ॥८॥ मौन करी महाराज, रह्यो राजुलनाहलो रे । मांनी महिला आज, तोरण आव्यो सामलो रे ॥९॥ पशु सुणि पोकार, रथ फेरी पाछा वल्या रे । दीक्षा ग्रही गिरनारि, राजुल नेम बेहुं मिल्या रे ॥१०॥ जय जय श्रीजिनराय, सेवी शिवसुख लीजिइ रे । लखिमीविजय उवज्झाय, शीस तिलकनें दीजिइ रे ॥११॥ ॥ इति श्री नेमिजिनस्तवनं संपूर्णं ॥ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ अनुसन्धान-७१ श्रीअझाहरा-पार्श्वनाथ-स्तवन (राग - मल्हार) पास अझाहर जिन नमुं, आणी अधिक आनंद । मुझ मनमां उमाहलो, जोवा तुझ मुखचंद. पास. ॥१॥ महेर करी मुझ उपर, दीजइ तुम्ह दीदार । सेवक संकट सवि टलइ, मलई संपद सार ॥२॥ निशदिन तुझ ध्यानइं रहुं, कहुं ओक ज वात । मात तात सवि ते अछइ, जे वामाजात ॥३॥ नाम जपुं नित ताहरूं, जिम मेहनई मोर । मधुकर समरई मालती, जिम चंद चकोर ॥४॥ सुरतरु सुरमणि सुरलता, सुरघटि सुरगवि जेह । वंछितपूरक सहुतणा, तिम तुं पूरइ तेह ॥५॥ हरिहर देवपणुं धरई, पणि तुझ सम नहि देव । कमठशठी हठनइं सम्यो, दम्यों काम कुदेव ॥६॥ तुझ महिमा महियल रमई, समइ बहु दुख ताप । सुरनरदानवकिनरा, करिं तुझ गुणजाप ॥७॥ धनि धनि आजना दिवसडो, जे तुझ दरिसण दीठ । अमीयभाँ तुझ नयनडां, हियडे हेज पइठ ॥८॥ उलट अंग धरी घणो, थूण्यो पास कृपाल । लखिमीविजय उवज्झायनो, तिलक नमइ तुझ बाल ॥९॥ ॥ इति श्रीअझाहरपार्श्वनाथ स्तवन समाप्तं ॥ * * * Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ १२५ अष्ठपदतीर्थ-भरतचक्रवर्ती-ऋखिस्तवन - सं. जागृति डी. वोरा आ कृतिमां कवि प्रथम माता सरस्वती- स्मरण करे छे. आदिजिनेश्वरनी अष्टापद पर्वत उपर समवसरणनी रचना थाय छे त्यारे भरत आदिनाथने पूछे छे के तमारा पछी कोण थशे ? त्यारे आदिनाथ कहे छे के अमारा पछी त्रेवीस तीर्थंकर थशे. त्यारे भरत महाराजा तीर्थनी स्थापना करे छे. त्यां सुवर्ण जिनमन्दिरमा चोवीस प्रतिमानी स्थापना करे छे. देव, देवीओ, किन्नरो, विद्याधरो स्वर्गमांथी आवी प्रभुजीने पक्षाल करी आशातना निवारवा पूजा रचे छे. इन्द्रो चामर ढाळे छे. अप्सराओ नृत्य करे छे. क्षेत्रदेवता संगीतवाद्यो द्वारा ओच्छव करे छे. प्रथम चक्रवर्ती, छ खण्ड पर जेनी आण प्रवर्ते छे तेवा भरत चक्रवर्ती सपरिवार, राजा-महाराजाओ, सैन्य साथे प्रथम यात्रा अष्टापदनी करे छे. ८४ लाख हाथी, ८४ लाख घोडा, ८४ लाख रथो, सैनिको साथे संगीतनी सुरावलीओ साथे यात्रा प्रारम्भ करे छे. संघ साथे अष्टापद पर्वतराज चडे छे. चैत्र सुद आठमे प्रभुने न्हवण करावी, केसर चन्दननी पूजा करी, सोना-रत्नोनुं दान करी चैत्य जुहारे छे. आम, आ प्रतमां अष्टापद तीर्थ अने भरत महाराजानी समृद्धिनुं वर्णन करेल छे. प्रतमां कर्ता, रचनासंवत्, लेखनसंवत्, स्थल, गुरुनो उल्लेख नथी. प्रतना शब्दो सुवाच्य, सुन्दर छे. मध्य फुल्लिका पण प्रतमां छे. प्रतनी स्थिति सारी छे. आ प्रतनी झेरोक्ष आ.श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिरमांथी प्राप्त थयेल छे, जेनो क्रमांक ०२८३४६ छे. आ माटे ज्ञानभण्डारना कार्यवाहकोनी हुं आभारी छु. सरसति अमृत वसति मुखि वाणी, नाभिकमल जाणी सहनाणी, आणी हृदय विचारो । सा सारद समरूं सपराणी, जिनशासन सिद्धांत वखाणी, पाली लोकाचारो ॥१॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ अनुसन्धान-७१ मधुर मेघ सदा सोहामणउ, वृष्टिता श्रवणकाल बीहामणउ । गयण माधवबार अंधारीइ, मेघनाद सिवराग संभारीइ ॥२॥ अई० मेघमधुर गासुं जिनशासन, चुवीसइ पूर्यां पदमासन, शासन त्रिजग मझारि । अनंत चुवीसी पार न जाणउं, संखेपिइं वर्तमान वखाणू, जाणू गुरु आधारि ॥३॥ सुणीय केवलभाखित वाणी, सगुरु साधसु साध वखाणी । वचनसार विचारी लीधउं, कवित एक विवेकइं कीधुं ॥४॥ अई०. अष्टापद परबत परमेसर, समोसर्या जव आदिजिणेसर, भरथेसर पूछंति । शासनवात कहु मनि जेडउ, होसिइ किसिउ तुम्हारु केडउ, फेडइ मुझ मनि भ्रांति ॥५॥ प्रथमनाथ का आगम आदिसि, अम्ह पछी होसि अनंतर वीस । मातवाति (मानि वानि) प्रमाण स आपी, भरह कीरति तीरथ थापी ॥६॥ अई० अष्टापद संख्या किम गुणीइ, अष्ट योजन गिरि उंचउ सुणीइ, भणीइ सोइ त्रिभुवन्न । दोइ पुहुलउ प्रासाद सविस्तर, च्यार गाऊ लांबु जिनमंदीर, अंबरि उंचउ त्रिणि ॥७॥ स्वेत दोइ मृगवन्न दोइ सामला, सोल कंचण दोइ रत्तूफला । थापी उत्तम तीरथ आदीसि, मानि वानि जिनमूरति चुवीस ||८|| अई० पूरवदिसि दोइ जिणवर जेन, दक्षिण ओलि च्यारि बईठा, दीठा पश्चिमि आठ । उत्तरदिसि दि(द)सिसुं चुवीसइ, आदि अजित अनइं बावीसइ, वीसइ वस्या न घंटो(?) ॥९॥ पांचसई धनुष देह भणीजइ, प्रथमनाथ अनाथ सुणीजइ । अजीतनाथ शत च्यारि पंचासं, च्यारसई जिन संभव साचां ॥१०॥ ईया० Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ १२७ त्रिणि पंचासां जिन अभिनंदन, त्रिणि सुमतिजिन पाप नकंदन, चंदन त्रिजग वदीतो । पदमप्रभ सई अढीय भणीजइ, दोइ सप(त)तमु(नु) सुपास थुणीजइ, जाणी जइजइवंतो ॥११॥ एक सुप्रभचंद्र(सु चंद्रप्रभ) पंचासु, सुविधिनाथ शत एक प्रकासु । निऊ सीतल सीतल जाणीइ, श्रेयांसनाथ असी अंक वखाणीइ ॥१२॥ ईया० वासुपूज्य तनु सतिरि निरंतर, साठि विमलजिन अपर परमपर, जिनवर अनंत पचासो । धर्मनाथ पुहुविं पणयालीस, शांतिनाथ सोल समुच्चालीस, पाली अविचलवासो ॥१३|| कुंथनाथ पणत्रीस प्रमाणूं, धनुष त्रीस अरुनाथ वखाणूं । मल्लिनाथ पणवीस ओगणीसमु, मुनिसुव्रतजिन वीस वीसमु ॥१४॥ ईया० पनर धनुष नमिनाथ अनाथी, अरिष्टनेमि दस आथी, साथी अवर न दीसि । नवइ हाथ तनु पासजिणेसर, सात हाथ श्रीवीर परमेसर, तित्थेसर चुवीसइ ॥१५॥ नीपनउं चतुरविंशति जिणालूं, मांडणी समइ सूत्र वखाणूं । पांचसई धनुषदेह युगादीस, सात हाथ श्रीवीर नमुं सीस ॥१६।। ईया० एक मोटा लघुबिंब ज नरतां, चडत पडत पबासण फिरता, निरती नाशा आणी । सोवनमइ प्रासाद प्रतिष्ठिउ, सिंह जिसिउ अलंकार बइठउ, दीठउ केवलनाणी ॥१७॥ चक्कवइ भरह तीरथ थापीउ, मिलीय इंद नरिंद नीपाईउ । अमर पन्नग मानव किनरा, रचि मंदिरि वेगे विद्याधरा ॥१८॥ ईया० बार सरग नव ग्रीव जिणालइ, हूई प्रतिष्ठा अमर वधावइ, आवि नाग नरिंदो । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ अनुसन्धान-७१ यक्षलक्ष तिहां अंग पखालइ, पूज रचइ आशातना टालइ, ढालइ चामर इंदो ॥१९॥ गीत गान करइ मानव गंध्रवा, अपछरा नित नाटक भावना । वीणवंश प्रमुख वाजिब देवता, करइ उछव सदा जिन सेवता ॥२०॥ ईया० प्रथम चक्रवति जगि परिवरीउ, अष्टापद प्रासाद उधरीउ, भरीउ सुकृत भंडारो । षटखंड पृथवीय आण निरंतर, चउद रयण मणिमंदिर, किन्नर सुरपति हारो ॥२१॥ यक्ष्य सहस सदा पंचवीसइ, मुकटवर्धन सहस बत्रीसइ । त्रिणि लाख घर अंगणि महुंता, राय सामंता न पार लहिता ॥२२॥ ईया० त्रणिसई साठि सूआर भुंजाई, रसवतीनी करइ सजाई, गाई लाख दूझंति । पय पाचइ नितु खीर नरेसर, त्रिहुं लाखे आसण अलवेसर, भरथेसर भोजंति ॥२३॥ सहस चुसट्ठि राज अंतेउरी, हाम(व) काम मृगनेत्र मनोहरी । भरह भोग विलासति लीला, सरस कामिणि करइ नितु क्रीडा ॥२४॥ ईया० सहस बत्रीसइ देस भणीजइ, गाम छन्नवइ कोडि सुणीजइ, जोणी जइजइवंतो । सहस बहुत्तिरि नयर देवालां, सहस छपन्न जलवट वेलाउल, राउल अति बलवंत ॥२५॥ खेड सहस सोल नृपावली, वसइ पाटण सहस अठताली । सद्रोण मोहण सहस नवाणूं, अवर वस्तुन पार न जाणउ ॥२६॥ ईया० खुंप तिलकवर सीस नरेसर, देवदूष्य पहिरियां अलवेसर, केसरि चंदनि वासो । तनु मान धनु पंचस कोमल, अलंकरण जिस्यां दीपइ झमाउल, परिम(घ)ल भोगविलासो ॥२७॥ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ १२९ आरती न्हवण ऊतारइ बलिका, च्यारि नारि अपछरा चमरहारिका । मेघडंबर ऊपरि लहिकइ, सीकरी सरिस वेस झबूकइ ॥२८॥ ईया० संघ मिल्या सुर नर विद्याधर, सहस बत्रीसइ देवालां सधर, महाधर सहस बत्रीस । पट्टकूल चुरा उछाड्या, उत्तंग तोरण घण गूडर ताडिया, बाल्या विस्तरवासो ॥२९॥ चक्कवइ हरिख थयु हईइ, चक्कवइ ति आरति सामहइ । चक्कवइ प्रथम शासनसंघवी, प्रथम यात्रा भरथिं दाखवी ॥३०॥ ईआ० अलंब धजा दस कोडि निरंतर, लाख चुरासी तुरंगम मनोहर, अवर छन्नूवइ कोडि । लाख चुरासी गयवर गुडीया, लाख चुरासी रथ धडहडीया, जडीया सुभट सुजोड ॥३१॥ बद्ध नाटक बत्रीसइ छाजइ, मधुर पंच शबद आगलि वाजइ । जय करइ जनबंदी राउली, सहस चुसठि भणइ बिरदाउली ॥३२॥ ईया० वाजित्र वाजइ नाद न चूकइ, गयणंगण नीसाण ध्रसूकइ, ढूकइ लाख चुरासी । पायक छनूं कोडि वखाणउ, छत्रीसइ दंडायुध आणउ, जाणइ शर्म अभ्यासी ॥३३॥ सामुहि सुहड सुभटसिउं ताई, पुत्र पौत्र मिलइ कोडि सवाई ।। सहस चुसठि सुखासणि आणी, सामुहि सहस चुसठि राणी ॥३४॥ ईया० वारांगना वछेद बोलावी, एक लाखनइं सहस अठावीस, आवी करइ शिणगारो । वारांगनइ अनइ पटराणी, एक लाख बाणूं सहस वखाणी, राणी एवं कारइ ॥३५॥ मिलीय सुंदरि मंदिर विमांसइ, देव भोग निज अंगि उलहासि । तातरइ सयल सुकि साहेली, सामहि सकल पुण्य गहेली ॥३६॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० अनुसन्धान-७१ अहे सुकि सवि मिली भोलीय, टोलीय मिलिय सुरंग । सीस समारइ बालीय, वेणी जिस्या भुयंग ॥३७॥ एक रचइ सिरि खुप सुणालउ, कुसम चंपक विउल वालउ । रतन खंचित मउड झबूकइ, धडइ लालि मुगताफल लहकइ ॥३८॥ आहे चरचि चंदन केसर, त्रीजलउं मांहि कपूर । करल केश कसतूरीय, पूरीय माग सींदूर ॥३९॥ तिलक एकमुखि वेगे निहालइ, इकिवि पीयलि कज्जल सारइ । इकिवि नारि मुखि बीडा मुंकइ, करणि आभरणि झालि झबुकइ ॥४०॥ आहे कंठि निगोदर वहिकइए, लहिकइए उरवरि हार । सवि पटराणीय तडवडि, गजवडि करइ सिणगार ॥४१॥ इकिवि शेषिइं सींदूरी केवडी, इकवि दाडिम पीत बोरीयावडी । मेघवानि इकि नीली सोहइ, कांचली नवनवी सिरि मोहइ ॥४२॥ अहे पंचवन्न पालव, जेहवी सोहइ शरीरि । एक करइ बहू आदर, जादर पहरइ चीर ॥४३॥ इकवि कंकणि चूडि सोहावइ, इकवि हाथि हथाउलि हलावइ । हेलि गेलि भज बांह लोडावइ, इकवि पीयल पाग मलावइ ॥४४॥ आहे चउसठि सहस अंतेउरी, नेउरी रणझणकार । आहे बिमणी भइ वारांगना, अंगना करइ सिणगार ॥४५॥ इकवि ओढणि आछी चूनरी, नवल भंगि नवरंगी घाटडी । इकवि चउगठि नीली पीयली, सामही सकल सीयल सीयली ॥४६॥ आहे झीलइ एक खडोखली, मोकली नारि रमंति । करी सिणगार अवी वनि, तझ मनि लागी खंति ॥४७॥ सवि सहोदर मात अहमारी, समरु भणइ जे परनारी । रागरहित सिणगार वखाणउं, विषय ते विष समानि हूं जाणूं ॥४८॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ १३१ विष मारइ एक ज वारइए, संसारविष नितु होइ । एह संसार असारडउ, सारत बुझइ कोइ ॥४९॥ स्त्रीय बाल पुरुष पार न लाभइ, सारथी रथ वेगि चलावइ । गज तुरंगम रथ खेलावइ, घंट वाजिव शंख वजावइ ॥५०॥ सांचरीउ आगेवाणि, नीसाणे वलीउ थाय । संघ दहदिसि परवरिउ, तरवरिउ षटखंडि राउ ॥५१॥ इकि चडइ गज उपरि अंबाडी, इकि रहइ रथ सारथि ताडी । इक तुरंगमि चडी आयुध बांधइ, धणुह बाण इक बाली साधइ ॥५२।। एक सुखासणि बइसइ ए, वहिसइ ए कानि कपोल । वालइ सखीय समाणीय, राणीय करइ टकोल ॥५३|| अढार भावि(रि) वन फूल्यां दीसइ, पंथ मारगि मन कामिणि वहिसइ । महिमहइ कुसमवास बहूकइ, रणझणइ भ्रमर कोयलि टहूकइ ॥५४|| अहि संघ चलिउ गहिगहितु, पहूतु षष्टिखंड राउ । वसंतमासि मलीया गरिआ, गरिठाइउ वाउ ॥५५॥ सांचरिउ संघ दीधउं पीयाणउं, तलहटी गिरि गयां विहाणउ । गिरि चडइ अति ऊलट आणी, चैत्र सुदि जन्माष्टमि जाणी ॥५६॥ आहे अष्टापदि चडिउ तरवर, तरवरिउ लोक अपार । नाटक नृत्य महोत्सव, उच्छव जयजयकार ॥५७|| संघवी सयलसंघ बोलावी, कलस कोडि दस वीस भरावी । न्हवणि नीर नदी वहावी, कुसुम चंदनि पूज रचावी ॥५८॥ अहे अगर कपूर ऊखेवइ ए, सेवइ ए प्रभुतणा पाय । एक रहइ सिर नामीय, पामीय तिहुयन राय ||५९॥ चक्कवइ सयल काज सारी, करी महाधन पूजअ वारी । । रत्न कांचन दान दिवारी, ऊतरिउ जिन युगादि जुहारी ॥६०॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ अनुसन्धान-७१ आहे केवलि केरुं भाखीउं, दाखीउं सुगुरु सुसाधि । भणइ समरु ए तीरथ, अनरथ हणइ विराधि ॥६१|| सथर पूरव केवलि भाखीउं, केवली सगुरु साचउं दाखीउं । वर्णवी समरु कहइ न जाणउं, प्रवर तीरथ नमो जिणाणं ॥६२॥ इतिश्री अष्टापद-भरतचक्रवर्ति-ऋद्धिस्तवनं समाप्तमिति ॥ शुभं भवतु ॥ छ । एम/२०५, श्रीनंदनगर-२, ___ वेजलपुर, अमदावाद (मो.) ९७३७९ २८२४० * * * Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर २०१६ १३३ स्वाध्याय श्री अनुयोगद्वार सूत्रना एक पाठनी प्रामाणिकता मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय - अनुयोगद्वारसूत्रनुं, मलधारी श्रीहेमचन्द्रसूरिजी विरचित वृत्ति तथा पूज्य आचार्य श्रीअभयशेखरसूरिजी कृत टिप्पणी सहित, दिव्यदर्शन ट्रस्ट धोळकाथी, सं. २०६३मां प्रकाशन थयुं छे. अत्रे आचार्यश्रीनां बहुमूल्य टिप्पणोने लीधे वृत्तिगत घणा पदार्थो विशद थया छे. आ टिप्पणो आचार्य श्रीनी विद्वत्ताना परिपाक - समां छे, तो पण अमुक टिप्पणो पर पुनर्विचार करवानी जरूर लागे छे. पुद्गलपरावर्त - सम्बन्धित एक टिप्पण पर आ पूर्वे अनुसन्धान-६३मां विचारणा करेली छे. अत्रे पुद्गलोनी सङ्ख्याने लगता अन्य ओक टिप्पण पर विचार करवाना उपक्रम छे. परन्तु आ विचार करतां पूर्वे थोडाक पारिभाषिक शब्दोनी सङ्क्षिप्त व्याख्या जोई ई आ समग्र सृष्टिमां जे छूटा (कोईपण स्कन्धमां अत्यारे न जोडायेला होय तेवा) परमाणुओ छे, ते अनन्तानन्त परमाणुओनो समावेश पहेली वर्गणामां थाय छे. अ ज रीते बे-बे परमाणु भेगा मळीने जे द्व्यणुक रचे ते तमाम द्व्यणुकोनी बीजी वर्गणा, त्र्यणुकांनी त्रीजी, चतुरणुकोनी चोथी, ओम क्रमश: ओक ओक परमाणु वधतां वधतां उत्कृष्ट सङ्ख्यातुं आवे त्यां सुधी सङ्ख्यातप्रदेशिक स्कन्धोनी सङ्ख्याती वर्गणाओ छे. ओमां छेल्ली सङ्ख्याती वर्गणामां समाविष्ट पुद्गलस्कन्धमां अक परमाणु उमेराय ओटले जघन्य असङ्ख्यातप्रदेशिक स्कन्ध रचाय छे. आवा स्कन्धोनी पहेली असङ्ख्यातप्रदेशिक वर्गणा बने छे. तेमां पण पूर्ववत् क्रमश: ओक-अक परमाणु वधतां वधतां उत्कृष्ट असङ्ख्याता सुधी असङ्ख्य असङ्ख्यातप्रदेशिक स्कन्धोनी वर्गणा रचाय छे. ओ पछी परमाणुवृद्धिना क्रमे अनन्तप्रदेशिक स्कन्धोनी अनन्त वर्गणाओ छे. अनुयोगद्वारसूत्रमां परमाणुओने 'अनानुपूर्वी' द्रव्यो तरीके ओळखाववामां आव्या छे. केम के ते पोते ओक ज होवाथी तेमनी प्ररूपणामां १-२-३, १-३-२, २-१-३ ओवी अलग अलग रीते परमाणुओनी आनुपूर्वी Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ अनुसन्धान- ७१ (- गोठवण) नो अवकाश नथी. त्र्यणुकथी मांडीने अनन्तप्रदेशिक सुधीना तमाम स्कन्धो अ अपेक्षाओ 'आनुपूर्वी' द्रव्यो छे, केम के तेमां परमाणुओनी विविध गोठवण द्वारा प्ररूपणा शक्य छे. ज्यारे द्व्यणुक अत्रे 'अवक्तव्यक' द्रव्य तरीके ओळखाय छे, कारण के तेमां बे परमाणु होवाथी पूर्वानुपूर्वी (१-२) अने पश्चानुपूर्वी (२ - १) शक्य छे, पण अनानुपूर्वी शक्य नथी. थी ते शुद्ध आनुपूर्वीद्रव्य पण नथी तेम ज अनानुपूर्वीद्रव्य पण नथी. तेथी ते 'अवक्तव्यक' ( - कही न शकाय तेवुं) गणाय छे. आ आनुपूर्वी वगेरे त्रण द्रव्योमां परस्पर अल्प - बहुत्वनो विचार प्रस्तुत विचारणाना मूळमां छे. आ अल्पबहुत्वनो विचार अनुयोगद्वारसूत्रमां त्रण अपेक्षाओ थयो छे - द्रव्यार्थता, प्रदेशार्थता अने उभयार्थता. आमां द्रव्यार्थता वखते द्रव्योनी पोतानी सङ्ख्यानो विचार करवामां आवे छे, ज्यारे प्रदेशार्थता वखते द्रव्योनी प्रदेशसङ्ख्यानो विचार थाय छे. तेथी द्रव्यार्थताओ जे अल्प होय ते प्रदेशार्थताओ वधारे होय तेम पण बनी शके. जेम के १० परमाणु ६ द्व्यणुक करतां द्रव्यार्थताओ वधारे छे, पण प्रदेशार्थताओ १२ परमाणुमांथी बनेला ६ द्व्यणुक १० परमाणुथी वधारे गणाय छे. उभयार्थतामां द्रव्यार्थता- प्रदेशार्थता ओम उभय रीते विचार करवानो होय छे. हवे मूळ चर्चा जोईशुं. अनुयोगद्वारसूत्रमां आनुपूर्वी, अनानुपूर्वी अने अवक्तव्यक द्रव्योमां, द्रव्यार्थता, प्रदेशार्थता अने उभयार्थता अत्रणे रीते अल्प-बहुत्व जणावनारुं सूत्र आम छे - " एएसि णं भंते! णेगम-ववहाराणं आणुपुव्वीदव्वाणं अणाणुपुव्वीदव्वाणं अवत्तव्वयदव्वाण य दव्वट्टयाए पएसट्टयाए दव्वट्ठ- पएसट्टयाए कयरे हिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? | गोतमा ! सव्वत्थोवाई णेगम-ववहाराणं अवत्तव्वयदव्वाइं दव्वट्टयाए, अणाणुपुव्वीदव्वाइं दव्वट्टयाए विसेसाहियाई, आणुपुव्वीदव्वाइं दव्वट्टयाए असंखेज्जगुणाई । पएसट्टयाए णेगम-ववहाराणं सव्वत्थोवाइं अणाणुपुव्वीदव्वाइं अपएसट्टयाए, अवत्तव्वयदव्वाइं पएसट्टयाए विसेसाहियाई, आणुपुव्वीदव्वाई पएसट्टयाए अगुण । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ दव्वट्ठ-पएसट्ठयाए सव्वत्थोवाई णेगम-ववहाराणं अवत्तव्वयदव्वाई दव्वट्ठयाए, अणाणुपुव्वीदव्वाइं दव्वट्ठयाए अपएसट्ठयाए विसेसाहियाई, अव तव्वयदव्वाई पएसट्टयाए विसेसाहियाई, आणुपुव्वीदव्वाइं दव्वट्ठयाए असंखेज्ज गुणाई, ताई चेव पएसट्ठयाए अणंतगुणाई ॥" (सूत्र-११४) ___अत्रे प्रदेशार्थता अने उभयार्थता - ओ बे अल्प-बहुत्वमां अवक्तव्यक द्रव्यो करतां आनुपूर्वीद्रव्योने 'अनन्तगुण' कह्यां छे ते अंगे टिप्पणकारश्री जणावे छे के सङ्ख्याशास्त्र अनुसारे विचार करतां अत्रे वास्तवमा 'असङ्ख्यगुण' होवू जोईओ. तेओओ आ माटे नीचे मुजब दलीलो आपी छे - १. आ पूर्वे अन्तरद्वारमा (सूत्र-१११) परमाणु स्कन्ध साथे जोडाइने फरी परमाणु बने तेमां उत्कृष्टथी असङ्ख्यकाल वीते तेम जणावायुं छे. आनो मतलब ओ थाय के सम्पूर्ण पुद्गलास्तिकायमां स्कन्ध साथे जोडायेला . जेटला परमाणु छे ते आटला कालमां फरीथी परमाणुरूपे परिणमे ज छे. तेथी सम्पूर्ण पुद्गलास्तिकायनो असङ्ख्यातमो भाग कायम परमाणुरूपे होय ज छे ते स्वीकारवू ज पडे, केम के तो ज असङ्ख्यातकाले सम्पूर्ण पुद्गलास्तिकायनुं परमाणुरूपे परिणमन सम्भवे. आना परथी पण जणाय छे के परमाणु(अनानुपूर्वीद्रव्यो) करतां सम्पूर्ण पुद्गलास्तिकायगत (अने स्कन्धगत पण) प्रदेशो असङ्ख्यगुणा ज छे, अनन्तगुणा नहीं. २. प्रज्ञापनाजीमां (पद-३, सूत्र-३३०) आवं अल्प-बहुत्व जणावायु छे - "अनन्तप्रदेशिक स्कन्धो अल्प, तेमना करतां परमाणु अनन्तगुण, तेमना करतां सङ्ख्येयप्रदेशिक स्कन्धो सङ्ख्येयगुण, तेमना करतां असङ्ख्यातप्रदेशिक स्कन्धो असङ्ख्यगुण." आनो मतलब ओ थाय के असङ्ख्यातप्रदेशिक स्कन्धो सम्पूर्ण पुद्गलास्तिकायना असङ्ख्य बहु भाग जेटंला छे. अने तेमना सिवायना परमाणु वगेरे कुल मलीने अक असङ्ख्यात भाग जेटला ज छे. तेथी त्र्यणुकथी मांडीने उत्कृष्ट सङ्ख्येयप्रदेशिक सुधीना स्कन्धो अने अनन्तप्रदेशिक स्कन्धो अत्यल्प होवाथी गणतरीमां न लईओ तो, आनुपूर्वीद्रव्योमा असङ्ख्यात-प्रदेशिक स्कन्धोनुं ज प्राधान्य होवाथी, आनुपूर्वीद्रव्यो करतां तेमना प्रदेशो असङ्ख्यगुण ज थाय ते स्पष्ट छे. Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ अनुसन्धान-७१ ३. वृत्तिकार भगवन्ते आ पूर्वे "अनन्तप्रदेशिक स्कन्धो परमाणुओ करतां अनन्तमा भागे छे, तेथी वस्तुतः आनुपूर्वीद्रव्योनां स्थान असङ्ख्य ज छे" अम कडं छे, तेना परथी पण जणाय छे के सम्पूर्ण पुद्गलास्तिकायमां असङ्ख्यातप्रदेशिक स्कन्धोनुं ज बाहुल्य छे. तेथी आनुपूर्वीद्रव्यो करतां तेमना प्रदेशो असङ्ख्यगुण ज नक्की थाय छे. ___ माटे अवक्तव्यकद्रव्यो (जे प्रदेशार्थताओ परमाणुओ करतां देशोन द्विगुण छे तेमना) करतां आनुपूर्वीद्रव्यो प्रदेशार्थताओ असङ्ख्यगुण ज होई शके, अनन्तगुण नहीं. सूत्रमा प्रदेशार्थता अने उभयार्थता - ओ बन्ने अल्पबहुत्वमां जे 'अनन्तगुण' जणाव्युं छे तेमां प्रतिलेखक लहियानी भूल थई हशे अम मानवू योग्य जणाय छे. अने वृत्तिकारोओ ओ प्रामादिक पाठने ज अनुसरीने 'अनन्तगुणत्व' प्रतिपादित कर्यु हशे अम मानवू जोईजे. टिप्पणकार आचार्यश्रीनी आ प्ररूपणाने पं. श्रीहृदयवल्लभविजयजी मे ग्रन्थनी पोते लखेली प्रस्तावनामां बिरदावी छे. अने टिप्पणकारश्रीना समुदायना अधिपति पूज्य आचार्यश्री विजयजयघोषसूरिजी म.नु पण आ टिप्पणोने समर्थन छे अम टिप्पणकारश्रीओ पोते जणाव्यु छे. आ अंगे तेओना ज शब्दो - "तेओश्रीधे श्रुत प्रत्येनी भक्तिथी अने मारा प्रत्येनी लागणीथी ग्रन्थ, सूक्ष्मतापूर्वक संशोधन कर्यु छे अने रीते टिप्पणोनी उपादेयतामां जबरदस्त वधारो कर्यो छे." हवे आ टिप्पणो अंगे थोडोक विचार करीओ - पहेली वात तो ओ के जैनशासननी मान्य प्रणालिका मुजब बधुं ज कांई तर्कथी सिद्ध करवानुं नथी होतुं. बल्के ज्यां तर्कथी सिद्ध जणाती बाबत पण सूत्रकारादि महर्षिओनां वचनोथी अप्रमाणित थती लागे, त्यां ओ महर्षिओनां वचनोने ज स्वयंसिद्ध प्रमाणभूत गणीने पोताना तर्कमां जणातो के नहि जणातो कोई दोष हशे अम समजीने तेने गौण करवानो होय छे. १. "सूत्रे तु द्वयोरपि स्थानयोरनन्तगुणानीति यद् दृश्यते तत् सूत्रादर्शलेखकस्य कोऽपि प्रमादोऽभूदिति कल्पने श्रेयः प्रतिभाति । तदनुसारेण च वृत्तिकारैरप्यनन्तगुणत्वं प्रतिपादितं भवेदिति मन्तव्यम् ॥" - टिप्पणमां दर्शावायेलो निष्कर्ष. आ सम्पूर्ण टिप्पण माटे जुओ पुस्तकनां पृष्ठ ९२-९४. Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ १३७ प्रस्तुत अनुयोगद्वारसूत्रनी वृत्तिमां ज अक ठेकाणे श्री हरिभद्रसूरिजी अ प्रश्नकर्तानी दलील सामे अपायेला जवाब- समापन, तर्क करतां आगमप्रामाण्यने ज वधु महत्त्वपूर्ण जणावीने कर्यु छे - "कथमिदं ज्ञायते इति चेत् ? उच्यते - आचार्यप्रवृत्तेः, तथाहि - इदमेव सूत्रं ज्ञापकमित्यलं चसूर्येति ।" (सूत्र-१११) तेथी सूत्रगत कोईक बाबत तर्कबुद्धिथी न समजाय तो पण, आगमप्रामाण्यथी अने स्वीकारीने - सत्य मानीने अने सिद्ध करवा माटे तर्कनी गवेषणा करवी जोईओ, अना खण्डन माटे नहीं. ___ बीजी वात, प्रतिलेखक लहियानी भूलने लीधे बन्ने ठेकाणे पाठमां भ्रष्टता आवी हशे अने तेथी 'असंखेज्जगुणाई'- 'अणंतगुणाई' थई गयुं हशे अq विधान थोडं विचित्र लागे छे. हस्तप्रतो साथे काम पाडनारा सामान्य अभ्यासीने पण ख्यालमां होय ज के लहियाना हाथे थती भूलो कंई बधी ज प्रतोमा प्राय: एकसरखी रीते न थाय. टिप्पणकारश्रीओ पोताना ग्रन्थमां अनुयोगद्वारसूत्र नी जे वाचनाने मान्य करी छे, ते वाचनानुं संशोधनसम्पादन आगमप्रभाकर मुनिश्री पुण्यविजयजी ओ कर्यु छे. तेओओ आ कार्यमां अनुयोगद्वारसूत्र नी बृहद् वाचना तेमज सङ्क्षिप्त वाचना - बन्ने वाचनानी, अलग-अलग कुलनी, उपलब्ध तमाम महत्त्वपूर्ण प्रतिओनो उपयोग कर्यो छे. आ प्रतो कोई ओक ज प्रतनी नकलरूप नथी ज, के जेथी ते अेक मूल प्रतनी भूल बधी प्रतोमां चाली आवी छे अम कही शकाय. अने तेम छतां कोई पण प्रतमां टिप्पणकारश्रीओ सूचवेलो पाठ न मले, पण तेओ जेने प्रामादिक पाठ गणे छे ते ज पाठ मळे त्यारे तेओना विधान पर पुनर्विचार करवानी आवश्यकता छे. ____वळी, धारो के अक क्षण माटे मानी लईओ के अनुयोगद्वारसूत्र ना तमाम प्रतिलेखको अकसरखी भूल करी हती, अने ओ भूलवाळी प्रतो आजे आपणी सामे छे, अटलुं ज नहि, पण आजथी हजार-पंदरसो वर्ष पूर्वे अनुयोगद्वारसूत्र ना वृत्तिकार भगवन्तो सामे पण ओ भ्रष्ट पाठवाळी ज प्रतो हती; तो पण प्रश्न तो थाय ज - थवो ज जोईओ के अनुयोगद्वारसूत्र ना वृत्तिकार श्रीजिनदासगणि महत्तर, श्रीहरिभद्रसूरिजी, मलधारी श्रीहेमचन्द्र सूरिजी जेवा समर्थ श्रुतधर भगवन्तो पण ओ भूलने पकडी न शक्या ? Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ अनुसन्धान-७१ वर्गणाओ, पुद्गलस्कन्धो, परमाणुओर्नु परिमाण वगेरे अंगे तेओने वास्तविक तानो कोई ख्याल ज न हतो ? के पछी टिप्पणकारश्री कहे छे तेम ओ वृत्तिकार भगवन्तोओ जे पाठ आंखे चढ्यो तेना पर विवेचन करी दीधुं ? अलबत्त, भ्रष्ट पाठ अने तेना कारणे सर्जाती मूंझवणने लीधे शब्दार्थमां क्यांक फेर पडी शके. पण भ्रष्ट पाठने लीधे आखेआखी प्ररूपणा ज फरी जाय ओ वात असम्भवित लागे छे. वास्तवमां श्रीजिनदासगणि महत्तर वगेरे वृत्तिकार भगवन्तोओ अत्रे 'अणंतगुणाई' पाठने फक्त स्वीकारी ज नथी लीधो, अने युक्ति द्वारा समर्थित पण कर्यो छे - "तेहितो आणुपुव्विदव्वा पएसट्ठयाए अणंतगुणा भणिता । कधं ? उच्यते - आणुपुव्वीदव्वाणं ट्ठाणबहुत्तणतो तेसि च संखा-ऽसंखा-ऽणंतपदेसत्तणतो य ॥" - श्रीजिनदासगणि महत्तर ___ "तेहितो वि पएसट्टयाए आणुपुव्वीदव्वाइं अणंतगुणाई । कथम् ? उच्यते - आणुपुव्वीदव्वाणं ट्ठाणबहुत्तणतो तेसिं च संखा-ऽसंखा-ऽणंतपदेसत्तणतो ॥" - श्रीहरिभद्रसूरिजी ___ "आनुपूर्वीद्रव्याणि प्रदेशार्थतयाऽवक्तव्यकद्रव्येभ्योऽनन्तगुणानि भवन्ति । कथम् ? यतो द्रव्यार्थतयाऽपि तावदेतानि पूर्वोक्तेभ्योऽसङ्ख्यातगुणान्युक्तानि । यदा तु सङ्ख्यातप्रदेशिकस्कन्धानामसङ्ख्यातप्रदेशिकस्कन्धानामनन्ताणुकस्कन्धानां च सम्बन्धिनः सर्वेऽपि प्रदेशा विवक्ष्यन्ते तदा महानसौ राशिर्भवतीति प्रदेशार्थतयाऽमीषां पूर्वोक्तेभ्योऽनन्तगुणत्वं भावनीयम् ॥" - मलधारी श्रीहेमचन्द्रसूरिजी वृत्तिकार भगवन्तो) अनन्तगुणत्वना समर्थनमां आपेली युक्तिनो सार ओ छे के त्र्यणुकादि अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध-पर्यन्त तमाम आनुपूर्वीद्रव्यो, अवक्तव्यकद्रव्यो(-द्व्यणुक) करतां द्रव्यार्थताओ पण असङ्ख्यगुण कहेलां छे. हवे जो आ तमाम सङ्ख्यातप्रदेशिक, असङ्ख्यातप्रदेशिक अने अनन्तप्रदेशिक स्कन्धोनो प्रदेशराशि भेगो करीओ तो तो ते अवक्तव्यकद्रव्यो करतां अनन्तगुण थई ज जाय. (अने परमाणुओ, के जे प्रदेशार्थताओ द्व्यणुक करतां पण ओछा छे, तेमनाथी तो ओ राशि अनन्तगुण ज थाय ने ?) Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ १३९ वृत्तिकार भगवन्तोनी आ वात वांचीने घडीभर आपणे मूंझाई जईओ के सूत्रने वफादारीपूर्वक अनुसरनारा आ भगवन्तोनी वात आपणे मानवी के पछी सूत्रना ओ पाठने प्रामादिक गणनारा अने सङ्ख्याशास्त्रथी अने खोटो ठेरवनारा टिप्पणकारश्री अने अमने समर्थन आपनारा महात्माओ उपर आपणे भरोसो मूकवो ? वळी, टिप्पणकारश्रीओ स्वमतना समर्थनमा जे तर्को आप्या छे ते पण विचारणीय लागे छे. अन्तरद्वारमां, परमाणुओ स्कन्ध साथे जोडाईने फरीथी परमाणु बने तेने सम्बन्धित सूत्रनु, अल्प-बहुत्वद्वारगत सूत्र साथे विरोध आवे ते रीते तात्पर्य तारवयूँ कोई रीते वाजबी नथी. पर्वापरविरोध न आवे अने सूत्रोनो सुपेरे समन्वय सधाई शके तेवी रीते सूत्रोनी वृत्ति रचवानी जैन श्रमणोनी मान्य प्रणालिका छे. अने अनुसरीने, बन्ने सूत्रोनां तात्पर्यनो समन्वय थई शके ओ रीते विचारणा करवी जोईओ अम अमने लागे छे. स्वयं टिप्पणकार श्रीओ ज अन्यत्र "आपणने न समजातुं विवक्षावैचित्र्य होई शके" अम कहीने सूत्रनी सङ्गति साधी आपी छे. तो आ सन्दर्भे पण अq न समजी शकाय ? अने तो पछी पाठ बदलवानी जरूर रहे खरी ? बीजुं, सङ्ख्याशास्त्रनी रीते पण परमाणुओ करतां आनुपूर्वीद्रव्योनो प्रदेशराशि अनन्तगुण ज थाय छे ओ तो वृत्तिकार भगवन्तोओ आपेली युक्तिओ परथी जणाई ज जाय छे, तो पण टिप्पणकार श्रीनी शैलीओ ज आ वात विशे थोडंक विचारीओ. प्रज्ञापनाजी मां परमाणुओ करतां सङ्ख्यातप्रदेशिक स्कन्धोने सङ् ख्यातगुण अने तेमना करतां तेमना प्रदेशराशिने सङ्ख्यातगुण कह्यो छे. टिप्पणकारश्रीना जणाव्या मुजब अत्रे बन्ने ठेकाणे सङ्ख्यातगुण वृद्धि कहेवा छतां, परमाणुओ करतां सङ्ख्यातप्रदेशिक स्कन्धोनो कुल प्रदेशराशि असङ् ख्यगुण समजवानो छे. ते आ रीते - सङ्ख्यातप्रदेशिक वर्गणाओमां परमाणुथी मांडीने उत्कृष्टसङ्ख्यातप्रदेशिक सुधीना स्कन्धोनी वर्गणाओ समाय छे. आमां दरेक वर्गणामां, २. अनुयोगद्वारसूत्र-सटिप्पण - पृष्ठ-९४ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० अनुसन्धान-७१ उत्तरोत्तर पूर्वनी वर्गणा करतां असङ्ख्यात भाग जेटली ओछी द्रव्यसङ्ख्या होय छे. जेम के प्रथम वर्गणामां जेटला परमाणुओ छे तेमना करतां बीजी वर्गणामां व्यणुको ओछा छे, अने तेमना करतां त्रीजी वर्गणामां त्र्यणुको ओछा छे. पण आ घटाडो प्रमाणमां अटलो नानो होय छे के तेने नजरअंदाज करीओ तो, उत्कृष्टसङ्ख्याती वर्गणामां, प्रथम वर्गणामां जेटला परमाणुओ छे तेटला ज, उत्कृष्टसङ्ख्येयप्रदेशिक स्कन्धो छे अम कही शकाय. हवे प्रथम वर्गणामां रहेला परमाणुओनी सङ्ख्याने आपणे P सज्ञा आपीओ तो बीजी वर्गणामां Px2 जेटलो प्रदेशराशि, त्रीजी वर्गणामां Px3 जेटलो प्रदेशराशि अम गणी शकाय. तेथी तमाम सङ्ख्यातप्रदेशिक स्कन्धोनो कुल प्रदेशराशि Px(2+3+4...+S) जेटलो थशे. आमां s = उत्कृष्ट सङ्ख्यातुं समजवानुं छे. आ सङ्ख्या P करतां असङ्ख्यातगुण थशे ते स्पष्ट छे. केम के S+1 पण जघन्य असङ्ख्यातुं थाय छे. तो 2+3+4....+S तो क्यांय पहोंचे. अटले P करतां Px(2+3+4....+S) तो असङ्ख्यगुण ज थवावं. मतलब के परमाणुओना कुल जथ्था करतां सङ्ख्यातप्रदेशिक स्कन्धोनो कुल प्रदेशराशि असङ्ख्यगुण ज थवानो. टिप्पणकारश्रीनी आ ज गणतरीने जो आपणे आगळ वधारीओ तो, तमाम असङ्ख्यातप्रदेशिक स्कन्धोनो कुल प्रदेशराशि Px[(S+1)+(S+2)+ (S+3)....+A] जेटलो थशे. आमां s अटले उत्कृष्ट सङ्ख्यातुं अने A अटले उत्कृष्ट असङ्ख्यातुं समजवानुं छे. आ सङ्ख्या P करतां अनन्तगुणी थशे ते नक्की छे. केम के A+1 पण जघन्य अनन्तुं थाय छे. तो S+1+S+2+ S+3....+A तो क्यांय पहोंचे. अटले P करतां Px[(S+1)+ (S+2)+(S+3) ....+A] अनन्तगुण थाय ते समजाय तेवू छे. मतलब के परमाणुओना कुल जथ्था करतां तमाम असङ्ख्यातप्रदेशिक स्कन्धोनो कुल प्रदेशराशि अनन्तगुण ज थाय ते देखीती वात छे. अलबत्त, दरेक वर्गणाओ द्रव्यराशि, पूर्व जणाव्युं तेम, उत्तरोत्तर असङ्ख्यातभागे घटतो जाय छे. आ घटाडो असङ्ख्य वर्गणाओ मूळ राशिना अर्धभाग जेटलो होय छे. तेथी असङ्ख्याती वर्गणाओमा असङ्ख्यवार मूळ राशिनो अडधो भाग थाय छे. अटले असङ्ख्यातप्रदेशिक स्कन्धोनो कुल Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ - १४१ प्रदेशराशि वास्तवमां Px[(S+1)+(S+2)+(S+3)....+A] जेटलो नथी, S+1, S+2 अम दरेक सङ्ख्या साथे गुणाकार वखते Pनी जग्याले क्रमशः नानी सङ्ख्या आवती जाय छे. तो पण द्रव्यराशिना आ घटाडा सामे, प्रदेशराशिनो वधारो सङ्ख्याशास्त्रनी दृष्टिले अटलो मोटो होय छे के जेने लीधे परमाणुओनी अपेक्षाओ फक्त असङ्ख्यातप्रदेशिक स्कन्धोनो प्रदेशराशि ज अनन्तगुण थईने रहे छे. अने आमां अनन्तप्रदेशिक स्कन्धोनो तेम ज व्यणुक सिवायना सङ्ख्यातप्रदेशिक स्कन्धोनो पण प्रदेशराशि उमेरीओ तो ओ कुल जथ्थो, परमाणुओ करतां विशेषाधिक (-द्विगुण करतां सहेज ओछा) अवा व्यणुकप्रदेशराशि करतां अनन्तगुण ज थाय ओ सहज छे. आ ज वात अनुयोगद्वारसूत्र मां प्रतिपादित थई छे अने वृत्तिकार भगवन्तो द्वारा समर्थित थई छे. वळी, दिव्यदर्शन ट्रस्ट-धोळका तरफथी सं. २०५३ मां अनुयोगद्वारसूत्र ना टिप्पणकार श्री द्वारा लिखित 'सत्पदादिप्ररूपणा' नामनुं पुस्तक प्रकाशित थयुं छे. आ पुस्तकनी प्रस्तावनामां टिप्पणकारश्रीओ जणाव्या मुजब ते पुस्तकगत तमाम प्ररूपणाओ पूज्य आचार्यश्री जयघोषसूरिजी म.नी छे. आ पुस्तकमां पृष्ठ १४३ पर अल्प-बहुत्वद्वारमां परमाणुओ करतां स्कन्धोनी सङ्ख्या अनन्तगुण अने स्कन्धो करतां तेमना प्रदेशोनी सङ्ख्या अनन्तगुण जणाववामां आवी छे. आ प्ररूपणामां बे वात विचारणीय छे - १. अनुयोगद्वारसूत्र मां, पूर्वे जोयुं तेम, परमाणुओ करतां स्कन्धोनी सङ्ख्या असङ्ख्यगुण जणाववामां आवी छे, अनन्तगुण नहि. ज्यारे अत्रे टिप्पणकार श्रीओ परमाणुओ करतां स्कन्धोनी सङ्ख्या अनन्तगुण जणावी छे. अनुयोगद्वारसूत्र साथे आ प्ररूपणानो स्पष्ट विरोध आवे छे. २. परमाणुओ करतां स्कन्धोनी सङ्ख्या जो अनन्तगुण होय अने तेमना प्रदेशोनी सङ्ख्या जो तेमनाथी पण अनन्तगुण होय तो परमाणुओ करतां विशेषाधिक व्यणुकप्रदेशो करतां आनुपूर्वीद्रव्योनी प्रदेशसङ्ख्या, टिप्पणकारश्रीना मते पण, अनन्तगुणी ज सिद्ध थाय छे. अने अनुयोगद्वारसूत्र मां पण ज प्रमाणे जणावायुं छे. तो सत्पदादिप्ररूपणा मां परमाणुओ करतां स्कन्धोनी ३. त्यां अनन्तगुण सूचववा माटे A सज्ञा प्रयोजाई छे. Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ अनुसन्धान-७१ प्रदेशसङ्ख्या अनन्तगुण जणावनारा टिप्पणकारश्री स्वयं अनुयोगद्वारसूत्र नां टिप्पणोमां अ ज वातनो विरोध करे छे, अने बने वखते अमने पूज्य आचार्यश्री जयघोषसूरिजी म.नुं समर्थन छे तेम जणावे छे ! आ बधी विचारणाने परिणामे अम समजाय छे के अनुयोगद्वारसूत्र मां अवक्तव्यकद्रव्यो करतां आनुपूर्वीद्रव्योना प्रदेशराशिने अनन्तगुण प्रतिपादित करनारो पाठ प्रामाणिक ज छे, प्रामादिक नथी. अने अटले आचार्यश्री अभयशेखरसूरिजी सूचवे छे तेम तेने बदलवानी जरूर नथी जणाती. बदलवा जतां पूर्वना श्रुतधर महर्षिओनी आशातना थई जवानो भय स्पष्टपणे भासे छे. आ समग्र विचारणा 'आम पण विचारी शकाय' अवं सूचववा पूरती ज करी छे. 'आ आम ज होय' अवो कोई आग्रह नथी. तेम ज आ लखाण द्वारा कोईनुं पण खण्डन करवानो लेशमात्र आशय नथी. आ लखाणमां जो कोईपण क्षति जणाय तो ते सूचववा माटे नम्र विनन्ती. * * * Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ १४३ सौन्दर्य और शान्ति जिनसौन्दर्य और प्रतिमाओं पर जैन विविध विचार . - नलिनी बलबीर प्रो. सर्बन नुवेल विश्वविद्यालय, पैरिस, फ्रांस विश्वविख्यात विद्वान डाक्टर श्री मधुसूदन ढांकी (१९२७-२०१६), जिनको सब लोग ढांकी साहब कहकर बुलाते थे, प्राचीन तथा मध्यकालीन भारतीय देवालय स्थापत्य के विषयों में प्रधान हुए हैं । उन्होंने शास्त्रीय सङ्गीत एवं निर्ग्रन्थ साहित्य को महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। आज के ज्ञान अन्धकार को उनकी ज्योति प्रकाशित कर रही है। इन महान संशोधकने कई पीढियों के छात्रों और गवेषकों का मार्ग प्रदर्शन किया और उनके अध्ययन एवं अध्यापन को सफल किया है । रसिकहदय ढांकी साहब जैन साहित्य के विभिन्न पदों ओर स्तोत्रों को मानता देते थे। उनकी स्मृति में मैं कुछ पुष्प अर्पण करती हूँ । इस सन्दर्भ में उनका लेख The Jina Image and the Nirgrantha Agamic and Hymnic Imagery (१९८९ एवं २०१२) विशेषतः प्रेरणात्मक है । सौन्दर्य और रसास्वादन संस्कृत परम्परा में विविध प्रकार से मनन और विचार विनिमय प्रकट हुए हैं । इसका विकास शुद्ध साहित्यिक या रसास्वाद के दृष्टिकोण से हुआ है । अथवा प्राकृत भाषाओं में लिखे हुए ग्रन्थों के आधार पर मैं जिनों के सौन्दर्य के विचारों को प्रस्तुत करने का प्रयास करूंगी । बुद्ध और जिन की मुसकराहट के विषय पर अपने लेख (Balbir २०१३) और जिनमूर्ति के ऊपर अन्य विद्वानों के अर्वाचीन लेखों का उपयोग भी मैं करती हूँ (जैसे Granoff २०१२ एवं २०१३) । जैसे ढांकी साहबने समझाया (The Agamas show toward the actual representation of the Jina an attitude which is) ‘non-committal and neutral, even cool Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ अनुसन्धान-७१ or indifferent (...) The Nirgrantha Church in its earlier phase of existence is thus neither vociferous on, nor zealous about image worship; in view of the philosophical position it adopts, it just could not be; for it did not look upon images as an essential aid in the attainment of his nirvāṇa, end of all active processes. And yet the archaeological evidence positively, even persistently (if paradoxically) indicates a very early evidence of Jina images and their worship in the Nirgrantha religion' (Dhaky १९८९ पृ० ९५-९६ = २०१२ पृ० १००-१०१). ऐसा लगता है कि मूर्तियों के विकास में जैन श्रावकों ने भाग लिया । ५वीं शती में जिनमूर्ति की प्रतिष्ठा की प्रशंसा शुरू हुई (जैसे विमलसूरि के 'पउमचरिय' से पता चलता है) । मथुरा से लेकर अधिक से अधिक जिनमूर्तियाँ मिलती हैं । पत्थर या कांस से बनी हुई प्रतिमाओं में कलाकारों ने जिनों का स्वभाव, केवलज्ञान तथा मोक्ष को दिखाने का प्रयास किया है। सिद्धान्ततः जिनशरीर सौन्दर्य का मुख्य प्रदर्शन है । जिनसौन्दर्य जैन धर्म के मौलिक कल्पों से सुसम्बद्ध हैं, अर्थात् महत्त्व, शान्ति और समरसता । __ प्रारम्भ में जैन आगमों के सन्दर्भो का आश्रय लेकर मैं इस तथ्य का समर्थन करूंगी । तत्पश्चाद् जैन मूर्तियों में प्रदर्शन कैसे होता है ? यह मेरा मुख्य विषय है, और उसके बाद जैन मूर्तियों में अलङ्कारों का स्थान क्या है ? इस प्रश्न पर भिन्न विचार हुआ है कि जैन मूर्ति स्वत: सौन्दर्य की प्रतीत है या उसको अलङ्कारों की आवश्यकता है ? । १. जिनशरीर उदाहरणोत्तर एवं लोकोत्तर है और सुन्दर है। __ जिनशरीर का सब से प्रसिद्ध वर्णन श्वेताम्बरों के आगमों के 'औपपातिकसूत्र' (या 'उववाइयसुत्त') ग्रन्थ में मिलता है । समवसरण के गम्भीर और उत्सवी अवसर पर मनुष्यों और देवताओं से घेरे हुए महावीर धर्मदेशना देने के लिए आए हैं । इसके पहले स्थान और भूमिकाओं का विवरण आता है । चम्पानगरी का वर्णन, श्रेणिक राजा का वर्णन इत्यादि । महावीर का वर्णन तीन अवस्थाओं में दिया गया है । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर २०१६ पहली अवस्था महावीर की सारी कार्यवाही और गुणों का वर्णन है । वे अपने युग में धर्म के आदि प्रवर्तक थे, चतुर्विध धर्मतीर्थ के प्रतिष्ठापक थे, आत्मशौर्य में पुरुषों में सिंह सदृश थे, सभी प्राणियों के लिये अभयदान देनेवाले थे, राग आदि के जेता थे, संसारसागर को पार कर जाने वाले, दूसरों को भी संसार सागर से पार उतारने वाले थे इत्यादि । तीसरी अवस्था में उनके आत्मिक वैभव का विवरण है । वे प्राणातिपात आदि आस्रवरहित ममतारहित अकिंचन थे । वे भव-प्रवाह को नष्ट कर चुके थे, प्रेम, राग, द्वेष और मोह का क्षय कर चुके थे । चक्र, छत्र, चंवर तथा आकाश के समान स्वच्छ स्फटिक से बने पादपीठ सहित सिंहासन एवं धर्मध्वज ये उनके आगे आकाश से अन्तरिक्ष में चलते थे । दूसरी अवस्था में अत्यन्त विवरण सहित भगवान महावीर का शरीरसौष्ठव है, ७४ बहुव्रीहि समासों द्वारा सिर से पैर तक कालिदास से लेकर बाद तक के अनुसार नख - शिखा का वर्णन है। भगवान महावीर के शरीर की विशेषता के विषय में उनके शरीर की ऊंचाई, ढांचा और असामान्यता का विवरण है । - १४५ -नाराय 'सत्त - हत्थुस्सेहे, सम- चउरंस-संठाण-संठिए, वज्ज-1 - रिसह-न संघयणे' उनके शरीर की ऊंचाई सात हाथ की थी, उनका संस्थान समचौरंस था तथा शरीर की रचना वज्र - ऋषभ नाराच संहननयुक्त थी । वज्रऋषभनाराच संघयण में एक दूसरे से गाँठ लगाकर हड्डियों का परस्पर सम्बन्ध है, जिसके बीच में हड्डी का ही पट और कील होते है । समचौरंस पर्यङ्कासन में स्थित व्यक्ति को दाएँ घुटने से बाएँ कंधे पर्यन्त का अन्तर और दाएँ स्कन्ध से बाएँ घुटने के बीच में रहा अन्तर । ठीक वैसे ही दो घुटनों का अन्तर और दो घुटनों के मध्य भाग से ललाटप्रदेश तक का अन्तर । उपरोक्त चारों के बीच रहा अन्तर (दूरी) एक सा होता है । इसका अर्थ है कि उनका शरीर अच्छी रचना का था । जैन कर्मग्रन्थों में कहा गया है कि शरीर - रचना व्यक्ति के कर्म के ऊपर है । इसलिए लोगों के शरीरों के रूप या ढांचे भिन्न भिन्न होते हैं । ऐसे वर्णन से पता चलता है कि जिनशरीर साधारण व्यक्तियों के शरीर से विशेष होता है । अर्थात् जिन, और बुद्ध भी, Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ अनुसन्धान- ७१ दोनों को महापुरुषलक्षण लोकोत्तर विशेषता देते हैं । महावीर के शरीर को 'विशिष्टरूप' कहते हैं । वह सामञ्जस्यपूर्ण, चारुकर, चमत्कारपूर्ण, सुगन्धि है । जिन की असाधारणता को दिखाने के लिए सारे काव्यात्मक साधारण उपमानों और उपमेयों का प्रयोग किया गया है । उदाहरणत: 'उवचिय - सिलप्पवाल - बिम्ब-फल-‍ -सन्निभाहरोठे' उनके होंठ संस्कारित या सुघटित मूंगे की पट्टी जैसे या बिम्बफल के सदृश थे । 'आणामिय-चाव - रुइल- किण्हब्भराइ-तणु-कसिण- णिद्ध-भमुहे' उनकी काली एवं स्निग्ध भौंहें वक्र धनुष के समान सुन्दर, टेढी, काले बादल की रेखा के समान पतली थीं । - 'वर-महिस-वराह-सीह- सद्दूल - उसभ - नाग - वर पडिपुण्ण-विउल क्खन्धे' उनके सुपुष्ट कन्धों जैसे परिपूर्ण एवं विस्तीर्ण थे । कन्धे भैंसे, सूअर, सिंह, चीते, साण्ड तथा उत्तम हाथी के 'अकरण्डुय - कणग-रुयय-निम्मल - सुजाय-निरुवहय - देह धारी, अठ्ठ सहस्स - पडिपुण्ण - वर- पुरिस- लक्खण-धरे' उनका शरीर स्वर्ण के समान कान्तिमान्, निर्मल, सुन्दर, रोग-दोष वर्जित था तथा उस में उत्तम पुरुष के १००८ लक्षण पूर्णतया विद्यमान 'छाया-उज्जोइयंगमंगे' प्रत्येक अङ्ग दीप्ति से उद्योतित था । शरीर का कोई भाग इस वर्णन से खाली नहीं है । पर मुख और चेहरा का वर्णन महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि मुख से ही भाषा का अध्यापन निकलता है । दाँतों के सौन्दर्य का वर्णन भी दिया गया है । 'अखण्ड - दन्ते, अविरल - दन्ते, अफुडिय-दन्ते, सुणिद्ध-दन्ते, सुणिद्धदन्ते, सुजाय - दन्ते, एग- दन्त- सेढी विव अणेग - दन्ते' Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ १४७ ___ उनके दांतों की श्रेणी शुभ निष्कलङ्क चन्द्रमा के टुकडे निर्मल से भी निर्मल शङ्ख, गाय के दूध, फेन, कुन्द, पुष्प, जलकण और कमलनाल के समान उज्ज्वल थी । दात अखण्ड, परिपूर्ण, अस्फुटित, सुदृढ, टूट फूटरहित, अविरल, परस्पर सटे हुए थे । वे सुस्निग्ध चिकने आभामय सुजात सुन्दराकार दीखते थे । अत: हम यह समझ सकते हैं कि स्तोत्रकारों ने कभी-कभी जिन के दाँतों की प्रशंसा क्यों की है। उदाहरण के लिए 'शोभनस्तुति' में भगवान पार्श्व के विषय पर यह कहा गया है - ...... स पार्थो रुचिर-रुचि-रदः' (शोभनस्तुति ८९) । १६० संस्कृत प्रश्नोत्तरों में, जैन लेखक जिनवल्लभसूरिने, १२वीं शती में सवाल पूछा : 'काश्चारुचन् समवसृत्यवनौ भवाम्बुमध्यप्रपातिजनतोद्धृतिरज्जुरूपा: ?' वे कौन-सी चीजें हैं जो समवसरण-स्थान पर चमकचमकती सामान्य जन्तु को पुनर्जन्म-सागर से रस्सियों की तरह छुटकारा दिलाती हैं ? उत्तर है । जिन के दाँतों की चमक । महावीर के शारीरिक सौन्दर्य का वर्णन उनके आत्मीयता की प्रकाशता के वर्णन के पश्चात् आता है, यह केवल अचानक नहीं है । सौन्दर्य और आत्मबुद्धि का घनिष्ठ सम्बन्ध स्पष्टता से कहा गया है । उत्तरकालीन ग्रन्थों में शरीर का चमत्कारक सौन्दर्य ३४ अतिशयों में सर्वप्रथम अतिशय के रूप में प्रकट होता है और सहोत्थ अतिशयों में आता है । अमानवीय गुणों का समर्थन है । जिन अद्भुत रूप का है । (दे० 'अभिधानचिन्तामणि १.५७) । जिन का शरीर सुन्दर ही नहीं किन्तु अप्राकृतिक है । उनके अंग सम्पूर्णतया परिवर्तित हो गये है, और उनके शारीरिक धर्म का आभास नहीं होता । उनका श्वास कमल की तरह सुगन्धि होता है । उसका खून दूध की धारा के समान है और गन्धरहित होता है । वह चाहे खाना पचाए या खाने का निष्कार करे, यह सब अदृश्य होता है । वास्तव में शारीरिक सौन्दर्य धार्मिक सिद्धि का लक्षण है । इसके विरुद्ध कुरूपता और भयंकर रूप नरकवासियों के चिह्न है । उनके पूर्वकर्मों का फल है । 'बृहत्कल्पभाष्य' की प्राकृत Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ अनुसन्धान-७१ I व्याख्यामें पूछा गया है- तीर्थङ्कर सुरूप हैं अथवा नहीं । उसके उत्तर में कहा गया है - धर्म के अभ्यास से सौन्दर्य आता है । जो सुन्दर लोग हैं वे भी धर्म का अभ्यास करते है । और हम सुन्दर व्यक्ति को अधिक सावधानी से सुनते हैं । इसीलिए हम जिन के सौन्दर्य की प्रशंसा करते हैं । 'धम्मोदएण रूवं करेंति रूवस्सिणो वि जइ धम्मं । गज्झवओ य सुरूवो पसंसिणो रूवं एवं तु' ॥ (१२०१) संस्कृत टीकाकार ने बताया कि जब लोग शारीरिक सौन्दर्य की प्रशंसा करते हैं, वह जैन धर्म के अभ्यास का फल है । यह भी कहना होगा कि सुन्दर व्यक्ति धर्म का अभ्यास करते हैं, और उन्हें ऐसा करने की प्रेरणा मिलती है । और हम सुन्दर लोग जो कहते हैं उस पर ध्यान देते हैं । जिन के अतीव सौन्दर्य से विनम्र हो जाते हैं । ( Granoff २०१२) I 'औपपातिकसूत्र' में महावीर भगवान का वर्णन जीवित व्यक्ति का वर्णन है । महावीर अपने सारे अनुयायियों के साथ अधिक बडे समूह में व्याख्यान के लिए आते हैं । अब उनका प्रतिनिधित्व क्यों किया जाए ? क्या उनके विचारणीय या शारीरिक श्रेष्ठता को दिखाता है, या इन दोनों के पक्ष में है ? २. जिन प्रतिमा का सौन्दर्य । सारे जैन इतिहास में जिन के शरीर की प्रशंसा की गयी है । उदाहरणतः १०वीं शती में 'समयसारकलश' में दिगम्बर लेखक अमृतचन्द्र ने कहा 'कान्त्यैव स्नपयन्ति ये दश दिशो धाम्ना निरुन्धन्ति ये । धामोद्दाम-महस्विनां जनमनो मुष्णन्ति रूपेण ये । दिव्येन ध्वनिना सुखं श्रवणयोः साक्षात् क्षरन्तोऽमृतं । वन्द्यास्तेऽष्टसहस्र-लक्षण-धरास्तीर्थेश्वराः सूरयः ' ॥(२४) अनुवादः - लोकमानस रूप से रवितेज अपने तेज से । जो हरें निर्मल करें दर्शादिश कान्तिमय तनतेज से ॥ जो दिव्यध्वनि से भव्यजन के कान में अमृत भरें । उन सहस आठ लक्षण सहित जिनसूरि को वंदन करें ॥ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ १४९ 'नित्यमविकार-सुस्थित-सर्वाङ्गमपूर्व-सहज-लावण्यम् । अक्षोभमिव समुद्रं जिनेन्द्र-रूपं परं जयति' (२६) गम्भीर सागर के समान महान मानस संग है । नित्य निर्मल निर्विकारी सुव्यवस्थित अंग है ॥ सहज ही अद्भुत अनुपम अपूरब लावण्य है। क्षोभ विरहित अर अचल जयवंत जिनवर अंग है ॥ (दे० www. atmadharma.com; इन श्लोकों के अंग्रेजी अनुवाद के लिए दे० Granoff २०१२) बुद्ध की तरह जिन भी राजकुमार थे, जिन्होंने आर्थिक जीवन का त्याग कर दिया । साधु हो गये हैं । केवलज्ञान को प्राप्त किया है। उनकी सब मोहममता भंग हो गयी है जो लोगों को संसार में आसक्त रखती हैं। सम्पूर्ण कर्मक्षय हो गया है । वे मोक्ष या सिद्धि को प्राप्त हो गये हैं । सम्पूर्ण पुनर्जन्म से छूट गये हैं। जिन ऐसी आत्मा है जिसको प्राकृतिक शुद्धता प्राप्त हो गयी है । अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख, अनन्त वीर्य इति चतुष्टय-गुणों से सर्वदा सिद्धात्मा ओतप्रोत रहा है । वह प्रत्यक्ष नहीं है । शरीरसहित आत्मा का प्रतिबिम्ब मानना तो योग्य है, परन्तु शरीररहित शुद्धात्मस्वरूप सिद्धों की प्रतिमा कैसे सम्भव है ? । वैसे ही अधिकतर जैन जिनप्रतिमाओं की पूजा करने में आस्था रखते हैं । जिन की अप्रत्यक्षता और प्रतिनिधित्व की आवश्यकता के सामने 'दीपार्णव' शिल्पशास्त्र के ग्रन्थकार ने इस समस्या को रूप-शब्द लेकर और उसके साथ खेलकर समझाया है । 'अथातः संप्रवक्ष्यामि स्वरूपं जिनलक्षणम् । अरूपं रूपमाकारं विश्वरूपं जगत्प्रभुम् ॥ केवलज्ञानमूर्तिश्च वीतरागं जिनेश्वरम् । द्विभुजं चैकवक्त्रं च बद्धपद्मासनस्थितम्' ॥ (दीपार्णव २१.१-२) जैन मतावलम्बियों ने प्रतिमाओं के विविध रूपों का आश्रय लिया है। जिन को शिल्पाङ्कित करने के दो पारम्परिक विधान हैं । जिनको या तो पद्मासन में बैठा हुआ या एकदम सीधा खडा दिखाया है । इस अवस्था में Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० अनुसन्धान-७१ जिन समभंग में सीधे खडे होते हैं, उनकी दोनों भुजाएँ लम्बगत घुटनों तक प्रसारित होती हैं और आँखें नासाग्र को देखती हैं । इस प्रकार की प्रतिमा कायोत्सर्ग के नाम से या प्रतिमा के नाम से प्रसिद्ध है । यह मुद्रा केवल जिनों के मूर्त अङ्कन में ही प्रयुक्त है । वस्तुत: कायोत्सर्ग का अर्थ है कि जिनशरीर से पृथक् तथा सब बाह्य सम्पर्क से भिन्न है जो मानसिक स्थिति को व्याकुल कर सकते हैं । आसीन अथवा खडी प्रतिमा में जिन नग्न हैं । दिगम्बरों में बिना अलङ्कार है (नीचे भी दे०) । श्वेताम्बरों में वे वस्त्र पहने हैं और गर्दन की चारों ओर माला पडी है । पर माला अथवा अलङ्कार विरक्ति के भाव को हटाते नहीं, बहुत लोग ऐसे मानते हैं। कभी सिर के पीछे भामण्डल दिखाई देता है । वक्षस्थल पर कभी-कभी श्रीवत्स का अङ्कन होता है । कुछ अपवाद हैं जैसे पार्श्वनाथ और सुपार्श्वनाथ के नागफण, नहीं तो, लाञ्छन यदि न हों, तो जिनप्रतिमाओं के बीच में मूलभेद नहीं है । एक तीसरे प्रकार की प्रतिमा उपलब्ध है जिन में शरीर कि कुछ पंक्तियों की छाया में एक कांसे के पटल में खींची है । जिसको सिद्धप्रतिमा कहा जाता है। __जैन लोगों के लिये जिन की पूजा जैन धार्मिक प्रथा है । यदि हम अपवादों को दूर कर रहे हैं जो मूर्तिपूजा और मन्दिरों में पूजा करने को विरोधी हैं जैसे स्थानकवासी । मन्दिरों में लोग जिनदर्शन आदरपूर्वक तथा भक्तिपूर्वक करते हैं, चाहे द्रव्यपूजा द्वारा या भावपूजा द्वारा । २०वीं शती के ज्ञानसुन्दर मुनि ने बताया है - 'प्रतिमा के द्वारा मैं परमोत्तम देवता पवित्र, नित्य, केवलज्ञानी जिन की पूजा करता हूँ। प्रतिमा केवल कारणरूपी है । जिस तरह से ग्रन्थों में सारे शब्दों द्वारा जिन को आदर करते हैं उसी प्रकार प्रतिमा द्वारा सर्वज्ञ जिनों के शरीर का आदर करता हूँ।' (Jnanasundara १९३६, दे० Cort २०१० पृ० २५५) जिनप्रतिमा की सुन्दरता की विशिष्टता को जानने के लिये हम प्रतिमाओं को देख सकते हैं, या प्रशंसा की स्तुतियां को पढ सकते हैं । सबसे पुरानी Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर २०१६ जिनस्तुति 'सूत्रकृताङ्ग' ('सूयगड') आगम में मिलती है । इस जगह (१.६) जिन की महन्ता और शुद्धता दिखाई गयी है । शारीरिक वर्णन बिल्कुल नहीं है। १५१ 'This wise and clever great sage possessed infinite knowledge and infinite faith. Learn and think about the Law and the piety of the glorious man who lived before our eyes! This wise man had explored all beings, whether they move or not, on high, below, and on earth, as well as the eternal and transient things. Like a lamp he put the Law in a true light. He sees everything; his knowledge has got beyond (the four lower stages); he has no impurity; he is virtuous, of a fixed mind, the highest, the wisest in the whole world; he has broken from all ties; he is above danger and the necessity to continue life. Omniscient, wandering about without a home, crossing the flood (of the Samsara), wise, and of an unlimited perception, without an equal, he shines forth like the sun, and he illumines the darkness like a brilliant fire (....) His knowledge is inexhaustible like the (water of) the sea; he has no limits and is pure like the great ocean; he is free from passion, unfettered, and brilliant like śakra, the lord of the gods. By his vigour, he is the most vigorous; as meru, the best of all mountains, or as heaven, a very mine of delight, he shines forth endowed with many virtues' (H. Jacobi अनुवाद, Sacred Books of the East भाग ४५ पृ० २८७-२८८). ऐसे गुणों की प्रशंसा 'शक्रस्तव' में भी मिलती है (Dhaky १९८९ पृ० १०१) । पर प्राचीन और अर्वाचीन स्तोत्रों की स्थिति भिन्न है । जब जिन की प्रशंसा की जाती है तो स्तोत्रकार एक काल्पनिक वस्तु की प्रशंसा करते हैं और प्रतिमा में वे सम्पूर्णता का एक प्रतिबिम्ब भी देखते हैं । चाहे साधारण स्तोत्र हों या दार्शनिक, प्रथा की ओर तो वे जिन के शरीर, उनके 1 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ अनुसन्धान-७१ चेहरे, उनके दर्शन को दूर नहीं करते । ये सब लाभकारी हैं | समवसरण के अवसर पर हमने देखा कि जिनसौन्दर्य धर्म के आचरण से आता है और रसास्वादन के परे । कहना होगा कि रसास्वादन और धर्मपरायणता एक साथ मिलते हैं । १२वीं शती में श्वेताम्बर कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य 'वीतरागस्तोत्र' के काव्य को पढ सकते हैं । जिन के शरीर पर वह सौन्दर्य और धर्मशीलता के गुणों का आरोप करते हैं क्योंकि वह किसी भी परिवर्तन से प्रभावित नहीं होता । कहा जाता है कि शुद्धता से जिन का शरीर लोगों को आकर्षित करता है । 'प्रियङ्गुस्फटिकस्वर्णपद्मरागाञ्जनप्रभः । प्रभो तवाऽधौतशुचिः काय: कमिव नाक्षिपेत् ?' || (वीतरागस्तोत्र २.१) नीला प्रियङ्गु, स्फटिक उज्ज्वल, स्वर्ण पीला चमकता फिर पद्मराग अरुण व अञ्जन रत्न श्यामल दमकता । इन-सा-मनोरम रूप मालिक ! आपका, नहाये बिना भी शुचि सुगन्धित, कौन रह सकता उसे निरखे बिना ?॥ (विजयशीलचन्द्रसूरि १९९६ पृ० ४) यह विचार 'भक्तामरस्तोत्र' में भी मिलता है। जिन का रूप अद्वितीय है और शान्त, सुन्दर, मनोहर परमाणुओं से निर्मित हुआ है । 'यैः शान्तरागरुचिभिः परमाणुभिस्त्वं । निर्मापितः' (भक्तामरस्तोत्र १२) जैन मत के अनुसार जिन के शरीर की आवश्यकता कही गयी है । 'मतं नः सन्ति सर्वज्ञा मुक्ताः कायभृतोऽपि च' (वीतरागस्तोत्र ७.७) यह तो हमें भी मान्य है ऐसे द्विधा सर्वज्ञ है एक देहधारी, दूसरे अरु सिद्ध रूपातीत है। (विजयशीलचन्द्रसूरि १९९६ पृ० २३) पर जिनप्रतिमा आदर्श में प्रतिबिम्ब जैसे होती है । जिनवदन को स्तोत्रकार अधिक ध्यान देते हैं । "प्रसन्नमास्यं मध्यस्थे दृशौ लोकम्पृणं वचः' (वीतरागस्तोत्र ६.११). Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर २०१६ प्रभुजी ! प्रसन्न वदन तुम्हारा नजर अरु शमरसभरी बुध - अबुध जनता को तथा प्रियकारिणी वाणी खरी । (विजयशीलचन्द्रसूरि १९९६ पृ० २०) मुख- मुद्रा सौम्य होनी चाहिये । यह विचार आधुनिक गीतों में भी उपलब्ध है । १५३ तुम्हारी आँखों में स्नेह है, और तुम्हारे चेहरे पर शान्ति का सन्देश है । तुम्हारे वक्ष:स्थल पर अहिंसा विराजमान है, तुम्हारे होठों पर राजकीय सत्य है । (दे० Kelting २००१ पृ० ८९) जिन की शुद्धता चन्द्रमा तथा सूर्य से अधिक प्रकाशमान है । 'नित्योदयं दलितमोहमहान्धकारं गम्यं न राहुवदनस्य न वारिदानाम् । विभ्राजते तव मुखाब्जमनल्पकान्ति विद्योतयज् जगदपूर्वशशाङ्कबिम्बम् ' ॥ ( भक्तामरस्तोत्र १८ ). आपका मुख-कमल एक अद्भुत चन्द्रमा है जो सम्पूर्ण लोक को प्रकाशित करनेवाला है । उसकी कान्ति अल्प नहीं है । उसका उदय सदा ही होता है । वह समस्त जगत का अज्ञान मोह रूप अन्धकार नष्ट कर देता है । न राहु न बादल उसको ढँक सकते हैं । कलाकृतियों में आँखें जो बडी-बडी हैं खुली या बन्द हैं । आँखों का दृष्टिकोण या तो नाक का है अथवा किसी विशेष दिशा में नहीं है । फिर भी एक दिगम्बर शास्त्र के अनुसार, जो मूर्तिप्रतिष्ठा के विषय को छूता है, अच्छा है कि आँखें खुली हों क्योंकि वह चेहरे के सौन्दर्य को बढा देता है । यह भी कहा गया है 'लक्षणैरपि संयुक्तं बिम्बं दृष्टिविवर्जितम् । न शोभते यतस्तस्मात् कुर्याद् दृष्टिप्रकाशनम् ॥७२॥ नात्यन्तोन्मीलिता स्तब्धा न निस्फारितमीलिता । तिर्यगूर्ध्वमधो दृष्टिं वर्जयित्वा प्रयत्नतः ॥७३॥ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ अनुसन्धान-७१ नासाग्रनिहिता शान्ता प्रसन्ता निर्विकारिका । वीतरागस्य मध्यस्था कर्तव्याधोत्तमा तथा' ॥७४|| (वसुनन्दिन् का प्रतिष्ठापाठ, दे० जैनेन्द्र सिद्धान्तकोश, भाग २ पृ० ३००) लक्षणों से संयुक्त भी प्रतिमा यदि नेत्ररहित हो या मुन्दी हुई आँखवाली हो तो शोभा नहीं देती । इसलिए उसे उसकी आँख खुली रखनी चाहिए ७२। अर्थात् न तो अत्यन्त मुन्दी हुई होनी चाहिए और न अत्यन्त फटी हुई। ऊपर नीचे अथवा दायें-बायें दृष्टि नहीं होनी चाहिए । बल्कि शान्त नासाग्र प्रसन्न निर्विकार होनी चाहिए । और इसी प्रकार मध्य व अधोभाग भी वीतराग प्रदर्शक होने चाहिए (पृ. ३०१) । श्वेताम्बर जैन मूर्तियों में शीशे की आँखें दर्शक को आकर्षित करने के लिए प्रायः घटित हैं (इस विषय की चर्चा के लिए दे० Cort २०१५) । चेहरे पर कोई भाव न दिखे, पर दृष्टि न स्थिर न कठोर होनी चाहिए । प्रसन्नता का प्रदर्शन होना चाहिए । १८वीं-१९वीं शती के बुधजन नामक एक जयपुरस्थानीय दिगम्बर कवि ने कहा 'छबि वीतरागी नग्यन मुद्रा दृष्टि नासा पे धरै वसु प्रतिहार्य अनन्त गुणजुत कोटि रवि छबि को हरै' (प्रभु पतित पवन) स्तब्ध दृष्टि से शोक, उद्वेग तथा सन्ताप, शान्त दृष्टि से सौभाग्य । जब मैंने आचार्य विजयशीलचन्द्रसूरिजी महाराज से जिन के सौन्दर्य के विषय में पूछा तो उन्होंने एक श्लोकप्रतीक का उल्लेख किया 'प्रशम-रस-निमग्नं दृष्टियुग्मं प्रसन्नं वदनकमलम्' इस प्रकार का वर्णन पहले ही एक श्वेताम्बर आगम में मिलता है, जब 'अनुयोगद्वारसूत्र' २६२ में नवरसों के वर्णन के सन्दर्भ में शान्तरस का वर्णन किया जाता है। 'सब्भव-निव्विइकरं उवसन्त-पसन्त-सोम-दिट्ठियं ही ! जह मुणिणो सोहति मुहकमलं पीवर-सिरीयं' Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ १५५ स्वभाव से विकार रहित प्रशान्त सौम्य दृष्टि युक्त और पुष्ट कान्तिवाला मुनि का मुख कमल की तरह अतीव सुशोभित हो रहा है। ___ जैसे बौद्ध मातृचेट लेखकने २वीं शती में बुद्ध की आत्मीयता की प्रशंसा की है । सुन्दर है क्योंकि शान्तिपूर्व है । 'उपशान्तं च कान्तं च... इदं रूपं कमिव नाक्षिपेत् ?' (अध्यर्धशतक ५२). 'बृहत्संहिता' के प्रतिमालक्षण अधिकार में ७वीं शती में वराहमिहिर ने बुद्ध और जिन की प्रतिमाओं का एक जैसा वर्णन किया है । बुद्ध को 'प्रसन्नमूर्ति' तथा जिन को 'प्रशान्तमूर्ति' कहा है। 'पद्माङ्कितकरचरणः प्रसन्नमूर्तिः सुनीचकेशश्च । पद्मासनोपविष्टः पितेव जगतो भवेत् बुद्धः । आजानुलम्बबाहुः श्रीवत्साङ्कः प्रशान्तमूर्तिश्च । दिग्वासास्तरुणो रूपवांश्च कार्योऽर्हतां देवः' ॥ (५८.४४-४५). वास्तव में बौद्ध और जैन की प्राचीनकाल की मूर्तियाँ एक दूसरे से बहुत मिलती-जुलती हैं । जिनप्रतिमा के सौन्दर्य को लेखकों ने वर्णन किया है। देखनेवाले पर उसका गहरा प्रभाव पड़ता है। इसमें इतनी शक्ति होती है कि दार्शनिक सिद्धसेन ने अपनी 'दूसरी द्वात्रिंशिका' में रेखाङ्कित किया है कि जिन की प्रतिमा को देखना आत्मसिद्धि का प्रधान साधन उपाय है । "तिष्ठतु तावदतिसूक्ष्म-गभीर-गाधाः संसार-संस्थिति-भेदः श्रुतवाक्यमुद्राः पर्याप्तमेकमुपपत्तिसचेतनस्य रागार्चिषः शमयितुं तव रूपमेव (२.१५) ‘Never mind your profound and subtle doctrines that destroy the agonies of rebirth-Just the mere sight of your form alone is enough to still the fire of passion in a receptive soul.' (दे० Granoff २०१२) Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ अनुसन्धान-७१ और अपनी 'प्रथम द्वात्रिंशिका' में उन्होंने कहा है कि जिन का शरीर निरन्तर बदलता नहीं । वह सामान्य लाल रक्त से भिन्न है । जिन की अद्भुत भाषा जो सब व्यक्तियों के लिए कृपापूर्ण है। विचारशील व्यक्ति में जिन की सर्वज्ञता के विषय में संदेह दूर करनेवाली है। 'वपुः स्वभावस्थ-मरकत-शोणितं परानुकम्पासफलं च भाषितम् । न यस्य सर्वज्ञविनिश्चयस्त्वयि द्वयं करोत्येतदसौ न मानुषः' (१.१४; Granoff २०१२) जिनप्रतिमा को देखने से ऐसा प्रभाव होता है जो धार्मिक परिवर्तन में बदल जाता है । उसका प्रभाव अन्य धार्मिक प्रतिमाओं से अधिक भी हो सकता है । राजशेखरसूरि के लिये हुए 'प्रबन्धकोश' की एक कथा के अनुसार (कथा-८) हरिभद्र ब्राह्मण ने जिनप्रतिमा को एक मन्दिर में देखकर आनन्द को व्यक्त किया है और वह जैन धर्म में परिवर्तित होकर मध्यकालीन के प्रधान जैन मनीषियों में उत्तम स्थान पर पहुंचे । 'वपुरेव तवाचष्टे भगवन् ! वीतरागताम् (...) जं दिट्ठी करुणातरङ्गियफुडा एयस्स सोम्म मुहं आयारो पसमायरो, परियरो सन्तो, पसन्ना तणू । तां नूणं जरजम्ममच्चुहरणो देवाहिदेवो इमो देवाणं अवराण दीसइ जओ नेयं सरूवं जए' हे भगवान् ! आपका शरीर ही वीतरागता कहता है । दृष्टि कृपापूर्ण है, चेहरा मधुर है । जो जिन प्रत्येक दिशा में दिखाए गए हैं वे भी शान्त हैं और शरीर सम्पूर्णतया शान्त है । सारी देवताओं में आप ऐसी देवता हैं जो जन्म, जरावस्था तथा मृत्यु पर विजय पाते है । और कोई दूसरी देवता ऐसी नहीं हैं। इसी लेख में एक हिन्दु ने एक जैन उपाध्याय से पूछा । ये जिनदेव कहां हैं । उसका उत्तर यह है कि मोक्ष में है, पर द्रव्यत: जैन मन्दिर में है । हिन्दु को जैन मन्दिर में ले जाया गया । उसने पार्श्वनाथ भगवान की Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ १५७ प्रतिमा को देखकर कहा - वह सम्पूर्ण देवता है, यह उसके रूप से पता चलता है। ‘स जिन: क्वास्ते ? सूरिः - स्वरूपतो मुक्तौ, मूर्तितस्तु जिनायतने । (...) शान्तं कान्तं निरञ्जनं रूपं दृष्ट्वा प्रबुद्धो बभाषे । अयं निरञ्जनो देव आकारेणैव लक्ष्यते' (प्रबन्धकोश ९, पृ. ४०). ऐसे सन्दर्भो में हम देख सकते हैं कि जिन और अन्य देवताएँ एक दूसरे से कितने भिन्न होते हैं । जिनप्रतिमा शान्तिपूर्ण और वीतराग है, इसके विरुद्ध अन्य देवताएँ काम तथा अनुराग से ओतप्रोत हैं । 'दीपार्णव' के लेखक ने कहा है कि जिनप्रतिमा में दो भुजाएँ और एक ही चेहरा है और वह निर्गुण है (२१.२-३) । इसमें त्रिशूल, पाश और अन्य पदार्थ नहीं हैं जो उथलपुथल और आसक्ति के चिहन हैं (वीतरागस्तोत्र, १८वां प्रकाश) । जिन और बुद्ध प्रतिमाओं का विरोध है हिन्दु देवताओं के बहुत्व के समक्ष । चतुर्भुज, षड्भुज, वाहन पर बैठी हुई ईत्यादि मूर्तियाँ जैनों के बीच में तो मिलती हैं पर ये जैन देवताओं की मूर्तियाँ हैं और देवताएँ मुक्तजीव नहीं हैं । वे संसारिक जीव होते हैं जो देवगति में उत्पन्न हुए हैं । अपनी 'अन्ययोगव्यवच्छेदिका' में हेमचन्द्राचार्य ने रेखाङ्कित किया है कि ध्यानमुद्रा में आसीन जिनप्रतिमा और अन्य देवताओं की प्रतिमा एक दूसरे से बहुत दूर होते हैं । “O Lord of Jinas, the lords of other faiths have not even learned to master your outward posture, the way you sit with legs folded, body relaxed, your eyes focused unwavering on the tip of your nose. What could they know of your inner virtues?” (२०; Granoff २०१२) __ अपने 'महादेवस्तोत्र' में उन्होंने शिव और जिन का अंतर समझाया । उसके अनुसार केवल जिन 'देवता' शब्द के योग्य हैं । जिन को शङ्कर कहा गया है जो शान्ति लाता है । खडे हुए अथवा आसीन, ध्यानमग्न, निःशस्त्र और बिना पत्नी के साथ हैं । निरायुध होने से क्रोध, मान, माया, लोभ, जन्म, जरा, मरण, भय और हिंसा के अभाव का सूचक है । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ अनुसन्धान-७१ जिनप्रतिमा की नितान्त निश्चलता वीतरागता का लक्षण है । उसकी यह प्रतिमा पूजा और ध्यान के योग्य है । इसको रूपस्थध्यान कहा जाता है । क्योंकि वीतराग भगवान पर ध्यान करते हुए भक्त भी वीतराग हो सकता है 'वीतरागो मुच्येत वीतरागं विचिन्तयन्' (योगशास्त्र ९.१३). चेहरा का सौन्दर्य एक सौम्य मुसकराहट से रेखाङ्कित किया जा सकता है (दे० Balbir २०१३) । यह आत्मसंतुष्टि को और लोक से पूरी विरागता को अभिव्यक्त करती है। जिन के अतिरिक्त बाहुबलि की मूर्ति भी जैनियों के लिए सुन्दरता का आदर्शिक उदाहरण है। श्रवणबेलगोल की मूर्ति सबसे प्रसिद्ध है । वह निश्चल खडा हुआ है । कन्नड भाषा कवि कुवेम्पु ने उसकी प्रशंसा ऐसे की है। 'हे योगीश, आपके शान्त मुख से जो मुसकराहट आती है उसका क्या अर्थ है ? क्या यह ब्रह्मानन्द का बिम्ब है? या हम सब लोगों की मूढता के सामने व्यंग्य है?' (दे० Balbir २०१३) तो जिन अद्वितीय है, वह दूसरी देवताओं से अत्यन्त भिन्न है, साधारण साधुओं से भी भिन्न है । जिनप्रतिमा जिन के गुणों को प्रकट करती है और प्रतिमा के द्वारा दिखाया हुआ जिन का शारीरिक रूप अपूर्व तथा सुन्दर है । ३. जिनप्रतिमा का सौन्दर्य अलङ्कार सहित या अलङ्कार रहित ? ___ हम कह चुके हैं कि प्राय: श्वेताम्बर जिनप्रतिमा को अलङ्कार सहित और दिगम्बर बिना अलङ्कार के उनकी पूजा करते हैं । इसकी चर्चा १७वीं शती के मेघविजय और बनारसीदास के बीच में हुई (दे० Granoff २०१३) । सौन्दर्य के विषय में चर्चा है कि क्या जिनप्रतिमा अलङ्कारों और वस्त्रों से ढक दिया जाए । तो मेघविजय कहते हैं हां, अलङ्कार और वस्त्र आवश्यक हैं । बनारसीदास ने इसका अपवाद किया है । वह कहता है जिनप्रतिमा प्राकृतिकरूप से सुन्दर है । 'भगवद्विम्बस्य स्वयं शोभनत्वम्' (युक्तिप्रबोध पृ. ६७) Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ १५९ उसको सुन्दर करने के लिये किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं है । इसके प्रमाणरूप में 'एकीभावस्तोत्र' का एक श्लोक उद्धृत है । 'आहर्येभ्य: स्पृहयति परं यः स्वभावादहृद्यः शस्त्रग्राही भवति सततं वैरिणा यश्च शक्यः । सर्वाङ्गेषु त्वमसि सुभगस्त्वं न शक्यः परेषां तत्कि भूषावसनकुसुमैः किं च शस्त्रैरुदस्त्रैः?' ॥ Only someone who is not naturally beautiful would yearn for externals, like clothes and jewels to beautify himself; only someone who could be beaten by a foe would take up weapons. Every part of your body is exquisitely beautiful and no enemy can defeat you. What need have you of jewels, clothes or flowers? What need have you of threatening weapons?' (Granoff २०१३ पृ० ५-६). वह वाग्भटालङ्कार के शब्द भी उद्धृत करता है । उसके अनुसार जिन 'अनलङ्कारसुभगाः' (युक्तिप्रबोध पृ. ६०) । महावीर के प्रथम गणधर, गौतम का एक श्लोक भी आता है । जिनप्रतिमा के विषय पर कहां गया है - 'निराभरणभासुरं विगतरागवेगोदयान् निरम्बरमनोहरं प्रकृतिरूपनिर्दोषतः । निरायुधसुनिर्भयं विगतहिंस्यहिंसाक्रमान् निरामिषसुतृप्तिमद्विविधवेदनानां क्षयात् ।' (बोधपाहुड पृ. १५६ तथा युक्तिप्रबोध पृ. ५९). निराभरण होने से जिनप्रतिमा राग का अभाव सूचित करती है । मेघविजय कहते हैं कि अलङ्कृतप्रतिमा से ही भक्त लोग जिन का स्वरूप ठीक से समझ सकते हैं। आगे मेघविजय प्रस्तुत करते हैं कि दर्शकों को अलङ्काररहित पत्थर सुन्दर नहीं लगता । अर्थात् केवल प्रतिमा प्रसिद्ध जिन के प्रतिनिधित्व के लिए पर्याप्त नहीं है । मेघविजय की समझ में जिन की मूर्ति को देखने का भिन्न-भिन्न अनुभव होता है क्योंकि प्रतिमा का अनुभव Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० अनुसन्धान-७१ कुछ एक अंश में देखने का अनुभव, एक अंश में काल्पनिक और ध्यानपूर्वक है । उसका कहना है कि वह अलङ्कारों से, फलों और फूलों से सुसज्जित होता है। पत्थर में उतमा प्रकाश नहीं होता । इसलिए मनुष्य अपने चित्त से सोने और अलङ्कारों के रूप में अर्पण करता है । और उनसे पत्थर सजा देता है। ऊपर के विचारों से मैं इस निष्कर्ष को पहुँचती हूँ कि जिनप्रतिमा की सुन्दरता हम सब को दार्शनिक शक्ति को देती है। और इसका परिणाम यह है कि व्यक्ति अन्तर्यामी चमत्कार से ज्वलित होता है । जो व्यक्ति आन्तरिक दीप्तिमान है वह भी प्रकाश से ओतप्रोत है । देखने की बात यह है कि जैसे लोग साधु लोगों का आदर करते हैं उसकी प्रशंसा व पूजा करते हैं, उनकी बात सुनते हैं उसी प्रकार जिनप्रतिमा का आदर और पूजा करते हैं। जिन सौन्दर्य के विषय में जैन मत नीचे के शब्दों में संक्षेप से कहा जा सकता है। अन्तरङ्गशुद्धात्मानुभूतिरूपकं निर्ग्रन्थनिर्विकारं रूपमुच्यते (जैनेन्द्र सिद्धान्तकोश भाग ३, पृ. ४०५) अन्तरङ्ग शुद्धात्मानुभूति की द्योतक निर्ग्रन्थ एवं निर्विकार साधुओं की वीतरागमुद्रा को रूप कहते हैं । Selected references ____Balbir, Nalini, 2013, Sourires de sages dans le bouddhisme et le jainisme, pp. 75-99 in Sourires d'Orient et d'Occident, ed. by Pierre-Sylvain Filliozat and Michel Zink (Journée d'études organisée par l'Académie des Inscriptions et Belles-Lettres et la Société Asiatique, 11 décembre 2009), Paris : Académie des Inscriptions et Belles-Lettres. 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Granoff, Phyllis, 2013, The Perfect Body of the Jina and his Imperfect Image, International Journal of Jain Studies vol. 9, No. 5, pp. 1-21 (on line). Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ अनुसन्धान- ७१ Jainendra Siddhanta Kośa. 5 vols., Delhi, Bharatiya Jnanpith, 1985. Kelting, W.M., 2001, Singing to the Jinas, Oxford University Press. Masson, J.L. and Patwardhan, M.V., 1969, Santarasa and Abhinavagupta's Philosophy of Aesthetics, Bhandarkar Oriental Research Institute, Poona ( Bhandarkar Oriental Series No. 9). Soraba, V., 1993, An Anthology of Kannada Poems on Gommateshwara. Compiled by Dr. T.V. Venkatachala Sastry. Rendered into English by Venugopala Soraba, Shravanabelgola, 1993 (Gommateshwar Bhagavan Bahubali Mahamastakabhisheka Samiti 1993). Tiwari, Maruti Nandan Prasad and Sinha, Shanti Swaroop, 2011, Jaina Art and Aesthetics. Aryan Books International, New Delhi. विजयशीलचन्द्रसूरि १९९६ : कलिकालसर्वज्ञ प्रभु श्रीहेमचन्द्राचार्य विरचित वीतरागस्तवः, विजयशीलचन्द्रसूरि - विरचित 'हिन्दी' पद्यानुवादसहितः, कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार - शिक्षण निधि, अमदावाद. [ श्री नलिनी बलबीरे जेवो लेख लखी मोकल्यो तेवो ज अत्रे छापवामां आवेल छे. भाषाकीय दृष्टिए केटलाक विषय आमां अस्पष्ट रहे छे परन्तु तेमनो आग्रह हतो के "में ढांकी साहेब विशे बहु आदरथी आ लेख लख्यो होवाथी तमारे छापवो ज जोइए." तेथी यथावत् छाप्यो छे. सं. ] Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ १६३ प्राकृत एवं अपभ्रंश जैनसाहित्य में कृष्ण - प्रो. सागरमल जैन राम और कृष्ण ऐसे व्यक्तित्व है, जो युगो-युगो से भारतीय जनमानस के श्रद्धा के केन्द्र रहे है । इन दोनों व्यक्तित्वों के जीवनचरित्रों ने भारतीय धर्म, सभ्यता और संस्कृति को बहुत अधिक आन्दोलित और प्रभावित किया है । वैष्णवधर्म के उद्भव एवं भक्तिमार्ग के विकास के साथ ये दोनों व्यक्तित्व अधिकाधिक जनश्रद्धा के केन्द्र बनते चले गए । इनके जीवनवृत्तों पर रचित रामायण, महाभारत और भागवत भारतीय परम्परा के ऐसे ग्रन्थ है, जो सभी भारतीय लोकभाषाओं में अनूदित है और भारतीय जनसाधारण के द्वारा अत्यधिक श्रद्धा और भक्ति के साथ पढे व सुने जाते है । साहित्यिक रुझान की दृष्टि से राम के चरित्र की अपेक्षा भी कृष्ण का चरित्र पूर्व मध्यकाल में अधिक प्रभावी रहा है । राम के चरित्र को अधिकाधिक लोकव्यापी बनाने का श्रेय गोस्वामी तुलसीदास के रामचरितमानस को है । राम सदाचार-सम्पन्न, सन्मार्गसंरक्षक एक वीर पुरुष है : जब कि कृष्ण एक बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी है । वे एक नटखट बालक, रसिक युवा, धर्म और समाज के संरक्षक वीर पुरुष, कुशल राजनेता तथा धर्म एवं अध्यात्म के उपदेष्टा प्रज्ञा-पुरुष सभी कुछ है । उनके जीवन के इस बहुआयामी स्वरूप ने उन्हें अधिक प्रभावी बना दिया है । अर्धमागधी आगम साहित्य में कृष्ण : जहां तक जैन परम्परा का प्रश्न है, उसने राम और कृष्ण दोनों के कथानकों को अपने में आत्मसात् करने का प्रयत्न किया है । यद्यपि जैन परम्परा में विमलसूरि के पउमचरियं (प्राकृत), जिनसेन के पद्मपुराण (संस्कृत), रविषेण के पद्मचरित (संस्कृत) एवं स्वयम्भू के पउमचरिउ (अपभ्रंश) के साथ-साथ राजस्थानी और हिन्दी में अनेक ग्रन्थ रामकथा Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ अनुसन्धान-७१ पर मिलते है, किन्तु जैन आगम साहित्य में जितना विस्तृत विवरण कृष्णकथा का मिलता है उतना रामकथा का नहीं । जैन आगमों में राम के नामनिर्देश के अतिरिक्त उनके जीवनवृत्त का कोई उल्लेख नहीं मिलता है । जब कि कृष्ण के जीवनवृत्त के अनेक उल्लेख उनमें उपलब्ध है । जैन परम्परा में कृष्ण के जीवनचरित्र को राम की अपेक्षा भी आगमसाहित्य में अधिक स्थान मिला है । आगम ग्रन्थों में समवायाङ्ग, उत्तराध्ययन, ज्ञाताधर्मकथा, अन्तकृत्दशा, प्रश्नव्याकरण आदि आगमों में कृष्ण सम्बन्धी उल्लेख हैं । आगम साहित्य में कृष्ण के चरित्र को राम के चरित्र के अपेक्षा जो प्रमुख स्थान प्राप्त हुआ है, उसका कारण केवल यही नहीं है कि वे जैन परम्परा के २२वें तीर्थङ्कर अरिष्टनेमि के चचेरे भाई है, अपितु उनका वासुदेव (अर्द्धचक्री) होना भी है । जैन परम्परा में राम एवं कृष्ण दोनों की गणना शलाकापुरुषों में की गई है, किन्तु जहां राम को बलदेव के रूप में स्वीकृत किया गया है वहीं कृष्ण को वासुदेव के रूप में स्वीकृत किया गया है । बलदेव की अपेक्षा वासुदेव का पद निश्चय ही अधिक महत्त्वपूर्ण कहा जा सकता है, क्योंकि वासुदेव शासनसूत्र का स्वयं नियामक होता है, जब कि बलदेव मात्र उसका सहयोगी । साथ ही जैन परम्परा में कृष्ण को भविष्य में होनेवाले १२वें तीर्थङ्कर के रूप में भी स्वीकार किया गया है और यह सत्य है कि जैन परम्परा में तीर्थङ्कर ही सर्वोच्च व्यक्तित्व है । इस आधार पर हम कह सकते हैं कि राम की अपेक्षा कृष्ण ने जैनों को अधिक प्रभावित किया है। जहां तक कृष्ण के जीवन-वृत्त के सम्बन्ध में विस्तृत एवं स्वतन्त्र ग्रन्थ का प्रश्न है संस्कृत एवं अपभ्रंश में हरिवंशपुराण के रूप में सर्वप्रथम ऐसे स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखे गये । किन्तु आगे चलकर रिटुनेमिचरिऊ, नेमिनाहचरिउ, पज्जुनचरिउ, कण्हचरित आदि अनेक ग्रन्थ लिखे गये हैं, जिनमें कृष्ण-कथा को प्रमुख स्थान मिला है। __ जैन आगम साहित्य में प्राचीनतम स्तर के अर्थात् ईस्वी पूर्व के ग्रन्थों यथा आचाराङ्ग, ऋषिभाषित, सूत्रकृताङ्ग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ १६५ में कृष्ण के जीवन-वृत्त का हमें कोई विवरण उपलब्ध नहीं होता है । ऋषिभाषित में वारिषेण कृष्ण के उपदेशों का विवरण है, किन्तु उनका देवकीपुत्र कृष्ण से सम्बन्ध जोड पाना कठिन है । मात्र उत्तराध्ययनसूत्र के रथनेमि (रहनेमिज्ज) नामक अध्ययन में राजीमती और रथनेमि के कथा प्रसंग में शौरीपुर नगर के वसुदेव नामक राजा की रोहिणी और देवकी नाम की रानियों के पुत्र के रूप में क्रमश: राम और केशव (कृष्ण) का उल्लेख है । इस कथाप्रसंग में केशव के द्वारा राजीमती का अरिष्टनेमि से विवाह निश्चित करने एवं अरिष्टनेमि के प्रव्रजित होने पर उन्हें शुभकामना प्रेषित करने एवं वन्दन करने का भी उल्लेख है । सम्भवतः यही एक ऐसा साहित्यिक प्राचीनतम आधार है, जहां कृष्ण जैन परम्परा में सर्वप्रथम उल्लिखित होते है । यद्यपि द्वितीय स्तर के आगम ग्रन्थों में अर्थात् ईसा की प्रथम-द्वितीय शताब्दी में निर्मित आगम ग्रन्थों में कृष्णकथा का धीरे-धीरे विस्तार होता गया है । इन ग्रन्थों में समवायाङ्ग पूर्वभाग के ५४वें समवाय में २४ तीर्थङ्कर, १२ चक्रवर्ती, ९ बलदेव एवं ९ वासुदेव ये ५४ उत्तम पुरुष होते है - मात्र यह उल्लेख है। यहां इनके नामों का भी उल्लेख नहीं है । किन्तु समवायाङ्ग के ही अन्तिम भाग में बलदेवों एवं वासुदेवों के वर्तमान भव के नाम, पूर्व भव के नाम, निदानकारण और निदान नगरों के नाम तथा उनके माता-पिता, पूर्वभव के धर्माचार्य और वर्तमानभव के प्रतिशत्रु (प्रतिवासुदेव) के नाम आदि का उल्लेख है । इसी प्रसंग में नवें वासुदेव के रूप में कृष्ण का नाम आता है । कृष्ण के पिता के रूप में वसुदेव और माता के रूप में देवकी का उल्लेख यहां भी हमें प्राप्त होता है । इसी प्रसंग में सामान्य रूप से वासुदेवों और बलदेवों की सम्पदा, शारीरिक शक्ति, व्यक्तित्व आदि का विस्तृत उल्लेख किया गया है । इस चर्चा में जो महत्त्वपूर्ण उल्लेख है वह यह कि बलदेव कटिसूत्रवाले नीले कौशेयक वस्त्र को और वासुदेव कटिसूत्रवाले पीतकौशेयक वस्त्र को धारण करते है । इसी प्रकार यहां यह भी बताया गया है कि बलदेव हल और मूसल रूपी अस्त्रों को धारण करते है और वासुदेव शृङ्ग, धनुष, पाञ्चजन्य Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ अनुसन्धान-७१ शङ्ख, सुदर्शन चक्र, कौमुदकी गदा, नन्दक खड्ग धारण करते है और उनका मुकुट कौस्तुभमणि से युक्त होता है । वैष्णव परम्परा में कृष्ण और बलदेव की वेश-भूषा एवं आयुध आदि की जो चर्चा है उससे इस विवरण की समानता है । यद्यपि हमें स्मरण रखना चाहिए कि ये सभी उल्लेख समवायाङ्गसूत्र के अन्तिम भाग में पाये जाते है जो उसके परिशिष्ट के रूप में है। इससे ऐसा लगता है कि इन्हें समवायाङ्ग में बाद में जोडा गया है। फिर भी वर्तमान समवायाङ्ग का जो कुछ स्वरूप हैं, वह ईसा की ५वीं शताब्दी में निश्चित हो गया था । अतः ये सारे विवरण उनसे प्राचीन ही है, परवर्ती नहीं । फिर भी यह मानने में हमें आपत्ति नहीं होना चाहिए कि यह समग्र विवरण हिन्दु परम्परा से प्रभावित है । कृष्ण के व्यक्तित्व के सम्बन्ध में आगम साहित्य में समवायाङ्ग के पश्चात् कृष्ण का जो प्राचीन उल्लेख हमें प्राप्त होता है, वह हमें ज्ञाताधर्मकथा में मिलता है । विद्वानों ने ज्ञाताधर्मकथा को लगभग ईसा की द्वितीय शताब्दी के आसपास की रचना माना है । ज्ञाताधर्मकथा में कृष्ण सम्बन्धी उल्लेख उसके शैलक एवं द्रौपदी नामक अध्ययनों में है । यद्यपि द्रौपदी नामक अध्याय का मुख्य प्रतिपाद्य विषय तो द्रौपदी के पूर्वभव एवं वर्तमानभव का चरित्रण है, किन्तु प्रसंगवश इसमें कृष्ण सम्बन्धी अनेक विवरण उपलब्ध है । विशेष उल्लेखनीय यह है कि यहां द्रौपदी के पांच पति होने की कथा को स्वीकारते हुए भी उसके व्यक्तित्व की चारित्रिक गरिमा को बनाये रखने के लिए उसके पूर्वभव की कथा भी जोडी गई । कथा का सारांश यह है कि द्रौपदी पूर्वभव में अपनी गुरुणी की आज्ञा न मानकर वनखण्ड में स्थित हो उग्र तपस्या करती है और प्रसंगवशात् वह वहां एक वेश्या को पांच प्रेमियों के साथ क्रीडा करते हुए देखती है । उस समय वह यह निश्चय कर बैठती है कि यदि मेरी तपस्या का फल हो तो मुझे भी भविष्य में पांच पतियों के साथ ऐसी क्रीडा करने का सौभाग्य प्राप्त हो । इस निश्चय (निदान) का परिणाम यह होता है कि उसे अपने वर्तमान भव में पांच पाण्डवों की पत्नी बनना पडता है । इस Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ १६७ प्रकार यहां हिन्दु परम्परा में प्रचलित द्रौपदी की कथा को अधिक सुसंगत और तार्किक बनाने का प्रयत्न किया गया है, ताकि द्रौपदी के निर्मल चरित्र को बिना खरोंच पहुंचाये ही पांच पतियोंवाली घटना को तर्कसंगत रूप में प्रस्तुत किया जा सके । इस प्रसंग में यह भी उल्लेखनीय है कि यहां द्रौपदी और पांच पाण्डवों को जैन धर्म का अनुयायी बताया गया है । मात्र यही नहीं नारद को असंयमी परिव्राजक के रूप में चित्रित करके जैन धर्म की अनुगामिनी द्रौपदी द्वारा समुचित आदर न देने की घटना का भी उल्लेख है । इससे ऐसा लगता है कि ज्ञाताधर्मकथा के इस कथाप्रसंग की रचना के समय तक जैन संघ में धार्मिक कट्टरता का प्रवेश हो चुका था क्योंकि जहां जैन परम्परा के प्राचीन स्तर के आगम ग्रन्थ ऋषिभाषित में देवनारद को अर्हत्ऋषि कहकर सम्मानित ढंग से उल्लिखित किया गया है वहां इस कथाप्रसंग में नारद को असंयमी, अविरत और कलहप्रिय तथा पद्मनाभ के साथ मिलकर द्रौपदी के अपहरण की योजना बनानेवाला कहा गया है । उल्लेखनीय यह भी है कि इन नारद को कडच्छुप नारद कहा गया है । यद्यपि यह विवादास्पद ही है ऋषिभाषित के देवनारद और ज्ञाता के कडच्छुप नारद एक ही व्यक्ति है या अलग-अलग व्यक्ति है, यह कहना कठिन है। ___ द्रौपदी के इस कथाप्रसंग में प्रसंगवश पांचो पाण्डवों, कुन्ती और श्रीकृष्ण का उल्लेख भी है । कथा के अनुसार द्रौपदी का पद्मनाभ द्वारा अपहरण हो जाने पर पाण्डव चिन्तित होते हैं तथा द्रौपदी को खोजने में श्रीकृष्ण को ही समर्थ मानकर अपनी माता कुन्ती को श्रीकृष्ण के पास भेजकर द्रौपदी की खोज के लिए उनसे निवेदन करते है । इसमें कुन्ती को कृष्ण की पितृभगिनी कहा गया है । कृष्ण कुन्ती को आश्वस्त करते है कि मैं द्रौपदी की खोज करूंगा । वे नारद से द्रौपदी के अपहरण की घटना की जानकारी प्राप्त करते हैं तथा पाण्डवों को यह संदेश देते है कि वे पूर्व दिशा में गङ्गा नदी और समुद्र के सङ्गम स्थल पर ससैन्य तैयार होकर पहुंचे । कृष्ण स्वयं भी ससैन्य वहां पहुंचकर लवण समुद्र के मार्ग Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ अनुसन्धान-७१ से पाण्डवों के साथ पद्मनाभ की राजधानी अपरकङ्का पहुंचते है । इसी प्रसंग में पद्मनाभ के पास दूत का भेजना, पद्मनाभ से युद्ध में पाण्डवों का पराजित होना, अन्त में श्रीकृष्ण द्वारा पद्मनाभ को पराजित करना और द्रौपदी को वापस प्राप्त करने के उल्लेख है । इस कथाप्रसंग में श्रीकृष्ण के पुरुषार्थ और पराक्रम के चर्चा के साथ-साथ यह भी उल्लेख हुआ है कि द्रौपदी सहित पांचो पाण्डव और श्रीकृष्ण जब वापस आते है तब पाण्डव नौका द्वारा पहले गङ्गा पार कर लेते है, किन्तु गङ्गा पार करने के लिए श्रीकृष्ण को वापस नौका नहीं भेजते है । फलत: वे गङ्गा नदी को तैरकर पार करते है और पाण्डवों पर कुपित हो उन्हें देशनिर्वासन की आज्ञा देते है । पाण्डव कुन्ती के पास पहुंचते है और सारी घटना उसे सुनाते है । कुन्ती पुनः कृष्ण के पास पहुंचती है और श्रीकृष्ण से अपने पुत्रों की देशनिर्वासन की आज्ञा को वापस लेने की प्रार्थना करती है । श्रीकृष्ण कहते है कि वासुदेव के वचन मिथ्या नहीं होते हैं, अतः देशनिर्वासन की आज्ञा वापस लेना सम्भव नहीं है । अन्त में वे पाण्डवों को दक्षिण दिशा में जाकर समुद्र के किनारे पाण्डु-मथुरा नामक नगर बसाकर वहां रहने का आदेश देते है । यद्यपि यहां कुछ भौगोलिक असंगतियों परिलक्षित होती है, प्रथम तो यह कि दक्षिण-मदुरा (मदुराई) दक्षिण में होकर भी समुद्र के किनारे नहीं है, दूसरे पूर्वीय समुद्र तट से लौटते हुए मार्ग में गङ्गा का पडना आवश्यक नहीं है। प्रस्तुत कथाप्रसंग श्रीकृष्ण का पाण्डवों के मित्र, एक शूरवीर योद्धा तथा दक्षिणार्ध भरतक्षेत्र में स्वामी के रूप में चित्रण करता है । विशेषता यह है कि यहां पर श्रीकृष्ण और पाण्डवों के चरित्र के प्रसंग में महाभारत के युद्ध का कोई उल्लेख नहीं है । उसके स्थान पर अपरकङ्का में पद्मनाभ से हुए युद्ध का चित्रण है, समानता मात्र यह है कि दोनों ही युद्धों का कारण द्रौपदी है । जहां तक मेरी जानकारी है हिन्दु परम्परा में कृष्ण चरित्रं के चर्चा प्रसंग में कहीं भी अपरकङ्का के पद्मनाभ के साथ उनके युद्ध का कोई उल्लेख नहीं है । मात्र यही नहीं, श्रीकृष्ण का पाण्डवों पर Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर २०१६ - १६९ कुपित होना, उन्हें देशनिर्वासन की आज्ञा देना आदि प्रसंग भी अन्यत्र कहीं दृष्टिगोचर नहीं होते है । इस आधार पर हम कह सकते है कि ज्ञाताधर्मकथा में कृष्ण के जीवनप्रसंग के उल्लेख महाभारत एवं श्रीमद् भागवत में कृष्ण के जीवनचरित्र के उल्लेखों से अनेक दृष्टि से भिन्न और प्राचीन है । ज्ञाताधर्मकथा के ही पांचवे शैलक नामक अध्ययन में थावच्चापुत्र के दीक्षित होने के प्रसंग में श्रीकृष्ण, उनकी राजधानी द्वारिका और उनके परिवार का उल्लेख उपलब्ध होता है । उसमें बताया गया है कि द्वारिका नगरी पूर्व-पश्चिम में १२ योजन लम्बी और उत्तर - दक्षिण में ९ योजन चौडी थी । यह कुबेर की मति से निर्मित हुई थी । इन्द्र की नगरी अलकापुरी के समान जान पडती थी । इस नगर के बाहर उत्तर पूर्व दिशा अर्थात् ईशानकोण में रैवतक ( गिरनार ) पर्वत था तथा रैवतक पर्वत और द्वारिका के बीच में नन्दनवन नामक उद्यान था । इस द्वारिका नगरी में कृष्ण नामक वासुदेव राजा राज्य करते थे । इस नगर में समुद्रविजय आदि दस दशा है, बलदेव आदि पांच महावीर, उग्रसेन आदि सोलह हजार राजा, प्रद्युम्न आदि साढे तीन करोड कुमार, शाम्ब आदि आठ हजार दुर्दान्त योद्धा, वीरसेन आदि एक्कीस हजार पराक्रमी, महासेन आदि छप्पन हजार बलवान पुरुष, रुक्मणी आदि बत्तीस हजार रानियाँ, अनंगसेना आदि अनेक गणिकाएं, बहुत से ईश्वर ( धनाढ्य सेठ), तलवर (कोतवाल), सार्थवाह आदि निवास करते थे । उन कृष्ण वासुदेव का उत्तर दिशा में वैताढ्य पर्वत पर्यन्त तथा तीनों दिशाओं में लवण समुद्र पर्यन्त शासन था । इस प्रकार प्रस्तुत अध्ययन मात्र कृष्ण के पारिवारिक एवं राजकीय वैभव का चित्रण करता है । यद्यपि इस अध्ययन में दो अन्य प्रमुख घटनाएं कृष्ण के जीवन से सम्बन्धित है - प्रथम तो यह कि कृष्ण को जब यह ज्ञात होता है कि अर्हत् अरिष्टनेमि द्वारिका के बाहर उद्यान में पधारे है तो वे अपने समस्त राज्यपरिवार के साथ उनके दर्शनों को जाते है तथा उपदेश सुनते है । अरिष्टनेमि के उपदेश से थावच्चा नामक गाथापत्नी के 1 Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० अनुसन्धान-७१ पुत्र को वैराग्य उत्पन्न होता है । कृष्ण उसके वैराग्य की परीक्षा करते है तथा अत्यंत वैभवशाली अभिनिष्क्रमण महोत्सव का आयोजन करते है । वैसे इस अध्याय में श्रीकृष्ण की राज्यसम्पदा तथा उदारवृत्ति का परिचय तो मिलता है किन्तु उनके जीवनप्रसंगो का कोई उल्लेख नहीं है । जैन आगम साहित्य में एक अन्य ग्रन्थ प्रश्नव्याकरणसूत्र में भी कृष्ण के राज्य और परिवार का विस्तार से वर्णन किया गया है :- ज्ञाताधर्मकथा के शैलक अध्ययन में वर्णित कृष्ण के राज्य और परिवार के विवरण से प्रश्नव्याकरण के विवरण की तुलना करने पर हमें कुछ नवीन सूचनाएं प्राप्त होती है । इसमें कृष्ण की सोलह हजार रानियों का उल्लेख है । प्रश्नव्याकरण का यह विवरण ज्ञाताधर्मकथा के विवरण से इस अर्थ में विशेषता रखता है कि यहां कृष्ण के जीवन के संदर्भ में हिन्दु परम्परा में उल्लेखित अनेक घटनाओं का उल्लेख हुआ है । इसमें कृष्ण के द्वारा मुष्टिक और चाणूर नामक मल्लों का, रिष्ट नामक दुष्ट बैल का, कालिया नामक नाग का, यमुनार्जुन नामक राक्षस का, महाशकुनि और पूतना नामक दो विद्याधरियों का तथा कंस और जरासन्ध नामक दो शक्तिसम्पन्न राजाओं का संहार करने का उल्लेख मिलता है । प्रश्नव्याकरण में कृष्ण का यह जीवनवृत्त विस्तृत रूप में उल्लेखित है । (प्रश्नव्याकरण पृष्ठ ३६६ से ३६८) कृष्ण के जीवनप्रसंगो के संदर्भ में अधिक विस्तृत चर्चा करनेवाले जैन आगम ग्रन्थों में अन्तकृत्दशा महत्वपूर्ण है । यहां स्मरणीय है कि वर्तमान में उपलब्ध अन्तकृत्दशा की विषयवस्तु पर्याप्त रूप से परिवर्तित हो गई है, क्यों कि अन्तकृत्दशा की विषयवस्तु के सन्दर्भ में स्थानाङ्ग, समवायाङ्ग, नन्दीसूत्र, तत्वार्थराजवार्तिक, समवायाङ्गवृत्ति, नन्दीचूर्णि एवं अङ्गप्रज्ञप्ति में जो उल्लेख है, उनमें परस्पर भिन्नता है और अन्तकृत्दशा की वर्तमान विषयवस्तु से पूर्णत: मेल नहीं खाते हैं । अन्तकृत्दशा में कृष्ण और उनके परिजनों के उल्लेखयुक्त जो विवरण उपलब्ध हुआ है वह ईसा की छठी शताब्दी से अधिक परवर्ती नहीं माना जा सकता है । क्योंकि नन्दीसूत्र में अन्तकृत्दशा के आठ वर्गो के और नन्दीचूणि में प्रथम वर्ग Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ १७१ के दस अध्ययन होने का उल्लेख है जो कि वर्तमान अन्तकृत्दशा के विषयवस्तु से समानता रखता है । समवायाङ्गवृत्ति में भी इसके वर्तमान स्वरूप का उल्लेख प्राप्त हो जाता है । अतः नन्दी, नन्दीचूर्णि और समवायाङ्गवृत्ति के पूर्व ही इसको यह स्वरूप प्राप्त हो गया था । ऐसी स्थिति में इसे छठी या सातवीं शताब्दी से अधिक परवर्ती नहीं कहा जा सकता है । अन्तकृत्दशा के आठ वर्गों में प्रथम पांच वर्ग और उनके उनपचास अध्ययन श्रीकृष्ण और उनके परिजनों से सम्बन्धित है । प्रथम वर्ग में गौतम, समुद्र, सागर, अक्षोभ आदि दस व्यक्तियों का वर्णन है । इन सबके पिता अन्धकवृष्णि और माता धारिणी बताई गई है । अन्धकवृष्णि कृष्ण के दादा होते है । अतः इस आधार पर ये सभी कृष्ण के चाचा कहे जा सकते हैं । दूसरे वर्ग में आठ अध्याय है । उनमें से सागर, समुद्र, अचल और अक्षोभ ये चार नाम पूर्व वर्ग में भी आये है । शेष चार नाम हिमवन्त, धरण, पूर्ण और अभिचन्द्र नवीन है । इन्हें भी अन्धकवृष्णि के पुत्र कहा गया है । इस प्रकार ये सभी कृष्ण के चाचा माने जा सकते है । इन दोनों वर्गों में केवल इन सभी का अरिष्टनेमि के पास दीक्षित होकर तप साधना करने का उल्लेख है । अन्य कोई विवरण उपलब्ध नहीं है । तृतीय वर्ग में तेरह अध्ययन है । इन अध्ययनों में से प्रथम छ: अध्ययन अनियसेन, अनन्तसेन, अनहित, विद्धत, देवयश ओर शत्रुसेन से सम्बन्धित है । ये सभी कुमार भद्दिलपुर निवासी सुलसा नामक गाथापत्नी के पुत्र कहे गये है । किन्तु इसी वर्ग के आठवें अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि ये सभी सुलसा के पालित पुत्र थे । वस्तुतः ये सभी देवकी और वसुदेव के ही पुत्र है । इस प्रकार श्रीकृष्ण के सहोदर थे । इनका पालनपोषण क्यों और किस प्रकार सुलसा के द्वारा हुआ यह चर्चा हम बाद में गजसुकुमाल की कथा प्रसंग में करेंगे । इन छहों के अतिरिक्त कृष्ण के अन्य सहोदर गजसुकुमाल का भी विस्तृत वर्णन इस वर्ग मे हैं । गजसुकुमाल के जीवनवृत्त की चर्चा हम आगे स्वतन्त्र रूप में करेंगे । इस वर्ग में अन्य जिन व्यक्तियों का उल्लेख है उनमें सारन, दारुक Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ अनुसन्धान-७१ और अनाधृष्टि भी वसुदेव और धारिणी के पुत्र थे और इस प्रकार वे भी अन्य माता से उत्पन्न श्रीकृष्ण के ही भाई थे । अन्य व्यक्तियों मे सुमुख, दुर्मुख और कूपदारक ये तीन बलदेव के पुत्र थे । इस प्रकार ये तीनों श्रीकृष्ण के भतीजे थे । इस प्रकार तीसरे वर्ग में कृष्ण के दस भाईयों और तीन भतीजों का उल्लेख है । चतुर्थ वर्ग में जो दस अध्ययन है उनमें जालि, मयालि, उपालि, पुरुषसेन और वायुसेन ये पांच वसुदेव और धारिणी के पुत्र कहें गये है । इस प्रकार ये भी श्रीकृष्ण के भाई थे, प्रद्युम्न और शाम्ब ये दो कृष्ण के पुत्र थे । यद्यपि इनमें प्रद्युम्न की माता रुक्मिणी और शाम्ब की माता जाम्बवती थी । अनिरुद्ध कुमार को प्रद्युम्न और वैदर्भी का पुत्र बताया गया है । इस प्रकार अनिरुद्ध कृष्ण के पौत्र है । सत्यनेमि और दृढनेमि समुद्रविजय और शिवादेवी के पुत्र कहे गये है । अत: ये अरिष्टनेमि के सहोदर और श्रीकृष्ण के चचेरे भाई कहे जा सकते है। इस प्रकार चौथे वर्ग में कृष्ण के दो चचेरे भाई, पांच भाई, दो पुत्र और एक पौत्र का उल्लेख है। पांचवे वर्ग में १. पद्मावती २. गौरी ३. गान्धारी ४. लक्ष्मणा ५. सुसीमा ६. जाम्बवती ७. सत्यभामा और ८. रुक्मिणी - इन आठ कृष्ण की पटरानियों एवं मूलश्री एवं मूलदत्ता नामक दो पुत्रवधूओं का उल्लेख है । ये सभी रानियां द्वारिका के विनाश की भविष्यवाणी सुनकर अरिष्टनेमि के पास दीक्षित होने का निर्णय करती है और श्रीकृष्ण समारोहपूर्वक उन्हें प्रव्रज्या ग्रहण करवाते है । इनमें मूलश्री और मूलदत्ता कृष्ण और जाम्बवती के पुत्र शाम्बकुमार की पत्नियां अर्थात् श्रीकृष्ण की पुत्रवधूए थी । इस प्रकार हम देखते है कि अन्तकृत्दशा के प्रथम पांच वर्ग और उनके उनपचास अध्याय श्रीकृष्ण के परिवार से ही सम्बन्धित है । अन्तकृत्दशा में श्रीकृष्ण के जिन परिजनों का उल्लेख हुआ है उनमें से उनके नाम तो ऐसे हैं जिनका नाम हमें हिन्दु परम्परा के अन्य ग्रन्थों में मिल जाता है । किन्तु उनमें कुछ ऐसे भी है जिनका उल्लेख हमें अन्यत्र कहीं नहीं मिलता है । चाहे इन सभी नामों की ऐतिहासिकता Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ १७३ विवादास्पद हो, किन्तु इससे कृष्ण और उनके परिजनों का जैन परम्परा में क्या स्थान है, यह स्पष्ट हो जाता है । द्वारिका के विनाश एवं श्रीकृष्ण के भावी तीर्थङ्कर होने की भविष्यवाणी : प्रस्तुत अष्टम अंग आगम श्रीकृष्ण जीवनवृत्त के सम्बन्ध में कुछ नई सूचनाएं भी प्रदान करता है । इसमें द्वारिका के विनाश की कथा एक भिन्न ढंग से चित्रित की गई है । यद्यपि उस पर हिन्दु परम्परा का स्पष्ट प्रभाव भी देखा जा सकता है । अन्तकृत्दशा के अनुसार श्रीकृष्ण अरिष्टनेमि से द्वारिका के भविष्य के सन्दर्भ में प्रश्न पूछते है । अपने परिजनों को अरिष्टनेमि के पास दीक्षित होता देखकर उनके मन में एक आत्मग्लानि उत्पन्न होती है कि मैं इस राज्यलक्ष्मी का त्याग करके प्रभु के पास प्रव्रज्या ग्रहण करने में अपने को असमर्थ क्यों अनुभव कर रहा हूं तथा राज्य और अन्तःपुर में गृद्ध बना हुआ हूं । अरिष्टनेमि श्रीकृष्ण के इस मनोभाव को जानकर कहते है कि हे कृष्ण सभी वासुदेव राजा निदान करके जन्म लेते है अतः उनके द्वारा प्रव्रज्या ग्रहण करना सम्भव नहीं होता है । यहां कृष्ण अरिष्टनेमि से अपनी मृत्यु और भावी जीवन के सम्बन्ध में प्रश्न करते है । अरिष्टनेमि उन्हें बताते है कि यादवकुमार मद्यपान करके जब द्वैपायन ऋषि को क्रुद्ध करेंगे, तब द्वैपायनऋषि अग्निकुमार देव होकर इस द्वारिका का विनाश करेंगे । उस समय तुम अपने माता-पिता और स्वजनों के वियोग से दुःखी होकर बलराम के साथ दक्षिणी समुद्र तक तट की ओर पाण्डु-मथुरा की ओर प्रस्थान करोंगे । रास्ते में कौशाम्बवन उद्यान में तुम पीताम्बर ओढकर सोओगे । उस समय जराकुमार मृग के भ्रम में तुम पर तीर चलाएगा । उस तीर से विद्ध होकर तुम तीसरी पृथ्वी में उत्पन्न होओगे । वहां की आयु पूर्ण कर इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में पुण्ड्र जनपद की शतद्वारा नामक नगरी में अमम नाम के बारवें तीर्थङ्कर होओगे (द्रष्टव्य है कि समवायाङ्गसूत्र में भविष्यकालीन तीर्थङ्करों ने अमम का नाम १३वां बताया गया है ।) Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ अनुसन्धान-७१ श्रीकृष्ण द्वारिका के विनाश और अपनी मृत्यु की भविष्यवाणी सुनकर द्वारिका के निवासियों और अपने परिजनों को अरिष्टनेमि के पास प्रव्रज्या लेने हेतु प्रोत्साहित करते है । परिणामस्वरूप कृष्ण की अनेक रानियां और पुत्र-परिजन प्रव्रज्या ग्रहण कर लेते है । कृष्ण के लघुभ्राता गजसुकुमाल की कथा : अन्तकृत्दशा में कृष्ण के सात भाईयों का उल्लेख हमें उपलब्ध होता है । जिनमें से अनियसेनकुमार आदि छ: का पालन-पोषण भद्दिलपुर नगर के नाग नामक गाथापति की पत्नी सुलसा द्वारा होता है । कथा के अनुसार देवकी को किसी भविष्यवेत्ताने एक सरीखे आठ पुत्रों को जन्म देने की भविष्यवाणी की थी । इस प्रकार सुलसा को भी मृतपुत्र होने की भविष्यवाणी की थी । सुलसा ने हरिणगमेषी नामक देव की आराधना की और वह देव प्रसन्न हुआ । कथाप्रसंग के अनुसार देवकी और सुलसा साथ-साथ गर्भवती होती है और साथ-साथ प्रसव भी करती थी । पुत्रप्रसव के समय वह देव सुलसा के मृत पुत्रों को देवकी के पास और देवकी के पुत्रों को सुलसा के पास रख देता था । इस प्रकार देवकी के प्रथम छ: पुत्र सुलसा के द्वारा पालित और पोषित हुए । कालांतर में सुलसा के ये छहो पुत्र अरिष्टनेमि के पास दीक्षित हो गये । संयोग से किसी समय वे छहो सहोदर भाई देवकी के गृह पर दो-दो के समूह में भिक्षार्थ आते है । उनके समरूप और समवयस्क होने के कारण देवकी को यह भ्रम हो जाता है कि वे ही मुनि बार-बार भिक्षा के लिए आ रहे है । निर्ग्रन्थ श्रमण किसी भी घर में भिक्षार्थ दूसरी बार प्रवेश नहीं करता है । अत: वह तीसरे समूह में आये मुनियों से अन्त में यह बात पूछ ही लेती है कि क्या द्वारिका नगरी में मुनियों को आहार उपलब्ध होने में कठिनाई हो रही है जिसके कारण आपको बार-बार मेरे द्वार पर आना पड रहा है । मुनि वस्तुस्थिति को स्पष्ट करते है कि हम छहो भाई एक सरीखे होने के कारण ही आपको ऐसा भ्रम हो गया है । देवकी को अपनी भविष्यवाणी का स्मरण होता है कि मुझे एक सरीखे आठ पुत्रों की Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ १७५ भविष्यवाणी की गई थी, किन्तु मेरी अपेक्षा यह सुलसा ही भाग्यवान है । वह अपनी इस मनोव्यथा के स्पष्टीकरण के लिए अरिष्टनेमि के पास जाती है और अरिष्टनेमि उसे बताते है कि ये छहो भाई वस्तुतः तुम्हारे ही पुत्र है । सुलसा ने तो इनका पालन-पोषण ही मात्र किया है । देवकी वापस लौटकर अत्यन्त शोकाकुल होती है और विचार करती है कि मैंने सात पुत्रों को जन्म दिया किन्तु उनमें से किसी की भी बालक्रीडा का अनुभव नहीं कर सकी । क्योंकि छ: सुलसा के द्वारा और एक नन्द और यशोदा के द्वारा पालित पोषित किये गए । देवकी यह विचार कर ही रही थी कि, उसी समय श्रीकृष्ण माता के चरण वन्दन हेतु आते है और माता की चिन्ता का कारण पूछते है । देवकी सारी वस्तुस्थिति को स्पष्ट करती है । श्रीकृष्ण अपनी माता के दुःख को दूर करने के लिये तथा अपने एक और सहोदर भाई उत्पन्न होने के लिए पौषधशाला में जाकर तीन दिन का उपवास कर देव का आराधन करते है । देव प्रसन्न होकर कहता है कि निश्चय ही तुम्हें एक छोटा भाई प्राप्त होगा, किन्तु अल्प वय में ही वह दीक्षित हो जाएगा । कालान्तर में देवकी को पुत्रप्रसव होता है । श्रीकृष्ण अपने लघुभ्राता को युवावस्था प्राप्त होते देखकर सोमिल ब्राह्मण की कन्या सोमा से उसके विवाह का निर्णय करते है । दूसरी ओर द्वारिका के बाहर उद्यान में अरिष्टनेमि का आगमन होता है । अरिष्टनेमि के उपदेशों को सुनकर गजसुकुमाल को वैराग्य हो जाता है । माता-पिता और भाई के सांसारिक भोग भोगने के लिये अत्यंत आग्रह के होते हुए भी गजसुकुमाल दीक्षित होने का निर्णय लेते है । श्रीकृष्ण उनका दीक्षामहोत्सव करते है । गजसुकुमाल दीक्षित होने के दिन ही भिक्षु-प्रतिमा अङ्गीकार करते हैं और महाकाल श्मशान में ध्यानमग्न खडे हो जाते हैं । उधर से गजसुकुमाल का भावी श्वसुर सोमिल ब्राह्मण निकलता है, गजसुकुमाल को मुण्डित श्रमण देखकर कुपित होता है । उनके सिर पर मिट्टी की पाल बनाकर धधकते अंगारे रख देता है । गजसुकुमाल ध्यान से विचलित न होते हुए उस वेदना को सहन करते हैं तथा अपने मन में किसी प्रकार का द्वेष या आक्रोश नहीं लाते है । फलतः उसी दिन मुक्ति को प्राप्त Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ अनुसन्धान-७१ करते है । श्रीकृष्ण अपने लघुभ्राता के दर्शन के लिए अरिष्टनेमि के पास जाते है और उनसे सारे घटनाचक्र को जानने की अपेक्षा करते है । अरिष्टनेमि उन्हें केवल इतना ही बताते है कि जिस प्रकार तुमने एक वृद्ध को सहयोग देकर दुःख मुक्त किया था उसी प्रकार तुम्हारे भाई को भी एक व्यक्ति ने सहयोग देकर संसारचक्र से मुक्त कर दिया है। इसी कथाप्रसंग में अवान्तर रूप से श्रीकृष्ण की सहयोग भावना का निम्न प्रसंग हमें मिलता है - श्रीकृष्ण अपने लघु भ्राता गजसुकुमाल के साथ जब अरिष्टनेमि के वन्दन को जाते हैं, तो उन्हें मार्ग में ईंटों का एक बहुत बडा ढेर दिखाई पडता है । वे देखते है कि एक वृद्ध जो अत्यन्त जर्जर और क्षीणकाय है उस विशालकाय ढेर में से एक-एक ईंट उठाकर घर के अन्दर रख रहा है। श्रीकृष्ण उसकी उस पीडा को देखकर हाथी पर बैठे हुए ही एक ईंट उठाते है और उसके घर में डाल देते है । श्रीकृष्ण के साथ आनेवाला समुदाय और सैन्यबल भी उसका अनुसरण करता है और इस प्रकार अल्प समय में ही वह विशालकाय ईंटों की राशि वृद्ध के घर पहुंच जाती है । यह हम देखते है कि अन्तकृत्दशा में वर्णित कथाप्रसंग में अनियसेन आदि देवकी के छह पुत्रों की सुलसा के मृत पुत्रों के साथ परिवर्तन की घटना गजसुकुमाल के जन्म और दीक्षा की कथा तथा श्रीकृष्ण के द्वारा उस वृद्ध को सहयोग देने की अवान्तर कथा ये सभी उल्लेख जैन परम्परा के अतिरिक्त अन्यत्र नहीं पाये जाते है । हिन्दु परम्परा में देवकी को श्रीकृष्ण से पूर्व होनेवाले पुत्र-पुत्रियों के जो उल्लेख है वे इस कथा से एकदम भिन्न है । फिर भी दोनो में इतना साम्य अवश्य है कि दोनो परम्पराओं में कंस के कोप से बचने के लिए देवकीपुत्रों का स्थानान्तरण हुआ है । श्रीकृष्ण के पूर्वज :____ वसुदेवहिण्डी में श्रीकृष्ण के पूर्वजों की चर्चा करते हुए यह बताया गया है कि हरिवंश में सोरि और वीर नामक दो भाई उत्पन्न हुए । सोरि ने अपनी राजधानी सोरिकुल में स्थापित की और वीर ने Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ १७७ सौवीर में । ये दोनों एक दूसरे के प्रति अत्यन्त अनुराग रखते थे और कोष, कोष्ठागार एवं राज्य आदि का विभाजन किये बिना ही राज्यश्री का उपभोग करते थे । सोरि के पुत्र अन्धकवृष्णि और उनकी पत्नी से समुद्रविजय आदि दस पुत्र और कुन्ती एवं माद्री नाम दो कन्यायें उत्पन्न हुई । दूसरी और वीर का पुत्र भोजवृष्णि हुआ । उसका पुत्र उग्रसेन और उग्रसेन के पुत्र बन्धु, सुबन्धु, कंस आदि हुए । अन्धकवृष्णि के दस पुत्रों में वसुदेव दसवें पुत्र थे । इसी प्रसंग में समुद्रविजय आदि के पूर्वभव की चर्चा की भी गई है । वसुदेव के पूर्व भव की चर्चा करते हुए यह बताया गया है कि वह पूर्वभव में नन्दिसेन था । तुलनात्मक विवरण : जहां तक कृष्ण के माता-पिता के नाम और जन्म का प्रश्न है, जैन परम्परा और हिन्दु परम्परा में विशेष अन्तर नहीं है । दोनों ही परम्पराए कृष्ण को वासुदेव एवं देवकी का पुत्र मानती है तथा जन्म के पश्चात् यशोदा के द्वारा उनके लालन-पालन की बात भी स्वीकार करती है । दोनों परम्पराओं के अनुसार कृष्ण के अन्य सात भाईयों का उल्लेख हुआ है । किन्तु दोनों परम्पराओं में कृष्ण के अन्य भाईयों के कथानक के सम्बन्ध में अन्तर पाया जाता है। श्रीमद् भागवत के अनुसार बलभद्र और श्रीकृष्ण के जन्म के पूर्व देवकी के छः पुत्रों को कंस पछाडकर मार डालता है । यद्यपि जैन ग्रन्थ वसुदेवहिण्डी में भी कंस के द्वारा देवकी के छ: पुत्रों के मार डालने का उल्लेख है किन्तु जिनसेन के उत्तरपुराण तथा हेमचन्द्र के त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में तथा अन्तकृत्दशा के अनुसार देवकी के गर्भ से उत्पन्न ये छहों पुत्र हरिनिगमेष नामक देवता के द्वारा सुलसा के यहां पहुंचा दिये गये और सुलसा के मृतपुत्रों को देवकी के पास लाकर रख दिया जाता है । इस प्रकार जैन परम्परा मुख्य रूप से कृष्ण के सहोदर इन छ: भाईयों को सुलसा के द्वारा पालित मानती है जो आगे चलकर तीर्थङ्कर नेमि के पास दीक्षित होकर मोक्ष को प्राप्त कर लेते है । श्रीमद् भागवत के अनुसार बलभद्र का देवकी के गर्भ से विष्णु के Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ अनुसन्धान-७१ आदेश एवं योगमाया शक्ति के द्वारा रोहिणी के गर्भ में संहरण है जब कि जैन परम्परा के किसी भी ग्रन्थ में इस संहरण की घटना का उल्लेख नहीं है। बल्कि यह पाया जाता है कि बलभद्र रोहिणी के गर्भ से सहज जन्म लेते है । यद्यपि यहां यह स्मरणीय तथ्य अवश्य है कि जैन परम्परा में जो महावीर के गर्भसंहरण की बात कही जाती है वह मूल में कहीं बलदेव के गर्भ-संहरण की घटना से प्रभावित तो नहीं है, जिसे जैनों ने अपने अनुरूप मोड लिया हो ? । बलभद्र को कृष्ण का सहोदर भाई न मानने के कारण जैन परम्परा में कृष्ण के सात भाईयों की संख्यापूर्ति के लिए गजसुकुमाल की कथा का विकास हुआ । श्रीकृष्ण के यशोदा के यहां स्थानान्तरण की बात दोनों परम्पराए समान रूप से स्वीकार करती है, किन्तु जहां श्रीमद् भागवत में यशोदा के गर्भ से जन्मी पुत्री को, जो कि विष्णु की योगमाया का ही स्वरूप थी, कंस पटक कर मार डालने का प्रयत्न करता है, किन्तु योगमाया होने के कारण वह मृत नहीं होती है तथा आकाश में चली जाती है और काली, दुर्गा आदि की शक्ति के रूप में पूजी जाती है । जैन परम्परा में वसुदेवहिण्डी और जिनसेन के उत्तरपुराण के कथनानुसार कंस उसे मारता नहीं है, अपितु नाक काटकर अथवा नाकचपटी करके छोड देता है । यही बालिका आगे साध्वी के रूप में दीक्षित हो जाती है और अपनी ध्यानसाधना के द्वारा देव-गति को प्राप्त करती है। किन्तु हरिवंश में जिनसेन (द्वितीय) ने यह उल्लेख किया है कि उसकी अङ्गुली के रक्त से सने हुए तीन टुकडे से वह त्रिशूलधारिणी काली के रूप में विन्ध्याचल (मिर्जापुर के समीप) में प्रतिष्ठित हो जाती है । जिनसेन ने इस देवी के सम्मुख होनेवाले भैंसों के वध की भी चर्चा की है जो विन्ध्याचल में आज तक प्रचलित है । इस प्रकार जिनसेन द्वितीय ने इस कथानक को हिन्दु परम्परा के साथ जोडा है। कृष्ण की बाललीलाओं के सम्बन्ध में दोनों परम्पराए लगभग समान मन्तव्य रखती है। यद्यपि श्रीमद् भागवत के अनुसार कंस के द्वारा भेजे गये Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर २०१६ सभी असुर आदि कृष्ण या बलभद्र के द्वारा मार डाले जाते है, जब कि जिनसेन प्रथम तो जैनों के अहिंसा के दृष्टिकोण के आधार पर इन्हें राक्षस न कहकर देव या देवियां कहता है । दूसरे कृष्ण या बलदेव उन्हें मारते नहीं है अपितु हराकर जीवित ही छोड देते है । यद्यपि प्रश्नव्याकरणसूत्र के अनुसार कृष्ण के द्वारा इन्हें मारे जाने का उल्लेख है । हेमचन्द्र अपने त्रिशष्टिशलाकापुरुषचरित में जिनसेन के समान ही यह मानते है कि श्रीकृष्ण इन्हें हराकर भगा देते है । यद्यपि जहां जिनसेन प्रथम ने इन्हें देवी-देवता के रूप में स्वीकार किया है, वही हरिवंशपुराण में जिनसेन द्वितीय इनका कंस के द्वारा भेजे गये उन्मत्त प्राणियों के रूप में उल्लेख करते है । १७९ जैसा कि हम पूर्व में उल्लेख कर चुके है कि जहां हिन्दु परम्परा में पाण्डवों एवं कृष्ण के जीवन के साथ महाभारत के युद्ध की घटना जुडी हुई है वहां जैन आगम ग्रन्थों में महाभारत की घटना का सर्वथा अभाव है यद्यपि परवर्ती जैन लेखकों ने महाभारत की घटना का उल्लेख किया है । जहां हिन्दु परम्परा कंस को कृष्ण का मुख्य प्रतिद्वन्द्वी मानकर चित्रित करती है, वहीं जैन परम्परा में कृष्ण का मुख्य प्रतिद्वन्दी जरासन्ध को माना गया है । क्यों कि वह प्रतिवासुदेव है और उसे विजय करके ही कृष्ण वासुदेव के पद को प्राप्त करते है । यद्यपि यादवों के और द्वारका के विनाश के मूल में यदुवंशी का मद्यपायी होना दोनों ही परम्परा में सामान्य रूप से स्वीकार है और उसे ही यादव वंश के नाश का कारण माना गया है । फिर भी जैन परम्परा में द्वारका और यादव वंश के विनाश को कुछ भिन्न तरीके से चित्रित किया गया है । जैन परम्परा के अनुसार द्वारका और यादव वंश के विनाश की भविष्यवाणी सुनकर श्रीकृष्ण यह घोषणा करवाते है कि जो भी व्यक्ति अरिष्टनेमि के पास दीक्षित होगा उसके परिवार के पालन-पोषण की व्यवस्था राज्य करेगा । इसी प्रसंग में कृष्ण के द्वारा अपनी आठों पत्नियों, पुत्रवधूओं आदि को अरिष्टनेमि के पास दीक्षित करवाने के भी उल्लेख मिलते है 1 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० अनुसन्धान-७१ जहां तक श्रीकृष्ण की मृत्यु (लीलासंहरण) का प्रश्न है दोनो ही परम्पराए जराकुमार के बाण से उनकी मृत्यु का होना स्वीकार करती है किन्तु वैष्णव परम्परा के अनुसार वे नित्यमुक्त है और अपनी लीला का संहरण कर गोलोक में निवास करने लगते है । वहां जैन परम्परा के अनुसार वे अपनी मृत्यु के पश्चात् भविष्य में आगामी उत्सर्पिणी में भरतक्षेत्र में १२वें अमम नामक तीर्थङ्कर होकर मुक्ति को प्राप्त करेंगे - ऐसा उल्लेख है । इस प्रकार दोनों परम्पराए यद्यपि कृष्ण के जीवनवृत्त को अपने विवेचन का आधार बनाती है, फिर भी दोनों ने उसे अपने-अपने अनुसार मोडने का प्रयास किया है । जैसा कि हमने संकेत किया है कि श्रीकृष्ण के जीवन में ऐसी अनेक घटनाए है जिनका विवरण हमें जैन ग्रन्थों में ही मिलता है, पौराणिक साहित्य में नहीं मिलता है । श्रीकृष्ण के पद्मोत्तर से हुए युद्ध के वर्णन तथा गजसुकुमाल के जीवन की घटना, उनका नेमिनाथ के साथ सम्बन्ध आदि ऐसी घटनाए है जिनका उल्लेख हिन्दु परम्परा में या तो नहीं है या बहुत अल्प है । जबकि जैन परम्परा में ये विस्तार से चर्चित है । इस प्रकार कृष्ण के सम्बन्ध में जैन कथानकों का अपना वैशिष्ट्य है । प्राच्य विद्यापीठ, दुपाडा रोड, शाजापुर (म.प्र.) * * * Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ १८१ डो. ढांकी द्वारा थयेलू एक महत्त्व→ अन्वेषण : नन्द्यावर्त जैनोमां 'नन्द्यावर्त' नामक स्वस्तिक-रचना सैकाओथी अति प्रसिद्ध छे. 'गहुंली' एटले नन्द्यावर्त. प्रसिद्ध ८ मङ्गलमां पण 'नवकोणना नन्द्यावर्त'र्नु आलेखन प्रचलित छे. डॉ. ढांकीए आ विषेनी १५०० वर्षथी प्रचलित धारणा सामे, कोश सहितना सन्दर्भो तथा पुरातत्त्वीय तथ्योनी सहायथी, प्रश्न ऊभो को छे, अने अत्यारे जे 'नन्द्यावर्त'ना नामे आकृति दोराय छे ते वास्तवमा ‘अक्षय स्वस्तिक' होवानुं अने 'नन्द्यावर्त' ते जुदी ज आकृति होवानुं सिद्ध कर्यु छे. __ आ विषे 'अनुसन्धान -१७मां तेमणे आपेली नोंध तेमज तेमना AIIS द्वारा प्रकाशित ग्रन्थ 'The Indian Temple Traceries'मां आ विषये तेमणे लखेल संशोधनात्मक नोंध, अहीं प्रगट करवामां आवे छे. आ अंग्रेजी नोंधनी झेरोक्स तेमणे स्वयं अमने आपीने ते 'अनुसन्धान'मां प्रगट करवा सूचवेलुं. अहीं ते बन्ने - गुजराती तथा अंग्रेजी नोंधो प्रकाशित करीए छीए. - शी. 'नन्द्यावर्त' विषे डो. ढांकीनी नोंध ('अनुसन्धान-१७'माथी उद्धृत) । अनुसन्धान 'अंक ३'मां ढूंकी चर्चा (पृ.२८-२९) अंतर्गत "(९) 'घउंली' ' शब्द पर भायाणी साहेबे ससार चर्चा करी छे. सौराष्ट्रना कांठाळना शहेरोमां 'ल'ने बदले 'र' बोलातो होई त्यां, मूळभूत स्वस्तिक आकार घउं वडे (क्यारेक चोखा वती पण) बाजोठ पर (के जमीन पर) करवानी क्रियाने 'घउंली पूरवी' एम कहेवाने बदले 'घउंरी काढवी' एवो शब्दप्रयोग सांभळवा मळे छे. घउंली, 'स्वस्तिक' उपरांत तेना कोणोमां परिवर्धित भुजाओथी सर्जाता ‘अक्षय स्वस्तिक' (जीवाजीवाभिगमसूत्र आदिमां आवतां ‘अक्खय सोथिया')ना आकारे पण आलेखवामां आवे छे. Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ अनुसन्धान-७१ अहीं आ खास सन्दर्भमां एक अन्य हैतवनी स्पष्टता करवानी जरूर छे. जैनोमां घणा काळथी 'अक्षय स्वस्तिक' ने 'नन्द्यावर्त' मानी लेवामां आव्यो छे, जे मोटो भ्रम छे. बीजी वात ए छ के सदीओथी 'नन्द्यावर्त'ना उच्चार अने जोडणी (मुनिओ पण मध्ययुगथी लई आज दिवस सुधी) 'नन्दावर्त' सरखो करे छे जे भूलभरेलुं छे. 'नन्द्यावर्त' ए ‘अक्षय स्वस्तिक'थी जुदी ज आकृति छे, आजे लगभग १५०० वर्षथी तेनी असली आकृति भुलाई गई छे. कोशकारो तेने जलचर 'महामत्स्य' के 'अष्टापद' (giant squid, octopus) वा 'करोळिया' के पछी 'तगर'ना कुलनी आकृति समान गणे छे. आ सौमां पाद (के पांखडीओ) वळेली होई, ते उपमानना आधारे असली नन्द्यावर्तनी पीछान थई शके छे. तेनी आकृति मौर्यकालीन चलणी मुद्राओ (कार्षापण) पर अने मथुराना शककालीन जैन आयागपट्टो पर - अने आम ईस्वीसन् पूर्वे त्रीजी सदीथी लई ईस्वीसननी पहेली सदी सुधी अङ्कित थयेली जोवा मळे छे. स्वस्तिक, अक्षय-स्वस्तिक अने नन्द्यावर्तनी आकृतिओ आ साथे रजू करुं छु. (नोंधना अन्ते), ते उपरथी त्रणेना देखावमां रहेलुं अन्तर स्पष्ट थशे. 'स्वस्तिक' अने 'नन्द्यावर्त'नो समावेश अष्टमङ्गलोमां थाय छे. 'नन्द्यावर्त'ने स्थाने शिल्पचित्रादि अङ्कनोमां जैनोमां 'अक्षय स्वस्तिक'नी चित्रणा ठेठ ११मी सदीथी तो थती आवी छे. जेमके कुंभारियाना शान्तिनाथ जिनालय (प्रायः ईस्वी १०८२)ना गूढमण्डपना द्वार उपरना अष्टमङ्गलपट्टमां असली नन्द्यावर्तने बदले अक्षय-स्वस्तिक कोरेलो छे, जे भूल शोचनीय छे. वर्तमानमां पण जैनोमां अक्षय-स्वस्तिकने ज नन्द्यावर्त तरीके कूटी मारवानी प्रवृत्ति रही छे. 'नन्द्यावर्त'मां नन्दीना आवर्तननो, धुरीने आधारे गोळ गोळ फरवानो भाव रहेलो छे, जेम अरहट (रेंट) अथवा घाणीनो बळद चक्कर चक्कर फरे तेम. में जे चित्र आप्युं छे ते मथुराना ईस्वीसन्नी प्रथम सदीमां अंकायेल आयागपट्टमां वच्चे मोटां माङ्गलिक चिह्नरूपे कोरेलुं छे. तेनी चतुर्भुजाओ माछलीना उत्तराङ्ग जेवी बतावी होई कोशकारोए कहेल 'महामत्स्य'र्नु प्रतिमान पण त्यां सार्थक बनतुं जोई शकाय छे. Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ १८३ उपर्युक्त त्रण आकृतिओ केटलीक वार अपसव्यक्रमथी (एटले के ऊलटा क्रमथी) पण आलेखवामां आवे छे. Unlike svastika, what so far, and doubtless erroneously, is called the 'nandyāvarta,' has been mentioned by almost all works and, in the texts, is noted both as a motif for jāla as well as the specific jāla type. But the nandyāvarta, as a motif, till now has remained unidentified. Most texts, even when they mention nandyāvarta, append no elucidatory definition of its shape. Those which say a little more, leave us no better informed. The only aid in visualizing its form is the clue in shape of the barest constructional method they give; but its brevity is as intense as the method of its delineation suggested there is dense, though some guess will be made on the latter's meaning in the proper context. On the basis of the discussions later to be done here, I take the nandyāvarta, of the pre-medieval and medieval perception in south, as a svastika with arms extended with the aid of perpendiculars added to its normal terminals to form 'corresponding angles' (plates 12-16). For all practical purposes, the nandyāvarta, at least from late Gupta times onwards, is svastika with short appendages of perpendicular lines attached at the terminal points, or right angles of the angled arms in all the four directions. The svastika with extended arms, however, has been termed ‘aksaya-svastika' (“akhaya soththiya' or unending svastika) in the Jaina āgama Jivājivābhigam-sūtra (c.lst-3rd cent. AD.). The original form of the nandyāvarta, as understood in ancient times, was different: It was a tetraskeles with four curved arms emanating from a central small roundel as shown in the accompanying drawing on p. 56. This ancient form, indeed Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ अनुसन्धान-७१ the real/original one, figures on the Mauryan punch-marked coins and, in larger and ornate version, on a few Jaina āyagāpattas of the Mathurā-Śaka period. Its more ancient depiction figures in the early Hellenic context on the shields, at first as triskeles and next tetraskeles, as also on the coins of Lisia, a Persian satrapy of B.C. the fifth century. The medieval Sanskrit lexicographers plausibly had preserved the memory of the original shape of the nandyāvarta; for they liken it (apparently keeping in view its four curved arms) to the tentacles of an octopus, the legs of a spider, the spiral petals of the 'tagara' (Tabernaemontana coronaria) flower, et cetera. That helps visualizing the correct shape of this motif and identifying it. While the true nandyāvarta had disappeared in depiction long ago, perhaps even a little before the dawn of the Gupta period, what later, in the tradition, was called/recognized as ‘nandyāvarta' (=akşaya-svastika) instead, as an ornamental and an auspicious motif, is first met in Karnāta, in two instances in Cave II in Bādāmi (soon after AD. 609) and in a ceiling in the Jambūlinga temple (AD. 696) in the same town.'' Quite a few early examples of its use in jāla-designs are encountered in the structural temples, for example a loose piece from a temple in Sārnāth (c. 5th cent. AD., plate 10), on the wall of the Mallikārjuna temple in Mahākūta (c. latter half of the 7th cent.) (plate 11), the Durga temple in Aihoļe (c. end of the 7th cent. AD., plate 13), and in the Kudalā Sangarneśvara temple (c. 3rd quarter of the 7th cent. AD., plate 14). It is also noticeable as blind grille in the salilāntara-recesses of the Padmabrahmā temple at Alampur (c. 2nd quarter of the 8th cent. AD., plate 12). In the medieval period, it is met in Tamilnadu in the later part of the last phase of the Colanādu style, particularly in the stone Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ १८५ structures that were raised under the Hoysaļa occupation of Tirucirāpalli, for example the third east gopuram, Ranganātha complex, Srirangam (plate 16). In the Nāyaka times this socalled nandyāvarta is once again met, as in the interior of the rangamandapa of the Rāmasvāmi temple at Kumbhakoņam (A.D. 1620) (plate 15)." Like the svastika, the nandyāvarta, too, figures in the grilles showing mixed motifs as in a Sakhandaka jāla from the east façade of the Sambhavanātha temple, Jaisalmer (A. D. 1441, plate 258). Outside India, in rare instances, it occurs in the jāla patterns in Islamic architecture.” It likewise figures in the jālis, at least in one Islamic building, in the Mughal period. '3 (Luckily, the “socalled nandyāvarta' was not used by Hitler and the Nazis; or else it would have met the same fate as the 'svastika,' one of the most ancient and highly esteemed auspicious Indian symbols, which is now identified with the symbol of Nazism and hence abhorred in the West.) स्वस्तिक नंद्यावर्त अक्षय स्वस्तिक * * * Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ अनुसन्धान-७१ प्रकीर्ण । नवां प्रकाशनो अकबर प्रतिबोधक कौन ? एक ऐतिहासिक अन्वेषण, ले. भूषण शाह, प्रका० मिशन जैनत्व जागरण, अमदावाद, ई. २०१६. मुघल बादशाह अकबर जेम तेनी क्रूरता माटे इतिहासमां जाणीतो छे, तेम तेनी जीवदयानी भावना तथा प्रवृत्ति माटे पण जाणीतो छे. चम्पा श्राविकानी महान तपस्याना अवसरे तेने जैन धर्मनो तथा हीरविजयसूरिनो प्राथमिक अथवा नामजोग परिचय थयो. त्यार पछी तेणे हीरविजयसूरिने पोताने त्यां आमन्त्रणपूर्वक बोलाव्या, तेमना वारंवारना सत्सङ्गथी जैन धर्मनां मूल तत्त्वोनो परिचय मेळव्यो, अने पछी दाखलारूप जीवदया आचरी बतावी. ते माटेनां तथा तीर्थरक्षा माटेनां तेनां तथा अन्य बादशाहोनां फरमानो ए ऐतिहासिक दस्तावेजी पुरावारूप छे. दरेक अन्य बाबतनी माफक, आ बाबतमां पण, खरतरगच्छना पक्षधरोए जाहेर कर्यु के, 'अमारा युगप्रधानाचार्य जिनचन्द्रसूरि बादशाहना प्रतिबोधक हता, हीरविजयसूरि नहीं.' जिनचन्द्रसूरि पण शाहने मळेला अने जीवदयानुं एक फरमान मेळवेलु, ते तथ्य स्वीकारवू जोईए, पण तमना पहेलां वर्षो अगाऊ हीरविजयसूरिजी शाहना सम्पर्कमां आवेला अने तेमना उपदेशानुसार जीवदयानां अनेक कार्यो तेणे करेला ए तथ्यने अगवणी केम शकाय ? खरतरगच्छवाळा द्वारा गच्छाग्रहथी प्रेराईने 'आ मुद्दे अमे ज साचा, तपगच्छवाला खोटा' एवी वातो प्रचाराय छे, अने जीवदया, तीर्थरक्षा जेवां लक्ष्योने बदले 'पोताना गच्छ'ने ज महत्त्व अपाय छे, तेमज आवं प्रतिपादन करतां पुस्तको पण छपाय छे, त्यारे जगतमां व्यामोह प्रवर्ततो जाय छे. आ स्थितिमां, अन्य गच्छ के पक्षनां ऐतिहासिक तथ्यो प्रत्ये अनादर दाखव्या सिवाय, तपगच्छनी अधिकृत, सप्रमाण अने योग्य के तथ्यात्मक वातो रजू Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ १८७ करवी ए सुज्ञ विवेकी जननुं कर्तव्य बनी जाय छे. ए कर्तव्य आ लघु पुस्तक प्रकाशित करीने श्री भूषण शाहे उचित रीते बजाव्युं छे. विडम्बना ए वातनी छे के आपणी सामे आजे हिंसा अने आतङ्क एक महापडकार बनीने वकरेलां छे तेवे समये जीवदया तथा अमारिपालन माटे प्रयोजवानी शक्ति, गच्छवादना पोषणमां तेम ज साचांखोटां प्रमाणोनी मददथी एकबीजाने खोटा ठराववाना काममा खरचाई रही छे ! सबळ साक्ष्यो तथा तथ्योनी सहाय लईने भाई भूषण शाहे गच्छवादप्रेरित असत् प्रतिपादनोने उचित रीते निरस्त कर्यां छे ते माटे तेमने धन्यवाद. ___ जैन विश्वकोश : खण्ड १, सं. कुमारपाल देसाई, गुणवंत बरवालिया, प्र. उवसग्गहरं साधना ट्रस्ट, पारसधाम, घाटकोपर, मुंबई, प्र.आ. ई. २०१६, मूल्य : रू. १५००-०० स्थानकवासी संत श्रीनम्रमुनिनी प्रेरणाथी, जैन धर्मना एनसायक्लोपीडिया-लेखे प्रारम्भायेला बृहत् प्रकल्पनो आ प्रथम ग्रन्थ छे. जैन धर्मना तमाम सम्प्रदायोनी विगतोनो समावेश करवानी तेओनी नेम छे. १०० विषयोनो अकारादिक्रमे समावेश करता आ ग्रन्थमां अनेक व्यक्तिचित्रो तथा चित्रो पण मूकवामां आव्यां छे. सम्पादकीय निवेदनरूप 'भूमिका'मां आ ग्रन्थ-प्रकाशननो आशय स्पष्ट करतां नोंध्युं छे के "जैन विश्वकोश एटले जैन धर्मनी तमाम बाबतोने आवरी लेतो कोश. आमां प्रत्येक सम्प्रदायनो समावेश करवामां आवे छे, परन्तु विश्वकोशनी आगवी दृष्टि मुजब विवादो, संकुचित साम्प्रदायिकता के टीकाटिप्पणथी अळगा रहेवामां आवे छे. एक प्राचीन अने विराट धर्मनी अनेक शाखाओनी सर्वाङ्गीण माहिती संक्षिप्त अने अधिकृत स्वरूपमां पीरसाय एवो आनो आशय छे." आ निवेदन एटलुं स्पष्ट छे के आपणे तेमां कशुं उमेरवानी के सूचववानी जरूर के जग्या रहेती नथी. एक वात स्पष्ट छ के आवी विचारसरणि तथा आवं काम, ‘स्वीकार'ना के 'सर्वसमावेशक' विचार Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ अनुसन्धान-७१ धरावता जनो ज करी शके. जो 'अमे ज साचा, पुराणा अने अन्य बधा नवा अने मिथ्या' एवा दृष्टिकोणथी चालीए तो आवां काम सूझे नहि, आवडे नहि, थाय नहि अने कोई करतुं होय तो तेना आदर के स्वीकार पण थाय नहि. तीर्थङ्करोए मिथ्यात्वीओनो इन्कार कर्यो होत तो तेओ कोईने सम्यक्त्वी बनावी शक्या न होत. एटले 'स्वीकार' ए धार्मिकतानो पायो बनी रहे छे. ____ विश्वकोश विषे विस्तृत जाणकारी, आ 'भूमिका' द्वारा सम्यग् मळी रहे छे. आपणे आ प्रकल्प साथे प्रेरक, सम्पादक, लेखक, अन्वेषक, प्रकाशक व. तरीके जोडायेला सर्व कोईने साधुवाद पाठवीए. आवा प्रकल्पोमा प्रयत्न बधा विषयोनो तेमज ते ते विषयने लगती सर्व माहितीओनो समावेश करवानो अवश्य होय छे. परन्तु तेमां सर्वथा सफल थर्बु ए धार्या जेटलुं सहेलुं नथी होतुं, ते ध्यानमा राखीने ज आवा ग्रन्थने माणवाजोग छे. एवं लागे के जे काम, युवा साधु-साध्वीओना एक जूथ द्वारा थर्बु जोईए ते काम, विश्वकोश, गृहस्थवर्गना हाथे थाय छे, अने थोडाक के कोईक साधु तेमां, अंशतः, सहायक थता होय छे. निषेध करवानुं के भूलो काढवानुं बहु आसान छे, कार्य करी बताववानुं मुश्केल. २३ तीर्थङ्करों का चित्र सम्पुट तथा जैन साधु-साध्वी दिनचर्याचित्रसम्पुट : ले. आ. यशोदेवसूरिजी, सं. मुनि जयभद्रविजयजी, चित्रकार गोकुलदास कापडिया, प्रका. - पार्श्वपद्मावती ट्रस्ट, जैन साहित्यमन्दिर, पालीताणा, प्र.आ. ई.२०१६, सं. २०७२, मूल्य : रू. १००० तथा रू. १००० आ ग्रन्थो द्वारा बे मूल्यवान चित्र-ग्रन्थो संघने सांपड्या छे. साहित्यकलारत्न स्व. आ. यशोदेवसूरिजीए खूब महेनत उठावीने, आपणा विख्यात चित्रकार श्री गोकुल कापडिया पासे आ चित्र-सम्पुटो तैयार करावेलां, अने तेना परिचयलेख तेमणे लखेला. आजे तो बन्नेनी अनुपस्थिति छे. छतां मोडा तो मोडा, पण ग्रन्थो प्रगट थया ते माटे सम्पादकश्रीने धन्यवाद घटे छे. भगवान महावीरनां जीवन-चित्रोनो सम्पुट, दायकाओ पूर्वे, प्रगट थयो त्यारे ज २३ तीर्थङ्करोनां जीवनना खास प्रसङ्गो आलेखतां चित्रो तैयार कराववानी तेमनी महेच्छा हती. तेमणे शास्त्रवर्णित विगतोने यथासम्भव Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ १८९ अनुसरीने ते चित्रो कराव्यां पण खरं. तेमनी जहेमत अने कलादृष्टि तथा चित्रकारनी मनभावन कलम - बन्ने आ पुस्तकमां जोई शकाय छे. बीजा ग्रन्थमां जैन साधुओनी चर्या दर्शावतां सुरेख चित्रो जोवा मळे छे. साधुजीवननी प्रतिक्रमण, पडिलेहण, प्रवचन, ज्ञानार्जन, आहार, विहार इत्यादि विविध करणीओने चित्रकारे पोतानी कलम द्वारा व्यक्त करी छे. त्रणेक चित्रो साध्वीजीनी करणीने लगतां छे. ___ उपरांत, दिगम्बर, स्थानकवासी तथा तेरापंथी मुनिओनी चर्याने स्पर्शतां चित्रो पण आलेखावीने पोतानी उदार मनोवृत्तिनो ग्रन्थकारे परिचय कराव्यो छे. छेल्ले त्रणेक चित्रो कालधर्म तथा अन्तिम संस्कारने लगतां पण छे. आ उत्तम अने संग्रहणीय चित्रो-ग्रन्थो, जैन संघनी कलादृष्टिनुं मूल्यवान नजराणुं बनी रहेशे तेमां सन्देह नथी. The Jaina Stupa at Muthara: Art & Icons. By Dr. Renuka Porwal, प्रका.- प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर (म.प्र.), ई. २०१६, मूल्य : रू. ९०० मथुरा ए जैन संघर्नु एक पुरातन, प्रभावशाली अने ऐतिहासिक तीर्थ छे. त्यांना जिन-स्तूपो सङ्घना रक्षण माटे अत्यन्त उपयोगी हता. सदीओ-पुराणां ते स्थापत्यो कालक्रमे नष्ट-भ्रष्ट थतां गयां, जैन संघे तेनी भारोभार उपेक्षा सेवी, अने एक भव्य अने शास्त्रोक्त तीर्थ आपणे गुमावी बेठा. ___ मथुरा विषे इतिहासविदोए तथा पुरातत्त्ववेत्ताओए घणा लेखो अने पुस्तको लख्या छे. मथुराथी प्राप्त शिल्पो, प्रतिमाओ तथा विविध सामग्री, घणी बाबतोमां दस्तावेजी पुरावारूप बनी रहे तेवी छे. त्यांथी प्राप्त अभिलेखो पण मूल्यवान छे. आ सामग्रीनो बहु मोटो भाग काळना गर्तमां विलीन थई चुक्यो छे. तेमां अनेक कारणो हशे ज, तेमांनुं एक अने प्रमुख कारण जैनो द्वारा थयेली तेनी घोर उपेक्षा पण छे, ते नकारी नहि शकाय. तो पण, जे शेष सामग्री बची, तेमांनी पण जे सामग्री संग्रहालयो वगेरेमां सचवाई, तेना आधारे पण जैन इतिहासनी अगणित तूटती के खूटती कडीओ उपलब्ध थई छे, थई शके तेम छे. Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० अनुसन्धान- ७१ बौद्धोमां ज स्तूप होय एवी एक व्यापक समज के मान्यता प्रवर्ते छे. पाठ आ ग्रन्थ द्वारा प्रतिपादित प्रमाणित थाय छे के जैन स्तूप पण हता. आपणे त्यां प्रसिद्ध स्तोत्रपाठमां " मथुरायां सुपार्श्वश्रीः सुपार्श्वस्तूपरक्षिका" एवो पाठ आवे छे, तो जगचिन्तामणि स्तोत्रमां आवतो " महुरि पास ( सुपास ) " एवो आ बधां मथुरा - तीर्थनी प्राचीनतानां अने प्रभावकतानां प्रमाणो छे. विदुषी बहेन रेणुकाबेन पोरवाले खूब परिश्रमपूर्वक 'मथुरा 'नां शिल्पो विषे अध्ययन तथा संशोधन कर्तुं छे, अने तेना परिपाकरूपे आ ग्रन्थ तेणे सरज्यो छे. सात प्रकरणोमां वहेंचायेला अने अंग्रेजीमां आलेखायेला आ ग्रन्थना छेवाडे प्रमाणभूत तसवीरो पण आपेल छे. - - जाणवा मळे छे ते मुजब, आजे पण मथुराना टीलाओ के टींबाओमां जैन शिल्पावशेषोनी प्रचुर सामग्री खण्डित, जीर्ण तथा रखडती हालतमां पडी छे. कोईनुं ध्यान ते दिशामां जाय तो घणी सामग्रीनुं संरक्षण थई शके. अध्यात्मकल्पद्रुम (सटीक ) : कर्ता - मुनिसुन्दरसूरिजी, टीकाकार - १ अधिरोहिणी धनविजयगणि, २. अध्यात्मकल्पलता रत्नचन्द्रगणि; पुन:सम्पादक - तत्त्वप्रभविजयजी, प्रका. - जिनभद्रसूरि ग्रन्थमाला - अमदावाद. पूर्वे देवचन्द्र लालभाई पुस्तकोद्धार फंड तरफथी बन्ने टीकाओ साथै प्रकाशित ग्रन्थनुं हस्तप्रतोना आधारे पुनः सम्पादन - संशोधन साथै प्रकाशन. मण्डलप्रकरणम् : (स्वोपज्ञवृत्ति, अनुवाद, पदार्थसङ्ग्रह सहित ), कर्ता - विनयकुशलगणि, पदार्थसङ्ग्रह कृपाबोधिविजयजी, प्रका. संघवी अंबालाल रतनचंद जैन धार्मिक ट्रस्ट. - 'पदार्थप्रकाश'नी श्रेणिना २५मा चरण तरीके, जैन ज्योतिष सम्बन्धित एक प्राचीन प्रकरणनुं विशद समजूती साथे प्रकाशन. महावीरचरियं : कर्ता - नेमिचन्द्रसूरिजी पुनः सम्पादक न्यायरत्नविजयजी, प्रका. ॐ कारसूरि ज्ञानमन्दिर - सुरत. मुनिश्री चतुरविजयजी द्वारा सम्पादित अने जैन आत्मानन्द सभा भावनगर द्वारा प्रकाशित प्राकृत महाकाव्यनुं हस्तप्रतोना आधारे विषमपदटिप्पणी वगेरे सहित पुन:सम्पादन. Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर २०१६ ढांकीसाहेब हसमुख हास्य सोहामणुं, नीचे खामणे देह जोतावेंत जाणी जशो ढांकीसाहेब ह. सुट-बूट शोभे घणां ने रंगबिरंगी टाइ रूडो राखे देहने, वैज्ञानिक चोकसाइ. मुट्ठी चपटी हाडकां पण बहु मोटुं मन सारप अनी पूंजी अने व्हालप एनुं धन. बेउं हाथे वावरे ए दोमदोम ठकरात जे जन पामे एकवार ए जीवनभर रळियात. खरच्युं आख्खं आयखं विधविध विद्या माट सघन संशोधन कर्तुं माथा साटोसाट. देवालय - स्थापत्यना विश्वप्रसिद्ध विद्वान भूषण भारत देशनुं पाम्या पद्मसम्मान. गुजरातना गौरव समा हता ज्ञानभंडार ए भड भंडारी गयो छोडी सकळ संसार. अडधी राते पूछवाजोग ठेकाणुं गयुं ने अंजवाळु आथम्युं घनघोर अंधारुं थयुं. हळवे हळवे शमी गया साते संगीत सूर शब्दो पण छेवट थया शांत - मौन भरपूर. राजेश पंड्या १९१ हवे ज्ञानमन्दिरनी धजा थई फरुके फरफर हळवाफूल सुगन्ध जेम वहे हवामां सररर. ए-५, ऋतुराज सोसायटी, रोड, वडोदा १. कविनो परिचय, सूक्ष्मदर्शी विवेचक-संशोधक-स - सम्पादक श्रीजयंत कोठारी सम्पादित "जयवन्तसूरिनी छ काव्यकृतिओ" ना आधारे रजू करेल छे. Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ कलाविवेचक मधुसूदन ढांकी - अनुसन्धान- ७१ अवन्तिका गुणवन्त महेता मारा मनमां तर्कवितर्क चालता हता के वास्तु - इतिहासकार अने कलाविवेचक तरीके सन्मानपूर्वक जेमनुं नाम विश्वस्तरे चमके छे, पीएच. डी. ना विद्यार्थीओ पोताना शोधनिबन्धमां जेमना अभिप्रायो टांके छे, संशोधको जेमना मन्तव्यने आखरी निर्णय माने छे एवा असाधारण प्रतिभासम्पन्न मधुसूदनभाई ढांकी साथे मुलाकात केवी रहेशे ? सांभळ्युं हतुं के पोताना विशे वात करवानुं एमने पसंद नथी. छेल्लां पन्दरेक वर्षथी तो एमना संशोधनने लगता काम सिवाय बहार जता नथी. एमनी पळेपळ किंमती छे, गतिमान समयना अनन्त प्रवाहमां इतिहासक्षेत्रे पोतानां शाश्वत हस्ताक्षर अङ्कित करी जवाना पुरुषार्थमां तेओ रत छे. पण जोउं छं तो द्वार पर ए सस्मित वदने ऊभा छे. मारी साथे गुणवन्त हता तो रघुवंशनुं 'जगतः पितरौ पार्वतीपरमेश्वरौ' चरण बोलीने मङ्गलभावथी आवकार आप्यो. थयुं, नवेम्बरनी शीतल सवार, घटादार वृक्षो, अने खुल्ला आंगणाना लीधे वातावरण एटलुं प्रसन्नरम्य लागतुं हतुं के मधुसूदनभाईना ऋजु सौजन्यशील आभिजात्यपूर्ण व्यक्तित्वथी ? वात एमणे ज शरु करी. घूंटायेलो उष्माभर्यो स्वर. वातना विषय प्रमाणे सूर आरोह-अवरोह ले. कहे, 'हुं तो भूस्तरशास्त्र अने रसायणशास्त्र साथे बी.एस.सी. थयो ने बेक वर्ष बाद वतनना शहेर पोरबन्दर बेन्कमां जोडायो. पण डिमाण्ड ड्राफ्टो बनाववानुं काम नीरस लागे. पुरातत्त्व संशोधन मण्डळ स्थापी समय मळ्ये सभ्यो साथे आजुबाजुनां पुराणां मन्दिरोनां सर्वेक्षण माटे नीकळी पडु. माणस साथे संकळायेली सुन्दर चीजवस्तुमां पहेलेथी रस. 'कुमार' जेवा सुरुचिपूर्ण मासिकना वाचने ए रसने सम्मार्जित कर्यो हतो. स्थापत्यनो तलस्पर्शी अभ्यास करी गुजरातनी सोलङ्कीकाळनी स्थापत्यशैलीना उद्भवनी समस्या उकेलवा प्रयत्न आदर्यो. स्थापत्यनी प्रमाणबद्धता, समग्र रचनानो लयमेळ, सौन्दर्य अने सुशोभन, आसपासनां दृश्य साथेना संवादनी नानामां नानी विगत नोंधीने वडोदरा Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ १९३ म्युझियमना ते वखतना नियामक डॉ. गोएत्सने बतायूँ. ए जरूरी सलाहसूचनो आपीने प्रोत्साहित करतां कहे, 'बस आम ज करता रहो.' दरमियान हुं मांदो पड्यो ने बेन्कनी नोकरी छोडी. पिताजी जूनागढमां उद्यान-सर्वेक्षक बन्या. त्यां एकवार हुं एमना फार्म पर गुलाबना छोड पर कलम करतो हतो त्यां एक सद्गृहस्थ आवी चड्या. दोढेक कलाक एमने बगीचामां फेरव्या. रसपूर्वक ए मने जातजातना प्रश्नो पूछता रह्या ने हुं एमनुं कुतूहल संतोषतो रह्यो. बीजे दिवसे ए सद्गृहस्थ अमारे घरे जमवा आव्या त्यारे जाण्यु के ए तो कृषिविभागना वडा हता. एमणे राजकोट जई मारी मददनीश कृषि-अधिकारी रूपे नियुक्तिनो पत्र मोकल्यो, मारी पासे ए विषयनी कोई डिग्री न होवा छतां. आम मधुसूदनभाई कृषिसंशोधन विभागमा जोडाया. जे क्षेत्रमा डग भर्यां एनी आरपार नीकळवाना सङ्कल्प साथे एमणे पुस्तकालयोमा जई वाचन, चिन्तन कर्यं. खेतरोमां प्रयोगो कर्या. तेओ मानता : कपास तथा घउं सत्त्वशील तो होवां ज जोईए. उपरान्त एनां रूप, रङ्ग अने आकृति चित्ताकर्षक होवां जोईए. तमे जुओ ने गमी जाय एवां ! मुम्बईथी प्रथम 'ओल इन्डिया मेंगो शो' सौराष्ट्र तरफथी डेप्युट थयो त्यारे त्यां अठवाडियाना निवास दरमियान 'प्रिन्स ऑफ वेल्स' म्युझियममां जईने अभ्यास कर्यो. जामनगरमां गुजरात पुरातत्त्व विभाग तरफथी योजायेला प्रदर्शनमां पुरातत्त्वना अधिकारी एमना म्युझियमना ज्ञानथी प्रभावित थया. पुरातत्त्व खाताना तेओ वडा बन्या पछी मधुसूदनभाईने कह्यु, 'अमारा खाताना जूनागढ म्युझियम माटे क्युरेटर जोईए छे, तमे अरजी करो.' . 'पण मारी पासे तो विज्ञानशाखानी डिग्री छे.' मधुसूदनभाई ए कडं. 'अमारे वैज्ञानिकनी जरूरत छे. तमे अरजी करो. मधुसूदनभाईए अरजी करी. इन्टरव्यू आपवा गया त्यां एमने एक प्रश्न पुछायो तुतान खामननी कबर विशे. ए कबर विशे रीतसर क्यांय वांच्युं न हतुं, पण एना विशेनुं लखाण जोयुं हतुं. क्यां? तो याद आव्यु के नानपणमां जोधपुर जते समये पस्तीना छापामां चंपल बांधते समये ते वांच्युं हतुं. यादशक्तिना जोरे Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ अनुसन्धान-७१ ए छापुं आंख सामे देखावा मांड्युं ने जाणे वांचतां होय एम एमांथी जवाब आप्यो ! 'ओह ! आवी फोटोग्राफिक यादशक्ति !! तमने पाछळनुं क्यां सुधी याद छे ?' 'हुं दोढ वरसनो हतो त्यारे दादीमा केवा रंगनो साडलो पहेरीने नानीमानी खबर काढवा आव्यां हतां ए याद छे. जो के नजीकना भूतकाळनी वातो हवे हुं भूली जाउं छु. सरनामां याद नथी रहेतां. अटपटी कळवाळां ताळा खोलवानी रीत याद नथी रहेती.' ईन्टरव्युमां सोळ उमेदवारोमांथी मधुसूदनभाई क्युरेटर तरीके पसंद कराया. ई.स. १९२७नी ३१मी जुलाईए जन्मेला मधुसूदनभाईए ई.स. १९५५मां एमना कर्मक्षेत्रे पगरण मांड्यां. जूनागढना म्युझियमना क्युरेटर तरीके. पछी जामनगरमां अने पछी पुरातत्त्व खाताामां टेकनिकल आसिस्टन्ट तरीके फरज बजावी अने त्यांथी अमेरिकन एकेडेमी ऑफ बनारसमां रिसर्च एसोसियेट तरीके डेप्युटेशन पर गया. पण पछी गुजरातमां खाताकीय प्रतिकूळ वातावरण सर्जातां राजीनामुं आप्युं अने तात्कालिक विकल्प तरीके शेरबजारमा जवानुं विचार्यु. _ 'शेरबजार ?' कंईक नवाई पामतां पूछ्युं : 'शेरबजारनुं एटलुं ज्ञान अने रस खरां?' 'हा, ग्रेज्युएशन पछी परदेश जq हतुं त्यारे पैसा ऊभा करवानो सहेलो मार्ग ए देखायो हतो. ए वखते शेरोना रोजरोजना भाव मोढे रहेता.' __ए वखते जगदीशप्रसाद गोयन्का तरफथी मुम्बईमां म्युझिक रेकर्डिंग करवानी योजना हाथ धरवानी आकर्षक ओफर पण आवी.' 'तो तमने संगीतनुं पण एटलुं बधुं ज्ञान छे ?' 'अमुक अंशे संगीतमां जन्मजात रस. कोलेजकाळमां सायगल, पङ्कज मलिक, हेमन्तकुमार, जगमोहन वगेरेना हलकभर्यां दर्दभर्यां गीतो गातां. आम, संगीतनी सूझ खीलती जती हती. अवाज केळवातो जतो हतो. Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ १९५ 'दक्षिण भारतनी विख्यात गायिका शुभलक्ष्मीना कण्ठे गवायेलां मीरांनां भजनो गातो. त्यारे थयुं के कर्णाटक शैली शिखाय तो ज भजनोमां विशिष्ट भावप्रक्रिया अने भावनी उत्कटता सधाय अने गान हृदयने स्पर्श. ए माटे व्यङ्कट रामानुजम् पासे दोढ वरस आरम्भिक तालीम लीधी हती.. 'पछी बनारसमां हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत शीखवा किराना घरानाना छनालाल मिश्रा पासे गयो. कर्णाटकी ढंगथी गावा टेवाई गयेला गळाने हिन्दुस्तानी ढाळमां ढाळq थोडं अघळं हतुं, पण खंत अने उत्कट झंखनाने लीधे ए थई शक्यु. मिश्राजी अने नारायण चक्रवर्ती पासे हिन्दुस्तानी संगीतनी अने चन्द्रशेखर तेम ज वीरभद्रराव पासे कर्णाटक संगीतनी साधना करी. _ 'ज्यां ज्यांथी सारूं संगीत सांभळवा मळे त्यां जतो, संगीत शीखतो. संगीतकारो, नृत्यकारोनो विशेष परिचय केळवीने एमना विशे लेख लखतो. पछीथी मालकौंस रागना असली नामनुं संशोधन कर्यु. संगीतमा रक्तिनो विभाव, हिन्दुस्तानी अने कर्णाटक संगीतना रसकारणनो तुलनात्मक अभ्यास आदि पर पण लेखो लख्या.' 'तमे आ बधी प्रवृत्ति माटे समय केवी रीते फाळवता ?' 'चालु दिवसे रोज रात्रे अने शनि-रवि तथा रजाना दिवसोए.' एक रात्रे एमणे बेंग्लोर भद्रावती रेडियो स्टेशन परथी नीलम्मा कडम्बीनो रूपेरी घंटडी जेवो अपूर्व माधुर्यभर्यो कण्ठ सांभळ्यो. संस्कृत कीर्तन भोगीन्द्रशायिनम्' गवाई रह्यं हतुं. ए संगीत एमने दिव्य रसानुभूति करावी गयु. एमने थयुं, आ महान कलाकारने मळवू ज पडशे. केटलांक वर्ष बाद तक मळतां महेसुरमा एमना निवासस्थाने गया. आदर अने उत्कटताथी ए लालित्यपूर्ण गान सांभळ्युं ने एमनी पासे ए कृति शीख्या. कहे, 'भावात्मक रीते गातां हुं एमनी पासेथी शीख्यो.' 'ओह ! केवू हशे ए गान ?' तो तरत ज मधुसूदनभाईए ए गान गायु. स्वर- सौन्दर्य, साहित्यभाव, रसलयनी खूबी टुकडा पाडी पाडीने समजाव्युं. समग्र वातावरण ज्योतिर्मय थई ऊठ्यु. ए कहे, 'उत्तम संगीत सीधुं आत्माने स्पर्शे. जे संगीतमां भक्ति भळी होय Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ अनुसन्धान- ७१ ए परमानन्दनो अनुभव करावे. भक्तो जेटलुं पामी शके एटलुं योगी के ज्ञानी पण न पामी शके.' 'अत्यारे रियाझ चाले छे ?' 'हा, केसेटो मूकुं ने साथे मारो रियाझ चाले. ' 'अत्यारनुं खूब प्रचलित संगीत केंवुं लागे छे ?' 'ए घोंघाटियुं संगीत तो ज्ञानतन्तुने थकवी नाखे छे. बधुं तोडीफोडी नाखे छे. फिल्मी नृत्योमां पण अङ्ग अङ्गना कटका करी बीभत्स झाटका मारीने शरीर एवी रीते हलावे छे के पडदा पर जाणे देडकां, वन्दा अने कानखजूरा नाची रह्यां होय. खूब जुगुप्साप्रेरक लागे छे एवं. ' 'वेस्टर्न म्युझिकमां शुं गमे ?' 'चर्च म्युझिक भाववाही छे. एकवार हुं केथेड्रलमां गयेलो. मा मेरीनी सामे एक माणस प्रार्थना करे. एना चहेरा पर अपार वेदना. एना माटे मने सहानुभूति थई आवी ने नजीकमां ऊभीने मा मेरीने जगदम्बा तरीके उद्देशीने में प्रार्थना करी. हुं प्रार्थनामय हतो ने मारी सामे देदीप्यमान तेजवर्तुलो देखावा मांड्यां. असीम आनन्दनो अनुभव थयो. कोई महाशक्तिनो, "अल्टिमेट रियालिटी" नो अहेसास थयो. हुं समाधिमां जई रह्यो हतो. ' 'आ अनुभवनी तमारा पर शुं असर थई ?' 'हुं जैनधर्मी परिवारमां जन्म्यो धुं पण पहेलेथी सर्वधर्म समानतामां मानतो हतो. पण आ अनुभूति पछी तो पाकी खातरी थई के सर्व धर्म समान छे.' 'तमने योग अने समाधिमा रस खरो ?' 'ना. ए मार्गनुं मने आकर्षण नथी. मोक्षमां मने रस नथी. मारे मोक्ष नहीं जीवन शुं छे ए जाणवुं छे. जीवन जाणवा माटे जीवन जीववुं जोईए. हुं तो वारंवार माणसनो अवतार मागुं छं. ' मधुसूदनभाईए आखा ब्रह्माण्डने मन्दिरनुं रूप कल्पीने एक लेख लख्यो छे. एमने जेटलो माणसमां रस छे एटलो ज पशु, पंखी, प्राणी, वनस्पति, आजुबाजुनी सृष्टिमां रस छे. गायनुं वाछरडुं, बिलाडी, मोर, बजसगर, चकलीओ केटकेटलां एमनी साथे हळी गयां हतां. एमनी पाळेली बजसगरनी मादा ए Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ १९७ बहारगाम जाय त्यारे सूनमून थई जाय. बराबर चणे नहीं ने एमने आवेला जुए एटले थनगनवा मांडे. एवं ज छोडनुं थाय, अमुक संवेदनशील छोड एमनी गेरहाजरीमां चीमळावा मांडे. ए आवे ने छोड साथे वातो करे, प्रेमथी पंपाळे, पाणी पाय ने छोड ताजामाजा थई जाय. ___ परदेशी आबोहवाना छोडने एमणे एमना त्यां सफळतापूर्वक उछेर्या छे. परदेशी वेलोनां वनस्पतिशास्त्रना नामनी साथे आपणां भारतीय नामो सर्जी एमणे 'कुमार'मां लेखो लख्या छे. सो रूपियानो एमणे एक ओर्किडनो छोड खरीदेलो. तेना पर फूलो आव्यां, पण पुस्तकमां कह्या प्रमाणे सुगन्ध न हती. ए कहे, 'हुं तो छेतराई गयानी तीव्र लागणी साथे छोड सामे जोया करुं अने एने ठपको आपुं. त्यां अचानक सुगन्ध सुगन्ध प्रसरी गई. पत्नी कहे, कोईए अगरबत्ती सळगावी हशे. त्यां तो पाडोशीओ दोडी आव्या. पूछे, अरे, आ शानी सुगन्ध छ ? खातरी करी तो ए ओर्किडनी पुष्पवल्लरीनी ज सुगन्ध हती. छोडे मारी आरजू सांभळी हती.' 'अरे, हुं तो कहुं छु : पाषाणमां अने शिल्पोमांय चेतना होय छे, लागणी होय छे.' “एवो अनुभव खरो ?' ___'हा, इलोरानी वज्रयान बौद्ध गुफामां त्रीजे माळे उंडाणना भागमा एकलो गयो त्यारे सप्त तारानां दर्शने कोई जबरजस्त लागणी में अनुभवी हती. हुं एवो डरी गयो के त्यांथी भाग्यो, शिल्पो जाणे कंईक कहेतां हतां.' 'कोई भ्रमणा थई होय एवं कंईक ?' 'ना, ए भ्रमणा न हती.' 'तो भूतमां तमे मानो?' 'हा, भूत में जोयुं छे. बनारसमां रात्रे धाबा पर धुंधळी सफेद वराळ जेवी आकृति में सम्पूर्ण जागृतावस्थामां जोई हती. एक वार मारा पलंगमां सूतो हतो त्यारे प्रकाशित हाथ जोयो हतो. ___'पण ए अनुभव अने गुफानो पेलो अनुभव बे जुदा हता. स्वप्नमां कंईक बिहामणुं देखाय ने जे लागणी अनुभवीए ते पण जुदा प्रकारनी होय छे, अनुभवे ए भेद समजाय.' Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ अनुसन्धान-७१ मूळ वात तो पुरातत्त्व खातामांथी राजीनामुं आप्या पछीना विकल्पोनी चालती हती, पण वात अने विषयो केवा बदलातां चाल्या ! मधुसूदनभाई माटे वात नहीं, रस मुख्य छे. रसर्नु सातत्य अने लय जाळवतां विषय बदलाय एनी परवा नहीं. एने तो ए मजा माने छे. एमना संवेदनशील हैयानी आ तो विशेषता छे. ___ वातनो तन्तु साधतां एमणे कां : 'गिराबहेने केलिको म्युझियममां जोडावा ओफर आपी हती. परन्तु शेठ कस्तूरभाई लालभाईए पण्डित मालवणियाजी द्वारा अमदावादना एल. डी. इन्स्टिट्यूट ओफ इन्डोलोजीमां इन्डियन आर्ट एन्ड आर्किटेक्चर विभागमां रिसर्च प्रोफेसर तरीके जोडावानुं आमन्त्रण आप्यु ने त्यां जोडायो. 'छ महिना त्यां काम कर्यु ने अमेरिकन इन्स्टिट्यूट ओफ इन्डियन स्टडिझ तरफथी मागणी थतां डेप्युटेशन पर हुं वाराणसी गयो.' ___ आम, मधुसूदनभाई पाछा बनारस पहोंच्या. एसोसियेट रिसर्च डिरेक्टर बन्या. त्यां तेमने केळवायेली टीम, अद्यतन विपुल साधनसामग्री ने बीजी सगवडो मळी. प्राचीन शिल्प अने स्थापत्यना अभ्यास माटे भारत देशना विविध प्रदेशो उपरांत, श्रीलङ्का, इन्डोनेशिया, इंग्लेन्ड, फ्रान्स अने स्विट्झर्लेन्डना प्रवासो कर्या. दिल्ही, वाराणसी, फिलाडेल्फिया अने जर्मनीमां आन्तरराष्ट्रीय सेमिनारोमां भाग लीधो. अमेरिका अने यु. के.मां लेक्चर टूर पण करी छे. ____ लगभग बसो जेटला तेमना लेखो अने रिसर्च पेपर्स गुजराती, अंग्रेजी अने हिन्दीमां प्रकाशित थयां छे. प्राचीन अने मध्यकालीन जैन आर्ट अने आर्किटेक्चर पर एमना लेखो अने पुस्तिकाओ प्रगट थयां छे. पूना, कर्णाटक, वडोदरा अने गुजरात युनिवर्सिटीमां आर्ट हिस्टरीमां सब्जेक्ट एड्वाईझर अने को-सुपरवाईझर छे. ए ज्यारे एल. डी. इन्स्टिट्यूट ओफ इन्डोलोजीमां जोडाया त्यारे एमने पीएच.डी. गाईड थवानुं कहेवामां आव्यु. एमणे ना कही तो प्रश्न पूछायो, 'नवी पेढी तैयार नथी करवी ?' Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ १९९ तो कहे, 'तमे हाथीनुं बच्चु आपो तो सवारीना हाथी तरीके केळवी शकुं, पण तमे पाडो आपो तो एने हाथी केवी रीते बनाएं ?' _ पछी बळापो करतां कहे, 'आजकाल केटली बेदरकारी अने आळस छे ? कोई पण विद्याशाखानो विद्यार्थी होय एने शुद्ध भाषा लखतां अने स्पष्ट अभिव्यक्ति पहेलां शीखववां जोईए अने पछी बीजा विषय- ज्ञान आपq जोईए. अमदावादनी स्कूल ओफ आर्किटेकमां त्यांना तेजस्वी विद्यार्थीओमां आशानुं किरण देखाय छे. तेजना स्फुलिङ्ग मळे छे.' 'तमे तमारी भाषा अने ज्ञान माटे केवी रीते महेनत करता हता?' 'मूळ तो "कुमार" सामयिके मने घड्यो. एना वाचनथी मारी शैली घडाई. हुं लेख मोकलुं त्यारे बचुभाई रावत जोडणीनी भूलो तरफ तरत ध्यान दोरे. मारा त्रणेक लेखो लखाया पछी मळ्यो तो कहे, लखता रहेजो. सारुं लखो छो. मने "कुमारचन्द्रक' मळ्यो छे.' गौरवी मधुसूदनभाईए कह्यु. पूना फर्ग्युसन कोलेजमां भणवा गयो हतो. त्यां अंग्रेजी मिडियम. अंग्रेजीमां प्रभुत्व मेळववा ग्रन्थागारमा बेसीने वांच्या ज करूं. वर्गमां खास रस ना पडे. भूस्तरशास्त्रना प्रोफेसर आपे ए नोंध न करूं पण पुस्तकालयमां एने लगतां पुस्तको वांचु. पाठ्यपुस्तको पांच हतां पण में साठ पुस्तको वांचेलां. मारा तैयार करेला निबन्धोनी साइक्लोस्टाइल करावी वर्गना विद्यार्थीओने प्रोफेसरे वहेंची हती. रसायणशास्त्रमा पण एवी ज महेनत करी हती. रसायणशास्त्रनो निबन्ध २४ मार्कनो, तो मने मळ्या २४ अने १६ मार्क्स ग्रेइसना. क्लास वच्चे प्रोफेसरे पूछ्युं हतुं : 'मि. ढांकी कोण छे ? क्याथी मेळव्युं आ ज्ञान ?' पछी पूछे, 'आ निबंध हुं मारी पासे राखुं ?' ___तमे भण्या भूस्तरशास्त्र अने रसायणशास्त्र, अने थया पुरातत्त्वविद्. आq केम?' 'मारे पुरातत्त्वविद् ज थर्बु हतुं. भूस्तरशास्त्रमा आ विषय आवशे एवी मारी समज हती. जो के भूस्तरशास्त्र अने रसायणशास्त्र बेउ भणवानी मजा आवी. मने साउन्ड अने विझन बेउ बहु अपील करे छे.' Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० अनुसन्धान-७१ 'तमारी तीक्ष्ण बुद्धि अने सर्वग्राही शक्ति जोतां तो लागे के तमे धारो ए लाईनमा अग्रस्थाने पहोंची शको तो ए जमानामां तो डोक्टर अने एन्जिनियरनी बोलबाला हती. तो ए लाईन केम न लीधी?' 'हुँ रोग, यातना, लोही जोई न शकुं तेथी डोक्टर थवानो विचार ज नहोतो आव्यो. एन्जिनियरिंग पण शुष्क अने नीरस लाग्युं हतुं. 'नानपणथी ज मने योग्य मार्गदर्शन अने सुविधा, सगवड मळ्यां होत तो परिणाम कंई जुदुं ज होत. शरुआतनां वरसोमां तो हुं जोया ज करतो हतो, पिताजी एमनी रीते घाट आपता हता. धीरे धीरे बधुं आकार पाम्युं. पण एमां घणां वरसो पसार थई गयां. ___ 'मने माणसमां अने माणस साथे संकळायेली दरेक सुन्दर वस्तुमां रस छे. संस्कृति अने संस्कृतिना इतिहासमां रस छे. आखी संस्कृतिनो प्रतिशब्द स्थापत्यकलामां पडे छे अने स्थापत्यकला साथे बधी कलाओ अनिवार्य रीते जोडायेली छे. आम, शिल्प अने स्थापत्यनो अभ्यास करतां मूर्तिकला अने वास्तुकला, कालान्तरे पांगरेली एमनी नोखी नोखी शैलीओ, एमना उद्भव, विकास अने विनिपातनो पण अभ्यास थाय छे. ए अभ्यास पर चिन्तन-मनन द्वारा इतिहासना घणा खूटता अंकोडा मेळवी शकाय छे. _ 'मन्दिर अने मस्जिद जेवां भारतनां धार्मिक स्थापत्योने तेमनुं आगवं व्यक्तित्व छे. त्रणेक दायकाथी एनसाइक्लोपीडिया ओफ इन्डियन टेम्पल आर्किटेक्टरनो एक प्रोजेक्ट हाथ पर छे. तेना चार भाग प्रकाशित थई गया छे. 'आपणे त्यां पुरातत्त्वक्षेत्रे केवू काम थयुं छे ?' 'इन्टरनेशनल आर्कियोलोजीनी सरखामणीमां आपणे त्यां एटलुं काम नथी थयु. बहार फरवाथी, बीजानो अभ्यास करवाथी, 'आपणुं बधुं ज सारु छे', ए भ्रमणामांथी हुं बहार आवतो गयो छु. केटलीक बाबतोमां तो आपणे सामान्य छीए. ____ 'आपणे त्यां पुराणकथाओ अने महाकाव्योने साचो इतिहास मानी लीधो छे. जेटलुं धर्म साथे भळ्युं एटलं आपणे त्यां टक्युं छे अने एमां केटलीकवार घणी बधी अतिशयोक्ति थई गई छे. Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ २०१ ___ 'आना लीधे ज शारदाबहेन चीमनभाई एज्युकेशनल रिसर्च सेन्टर तरफथी एक प्रोजेक्ट हाथ पर लीधो छे. जैन धर्मनो इतिहास नवेसरथी लखीने त्रण भागमा प्रकाशित करवानो. ____ 'जैनदर्शनने लगतो "निर्ग्रन्थ" नामनो वार्षिक अङ्क प्रकाशित करवानी योजना छे. जेमां आगम, इतिहास, दर्शन, साहित्य, शिल्प, स्थापत्य, चित्रकला - बधुं आवरी लेवाशे' _ 'आना माटे बीजां शास्त्रोनो अभ्यास अनिवार्य बनी रहेशे ?' 'हा, भारतीय तत्त्वज्ञान अने दर्शनशास्त्रो, वैदिक परम्पराओ, साङ्ख्य, वैशेषिक, बौद्धादि दर्शनशास्त्र, भारतीय धर्मो, प्राचीन साहित्य अने इतिहास ए बधान परिशीलन जोईए ज.' 'भाषाओ, ज्ञान पण ?' 'हा, संस्कृत, पालि, अर्धमागधी, प्राकृत, अपभ्रंश वांचवा-समजवा जेटलुं अने उपरान्त गुजराती, हिन्दी, मराठी, अंग्रेजी अने फ्रेन्च विशेषरूपे जाणुं छु.' 'तमारूं हालतुं जे लेखनकार्य छे ते ऊंडा अभ्यासीओ अने संशोधकोने लक्षमा राखीने थतुं हशे ?' 'हा, समय जतां जेना सन्दर्भ बदलाई जाय, भाषा बदलाई जाय अने मूल्य न रहे तेवू लखाण नथी लखतो.' 'वर्तमाने मारी नजर इतिहास विषय पर छे. समग्र शक्ति अने ध्यान इतिहास ने विशेषे जैनदर्शनना इतिहासने व्यवस्थित रीते शोधवामां अने प्रकाशित करवामां छे. आपणे त्यां घणा गरबड गोटाळा छे, एमांथी आस्थाओ अने कल्पनाना आधारे नहीं पण तथ्योना आधारे इतिहास लखवानो छे.' मधुसूदनभाईना सहकार्यकरो कहे छे के, ‘एमना जेवा प्रखर पण्डित अने प्रकाण्ड विद्वान साथे काम करवू ए सद्भाग्य छे. आटलुं ऊंचुं पद, आटली सफळता, आवी आन्तरराष्ट्रीय ख्याति होवा छतां अहम्भाव नथी, दम्भ नथी, मत्सर नथी, मिजाज नथी. स्वभावे एकदम स्नेहाळ, मृदु, निखालस अने उदार छे. बीजाने सहाय करवा सदाय तत्पर रहे. बीजाना कामनी कदर करी जाहेरमां प्रामाणिकपणे एनो योग्य उल्लेख करीने प्रोत्साहन आपे. कलाको एमना साथे Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ अनुसन्धान-७१ काम चाले पण कदी कंटाळो न आवे. हळवा वार्ताविनोद अने टीखळ-रमूजथी, वातावरण प्रफुल्लित अने जीवन्त राखे.' . देशपरदेशना प्रवासे जाय त्यारे सहकार्यकरो, सगां, स्नेहीजनोने गमती चीजवस्तुओ भेट आपवा तेओ शोधता ज रहे. आपवामां एमने आनन्द आवे छे. कहे छे, 'लेनार- मों स्नेहथी केवू चमकी ऊठे बस ए ज मारी खुशी.' पोतानी प्रसन्नता, आनन्द पण ए वहेंचता ज रहे छे. वरसो पहेला लखायेलां एमनां लखाणो में वांच्या छे. कोईक शिल्प के स्थापत्य जुए तो एमनो प्राण खीली ऊठे, एमनो संवेदनशील जीव एनी सुन्दरतानुं गान गाई ऊठे, चित्रात्मक शैलीथी, सूक्ष्म विगतो आपीने समृद्ध तादृश चित्र खडं करे. क्यां क्यांथी सन्दर्भो आपीने आपणने विस्मित करी दे. ईडरनी रणमल चोकी वर्णवतां लखे छे : ___'आ शिलाओनी पाछळ पृथ्वीना भूस्तरनी बीजी अवस्थाना अबजो वर्ष पुराणा, उत्तुङ्ग अने तोतिंग खडको हारबंध ऊभा रही गया छे. आ पाषाणनी रूपसृष्टि वच्चे थईने चालवाथी अनुभवातो आह्लाद न तो गिरनार के शत्रुञ्जयमां के न तो पावागढ के आबुमां सांपडे छे. 'तद्दन गडगडिया नहीं पण अणियाळा अणघड पथ्थरोना खडकलाथी रची दीधेलां एक पहोळा पण नीचा किल्लानी रांगने छेडे बूरजने स्थाने, ऊंचे रणमल चोकीए आसन मांड्युं छे.' ___आ खडकोनुं अद्भुत लावण्य दर्शावतां ए जापानना चित्रकारो अने उद्यान-कलाधरोनेय याद करे छे, जे खडकोनी शोभानो महिमा गाता थाकता ज नथी अने तेना निजस्वी तथा नैसर्गिक सौन्दर्यने प्रीछी पोतानी कलाकृतिओमां सदाय स्थान आपे छे. मस्जिदना जाळीकामने 'कोई निझामीना जरीभरत जेवी अटपटी पण चोटदार झीणवट' साथे सरखावे छे. गुजरातनी जालसमृद्धिने वर्णवतां नीचे प्रमाणे विधान एक उत्तम कोटिना सर्जक अने कलाकार सिवाय कोण करी शके ? 'लोबाननी ऊंचे सरी जती धूम्रसरो पासे थता पवित्र कुराननी आयातनां उच्चारणोथी प्रगट थतां इस्लामन गाम्भीर्यने जो कोइ योग्य पार्श्वभूमिका Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ २०३ अवलम्बन सांपडतुं होय तो ते छे, आ प्रकारनी जाळीओमांथी गळाईने आवतां सूर्यकिरणोथी रचातुं, चिरन्तन स्थैर्यनी अनुभूति बतावतुं अद्भुत अने निगूढ छायाचित्र. इस्लामना आत्माने मूर्त करवामां, तेने ऊंचुं अर्थगौरव आपवामां, मस्जिदोनां बुलन्द एलानोने के मकबराओनी मूक गमगीनीने स्फुट करवामां आ जाळीओ एक अत्यन्त समर्थ प्रतीक अने वाहन बनी रहे छे.' जेवी रीते स्थापत्यनो तेवी ज रीते विशेष प्रतिभासम्पन्न कलाकारो, विद्वानोनो पण एमणे परिचय कराव्यो छे. प्रशंसानां पुष्पो वेरतां ए टीका करवानुं पण वीसरता नथी. प्रकाशनी साथे छाया- संयोजन निर्भीकताथी करे छे. कोईनी शेहशरममां तणाता नथी. क्यारेक एमनी शैली कटाक्षयुक्त अने तीखी पण थई जाय छे, छतां एमां डंख नथी होतो, पारदर्शक अने स्पष्ट वक्ता तरीकेनो एमनो स्वभाव छतो थाय छे. प्रिय व्यक्तिनी पण ए ठेकडी उडाड्या वगर रही ना शके. डॉ. मोतीचन्द्र माटे एमने स्नेह अने आदर छतां एमना विशे लखी काढे के, 'कोई विद्वान हास्यास्पद परिस्थितिमां मूकाया होय - पोताना लखाण द्वारा के अन्यथा तो डॉक्टरसाहेब तेनुं साराये भारतमा फुलेकुं चडावे'. ___ मधुसूदनभाईनी प्रचण्ड साधना अने विरल सिद्धिनी वातो एक बेठकमां तो पूरी थाय ज नहीं. एक मुलाकात अने बीजी मुलाकात वच्चेना दिवसो दरमियान रोजिंदा कामनी मारी घटमाळ तो चालु ज हती. केटलाय लोकोने मळवाच्. एमनी वातो साम्भळवानी. छतां ए प्रत्यक्ष वर्तमानथी दूर नीकळी नजर मधुसूदनभाईनी अविरत विद्यासाधना पर ठरती अने एक प्रश्न मनमां बूंटातो. 'एमना गुरु कोण ? पुरातत्त्वक्षेत्रे एमणे एकलव्यनी जेम पुरुषार्थथी अग्रस्थान मेळव्युं छे, पण एमना जीवनपथदर्शक कोई आध्यात्मिक गुरु खरा ?' — में पूछ्युं तो कहे, 'ना. मारा जीवन समग्र पर छवाई गया होय, जेमनामां सम्पूर्ण श्रद्धा होय एवा एक ज गुरु मने नथी मळ्या. हा पृथक् पृथक् मळ्या छे. शाळाना दिवसो 'दरम्यान श्री मणिभाई वोरा तथा स्व. श्री रतिलाल छायानो प्रभाव चारित्रघडतर अने उच्च संस्कारो तरफ अभिमुख करवामां रह्यो छे. पोरबन्दरना महाराणा श्री नटवरसिंहजीनी कला-प्रतिभानो, एमना उदात्त अभिजात चारित्र्यनो पण प्रभाव रह्यो छे. Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ अनुसन्धान-७१ 'परन्तु अमुक संजोगोमां मारी नकारात्मक लागणीओने नाबूद करवामां, संयममा राखवामां सहायभूत थाय एवा कोई नथी मळ्या. 'जो के भगवान महावीरे का छे के, तुं ज तारो मित्र छे. पण क्यारेक एवी हताशानी पळो आवी छे के त्यारे मुरब्बी मित्रनी खोट साली छे.' ‘ए हताशामांथी बहार आववाना प्रयत्नमां कोई सर्जन कर्यु छ ?' 'ए समये तो समग्र चेतना ठींगराई जाय. बधुं मूकबधिर थई जाय.' पछी सहेज अटकीने घेरा उदास स्वरे बोल्या. 'हुं न्युरोसीसनो भोग बन्यो हतो. बायोकेमिक दवाओ लईने हुं साजो थयो छु. अत्यारे पण कोईक दुःखद वात, शोकस्थानथी बचतो रहुं छं.' _ 'त्यारे जातमांथीय भरोसो ऊठी गयो हतो ?' 'हा, हुं कटु अनुभवोथी आखो ने आखो हचमची गयो हतो. जीवनमांथी रस ऊडी गयो हतो. अत्यारे लागे छे ए मारुं अज्ञान हतुं, मूर्खामी हती, पण अस्तित्वमां जे तड पडी ए तो पडी ज.' 'ए सिवाय ए समये बीजुं शुं थाय ?' 'मूळे हुं अन्तर्मुख प्रकृतिनो छु अने ज्यारे ज्यारे जीवनमा हताशा आवी छे, आ बाह्य भौतिक जगत परथी मन ऊठी गयुं होय, त्यारे कलाने समजवामां ऊंडो ऊतरतो गयो छु. मारी कलाना मार्गे अलायदी मानसिक दुनिया रची छे. आने पलायनवृत्ति गणी शकाय.' ___ 'घणा उत्तम कलाकारो हताशामांथी ऊगरी नथी शकता अने नष्ट थइ जाय छे. तमने कलाए ऊर्ध्वगामी राहत आपी, तमारा माटे संजीवनी बनी एने प्रारब्ध गणी शकाय ? तमे नसीबमां मानो छो ?' ____ 'कोई सुपर कोन्सियस, चैतन्य तत्त्व होवानी शक्यता छे जे आपणुं भावि नियन्त्रणमा राखतुं होय, एटले ज कदाच लाचारी अनुभववी पडे छे.' ___ 'नंगो किंमती पथ्थरोनुं ज्ञान, आटलुं तलस्पर्शी ज्ञान केवी रीते शक्य बन्यु ?' मधुसूदनभाईने रत्नोनी घणी सारी परख छे. १९७४नी सालमां मारां पत्नीने मुम्बईमां मेजर ओपरेशन कराव्युं, त्यारे एमने हीरानी वीटी आपवानी थई. झवेरी बजारमा गयो. हीरा जोया, Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ २०५ हीरानी परख अंगे जिज्ञासा जागी. एनुं शास्त्रीय ज्ञान मेळववा पुस्तको वांच्या, झवेरीओ साथे चर्चा करी, एमना संग्रहो जोया, भूस्तरशास्त्रनुं मारुं ज्ञान अहीं खप लाग्यु. में जातजातना केटलाय नङ्गो खरीद्या छे. बीजाने भेट पण आप्यां छे.' 'तमारो पोतानो संग्रह खरो ?' 'हा, छे ने ।' कहीने एमनां पत्नी गीतांजलिबहेन अवनवां रंग अने कद अने पासावाळा नंगो लई आव्यां. गीतांजलिबहेने सूर्यना तेजमां उपलादि नंगो बताव्या. दरेकनी किम्मत कही, विशेषता समजावी. _ 'तमने रत्नोमां रस छे ते रत्नजडित आभूषणोमां, एना घाटमां रस खरो ?' 'खरो ने. जडतरना दागीनानो विशेष अभ्यास कर्यो छे. मोतीमां पण रस छे. ए बधा विशे एटली माहिती एकठी करी छे के एक पुस्तक या लेखमाळा लखवा धारूं छं.' _ 'तमारा बीजा रसनी सरखामणीमां आ कीमती नंगोनो रस स्थूळ कहेवाय ?' ___'ना. जराय नहीं. रत्नोनी खूबीओ अने तेज पारखतां मने विशेष आनन्दनी अनुभूति थाय छे. भगवान महावीरनुं समवसरण रत्नजडित हतुं तेम विरागवत्सल आगमो कल्पे छे. रत्नोने भारतीय संस्कृतिमां शुभ मान्यां छे. दरेक रत्ननी अमुक खास प्रकारना गुण अने असर मनाई छे. आथी रत्नमां कंईक विशेष छे एवं मने पहेलेथी लागतुं हतुं तेथी ज ऊंडाणथी अभ्यास कर्यो.' . तो आ रत्नोनुं मूल्य पैसानी दृष्टिले तमारा माटे नथी ?' । 'ना. पैसानो कदी मने मोह नथी थयो. इच्छा नथी जागी. खूब नानो हतो त्यारथी ज्ञाने ज मने आकर्यो छे. मारा पिताजीओ तो मारुं नाम सरस्वतीचन्द्र राख्युं हतुं. स्कूल सुधी ओ नाम रह्यं. पण हुं मांदो रहेतो हतो तेथी तेथी जोषीओ सलाह आपी के राशि पर नाम पाडो अने मारुं नाम मधुसूदन पड्युं.' 'तोय तमे सरस्वतीना ज भक्त रह्या.' Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ अनुसन्धान-७१ 'हा, मने सरस्वतीनी साधना करवाना ज सङ्केत मळता हता. नानो हतो ने मेळामां जाउं, बे पैसा मूकीने सुरती उपाडवानी होय तो हुं उपाईं त्यारे मारा भागे पेन, पेन्सिल, स्लेट, आंकनी चोपडी अq कंईक आवे. कदी रमकडं न आवे. _ 'नानो हतो त्यारे रविवर्माना दोरेला देवी सरस्वतीना चित्र आगळ ज प्रार्थना करतो.' 'तमने प्रार्थनामां श्रद्धा खरी ?' 'हा, इन्टर सायन्समां पास थयेलानी यादीमां मारो नम्बर नहीं. घरमां बधां उदास, पण हुं तो श्रद्धाथी प्रार्थना करतो रह्यो ने बीजा दिवसे तार आव्यो के ४८% मार्से हुं पास हतो. ___ 'हाइस्कूलमां पण एक वार नपास जाहेर थयो हतो त्यारे बोधिसत्त्वनी प्रार्थना करीने निशाळमां गयो त्यारे मणिभाईसाहेबना सूचनथी उत्तरपत्र खोलाव्यु ने सरवाळो चेक कराव्यो तो पासिंग मार्क्स हता.' 'तमने स्वयंस्फूरणा थाय छे ?' 'हा, अभ्यास शरु करुं ने तारतम्य पर पहोंचुं त्यारे वच्चे वच्चे क्यारेक थाय. पण मारो अभिगम सम्पूर्णपणे एक वैज्ञानिकनो रह्यो छे. मारा विशे कहेवायुं छे के एक डिटेक्टिवनी जेम हुं बधी बारीकाईथी रजेरज माहिती अकत्र करुं छु, निरीक्षण करीने प्रमाणो तारq छु ने चिन्तन करीने वकीलनी जेम दलील करुं छु. रजूआत करूं छु. ___ 'आजकाल जोईओ तेवू काम नथी थतुं. वामणा माणसोनी सङ्कुचितता आमां जवाबदार छे. सारुं थयु के हुं गुजरात बहार गयो. अमेरिकन इन्स्टिट्यूटने लीधे विपुल साधनसामग्री, स्वतन्त्रता ने सारी टीम मळी.' ___ अमेरिकन इन्स्टिट्यूट ऑफ इन्डिया स्टडीझे अमने अवोर्ड आप्यो छे. रौप्य तासक पर लख्युं छे : For the contribution to the world of knowledge. ज्ञान खातर ज्ञान से ज अमनुं जीवनध्येय रह्यं छे. १९९४मां केम्पबेल मेमोरियल गोल्ड मेडल मळ्यो छे. प्राकृत भारतीओ अवोर्ड आपीने बहुमान कर्यु छे. Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ २०७ जो के अमना आ मानसन्माननी विगतो अमना मोंओ मने सांभळवा मळी न हती. स्वप्रसिद्धिनी वात करवी अमने गमती नथी, तेथी ज कदाच ओमनी आ विस्तृत गौरवप्रद कार्यसिद्धिनी खास नोंध लेवाई नथी. कोई परदेशीओ मधुसूदनभाईने पूछ्युं हतुं, 'तमारा देशमां कयो धर्म छे ?' एमणे का, 'अमारा देशमां भौतिकवाद धर्म छे, चार्वाक देव छे, दम्भ देवी छे. 'आजकाल शेतानी तीव्र लालसा लोकोनां मन पर सवार छे, एटले ज लोको सुखी नथी.' 'तमे साम्प्रत परिस्थितिथी आटला बधा निराश छो?' . 'हा, आज आपणी भारतीय परम्परा नष्ट थती जाय छे. बीजाने देखाडवाना मोहमां कलानुं गौरव अने लालित्य भूलातां जाय छे. आपणे आपणुं सत्त्व जाणतां नथी, सांस्कृतिक सभानता ओसरती जाय छे. 'बहारनी संस्कृतिना सम्पर्कनी असररूपे दरेक क्षेत्रे गतिनो वेग वधवानी साथे परिवर्तन पण झडपी आव्युं छे. बधुं तूटतुं जाय छे, तोडवू सहेलुं छे पण ओना स्थाने आपणे शुं पाम्या ? 'आधुनिक संगीत, नृत्य, वेशभूषा अटलां बदलायां छे के अमां कलाना मूळभूत अंशो, लय अने मधुरता पण नथी जळवायां. 'आ नवी ढबनां पोषाकमां स्त्री स्त्री नथी लागती, पुरुष पुरुष नथी लागतो.' 'आधुनिक जमानामां उपयोगिता अने सगवड, Functionalityने प्राधान्य अपाय छे ने !' में कडं - 'छतांय आपणी गुजराती ढबथी साडी पहेरवानी रीत, किनार पालव अने स्त्री ज्यारे माथे ओढे त्यारे केवी गरिमापूत लागे. तरुणीनुं लावण्य, पत्नीनी मर्यादा, गृहिणी गौरव, मानो महिमा - बधुंय प्रदर्शित थाय. अत्यारे तो पोशाक बदलायो, साथे चाल बदलाई, ओ नाजुकाई, सौन्दर्य अदृश्य थई गयुं.' मधुसूदनभाईनो आत्मा भारतीय छे. भारतीय संस्कार, प्रणालि, रीतरिवाजना प्रशंसक छे. कहे, 'आतिथ्यसत्कार केवी ऊंची भावना छे ! तद्दन Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ अनुसन्धान-७१ अजाण्या माणसने हेतथी बोलावो, भावथी जमाडो, केवो अनुपम भाव ! परदेशमा काम अने वस्तुनां मूल छे, आपणे त्यां माणसनां.' .. मधुसूदनभाईने कहेवतो प्रिय छे. वात वातमां कहेवत बोले. कहे, 'कहेवतो तो भाषानुं बळ छे, प्रसङ्गे प्रसङ्गने अनुरूप केटली कहेवतो छे. शब्दोनी पसन्दगी माटे ओ खूब चोक्कस छे.' कहे, 'अकबीजी भाषामाथी योग्य शब्दोर्नु आदानप्रदान थर्बु ज जोई, तो ज शब्दभंडोळ वधे. राष्ट्रभाषामां देशनी बधी बोलीओना शब्दो आववा जाई. हिन्दी संस्कृतमय नहीं पण हिन्दुस्तानी होवी जोईओ.' अमने लयभङ्ग के बेडोळता बहु ज चे छे. कहे, 'जेम गेरकायदेसर बांधकाम तोडी पडाय छे अम आडेधडे खेंचे राखेलां वरवां बांधकाम तोडी पाडवां जोईओ. 'सौन्दर्यनां सनातन घटको ना भूलावा जोईजे. प्राचीन वस्तुना आकार अने वस्तु जे सुन्दर होय ओ सचवावां जोईओ.' ___पण सौन्दर्यनी व्याख्या, ख्याल, देशे देशे व्यक्तिो व्यक्तिले जुदी होई शके ने !' 'हा. ओ भिन्नता तो रहेवानी ज, छतांय आधुनिको हवे उपयोगितानी साथे साथे प्राचीन वस्तुना सुन्दर आकार अने आकृतिओ अपनावे छे.' मधुसूदनभाईने जूना दिवसोनी अकेओक सारी वात याद छे. कहे, 'ओ जमानानुं दाणादार घी जेनो दीवो बळे अने सुगन्ध आवे... केवू मङ्गल वातावरण रचाय ! माटीना वासणमां घीना तापे थती रसोईनी मीठाश हवे मात्र याद ज करवानी.' जूनां मोतीकाम अने भरतकाम विशे एमणे पुस्तक लख्युं छे. मधुसूदनभाईनी ज्ञानसाधनामां पुस्तकोना तो ढग खडकाय छे. कहे, 'बधां संघरुं तो तो घरमां चालवानी जग्या ज न रहे.' पुस्तकोनो उपयोग थई जाय पछी अने संघरवानो लोभ नथी राखता. रुपियामां गणो तो जेनी किम्मत हजारो-लाखो रुपिया थाय ने ज्ञाननी दृष्टिले ते अलभ्य गणाय अवां मूल्यवान पुस्तको अमेरिकन इन्स्टिट्यूट ऑफ इन्डियन Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ २०९ स्टडीझ, एल.डी.इन्स्टिट्यूट ऑफ इन्डोलोजी अने शारदाबहेन चीमनभाई एज्युकेशनल रिसर्च सेन्टरने भेट आपी दीधां छे. अमनां गोल्ड मेडलो अने मान-सन्माननां मूल्यवान प्रतीको आ विद्यासंस्थाने सोंपी दीधां छे. 'अपरिग्रहव्रतने अनुसरो छो ?' 'मोह छूटतो जाय छे, अपरिग्रहनी भावना दिलने भावी छे.' आq कहेतां ओमनुं मों उज्ज्वळ थई ऊठ्युं. रुंवेरुवे सौन्दर्य अने कलाना मर्मी मधुसूदनभाईजें हैयुं साधुनुं छे. तेथी ज तेमनां वाणी, वर्तन अने विचारमाथी आटलो आन्तरवैभव छलकाय छे. ('सद्गुणदर्शन' ए लेखिकाना पुस्तकमांथी साभार) 'शाश्वत' जैन उपाश्रय सामे, ओपेरा, पालडी, अमदावाद-७. Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० अनुसन्धान-७१ में जेवा जोया, जेवा जाण्या ___ - उपा. भुवनचन्द्र प्रखर स्मृति, सूक्ष्मेक्षिका, तीक्ष्ण अने तथ्यपरक अभिगम, अभ्यासर्नु विशाळ फलक, अकथी अधिक विद्याशाखाओ पर प्रभुत्व, विविध भाषाओनुं ऊंडुं ज्ञान - आवी अनेक विशेषताओनुं सङ्गमस्थान एटले श्री मधुसूदन ढांकी - ढांकीसाहेब. मानवमस्तिष्कनी क्रियाशक्तिनुं आश्चर्य पमाडे अq उदाहरण • एटले ढांकीसाहेब. १५-२० ओपरेशनोमांथी पसार थयेल जीर्णशीर्ण शरीरमां एक प्रखर प्रतिभा जाज्वल्यमान थईने निवास करती हती. हवे ओ प्रतिभा ओ निवासस्थान छोडी गई छे. अभिभूत करी दे तेवू व्यक्तित्व हवे भस्मीभूत थयुं छे. भारतनुं विद्याजगत ढांकीसाहेब जेवा विद्यापुरुषो थकी उजळु हतुं, धन्य बन्युं हतुं. गई पेढीना जाजरमान विद्वानोनी श्रेणीनी आ प्रतिभाओ आन्तरराष्ट्रीय आदर प्राप्त कर्यो हतो. आवी - आ प्रकारनी - प्रतिभा फरी जोवा मळे के न पण मळे. ढांकीसाहेबने छेल्लां वर्षोमां ज जोया छे अने मांदगीमां ज जोया छे. बेत्रण वार अमना निवासस्थाने अने बे-चार वार फोन पर मळवा- थयुं छे. पथारीवश होवा छतां वार्तालापमां तो स्वस्थ-सशक्त व्यक्तिनो रणको ज संभळातो. वातचीतनो विषय इतिहास, स्थापत्य, ग्रन्थ, ग्रन्थकार, पुरातत्त्व के भाषा जेवो ज होय; ढांकीसाहेब जे-ते मुद्दाने स्पर्शता सन्दर्भो एक पछी एक उपस्थित करता जाय - नाम-ठाम अने आनुषङ्गिक मुद्दा मूकता जाय अने हुं अहोभावथी सांभळतो रहुं. सारी ओवी लंबायेली मांदगीमां पण जो तेमनी स्मृति आटली सतेज-सतर्क होय, तो जीवनना मध्याह्नकाळे ओ मेधा केवी तो प्रखरप्रचण्ड रही हशे ? प्रत्येक मिलनवेळाओ, वातचीतनी समान्तरे, मारा मनमां आ विचार ऊठतो में अनुभव्यो छे. __ प्रत्येक विद्याशाखाना संशोधकने स्मृतिनी सहाय जोई ज; पुरातत्त्व के इतिहासना अन्वेषक माटे स्मृति एक हथियार लेखे 'हाथवगी' ज होवी घटे. ढांकीसाहेबनी स्मृति विस्मयजनक हती. वर्षों पूर्वे वांचेली/नोंधेली नानकडी विगत, ते पण जुदा ज क्षेत्रनी, अत्यारे हाथ चडेल माहिती साथे तेना अंकोडा Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ २११ जोडी, दूर दूरनी कोई घटनानो आकार ऊपसाववो होय त्यारे स्मृति चावीरूप भाग भजवे. ढांकीसाहेबनी स्मृति 'प्रत्युपस्थित' हती; काम पड्ये हाजर थई जती. नूतन प्राप्त विषय साथे सम्बन्ध धरावती विगतो, स्मृतिना भण्डारमाथी एक पछी एक उपस्थित करता ढांकीसाहेबने जोवा मे एक ल्हावो हतो. इतिहास - पुरातत्त्व - शिल्प ओ ढांकीसाहेबनां मुख्य कार्यक्षेत्र हतां. जैन इतिहास अने जैन स्थापत्यनो तेमनो अभ्यास विशिष्ट हतो. साहित्य पण तेमना रसनो विषय हतो. मांदगीना बिछानेथी पण तेओ एक महाकाय ग्रन्थ तैयार करी रह्या हता, जे पूर्ण थवाना आरे अने प्रकाशित थवाना किनारे हतो, ते प्रगट थाय ते पहेला तेमणे विदाय लीधी. जैन परम्पराना स्तोत्रसाहित्यना विविध तबक्काओनो जे सर्वाङ्गीण ग्रन्थ 'निर्ग्रन्थस्तोत्र मणिमञ्जूषा' नामे हवे प्रकाश्य छे. श्री जितेन्द्र बी. शाह अना सहसम्पादक छे. तेओ ओ ग्रन्थने शीघ्र प्रकाशमां लावशे ओवी अपेक्षा छे. ___ ढांकीसाहेबनी प्रतिभा सर्वदिग्गामिनी-अप्रतिहतगामिनी हती. वेधक विश्लेषण द्वारा तथ्यातथ्यनो निर्णय करवामां तेमनी सूक्ष्मग्राही दृष्टि केवी रीते काम करती तेनी साक्षी ढांकीसाहेबना सर्जनना एक एक पृष्ठ पर अङ्कित छे. 'तटस्थ, शुद्ध, तथ्यपरक अन्वेषक दृष्टि' - ओ तो तेमना व्यक्तित्वनो ज एक अंश बनी गयो हतो. कोई विधान- खण्डन करवानुं आवे त्यारे तेमनी कलम उग्र बनती, पण उद्दण्ड तो क्यारेय नहि. ___ग्रन्थगत उल्लेखो, शिलालेखो, ताम्रपत्रो, प्रतिमालेखो, सिक्का, शिल्प वगेरेना सन्दर्भो, कथा, रास, शिल्पो जेवा स्रोतोमांथी जडेली झीणी झीणी विगतोने जोडीने, सुग्रथित-ससूत्र निरूपण द्वारा निष्कर्ष सुधी पहोंचती तेमनी शैली विद्वानोने पण मुग्ध करनारी हती. तेमना शोधपत्रोमां पादनोंधो - Foot Notes प्रचुर प्रमाणमा रहेती. संशोधनकार्य करतां हाथ चडेल अनेक आनुषङ्गिक नोंधोथी आ टिप्पणो ठसोठस भरेलां रहेतां. आ सामग्री भविष्यना संशोधकने खप लागशे से माटे आवो आयास तेमणे करवानो राख्यो हतो. आ मूर्धन्य विद्याव्यासगी विद्वानना बे ग्रन्थोनी समीक्षा लखवानी तक मने मळेली ओ वात आनन्द आपी जाय छे. ढांकीसाहेब लिखित बे महाकाय ग्रन्थो : 'निर्ग्रन्थ जैतिहासिक लेख समुच्चय' खण्ड १-२, तथा 'Studies in Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ अनुसन्धान-७१ Nirgranth Art and Literature' - आ बे पुस्तकोनी 'अनुसन्धान' शोधपत्रिका माटे समीक्षा लखवानुं काम आ. श्रीशीलचन्द्रसूरिजीओ मने सोंप्यु. मे निमित्ते ढांकीसाहेबना कार्यने नजीकथी वांचवा-तपासवानो अवसर मळ्यो. आ वाचन वखते जाणे इतिहासना अगोचर प्रदेशमां पहोंची गया होईओ अवी लागणी में अनुभवी. आ अनुभूतिने समीक्षाना शीर्षकोमा में आ रीते व्यक्त करी हती : 'इतिहासना अज्ञात प्रदेशोमां स्वैरविहार' अने 'निर्ग्रन्थ परम्पराना अतीतनी शोधनो परिपाक'. यथामति-यथाशक्ति लखायेला ओ समीक्षा लेखो वांचीने ढांकीसाहेबे राजीपो व्यक्त को अने ऊमेयूँ : 'तमारी भाषा मने गमी छे. बह ओछा साधुओ आवी शैलीमा लखे छे.' आजीवन विद्याव्यासङ्गने वरेला ओ विद्वद्वरेण्यना मुखे आ उद्गार सांभळी एक जुदो ज सन्तोष में अनुभव्यो. ज्यारे ज्यारे फोन पर वात थती त्यारे त्यारे तेमनो एक आग्रह रहेतो : 'तमे अमदावाद आवो ! ढांकीसाहेबना ओ प्रेमाळ आग्रहने हुं सफळ करी शक्यो नहि ओनो रंज हमेशां रहेशे. सामी बाजुओ, सन्निष्ठ विद्योपासनाना साधक एक असाधारण प्रतिभाना दर्शन-समागमनुं सद्भाग्य साम्पड्युं हतुं अनी सुखद स्मृति मनने एक तृप्ति पण आपती ज रहेशे. ___ ढांकीसाहेबनी कक्षानुं शोधकार्य हवे थशे खरुं ? संशोधन तो थतुं ज रहेशे, पण संशोधनने पोतानी जातथी ये आगळ मूके मेवा - ढांकीसाहेब जेवा - संशोधको मळशे? न जाने. जैन देरासर नानी खाखर-३७०४३५, जि. कच्छ (गुजरात) Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ २१३ ढांकीसाहेब : एक विरल व्यक्तित्व - गणि सुयशचन्द्रविजय, मुनि सुजसचन्द्रविजय ढांकीसाहेब ! एक विद्यासङ्गी व्यक्तित्व ! अमे आम तो ४-५ वार ज मळ्या, पण तेमनी विद्याप्रीतिने जोइने मन आश्चर्यचकित थई गयु. मोटी उमरे, नादुरस्त तबियतमां पण कलाको सुधी अमे तेमने बोलता जोया छे. अमारो सौ प्रथम परिचय गिरनार तीर्थना नन्दीश्वर द्वीपना लेखनी वाचना अंगे थयो हतो. वात एम हती के ढांकीसाहेबे सम्पादित करेली लेखनी वाचनामां अमने कोई प्रश्न थतां ते वखते गिरनारजी (जूनागढ) बिराजमान मुनि रत्नकीर्तिविजयजीनो सम्पर्क करी तेमने ते लेखनी फरी वाचना लेवा अमे जणाव्यु. मुनिश्रीए तुरन्त ज ते लेख उतारी अमने मोकली आप्यो. मुनिश्रीनी वाचना अमारा पाठ साथे मेळवता ते महद्अंशे समान हती. हवे आ लेख- प्रकाशन करता पूर्वे ढांकीसाहेबने पूछq एवी इच्छाथी अमे तेमने अमदावादमां मळ्या. बन्ने वाचना अने तेना पाठभेदो तेमने बताड्या. अमने एम के तेओ कशो गोळ-गोळ उत्तर आपशे. पण तेमनी निखालसता जोई अमे दिग्मूढ थई गया ! तेमणे कर्वा "महाराजश्री, मारी वाचना करतां तमारी वाचना वधु सुन्दर छे. तमे ते रीते तेनुं प्रकाशन करो." विद्वत्तानी साथे आवी नम्रता प्रायः घणी ओछी व्यक्तिमां जोवा मळे. ____ आवी ज रीते बीजी वार अमारु मळवा- राणकपुर-लेख-सङ्ग्रहनी प्रस्तावना माटे थयु. तेमणे आणन्दजी कल्याणजी पेढी तरफथी राणकपुरना परिचय माटे एक पुस्तक लख्युं हतुं. जेमां तीर्थना इतिहासने खूब ज झीणवटपूर्वक आलेख्यो हतो. अमारे आ इतिहास राणकपुर-तीर्थ-लेखसङ्ग्रहमां प्रस्तावना तरीके लेवो हतो. ढांकीसाहेबने लेखसङ्ग्रह अंगे वात करतां तुरन्त ज तेमणे पोताना पुस्तकनुं नाम आपी कां के "आ पुस्तकमां में घणी सामग्री एकठी करी राणकपुरनो परिचय आप्यो छे. तमे एमांनी कोई पण सामग्री विना संकोचे वापरी शकशो. तेने माटे मने पूछवानी जरूर नथी." तेमनी आवी सरळता जोई विस्मित थई जवायु. आपणी नानी पण वस्तु वापरवा आपतां पहेलां चोखवट करी लेवानी वृत्तिवाळा आपणे क्यारे आवा उदार बनीशुं ? एवो सवाल पण पछी थतो रह्यो. Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ अनुसन्धान- ७१ अमने ख्याल छे त्यां सुधी तेओ पोरबन्दरना स्थानकवासी जैन परिवारमांथी हता. आपणा जैन समाज माटे तेओ गौरवरूप हता. पण घणा ओछा लोकोने ढांकीसाहेबनी विद्वत्तानो ख्याल हशे . मूळ तेओ कृषिक्षेत्रना विद्वान हता. तेमणे केरीनी केटलीय नवी जातो शोधी काढी हती. पण पुरातत्त्वनी प्रीतिए तेमने पुरातत्त्वविद् बनावी दीधा. प्राचीन स्थापत्योने, जीर्ण-शीर्ण थई गयेलां मन्दिरोने, साव विसराई गयेली प्राचीन नगरीओने तेमणे घणी महेनत करी फंफोसी अने तेनी ऐतिहासिक विगतो समाजनी सामे रजू करी. एक वार तेमणे आ अंगे थयेली वातमां कहां हतुं के "आपणे जिनालयोना जीर्णोद्धार करी करीने जैन संस्कृतिनी प्राचीनताना एक पण पुरावा रहेवा दीधा नथी. एटले सुधी के जीर्णोद्धार करतां निकळेलां शिल्पो, लेखो तथा खण्डित प्रतिमाओ पण भण्डारी दई प्राचीनताना अवशेषोने नष्ट करवामां ज आपणे सङ्घनो उत्कर्ष गण्यो छे." एक अजोड पुरातत्त्वविद्, प्रखर शिल्पशास्त्री, उत्कट सङ्गीतप्रेमी, आवा तो घणां विशेषणो एमना माटे वापरी शकाय. विद्यारुचिने कारणे तेमनो भाषाबोध पण संस्कृत-अंग्रेजी पूरतो सीमित न हतो. उलटुं प्राकृत, मागधी, अपभ्रंश, फ्रेंच जेवी भाषाओमां पण तेओ वांचता, संशोधनो करता. उपरोक्त विषयो सिवाय साहित्यमां पण तेमनी लेखनी गजबनी. एक पछी एक प्रसंगो सांकळवानी कळा जुओ तो कोई इतिहासकार आवुं लखी शके तेवुं कल्पनामां पण न आवे. ढांकीसाहेबना पुस्तक 'शनिमेखला 'नी कथा 'ताम्रशासन' वांचशो तो ज अमारी वातमां विश्वास बेसशे रुद्रमाळ प्रासादनी संशोधक टीमना संशोधनकार्यथी शरु थती कथानी क्षणे क्षण रोमांचक छे. तेमां य अचानक प्रासादना अवशेषोनुं सचेतन थवुं पुनः प्रासाद रचावो - राणी मीनळदेवीनं दर्शन करवा आववं पुरातत्त्वविदोनी मूंझवण-मीनळदेवीनं प्रासादनुं पुनः पूर्ववत् ध्वस्त थवुं, आवी घटनाओ कोई सस्पेन्स (थ्रीलर) कथानी जेम वाचकने सखत पकडी राखे तेवी छे. प्रस्थान - छेल्ली अमारी मुलाकात अमारा अमदावादना चोमासामां, वस्तुपाल महामन्त्रीनी एक अप्रगट कृतिने बनाडवा थई हती. तेओए ते कृति जोई पू. आ. श्रीविजयसोमचन्द्रसूरि म.सा. ने कहां के "महाराजश्री, आ कृतिनुं सुन्दर प्रकाशन Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ २१५ करावशो. वस्तुपालना समयनी कृति होइ खूब महत्वपूर्ण दस्तावेज गणाय. क्यांय पण मूंझवण थाय तो पूछावजो. हुं मारा बनता प्रयत्ने जवाब मोकलावीश." आ बधी घटनाओ याद करीए त्यारे तेमना सौजन्य पर खरेखर मान उपजे. आजे जैन समाजनी आवी एक बहुमुखी प्रतिभा आपणी वच्चे रही नथी. बीजुं कशुं नहीं पण तेमनां कार्योनी समाज जो योग्य मूलवणी करे तो तेमने आपेली श्रद्धांजली सार्थक गणाशे. C/o. निकेश सङ्घवी कायस्थ महोल्लो, गोपीपुरा-सूरत Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ अनुसन्धान-७१ बहुमुखी प्रतिभासम्पन्न विद्वान : ढांकीसाहेब 100 111५॥ 100 - 07 : । ~~ .. ...सनल टने मधुसूदन ढांकीने सौ प्रथम जोया ई.स. १९४६मां, मारी किशोरावस्थामां. त्यारे तेओ राजकोटमां पुरातत्त्व खाताना अधीक्षक हता. जयमल्लभाई परमार पासे बेसवा आवे. तेमनी वातोमां तो मने खास खबर न पडे, पण कोई मूर्तिनुं वर्णन तेओ पूरा हावभाव साथे करे, एटले ते मूर्ति जाणे साक्षात् सन्मुख होय अवो भास थाय. मधुसूदनभाईना हाथना हावभाव अने अङ्गभङ्गी जोवी गमे. किशोरावस्था होवाथी वधारे समज न पडे, पण आ व्यक्ति प्रतिमा साथे अकाकार थई गई होवानुं अनुभवी शकाय. अमारे घरे सरस बगीचो हतो. क्यारेक जयमल्लभाई अने मधुसूदनभाई बगीचामां फरे. बन्ने वनस्पतिशास्त्रना जाणकार. बन्ने वच्चे क्रोटन, कोलियस, केकटस, अरेलिया, डायफनबेकीआ, पाम, शतावरी इत्यादि फूल-झाडोवेलीओनी रसाळ चर्चा चाले ते नजीक ऊभा ऊभा सांभळ. मारामां पण आ रीते अजाणपणे बगीचा प्रत्येनो अनुराग केळवातो हतो. अर्धी सदी पहेलानु मधुसूदनभाईनु आ चित्र मनश्चक्षु समक्ष आजे पण अटलुं ज ताजुं छे. ___मधुसूदनभाई मूळ पोरबन्दरना. पोरबन्दरना शिक्षणक्षेत्रना तपस्वी मणिभाई वोराना प्रयासोथी १९५३मां 'पुरातत्व संशोधन मण्डळ'नी शरुआत थयेली. मणिभाई वोरा, हरजीवनभाई पण्डित, वरजीवनदास वेलजी ढांकी, मिस्त्री पुरुषोत्तमभाई दाभी, देवजीभाई वाजा, रमाकान्त महेता, मधुसूदन ढांकी, त्रिभोवनदास शाह अने नाथालाल रैयारेला - ओ नव व्यक्तिओ आ मण्डळना स्थापक सभ्यो. समयनी साथे पाछळथी नरोत्तम पलाण, मोहनपुरी गोस्वामी, कृष्णलाल महेता, रसिकलाल महेता, वशराम खोडियार वगेरे तेमां सामेल थता गया. सौराष्ट्रनां अनेक मन्दिरो, वाव, मूर्तिओ, डुंगरगाळीओ वगेरेने प्रकाशमां आणवानुं श्रेय पुरातत्त्व संशोधन मण्डळने जाय छे. मधुसूदनभाई आ वातावरणमां प्रेरणाना पीयूष पाम्या अने समय जतां भारतख्यात पुरातत्त्वविद् बन्या. त्रण दायका सुधी मण्डळनी प्रवृत्ति नोंधपात्र रही, काळक्रमे समय तथा Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ २१७ संजोगो प्रमाणे ते मर्यादित बनी गई. मधुसूदनभाई पाछला लगभग दोढ दायकाथी पुरातत्त्व संशोधन मण्डळना प्रमुख हता. 'ऊर्मि नवरचना', 'कुमार', 'स्वाध्याय' जेवां सामयिकोमा मण्डळना विभिन्न सभ्योना लेखो प्रकाशित थता. गुजरातनुं पारावार पुरातत्त्व, लोकजीवन, इतिहास, सन्तसाहित्य आ रीते मुद्रित स्वरूपे सुलभ बनतुं रह्यं. ई.स. १९५७मां सौराष्ट्र राज्यना पुरातत्त्व खाताना सहकारथी मण्डळे कच्छ-सौराष्ट्रना भरतगूंथण तथा मोतीकामना नमूनाओ, प्रदर्शन पोरबन्दरनी रामबा स्त्रीविकासगृह संस्थामां योजेलं. मधुसूदनभाई त्यारे सम्भवतः जूनागढ म्युझियमना क्युरेटर हता. पोरबन्दर युवराज उदयभाणसिंहजीनी साथे जयमल्लभाई उपरोक्त प्रदर्शन जोवा गयेला. पोरबन्दरना तत्कालीन धारासभ्य मथुरादास भूप्ताले मण्डळना सभ्यो साथे जयमल्लभाईनो परिचय कराव्यो. आ सन्दर्भमां तेओ लखे छे : '१९५७मां पोरबन्दरमा मणिभाई वोरा अने ओमना संशोधन मण्डळे लोकभरतनुं प्रदर्शन योजेलं, ते जोतां तो हुँ हेरत पामी गयेलो. लोकभरतना अमां गृहसुशोभन, पशुशणगार अने वस्त्रालङ्कारथी मांडीने हाथीनी झूलो सुद्धां अमां जोई, भरतना तमाम प्रकारोनी, तमाम कामोनी विशिष्टता साथे अमां जोतां थयुं के आटली कलासमृद्धिवाळी प्रजा कदी दीन के हीन होई शके नहीं. मात्र से प्रजाओ अनु आत्मभान ज खोयुं छे. मणिभाई वोराना शिष्य मधुसूदन ढांकी तमाम कलाना मर्मज्ञ अने पुरातत्वविद् छे. अमने त्यां बहु सुन्दर नमूना जोया, अमनुं लोकभरतनुं ऊंडुं ज्ञान जोईने ग्रन्थरूपे ते आपवा में आग्रहभर्यु सूचन करेलुं. सौराष्ट्र राज्य दरमियान तैयार थवा मांडेलुं पुस्तक लांबा समयने अन्तरे, गुजरात राज्य दरमियान १९६६मां बहार पड्यु. हीर मोतीना श्रेष्ठ नमूनाना मूळ रंगोनी प्लेट साथे वैज्ञानिकता, तिहासिकता अने संस्कारितानी द्रष्टिले ओ ग्रन्थ गुजरातना गौरव समो बन्यो छे. मणिभाई वोरा, मधुसूदन ढांकी अने जयेन्द्र नाणावटी अना सर्जको छे. ओ ग्रन्थ अंग्रेजीमां प्रगट थयेलो छे, 'अम्ब्रोईडरी अन्ड बीडवर्क ओफ कच्छ अन्ड सौराष्ट्र.' Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ अनुसन्धान-७१ - मधुसूदनभाईना जीवननुं आ बहु महत्त्व- पासुं. हीरभरत अने मोतीकाम अंगे पुस्तकिया नहीं, परंतु मूळभूत सूझ धरावता तज्ज्ञो समग्र गुजरातमा २०२५थी वधारे न हता. मधुसूदनभाई आ पैकीना एक अने आवा जाणकारोनीतज्ज्ञोनी वीती गयेली पेढीना अन्तिम अवशेष. जयमल्लभाई साथे अमनो परिचय १९५७थी शरु थयो अने क्रमशः घनिष्ठ बनतो गयो. १९६७ के ६८मां ते ओ बनारस गया अने अढी-त्रण दायका त्यां गाळ्या. 'इन्डियन टेम्पल आर्किटेक्चर'ना वोल्युम तेमनी राहबरी हेठळ अंग्रेजीमां प्रसिद्ध थया. अलग अलग सामयिकोमा तेमना सचित्र लेखो प्रसिद्ध थता, जेनी नकल तेओ पोताना हस्ताक्षर साथे जयमल्लभाईने मोकलता. आवा लगभग त्रीश लेखो अमारा सङ्ग्रहमां सचवाया छे. १९६३ थी १९७६ सुधीना समयगाळाना उपरोक्त लेखो पैकी संगीत विषयक केटलांक लखाणो 'सप्तक अने 'शनिमेखला'मां ग्रन्थस्थ थया छे. मधुसूदनभाईना बे महत्त्वना ग्रन्थो ‘सिलिंग्झ इन ध टेम्पल्स ओफ गुजरात' (१९६३) के जे जयेन्द्र नाणावटी साथे सहकर्तृत्व धरावे छे, अने बीजुं प्रभाशङ्कर सोमपुरा साथे मळीने लखेलुं 'भारतीय दुर्गविधान' (१९७१). जेने मोतीचन्द्र जेवा आरूढ विद्वाननी प्रस्तावना मळेली. मधुसूदनभाई गुजराती, हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू, संस्कृत अने तामिल भाषाना जाणकार हता. तेमना पुस्तको तेमज लखाणोमांथी पसार थती वेळाओ तेमनां अभ्यास, भाषावैभव अने भाषानी भभक वांचवा मळे छे. तेमणे टेबल उपर बेसीने नथी लख्यु. पारावार 'फिल्डवर्क' क£ छे, के जेनो आजे महद्अंशे अभाव देखाय छे. शरीर अने मगज पासेथी तेमणे तनतोड काम लीधुं छे. ओ पेढीना विद्वानो माटे आ बाबत सहज हती. वस्तुना मूळ सुधी पहोंचवानी अने हाथमां लीधेला विषयनो ताग मेळववानी वृत्ति, आपणा विद्वानोओ आपणने सोंपेली अणमोल विरासत हती. भारतीय संगीतशास्त्रनी बे प्रमुख शाखाओ ते हिन्दुस्तानी अने कर्णाटकी. मधुसूदनभाई बन्ने परम्पराना ऊंडा जाणकार हता. आ बन्ने संगीत पद्धतिनुं कलासामर्थ्य अने रसानुभूतिनुं तुलनात्मक अध्ययन तेमणे 'आगियो अने सुवर्णभ्रमर' लेखमाळामां आलेख्युं छे. गुजरातीमां आवी तुलनात्मक आलोचना हजी सुधी कदाच असाधारण रही छे. 'ऊर्मि नवरचना'ना जान्युआरीथी मार्च, १९७३ना त्रण अंकोमा उपरोक्त लेखमाळा प्रसिद्ध थई, जेणे सरेराश वाचको अने Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर २०१६ - २१९ संगीतंना जाणकारोमां भारे रस जगावेलो. आ लेखमाळानी पीठिकामां जयमल्लभाई लखे छे : " पुरातत्त्व अने संशोधनना क्षेत्रे मधुसूदन ढांकी आजे झळकतुं नाम छे, ओमनुं प्रथम दर्शन कोईपण प्रतिभावान धूनी संशोधक जेवुं छे. अनेकविध कळाओनो ओमनो अभ्यास आश्चर्य पमाडे तेवो छे. अनां मुख्य चार अङ्गो ते वैज्ञानिकता, निष्ठा, तलस्पर्शी अभ्यास अने अखण्ड उद्यम. बीजुं बधुं तो ठीक पण पुरातत्त्वनुं संशोधन करतां करतां तेओने कर्णाटकी संगीत साथे प्यार थयो पछी पूछवं ज शुं ? उत्तर, पश्चिम ने पूर्व भारतमा कर्णाटकी संगीतनो विद्वद्भोग्य अभ्यास करनारा ओमना जेवा शोधवा ज पडे. अभ्यास एटले मात्र बौद्धिक ज्ञान ज नहीं, पण कर्णाटकी गायकी आ गुजरातीओ पोतानी करीने कर्णाटकी संगीतज्ञोने पण कान पकडावे ओवी सिद्धि प्राप्त करी छे. संगीतना प्रत्येक क्षेत्रना रसिको माटे मनो आ लेख एक सरखो उपयोगी छे." कोई व्यक्ति पोताना मर्यादित जीवनकाळमां केटलुं काम करी शके, केटली विद्यामां पारंगत थई शके अनुं उदाहरण मधुसूदन ढांकी छे. जयमल्लभाईना 'आपणी लोकसंस्कृति', 'आपणुं लोकसंगीत', 'आपणुं भरत - गूंथण' पुस्तको में तेमने मोकल्या हता. पुस्तको मळ्ये तेमनो फोन आवे अने पोतानो राजीपो व्यक्त करे. मधुसूदनभाईना जे लखाणो ग्रन्थस्थ थयां छे ते पुस्तकोनुं पुनः मुद्रण थाय अने तेमना अग्रन्थस्थ लेखो विषयानुसार ग्रन्थस्थ बने. 'मधुसूदन ढांकी पुस्तक श्रेणी' आ रीते प्रसिद्ध करवामां आवे तो संगीत, इतिहास, पुरातत्त्व, रत्नो, शिल्प - स्थापत्यनी रोचक सामग्री अभ्यासीओने हस्तगत थशे. आ दिशामां विचाराय तो मधुसूदनभाई जे काम करी गया तेनुं मूल्य अदकेरुं वृद्धि पामशे. सन्दर्भ : (१) 'आपणुं भरत - गूंथण' ले. जयमल्ल परमार (२०११) (२) 'पुरातन', पुरातत्त्व संशोधन मण्डळ, द्विदशाब्दी स्मृति प्रकाशन (१९७४) ** ११ / बी, 'वरदभूमि', कैलासनगर, कोटेचा चोक, बेंक ओफ बरोडावाळी शेरीमां, कालावड रोड, राजकोट- ३६०००७ (मो.) ९४२६२ २९५१७ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० अनुसन्धान-७१ आ ढांकीसाहेब ! - हसु याज्ञिक डॉ. ढांकीसाहेबनो परिचय तो मने गत सदीना नवमा दायकामां थयो. तेओ अमदावाद आवे त्यारे - केम के आ गाळामां तेओ हजु सेवानिवृत्त न हता - डो. भायाणीसाहेबना निवासे जरूर आवे अने मोटे भागे हुं त्यां उपस्थित होउं ! बन्ने सर्जननी साहजिक शक्ति साथे- पाण्डित्य धरावे. अथी अमना चर्चा-वार्तालापनो लहावो लूटुं. क्यारेक मारी नानी नावडी पण ओ प्रवाहमां झुकावू ! परन्तु आ परिचय तो हजु बंधाता जता पायानो हतो. अमां कई विशेष उमेरायं ते मारी सरकारी सेवाना काम निमित्ते ज. गुजरात राज्यनी अकादमीओना महामात्र तरीके मारे साहित्यिक प्रतिभाओना बायोडेटा साथे पद्मश्री-पद्मभूषणादिना प्रस्तावो सरकारने मोकलवाना हता. कोई महत्त्वनी उचित ओवी व्यक्ति अमां रही न जाय एटले हुं मारा विद्यागुरु भायाणीसाहेबनुं मार्गदर्शन लउं. अमां मने भायाणीसाहेबे गणित-विज्ञानक्षेत्रे डॉ. पी. सी. वैद्य, नाट्यरङ्गभूमिविद तरीके श्री गोवर्धन पंचाल अने संशोधनक्षेत्रे डॉ. मधुसूदन ढांकी ओम त्रण विद्वानोनां नाम सूचव्यां. आ निमित्ते ज आ त्रणे विद्वानोना विद्यातपनी पूरी जाणकारी मळी. आ निमित्ते केटलीक अन्तरङ्ग सवीगत माहिती मळी. आ तो मात्र जाणकारी. अमां अंगतता उमेराय त्यारे ज परिचय पूरो थाय. आवी तक मने भावनगरमां पूज्य सूर्योदयसूरिजी अने शीलचन्द्रसूरिजीओ पूरी पाडी. एक अभ्यास-व्याख्यान-श्रेणी निमित्ते मारे सणोसराथी सीधुं भावनगर जवानुं थयु. जैनवाळु पतावी हुं अने कनुभाई जानी ढळती सांजनी हळवी पळो माणता बेठा हता अने कंईक निमित्त नीकळ्युं एटले में हळवा सादे पं. ॐकारनाथनी मालकौंस विलम्बित तालनी 'पीर न जाणी' गणगणवानुं शरु कर्यु, मात्र मुखडो अने थोडा आलाप साथे में पूरुं कर्यु तो वांसामां अचानक थप्पो पडवा साथे संभळायुं; 'अन्तरा साथे आखी विलम्बित चीझ पूरी करो !' पाछळ जोयुं तो ढांकीसाहेब ! पछी जोईओ शुं ? अय बाजुमां गोठवाया. अमारी संगत चाली. एमणे दक्षिणी शैलीनी गमक साथे खयालमा साथ आप्यो. मात्र जाणकारी अने परिचय ओगळी गयां अने पूरी अंगतता उमेराई ! त्यारे Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ २२१ एमणे कहेलुं : 'कर्णाटकीना छांट-प्रभाव वगर मालकौंस जेवा गमक-मींडयुक्त रागनो प्राण ज रुंधाय ! तमारी समज अने तैयारी सारां छे.' हुं पोरसायो अम कहुं के तृप्त थयो अम ! कोई पण कलाप्रस्तुतिमां 'ओप्रिसिओशन' प्रोत्साहक बने छे, परन्तु से आपनार मात्र गुणीजन ज नहीं अधिकारी गुणीजन होय त्यारे तो कोई जुदी ज अनुभूति थाय छे. अमारो मैत्रीसम्बन्ध - मैत्रीसम्बन्ध कहुं छु केम के वैमत्यनी पारस्परिक छूट लई शकता - गाढ बनतो गयो. हवे साहित्य अने संशोधन- स्थान संगीते लीधुं. ___संगीतनी ओमनी परख ऊंडी अने सर्वाश्लेषी. कर्णाटक संगीतनी पूरी ने साची रियाझी समज ! आथी अमारी चर्चा जामे. भायाणीसाहेब पण संगीतना मात्र रसिक के ज्ञाता ज नहीं परन्तु अय अल्पकालीन रियाझी. बहु ओछा जाणता हशे के भायाणीसाहेबे पण दिलरुबा शीखवानुं शरु करेलुं अने यमनरागना छोटा-खयाल 'अरी ओ...री आली, पिया बिन' वगाडवा सुधी पहोंचेला. आ अटला माटे याद आवे छे गुजरातना संगीतज्ञ संशोधको-म्यूझिकोलोजीस्ट ओफ गजरात विशे लखतां विशेष वीगते मात्र प्रो. आर. सी. महेता अने डॉ. मधुसूदन ढांकी विशे ज लखेलुं. मारी ओ टेव के ज्यारे पण कशुंक संशोधनरूपे, शोधपत्र निमित्ते लखाय त्यारे अनुं प्रथम वाचन भायाणीसाहेब सामे थाय. चर्चा थाय, सुधारा-वधारा थाय. आ लेख अंगे ढांकीसाहेबे बीजा त्रण चार प्रचलित नामो लई पूछ्युं : 'आनो समावेश केम रही गयो छे ?' में कडं, 'रही गयो नथी, में सहेतुक को नथी. संगीतज्ञ के संगीतविवेचक (हकीकते जे आस्वादक वा टीकाकार होय छे) वगेरेथी 'म्यूझिकोलोजीस्ट' संगीत-संशोधक जुदो छे. संगीतनी परिभाषामां 'रियाझी' (पोते रियाझ करी जाते अजमावनारो, सक्रिय ओवो प्र-योग करी चूकेलो) होवो जरुरी छे. साहित्यविवेचक पोते सर्जक न होय, जाते ज काव्य-वार्तादि सर्जन अजमावी चूक्यो न होय तो चाले. संगीतमां नहीं. मजाकमां कहेवातुं आव्युं छे के सर्जनमां निष्फळ जनारो विवेचन करे छे. संगीतमां आवें बने, परन्तु अमां आंशिक सत्य छे. हकीकत तो ओ छे के साहित्य होय, संगीत होय के बीजी कोई कला होय, अनी सक्रिय अजमायेशमां निष्फळता, कलाप्रस्तुति तजीने ओ विशे संशोधन-विवेचन करवानुं तात्त्विक कारण ओ छे अनुं खुदनुं ज आवा कलापदार्थ- धोरण अटलुं ऊंचं होय छे के Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ अनुसन्धान- ७१ ओने पोताने ज पोतानुं सर्जन पोताना ज धोरणे नीचुं अने निष्फळ लागे छे अने ते सर्जननो पंथ तजीने पोताना धोरणनी ज्यां तृप्तिने अवकाश छे त्यां जाय छे अने अने ज्यां तृप्तिकर के खूटतुं लागे छे, ओ आंगळी मूकीने बतावी शके छे. तमे जेमनां नाम लीधां से बधानां कार्योने सलाम, अ बधुं आस्वादन - विवेचन, पण संशोधन नहीं. हकीकते, आ वातनी खातरी करवी होय तो ओ लोको जेनी चर्चा थाय छे ते शुद्धमध्यम अने तीव्रमध्यमनो भेद प्रमाणी शके छे खरा ? कया रागनुं अंग लीधुं ओ कदाच कही शके परन्तु रागना, मूळ रागना कया स्वरूप-अंगमां अन्यनी सहायक छाया लीधी, शा माटे लीधी, ओ न होय तो मूळ राग अने भावनी अभिव्यक्तिमां शो भेद पडे, आ बधुं मात्र संगीतआस्वाद-विवेचक समजावी न शके. संगीतक्षेत्रे भायाणीसाहेबनुं पण केटलुंक पायानुं संशोधन छे ज "दा.त. वाद्यअंगनां लाञ्छनने आधारे वाद्यनुं नामकरण सारङ्ग (मृग)नुं लाञ्छन होवाथी ते वाद्य सम्भवत: 'सारङ्गी' तरीके ओळखायुं' के "तरानो केवळ मुगलकालीन आगमन - असर नथी, अनां मूळ भारतीय संगीतनी तन्नागीति साथे छे", आ बधां साङ्गीतिक संशोधनो छे, जे बे कलाप्रदेश साहित्य अने संगीत बन्ने - ना सन्धिक्षेत्रनां छे. एमणे रागदारीनी, अनां विविध प्रकारो, अंगोनी विगते चर्चा नथी करी.' अन्ते बन्ने रसिक पण्डितोना मुक्त हास्य साथे चर्चा पूरी थई. अहीं रसिक पण्डित अवो प्रयोग पण खास अर्थमां कर्यो छे. सामान्य आपणे 'रसज्ञ पण्डित' ओवो प्रयोग करीओ छीओ. मारी दृष्टि आ पर्याय बराबर नथी. 'रसज्ञ' तो जे मात्र पण्डित छे, गम्भीर छे, सर्जकता धरावतो नथी, मुनशीना उपहासमा जे 'पाघडीघालु' कहेवाय ते पण होय ज. जो रस अने अनी झंखना - तालावेली - जाणकारी न होय तो 'पाण्डित्य' सिद्ध न थाय. हकीकते 'पण्डित' अने 'रसिक पण्डित' वच्चेनो जे भेद छे, ते प्रतिभा अने प्रकृति बन्नेना भेदना कारणे छे. जे पण्डितमां जीवन जगत- तत्त्वने पण हळवाशथी स्वाभाविकरूपमां ज जोवानी - लेवानी शक्ति - दृष्टि छे, सहजसिद्ध ओवी सर्जकता छे ते रसिक, मर्मज्ञ, सर्जक, विवेचक अने बंध दिशाना दरवाजा खोली आपे के बे छूटां सूत्रोनां पण आन्तर - सम्बन्धने जोडी आपे ते संशोधक. गुजरातमां रामनारायण पाठक, भायाणी, ढांकी आ वर्गमां आवे . ओमना पाण्डित्यमां क्यांय Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ २२३ भार, डोळ, कृतकता नथी होतां. वाणी-वर्तन-व्यवहारमा साहजिक निर्दोषता, हळवाश, खुल्लापणुं होय छे. आ अमना व्यक्तिगत सम्पर्कथी जाणी शकाय तेम ज अमना सर्जन-संशोधन-विवेचनादिमां पण अनुभवाय छे. डॉ. भायाणीना जातककथाना Re-told पद्धतिना 'कमळनां तंतु' वगेरे के संस्कृत-प्राकृतादिना अनुवाद जोईओ तेमज ढांकीसाहेबे लखेली वार्ताओ अने अनुभवो वांचीओ तो अमनी, एक रसिक पण्डितनी, सहजसिद्ध सर्जकता जोवा मळे छे. प्राचीनमध्यकालीन शिल्प-स्थापत्य अने अन्य कलाओ परना डॉ. ढांकीनां संशोधनोविवेचनो-सन्दर्भग्रन्थो वांचता प्राचीन भारतनी संस्कृति, जे स्पष्ट चित्र भावकना चित्तमां अङ्कित थाय छे, तेनुं ज एक सजीव-धबकतं स्वरूप अमनी वार्ताओमां सर्जन-माध्यमे आस्वाद्य बन्युं छे. __ढांकीसाहेबना संगीत-विवेचक-संशोधक तरीके- नोंधपात्र लक्षण निर्भीक, निर्धान्त, मुक्त अवा अभिप्रायनुं छे. अमर्नु 'सप्तक' वांचशो तो अतिद्रुत लयमां तारना झणझणाटनी अमनी खुल्ली झाटकणीनो पूरो अनुभव थशे. वातचीतमां पण एमणे क्यारेय पोताना अभिप्रायने हळवो बनाव्यो के छुपाव्यो नथी. अमारे मने गमता अने रागनी घराणेदार चढत करीने रसमहालय रचता वांसळी-वादकनी चर्चा थई त्यारे ओ कहे; 'तमे तो सौराष्ट्रना छो ने ? आपणां गामडामां वांसनी भुंगळी लईने चूलो फूंकती स्त्रीओने जोई छे ने ? तमारो गमतो आ वादक अम ज फू... फू... पद्धति) वांसळी वगाडे छे ! मात्र हवाना ज हळवा-भारे दबाण द्वारा वांसळीमांथी सूर नीकळता अनुभववा होय तो कर्णाटकी वांसळीवादकने सांभळो. तमने तरत मारी वात समजाशे.' अने खरे ज, हुं ओमना निवासे गयो त्यारे एमणे केसेटनो खजानो खोल्यो, कर्णाटकी वांसळीवादकने भर्या काने संभळाव्यो अने तेओ जे कहेता हता तेनी वास्तविक प्रतीति करावी. सप्तक' सङ्ग्रह छपायो त्यारे ढांकीसाहेबे मने का; 'तमे आनुं पूर्वावलोकन लखो. पुस्तकमां मूकीओ.' अने भायाणीसाहेबे तो आग्रहपूर्वक आज्ञा करी. हुं मुंझायो. अन्ते मारे कहेवू पड्युं : 'ढांकीसाहेब, तमे तो जाणो छो के इन्डियन म्युझिकना बेझिक सप्तक विशे आपणे अकमत नथी. प्रचलित मत छे ते प्रमाणे स्केलनो त्रीजो टोन सेमि थाय ते ज साहजिक छे अने ओ रीते तो काफी थाट ज बेझिक स्केल गणाय छे. हुं ओ मानुं छु. तमे कहो छो स्केलनो Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ अनुसन्धान-७१ बीजो टोन सेमि थाय ने ओ रीते भैरवी थाट ज बेझिक स्केल गणाय. आ सङ्ग्रहमां ज तमे आ शोधपत्र मूक्यो छे.' _ 'तो शुं ?' ढांकीसाहेब बोल्या; 'तमे लिखितरूपमां ज तमारा मतनी चर्चा करजो. तमारा मते मारी स्थापना अस्वीकार्य छे तेनी तमे विगते चर्चा करजो. आथी ज अन्ते तात्त्विक ऊहापोह थाय, मत-मतान्तरनी चकासणी थाय !' . ___ आवी उदारता, पूरी पाकी समज केटली दुर्लभ ! - अन्ते में आ मुद्दानी चर्चा करी. एमणे ते पूरेपूरी छापी, प्रकाशित करी. मारो सामान्य अनुभव ओवो छे के हळवी वात-चीत-चर्चामां पण अन्य अभिप्रायने, मतने पसन्द करतो नथी. साचा संशोधन- लक्ष्य केयूँ होय, समज केवी होय ते अहीं जोई शकाशे. अल.डी.मां विविध विषयो परनी व्याख्यानश्रेणीनुं आयोजन थयु. मारे भागे साहजिक रीते ज प्राचीन-मध्यकालीन सन्दर्भ बोलवान होय. परन्तु ढांकीसाहेबे फरमाव्यु : 'तमे स्वरना माध्यमे रागना कंडारेला निश्चित स्वरूपने जाळवीने पण भारतीय संगीतना खयालमां रसमहालय कलाकार केवी रीते रचे छे अने भावक अनी अनुभूति करे छे, तेनी चर्चा करो. पश्चिमनी भावानुसारी ४ स्वररागनी गंथणी वेस्टर्न सिम्फनीमां थाय छे तेना मुकाबले रागना स्वरूपने, अना बन्धनने पूर्ण रूपे स्वीकारीने पण विविध भावो रजू करवानुं केटलुं मुश्केल छे अने भारतमां रागदारी संगीतमा ओ केवी रीते, कई टेक्निकथी सिद्ध करे छे तेनी उदाहरण साथे चर्चा करो !'. ___ हुं मुंझायो ने बोल्यो; 'कोण सांभळशे ने केटलुं अवगत थशे ?' एमणे सहास्य कह्यु; 'हुँ तो सांभळीश अने समजीश ने ! पछी शुं ?' - अन्ते हिम्मत करी. परिणाम सारुं आव्यु. क्षेमुभाई दीवेटिया जेवा अधिकारी पण उपस्थित. बधांने, बीजांने पण रस पड्यो ने अन्ते ढांकीसाहेबे आ मुद्दानी विशद चर्चा पण करी. में 'कुमार'नी मारी लेखमाळामां इस्टर्न अने वेस्टर्न म्युझिकना पायाना साम्यनी विगते चर्चा करेली. सिम्फनी अने खयाल एक ज छे, मात्र बन्नेनी भावाभिव्यक्तिनी टेक्निक ज जुदी पडे छे. संगीत ज नहीं, साहित्य - अन्य कलाओ जेनां मूळमां प्राचीन ओवी आर्यपरम्परा छे, ते एक ज छे. आथी ज आर्यमूळनी बधी ज कलाओनुं मूळ गोत्र एक ज छे, उद्भव स्रोत समान छे तेथी भाषानी जेम कलामां तथा केटलेक अंशे धर्म अने Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर २०१६ तत्त्वज्ञानना मूळमां पण ओक वृक्ष विविध शाखा जेवुं छे. मारो आ मुद्दो एम विशद करेलो. मनां धर्मपत्नीना अवसान पछी केटलाक समय बाद मळवा गयो त्यारे ढांकीसाहेबना अन्तरङ्गनुं एक जूदुं ज संवेदनशील पार्श्व उघडतुं जोयुं. महिनानी आरम्भनी तारीख. अमारी चर्चा चाले. अमनां घरकाम, रसोई वगेरेनां काम एक प्रौढा अने एक छोकरी संभाळे. आमां अकने घरे जवानुं थयुं. आवी रजा लेवा : 'काम नथी ने, जाउं छं.' ढांकीसाहेब चर्चा अटकावी ऊभा थया अने बोल्या : 'ऊभी रहे. तारो पगार लेती जा. ' आम कहीने पर्स काढ्युं, खोल्युं, पैसा काढ्या, गणी थोकडी करी, ऊभा थया अने दिवंत पत्नीना फोटा सामे से पैसा राखी, अनो स्पर्श करावी, छोकरीने पगार आप्यो. लागणीवश बनेली से गई अने फरी ढांकीसाहेब पलंगे बिराज्या, टेको लई, अमारी मूळ चर्चानो दोर आगळ वधारीओ ओ पहेलां बोल्या; 'अने अम लागवुं न जोईओ के अ नथी !' अने पछी स्वगत जेम बोल्या : 'ने मने पण !' मारे मन आ ढांकीसाहेब ! - २२५ + + १, पद्मावती बंग्लोझ, भाविन स्कूल सामे, थलतेज, अमदावाद - ३८००५९ फोन : ०७९-२६८५ ३६२४ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ अनुसन्धान-७१ प्रो. मधुसूदन ढांकी - डो. जितेन्द्र बी. शाह प्रो. मधुसूदन ढांकी, ता. २९-७-२०१६ना रोज अमदावाद खाते दुःखद अवसान थयु. तेमना अवसानथी अनेक मित्रोओ, स्वजनोओ, परिचितोओ ऊंडो आघात अनुभव्यो. विद्याजगते एक उत्तम कोटिनो विद्वान गुमाव्यो अने न पूरी शकाय तेवी खोट पडी. छेल्लां ३० वर्षना अत्यन्त निकटना परिचयमां होवाने कारणे प्रो. ढांकी विशे विचारुं छु त्यारे अगणित संस्मरणो स्मृतिपट पर ताजां थई जाय छे. तेमना जीवननां अनेक पासाओ निहाळवा, माणवानो अवसर मळ्यो, तेने हुं मारा जीवननी मोटी मूडी गणुं छु. अहीं मात्र एक बे प्रसंगो वर्णवीश. सने १९८४मां हुं बनारस भणवा गयो हतो. मने बनारसमां हजु मात्र चारेक महिना थया हता. बनारसना वातावरणमा हं केळवाई रह्यो हतो त्यारे कोईके मने जणावेलुं के अहीं बनारसमां प्रो. ढांकी रहे छे तेओ गुजराती छे. तेमने मळशो तो तमने आनन्द थशे. मने तो अम हतुं के अजाणी भूमिमां आपणा पोताना कोई मळी जाय तो तेमनी साथे आत्मीयता अनुभवाय, अने सुख-दुःखनी वातो करी शकाय. आवा ज आशयथी हुं तेमने मळवा गयो हतो. डिसेम्बर महिनामां बनारसमां तेमना घरे पहेलीवार मळवा- थयु. पहेली मुलाकातमा ज अमे घणी वातो करी छूटा पड्या. पण छूटा पडती वखते खूब ज भावथी का के हवे आवता रहेजो, त्यारे अq लाग्युं के अमारो परिचय घणां वर्षो जूनो छे. अने तेथी ज तेमने मळवा- मन थया करतुं हतुं. परन्तु हुं बनारसमां पार्श्वनाथ विद्याश्रममा रहेतो, सवारे जुदा जुदा पण्डितो पासे दर्शनशास्त्रोनो अभ्यास करवा जतो. अने पाछो फरतो त्यारे पच्चीस कि.मी.नो सायकलनो प्रवास थई जतो. एटले रजाना दिवस सिवाय तेमने मळवानो मेळ खातो नहीं. मोटा भागे रविवारे समय मळे. ज्यारे ज्यारे मळवार्नु थाय त्यारे त्यारे प्रथम मारा अभ्यास विशे पूछे पछी अन्य अनेक विषयोनी वातो थाय. तेमनी वातो सांभळी नवं नवं जाणवा, सांभळवा- मळतुं. अने जिज्ञासा वधती जती. तेमनी विद्वत्ता जोईने हुं आश्चर्य पामतो. आटला मोटा गजाना विद्वान पण अत्यन्त विनम्र अने खूब ज स्नेहाळ. Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ २२७ चर्चा पूरी थई जाय पछी पण खूब ज भावथी वधु बेसवानो आग्रह अचूक करे. नवी नवी वातो करे वळी पाछा अडधो कलाक - एक कलाक वधु बेसाडे. पछी ज्यारे छूटा पडीओ त्यारे पोताना उपरना माळेथी छेक नीचे झाम्पा सुधी वळाववा आवे अने अमुक दिवसे पाछा आववानुं छे तेम जणावी बांधी ले. एकवार अमे स्तोत्रनी चर्चाओ चड्या. में अमुक स्तोत्रना भावो अने छन्दोनी वात करी एटले एमणे तो एक पछी एक जातजातनां स्तोत्रनी वातो काढी. में कडं, मने केटलांक स्तोत्र खूब ज प्रिय छे. तेमां भक्तामरस्तोत्र अने सिद्धसेन दिवाकरसूरिनी वर्धमानद्वात्रिंशिका तो अत्यन्त प्रिय छे. त्यारे ढांकीसाहेबे जणाव्यं के भक्तामरस्तोत्रना कर्ताना समय विशे एक लेख लखवानुं विचारुं छु. केटलाक मुद्दाओ तेमणे नोंधी राख्या हता ते पण मने जणाव्या. में ओ वखते कह्यु के 'साहेब ! आपनी वात तो साची ज के भक्तामरना कर्ता घणा प्राचीन छे. पण स्तोत्र तो अद्भुत छे. आप कर्ताना समय विशे लखो तो हुं स्तोत्र पर लखं." पण पछी आ विचारणा खूब ज आगळ वधी. अमे अनेक कलाको सुधी आ विषय उपर चर्चा करता रह्या अने तेमांथी ज भक्तामरस्तोत्र उपर एक पुस्तक लखवानुं आयोजन करवामां आव्यु. अमे बन्ने भक्तामरस्तोत्रना काममां जोडाई गया. भक्तामरस्तोत्र पर विश्वभरमां जुदी जुदी भाषामां लखायेखें तमाम साहित्य अकळं कर्यु. तेमांथी अनेक प्रश्नो शोधी काढ्या. ते प्रश्नो उपर प्रकाश पाडवो अत्यन्त जरूरी हतो. अमे तमाम बाबतो उपर गंभीरताथी विचार कर्यो. ते समये तेमनी अत्यन्त सूक्ष्म प्रज्ञा, संशोधनवृत्ति, तुलनात्मक विचारणा करवानी अजबनी बुद्धि - बधुं ज जाणवा अने अनुभववा मळ्युं. अकाद पण नवो उल्लेख के लेख मळे तो तेना उपर विचार करी ग्रन्थमां ते बाबतोने समाववानो पूरो प्रयास करवानो अने आ समग्र प्रक्रियामां क्यांय उतावळापणं के उपेक्षा नहीं करवाना. भले समय वीते पण कांई पण अद्धरताल मूकवानी वात नहीं. ते समये हजु कोम्प्युटरनो उपयोग शरु थयो न हतो. बधुं ज जाते लखवा, तेमना अक्षरो अटला बधां सारा नहीं अने मारा अक्षरो पण तेमने पसन्द नहीं एटले अमे जेटलुं पण लखीओ ते बधुं ज तेमनां धर्मपत्नी गीताबेन खूब ज सुन्दर अक्षरोमां, स्वच्छ अने सुघड लखाण करी आपे ते ज तेमने गमे. गीताबेन सवारे घरकाम पतावी, ढांकीसाहेबे तैयार करेला लेखो सुन्दर अक्षरोमां लखी आपे. Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ अनुसन्धान-७१ आ क्रम वर्षो सुधी चाल्यो. परन्तु ज्यारे कोम्प्युटरनो उपयोग वध्यो त्यारे में ढांकीसाहेबने जणाव्यु के हवे गीताबेनने तकलीफ न आपशो. पण तेओ कहेतां के मारां अक्षरो गीताबेन सिवाय कोण उकेली शकशे. अमे एक ओपरेटरने काम शीखवाड्युं ते ढांकीसाहेबना अक्षरो ओळखीने कोम्प्युटर पर लेख तैयार करतो अने काम सरळ बन्युं. त्यारे ते खूब ज राजी थया हता. गीताबेने तेमने लेखो लखी तैयार करवामां खूब ज मदद करी हती. अमे भक्तामरस्तोत्रनुं संशोधन करता हता त्यारे मने तेमनी पासेथी घणी बाबतो शीखवा मळी. अमने भक्तामरनुं संशोधन करती वखते घणी चिन्ता हती के दिगम्बर विद्वानो आ संशोधनने केवी रीते लेशे ? घणो मोटो प्रतिकार थशे. पण तेवू कशुं ज थयुं नहीं. कारण के बधी ज बाबतो प्रमाण साथे स्पष्ट अने तर्कबद्ध रजूआत पामी होवाने कारणे आज दिन सुधी अनो विरोध थयो नथी. ___ समग्र लखाण तैयार थयुं त्यारे प्रकाशन अंगे चर्चा चाली, प्रकाशन उत्तम कोटिनुं थर्बु जोई तेवो तेमने आग्रह हतो. तेथी फोन्टनी डिझाइन अने साइझ, लीडींग, मार्जीन, प्रत्येक प्रकरणनां मथाळां, मुखपृष्ठनी डिझाइन आदि तमाम बाबतो अंगे खूब ज काळजी राखी निर्णय कराव्या हता. आ बधी ज बाबतोनी काळजीने कारणे सुन्दर प्रकाशन थई शक्यु. प्रकाशन थया पछी ते ग्रन्थ अनेक विद्वानोने समालोचना माटे मोकली आपवामां आव्यो. बधाओ ज तेनी मुक्तकण्ठे प्रशंसा करी. अमेरिकाना एक संशोधन सामयिके हिन्दी भाषामा लखायेला आ ग्रन्थनी अंग्रेजी भाषामां समालोचना छापी अने समालोचनानी आदिमां ज समालोचके जणाव्युं के आ सामयिकमां सर्वप्रथम वार हिन्दी भाषामां प्रगट थयेला ग्रन्थनी समालोचना करवामां आवी रही छे, कारण के आ ग्रन्थ संशोधननो आदर्श पूरो पाडे तेवो छे. आ समग्र यश प्रो. ढांकीनी संशोधनवृत्ति अने मार्गदर्शन, परिणाम हतुं. ___ त्यारबाद अमे शारदाबेन चिमनभाई अज्युकेशनल रिसर्च सेन्टर द्वारा संशोधन सामयिक प्रगट करवानुं निर्धार्यु त्यारे तेनुं नाम पसन्द करवा अंगे घणी बधी चर्चा करी. अन्ते निर्ग्रन्थ नाम राखवानुं नक्की कर्यु. आ नाम पसंद करवा पाछळनुं कारण अ ज हतुं के जैनधर्मर्नु असल नाम निर्ग्रन्थधर्म हतुं. ते नाम आजे विसराई गयुं छे. निर्ग्रन्थ शब्दनो अर्थ पण ग्रन्थिरहित अवो थाय छे. Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर २०१६ प्रस्तुत सामयिकमां पण राग- -द्वेष वगर केवळ प्रमाणोने आधारे ज संशोधनात्मक लेख प्रगट करवानुं विचार्यं हतुं वळी तेमणे सम्पादनना ऊंचा आदर्शो निर्धारित कर्या अने विद्वानोने संशोधन करवा निबन्धो लखवा आमन्त्रण आप्युं. देशविदेशना विद्वानोना लेखो आव्या. एकवार अवुं बन्युं के एक विद्वाननो लेख सामग्रीनी दृष्टिओ उत्तम हतो पण लखाण सामान्यकोटिनुं हतुं. अमे विरोध कर्यो छतां ढांकीसाहेबे ते लेखने समाववानो निर्णय कर्यो. ढांकीसाहेबना आग्रह आगळ अमारो विरोध टक्यो नही. तेने सरखो करी तैयार करवामां समय वह्यो जतो हतो. लेखक स्वयं अधीरा थवा मांड्या हता. अमे सहुओ कह्युं के साहेब आपणे खोटो समय वेडफी रह्या छीओ. हवे आ लेखने पाछो मोकली देवो जोईओ. कोम्प्युटर पर कम्पोझ करनार भाई पण कंटाळ्या हता. कुल १८ प्रुफ थई गया हता अने हवे कोम्प्युटर ओपरेटरने अ लेखनुं नाम पडतां ज कंटाळो आववा लाग्यो हतो, एक दिवस गुस्से थईने ढांकीसाहेबने कहेवा गया के हवे बस थयुं ? त्यारे ढांकीसाहेबे जणाव्युं के अमारा जैनधर्ममां २४ भगवान छे एटले २४ प्रुफ थाय त्यां सुधी तो धीरज राखवी पडशे. जो ते पछी बराबर नहीं लागे तो आ लेखने जतो करीशुं बन्युं पण अवुं के कुल २४ प्रुफ थयां, अन्ते लेख सुन्दर, उत्तम रीते तैयार थयो अने छपायो. लेखकना हाथमां ज्यारे नकल पहोंची अने तेमणे लेख वांच्यो त्यारे निर्ग्रन्थनो से अंक माथे मुकी नाच्या. अटलुं ज नहीं नाजुक तबियत होवा छतां सहायकने लईने रिसर्च सेन्टर मळवा आव्या अने ढांकीसाहेबना पगे पड्या, गळगळा थईने कह्युं के मने आवी खबर होत के मारो लेख आटलो सुन्दर रीते तैयार थवानो छे तो हुं क्यारेय उघराणी न करत. २२९ ढांकीसाहेब रमूज पण ओवी सूक्ष्म रीते करता के सामावाळाने कहेवानुं कहेवाई जाय अने छतांय तेने खोटुं न लागे. निर्ग्रन्थना अ ज अङ्कमा एक लेखकना लेखनुं सम्पादन कर्यु, आवश्यक सुधारा - वधारा कर्या अने पछी लेखकनी सम्मति माटे लेख मोकली आप्यो लेख वांची लेखक स्वयं मळवा दोडी आव्या. एटले अमने थयुं के कांइ विवाद न थाय तो सारं. अ समये ढांकीसाहेबे लेखकने पूछ्युं के शुं अमे तमारो लेख बगाडी तो नथी नांख्यो ने ? आ सांभळी लेखके सस्मित कह्युं के ढांकीसाहेब आपे तो मारा Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० अनुसन्धान-७१ लेखनुं मूल्य वधारी दीधुं. आपे सुधारा न कर्या होत तो मने तो मारो लेख उत्तमोत्तम ज लागतो हतो. ढांकीसाहेबे हसता हसतां कह्यु के भाई लेख तो सुन्दरी जेवो होय छे ! आम तो तेने अडकवू ये जोखमभर्यु होय छे तेथी अमे तमारा लेखमां सुधारा करतां खूब ज सावचेती राखी हती. लेखक हसी पड्या अने आजे पण आ घटनाने याद करी तेओ ढांकीसाहेबने अंजलि अर्पे छे. . ___ गुजरातना पोरबन्दरमा जन्मेला मधुसूदन ढांकीओ पुनामां B.Sc.नो अभ्यास कर्यो अने अन्ते टेम्पल आर्कीटेक्चरमां निष्णात बन्या. विश्वविख्यात अन्साइक्लोपिडिया ओफ इन्डियन टेम्पल आर्कीटेक्चरना सम्पादक बन्या, तेम ज जैनाचार्योनो समय निर्धारित करवानुं महत्त्वपूर्ण काम कर्यु. जैन-बौद्ध आगमो, संगीतशास्त्र, होर्टिकल्चर, पशु-पंखीना अवाजो, रत्नविद्या, कलाओ आदि विषयोमां तेओ सिद्धहस्त लेखक हता. तेमना अवसानथी समग्र जगते मन्दिरस्थापत्य विद्याना एक उत्तम प्रकारना विद्वानने गुमाव्या छे. हवे आ खोट केटली सदीओ पछी पूर्ण थशे ते कहे, मुश्केल छे. शत शत वन्दन ढांकीसाहेबने ! C/o. ला. द. विद्यामन्दिर नवरंगपुरा, अमदावाद-९ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर २०१६ सूकां पर्णो वन गजवतां, शान्त लीलां सदाये - डो. रमजान हसणिया २३१ विद्याने खरा अर्थमा आत्मसात् करी शकनार परम आदरणीय ढांकीसाहेब मारा जीवनना एक खूणाने मारा स्मृतिप्रदेशने पण धन्य करी गया छे; अ धन्यतानी अभिव्यक्ति अर्थे ज लखवा प्रेरायो छं. आजथी त्रणेक वर्ष पूर्वे अमदावाद स्थित हठीसिंहनी वाडीमां नवनिर्मित शासनसम्राट - भवनना लोकार्पण प्रसंगे आचार्य वि. शीलचन्द्रसूरिनी आज्ञाथी जवानुं थयेलुं. आ कार्यक्रमनी व्यवस्थामां 'ढांकीसाहेब' अवुं नाम आवता आचार्यसाहेबनी आंखोमां भारो भार आदर छलकाई आवतो हुं जोई रह्यो हतो. ढांकीसाहेबने लाववा - लई जवानी व्यवस्था सन्दर्भे तेओ सूचना आपी रह्या हता. एटले सुधी के तेमना पाणी - पेशाबनी व्यवस्थानी पण साहेबने फिकर हती. आ बधुं जोई मारुं मन अम विचारे चडेलुं के आवा ते ढांकीसाहेब हशे कोण ? बीजा दिवसे पातळी देहयष्टि, गोरो वान, अमीनीतरती आंखो तथा धीमा अने धूजता अवाजवाळी एक व्यक्तिनां दर्शन थयां, जेमने बधा ढांकीसाहेब तरीके सम्बोधी रह्या हता. में पण विनम्रतापूर्वक हाथ जोडी प्रणाम कर्या ने सामेथी वही आव्यो जाणे व्हालपनो दरियो विद्वानोनां वक्तव्योनो दोर आरंभायो ने ज्ञानना महासागर तेनुं चूपचाप पान करता रह्या. तेमनी आंखोमां तरवरती विद्यापिपासानां दर्शन ते घडीओ थयेलां ने मनोमन मन्त्रदीक्षा पेटे ज्ञान माटेनी आजीवन भूख मंगाई गयेली. ओंचिता आचार्य महाराजनी आज्ञा थई, 'रमजान, ढांकीसाहेबनी भोजनव्यवस्थामां साथे रहेजे.' आपणा राम तो राजी राजी ! अमे एक कक्षमां गोठवाया ने ढांकीसाहेबनी भोजनसभा आरंभाई. भोजन करतां करतां केटलीय वातो करी. 'तमे बहु सारुं बोलो छो हों !' कही मारा जेवा छोकरडाने तेमणे ऊंचकी लीधो. आ वाक्य पाछळ नानामां नानी व्यक्तिने प्रोत्साहित करवानी तेमनी भावना ज कारणभूत हती. मारा गुरुवर्य प.पू. उपा. श्रीभुवनचन्द्रजी म.सा. साथे तेमने वर्षोथी परिचय. एटले ज्यारे में गुरुकृपानी वात करी त्यारे हु ज नम्रभावे तेमणे कह्युं के 'वर्तमान जैन श्रमणोमां बहु ज जूज बच्या होय तेवा उत्तम साधु भगवन्तोमांना एक भुवनचन्द्रजी छे.' मारा गुरुदेव माटेनो तेमनो Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ . अनुसन्धान-७१ आटलो. अहोभाव जोई हुं तो गद्गद् थई गयो. ओंचिता कच्छी भाषाना केटलाक रमूजी शब्दप्रयोगो तेमने याद आवी गया ते संभळावी मारी पासे खराई करावी के हुं जे अर्थ करूं छु ते साचो छे ने ? आनु मूळ संस्कृतना आ शब्दमां छे. तेमनी विद्वत्तामांथी ज निपजेली तेमनी आ नम्रता मारा हृदयने झङ्कृत करीगई. मारा भागे तो 'साहेब !' कही हाथ जोडवानुं ज शेष रहेखें. __ आ दिवसोमां मने सौथी वधु स्पर्शी गयो होय तो ते आ.वि. शीलचन्द्रसूरिजीनो ढांकीसाहेब माटेनो आदरभाव. आटला मोटा विद्वान आचार्य भगवन्त एक गृहस्थ माटे आवो स्वस्थ आदरभाव धरावे ते मारा माटे बहु मोटी घटना हती. साहेबना मनमां जेमनुं आटलुं सन्मान होय ते आपणा माटे तो पूज्य ज गणाय ओम मानी हुँ पण ओमनी आगळ-पाछळ फर्या करतो. आ.वि. सूर्योदयसूरिजीनी प्रेरणाथी अपातो 'हेमचन्द्राचार्य चन्द्रक' तो तेमने अपाई चूक्यो हतो; पण मारे मन अनाथी पण मोटुं सन्मान आचार्य शीलचन्द्रसृरिजीओ अमर्नु कराव्युं होय तो ते हतुं तेमना वरद हस्ते शासनसम्राट-भवन- करावेलुं लोकार्पण. प.पू.आ.वि.नेमिसूरिजी जेवी विरल विभूति-ऋषिना नाम साथे जोडायेल शासनसम्राट- भवन- लोकार्पण ऋषितुल्य ढांकीसाहेबना हस्ते करावी आचार्यसाहेबे समाजने तेमना स्थानमाननो परिचय कराव्यो हतो. आ घटनाथी आचार्यमहाराजे औचित्य- एक उत्कृष्ट उदाहरण पूरुं पाड्युं हतुं. आ धन्य क्षणोना साक्षी बनता में अनुभवेलुं - अकिंचन हाथे निर्लेपभावे थतां लोकार्पणने माणेलुं-पोताना गुरुना भवनगुरुतुल्य व्यक्तिना हाथे लोकार्पण थतुं जोई हर्षभीनी थती आ.वि.शीलचन्द्रसूरि महाराजनी आंखोनुं दर्शन. आ क्षणे ढांकीसाहेब माटे तो मान उपजे ते स्वाभाविक हतुं. पण मारे निखालसभावे स्वीकारवू जोई के त्यारे आचार्य शीलचन्द्रसूरि प्रत्येनो मारो भाव अनेकगणो वधी गयो हतो. मोटा माणसना होवा जेटलुं ज अगत्यनुं छे तेमना ओळखनार- होवू. सद्नसीबे आपणी वच्चे आवा आचार्य भगवन्त जेवा हीरापारखु छे, नहितर कदाच खूणामां बेसीने झीणुं कांतता ने चूपचाप काम करी सरकी जता आवा लोको आपणी वच्चेथी जता रहे त्यां सुधी तेमने आपणे ओळखी न शकीओ अq पण बने. केटकेटलां क्षेत्रोमां ढांकीसाहेब- प्रदान ! पुरातत्त्व, स्थापत्य, शिल्प, संगीत, जैन शास्त्रो, इतिहास ने ओवा तो कंई केटलाय विद्याप्रदेशोने तेमणे सर Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर २०१६ कर्या. चूपचाप विद्यानी उपासना करता रह्या. तेमने प्राप्त जीवनराशिनो तेमणे महत्तम उपयोग कर्यो. ओटलुं काम कर्तुं के आवनारी पेढीओ तो आ वातने चमत्कार ज गणशे. जीवनना अन्तिम अध्यायनी समाप्ति सुधी स्वाध्यायरत रह्या ने आपण पोतानो अनन्य अक्षरदेह धरता गया; जे चिरंजीव रहेशे. २३३ मने बे-त्रण वखत तेमनो फोन आवेलो. ढांकीसाहेब वात करे छे ओम सांभळता ज रोमांचित थई जतो. "खूब सरस काम करो छो, आ रीते काम करता रहेजो, खूब आगळ जशो." जेवां तेमनां वाक्यो मारा मनमां उत्साहनो संचार करी जतां. बहु लांबी वात न थाय पण ढांकीसाहेबनो फोन आव्यो हतो ओनो केफ दिवसोना दिवसो चाले. ढांकीसाहेबने रत्न, मणि, नीलम आदि मूल्यवान पथ्थरोना संचयनो भारे शोख छे ओवुं प.पू.रत्नकीर्तिविजयजी म.सा. पासेथी सांभळेलुं. पण तेमणे ज करेली बीजी एक वात मने विशेष अपील करी गयेली के महामहेनते अकठा करेला आवा अतिमूल्यवान पथ्थर जो घरे आवेला कोई महेमानने गमी जाय तो तेमने तरत ज भेट आपी देतां पण तेओ न अचकाय. वस्तुना मोहमां फसाय तो ढांकीसाहेब शाना ? मने मारा विद्यागुरु डॉ. दर्शनाबेन धोळकियानुं स्मरण ताजुं थई आव्युं. एक वखत मारी पत्नी नियामत माटे सोनानी बुट्टी आपतां बहेनने में कह्युं के, 'बेन आटलुं बधुं न होय, सोनानी छे.' त्यारे तेमनो जवाब हतो के, 'अमारा गुरु श्रीकृष्णे गीतामां लोखण्ड अने सोनाने धातुमात्र समजी समान गणवानो आदेश कर्यो छे, जो ओम न करीओ तो अमारुं शिष्यत्व लाजे.' माराथी शुं बोली शकायुं नहोतुं. ढांकीसाहेब पण वगर को आ शिष्यत्वने अजवाळतां आपणी वच्चेथी नीरवपणे सरकी गया. मने ढांकीसाहेबनां छेल्लां दर्शन डो. नलिनी बलवीरने हेमचन्द्राचार्य - चन्द्रक अनायत करायो त्यारे थयेलां. प्रियजनो माटे जेम बाग-बगीचा मिलनस्थळ होय तेम मारा माटे ढांकीसाहेबना मिलननुं एक ज स्थळ हठीसिंहनी वाडी अमदावाद. मारा माटे आ स्थळ मन्दिरथी पण अदकेरी जगा बनी गयुं छे; ने आजीवन रहेशे, कारण के आ स्थळे हुं आवा ऋषिपुरुषनो संस्पर्श पाम्यो छं. - - चन्द्रकअर्पणना कार्यक्रममां तबियत नादुरस्त होवा छतां ढांकीसाहेब उपस्थित रहेला. तेमणे भ्रूजता अवाजे हिन्दी भाषामां वक्तव्य आपेलुं. भाग्ये ज Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ अनुसन्धान-७१ कोईने समजाय अवा शब्दो सांभळीने एक व्यक्तिनुं मस्तक धुणी रह्यं हतुं; ने ते हता आ.वि. शीलचन्द्रसूरि. मने अम थयु के अवो तो कयो स्नेहसम्बन्ध आ बे महात्माओ वच्चे बंधायो छे के ज्यां शब्दो गौण बनी गया छे. मने याद आव्या करती हती प्रह्लाद पारेखनी काव्यपङ्कितओ : "पछी तो ना वातो, प्रियअधर जे कंप ऊठतो, ध्वनि तेनो आवी, मुज हृदय मांही शमी जतो." ढांकीसाहेबे करेला सूचनने आंख-माथा पर चडावी ज्यारे आचार्य भगवन्ते पोतानुं प्रवचन आरम्भ्युं त्यारे ढांकीसाहेब शुं बोल्या हता ते समजायु. हुं तो बे साधुजनो वच्चेना आ नीरव सम्वादथी अवो तो अवाक् थई गयो के घडीभर तो शुं बोलवू अ याद ज न आव्युं. 'ढांकीसाहेबे सूचवेलु काम अमारा साधुओ करशे' अम कहेता आचार्य भगवन्तने मन ढांकीसाहेबनां वचनो केटलां बहुमूल्य हतां ते बरोबर प्रमाणी शकेलो. केटलाक लोको, होवू ज बहु मोटी धरपत होय छे. ढांकीसाहेबने भले बहु मळवार्नु न थयुं होय, बहु वांच्या न होय, बहु सांभळ्या न होय, तेम छतां आवा महान लोकोना समकालीन होवू अ पण बहु मोटी उपलब्धि छे. ढांकीसाहेबर्नु जीवन तो ज्ञानगंगाना अखूट प्रवाहनी जेम वहेतुं रह्यं छे. मारा भाग्ये तो तेमांथी अंजलि जेटलां ज वारि आव्यां छे, पण तेने हुं मारी मोंघी मिरात मार्नु छु. अमना सादा-सरळ व्यक्तित्वथी हुं भारोभार अंजायो छु. मने स्पर्शी गई छे तेमनी निखालसता, सरळता, नम्रता, सादगी तथा तेमनुं अकिंचनपणुं. विद्या अने अध्यात्म बन्नेनो सुयोग तेमनामां थयेलो जोई शक्यो छु, ने तेथी ज उत्तरोत्तर तमना भणी ढळतो गयो छु. तेमना व्यक्तित्वने में जे रीते जोयु-प्रमाण्युं छे, तेने वर्णववा गीता परीखनी आ पंक्ति उपकारक थई पडे तेम छ : "सूकां पर्णो वन गजवतां, शान्त लीलां सदाये." गवर्मेन्ट आर्ट्स अॅन्ड कोमर्स कोलेज आइ.टी.आइ.केम्पस, रापर-कच्छ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ २३५ डो. मधुसूदन ढांकी : जेटला जोया - जाण्या ___ - छेलभाई व्यास गया महिने एक समर्थ विद्वत्पुरुषना निधनना समाचार मळ्या त्यारे एक दुःखद खटको लागेलो, अने एमना विशे केटलीक स्मृतिओ ताजी थई हती. एक-बे प्रसंगे ढांकीसाहेबनां दर्शन-श्रवणनो लाभ मळ्यो छे. प्रथम सुरत मुकामे पू. महाराज साहेबे योजेल आनन्दघन-परिसंवादमां अने त्यार पछी अमदावादमां हठीसिंह देरासर परिसमां योजायेल विद्वत्सन्मान समारम्भमां. ए अगाउ ढांकीसाहेब विशे एमना लेखननिधिमांथी थोडु मेळवेलु. एमना 'कुमार'ना लेखो रसपूर्वक वांचेला. अने सौथी विशेष तो एमनी अद्भुतरसनी बहुचर्चित वार्ता - 'ताम्रशासन'-ए जब्बर असर करेली. आटलुक जाणता होईए अने एमना समा दिग्गज विद्वान विशे लखवू ए तो अनधिकार चेष्टा ज गणाय. क्यां पुराविद्याना अने भारतीय सौन्दर्यशास्त्रना पारंगत महारथी अने क्या आपणा राम ! । मारी साहित्य अने कला प्रत्येनी भक्ति प्रधानतः दर्शन अने श्रवणनी. विद्वानोनी सभामां जवानो प्रसंग मळे त्यारे लगभग आगळ ज बेसवानो आग्रह. विद्यापुरुषोनुं सान्निध्य अने एमनो दृष्टिप्रसाद आपणो प्रथम शोख. मु. ढांकीसाहेबने सुरत परिसंवादमां स्टेज पर प्रथमवार जोया- सांभळ्या. गम्भीर व्यक्तित्व, थोडा अन्तर्मुख, ऊंडो, धीमो, बहु मधुर नहि, जरा खोखरो लागे एवो अवाज, दूबळी काया, ऊंडी तीक्ष्ण आंखो, प्रथम दृष्टिए साधारण लागतुं व्यक्तित्व. पण ज्यारे एमनो ज्ञानराशि निहाळीए, पुराविद्याना क्षेत्रमा एमणे करेला गंजावर कामने जोईए त्यारे आ बाह्य देखाती सामान्यता क्यांक सरी जाय, एक विराट विद्यावारिधिना दर्शन थाय. सुरत योजायेल आनन्दघन-परिसंवाद वखते मित्र जयदेव शुक्ले मने ढांकीसाहेबनो संगीत विषयक लेखोनो संचय 'सप्तक' हाथोहाथ आप्यो. जयदेव साथेनी मारी मैत्री, माध्यम मुख्यतः संगीत. ए संगीतनो रसिक ज्ञाता छे तो संगीत मारो पण प्रथम प्रेम छे. आ एक चसको छे. पद्धतिसर स्वर-ताल ज्ञान Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ अनुसन्धान- ७१ नहि पण शास्त्रीयसंगीत सांभळवानो 'खो' वाळी दीधो छे - बहु सांभळ्युं छे, हजुय सांभळं छं. ‘सप्तक' हाथमां आव्युं के एक बेठके अकरांतियानी जेम वांची गयो. आपणे तो लाधी पोळ अने थयुं झाकमझोळ ! बस ए प्रसंगथी हुं 'सप्तक'ना लेख पर मुग्ध छं. भारतीय संगीतशास्त्र बहु खेडायेलुं छे. संगीतना स्वरूपने अने शास्त्रने शतकोथी एना विद्वान पण्डितोए आलेख्या छे, पण ए तो जेने शीखवुं होय एने मार्ग दर्शावे छे. आपणे मात्र श्रवणशूरा ! एटले संगीत विषयक कशुं वृत्तान्त के इतिहास तेमज गायकीनी विविध परम्पराओ के संगीतना स्मरणीय जलसाओ विशे के समर्थ गायक-वादको विशे जाणवा मळे तो भयो भयो ! मु. ढांकीसाहेबे 'सप्तक'ना सात लेखोमां शास्त्रीयसंगीतनुं अत्यन्त रोमांचक विश्व उद्घाटित करी आप्युं छे. शिरीषभाई कहे छे एम आ लेखोमां ढांकीसाहेबनी सुज्ञ भावक व्यक्तिता अने विद्वत्ता प्रभावकपणे प्रगट्या छे. तो पू. भायाणीसाहेब एमने शैलीलीला अने शैलीविलासना स्वामी गणावे छे. डो. हसु याज्ञिक कहे छे तेम 'आ सात लेखो' अंधारी दिशामां पडतां प्रथम सूर्यकिरण जेवा छे.' अने ए हकीकत छे के गुजरातमां अने गुजराती भाषामां शास्त्रीयसंगीत जाणनारा अने एना विशे लखनारा विरल ज छे. डो. हसुभाई जेवा तज्ज्ञोना विरल अपवाद बाद करो तो पछी ए शोधवा माटे फांफां मारवा पडे. आ तबक्के 'सप्तक' ना सात सोपान संगीतना क्षेत्रमां सीमाचिह्नरूप बनी जाय छे. वळी हसुभाई साथै सम्मत थवुं पडे के 'शोधपत्र कोने कहेवाय एनो आदर्श नमूनो जोवो होय तो ते ढांकीसाहेबना आ निबन्धमां मळशे.' एटले शास्त्रीयता अने रसिकता समान्तरे अहीं सांपडे छे. लेखके स्वयं लख्युं छे के 'संगीतमां जागेला उत्कृष्ट रस माटेनी तालावेलीना परिपाकरूपे आ लेखो लखाया छे.' : जे कलारसिक पण होय अने कलाना पारगामी द्रष्टा पण होय एवा सव्यसाची सिद्धहस्त महारथी सामे विनम्रताथी, बद्धहस्त मौन बनीने ऊभा रहेवुं जमुनासिब गणाय. एमना विशे कशो अभिप्राय आपवानी तो वात ज क्यां ? Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ २३७ आम छतां स्नेह अने समादेश थोड़े चापल्य करवा हिम्मत आपे छे, ए प्रमाणे 'सप्तक'ना लेखोमां शैलीलीला उपरान्त विपुल सामग्री सांपडे छे. 'आगियो अने स्वर्णभ्रमर' एवा रूपकात्मक शीर्षकयुक्त प्रथम लेख मने सौथी विशेष स्पर्शी गयो छे. आ एक लेख विशे मारी घणीबधी मर्यादाओ साथे मारो आनन्द व्यक्त करीश. आ लेख सर्वथा मौलिक अने अनन्य प्रतिभापूत छे, पण मने विशेष स्पर्शी जवानुं एक अंगत कारण पण छे. मारी पांच-छ दायकानी श्रवणयात्रामां खूब सांभळ्युं छे. हिन्दुस्तानी संगीतनी साथोसाथ कर्णाटक संगीत - वर्षो सुधी आकाशवाणी संगीत-संमेलनोमां बन्ने धाराओ समान्तरे वहेती - सांभळवा निष्ठापूर्वक प्रयास को हतो. दक्षिणना धुरीण संगीतकारोने कुतूहलथी, भावपूर्वक, धैर्य सह माणवा - रसानन्द लेवा मथ्यो हतो. परन्तु हरेक प्रयत्ने हिन्दुस्तानी संगीतनी सरखामणीए कशुंक ऊणुं लाग्या करतुं हतुं. त्यारे थतुं के कदाच आपणी क्षमता ओछी होय के आपणा कान टेवायेल न होय एटले आम थतुं हशे. __ पण, 'आगियो ने स्वर्णभ्रमर' माथी सुपेरे पसार थया पछी ए 'लज्जाशल्य' नीकळी गयुं ! भायाणीसाहेब जेने 'जनोईवढ घा' कहे छे एवा निर्भीक स्पष्ट अभिप्राय द्वारा बन्ने संगीत परम्परानुं विशद अवलोकन - मूल्यांकन कर्यु छे... ढांकीसाहेबनुं विधान छे के दक्षिणमां सुस्वर उपर ध्यान देवातुं नथी अने स्वरना कम्पनी अतिशयताथी गान- स्वरूप स्थिर थतुं नथी. उत्तर हिन्दुस्तानी संगीतमां विलम्बित आलापनो मोटो महिमा तेओ बतावे छे त्यां पण ऊंची कोटिना गायकोने ज ए सिद्ध होय छे एवो स्पष्ट अभिप्राय पण आपे छे. ____ एक महत्त्व- मौलिक निरीक्षण आपता तेओ कहे छे के उत्तर हिन्दुस्तानी संगीते काळक्रमे उत्क्रान्ति स्वीकारी छे अने समयानुसारी परिवर्तनो कर्यां छे, एम खयाल गायकीनी शैलीए प्राचीन परम्पराना भारेखमपणाने छोडी दईने माधुर्यलक्षी शैली अपनावी छे, जे दक्षिणमां पुराणप्रीतिने कारणे बन्युं नथी. ___बीजूं, उत्तर हिन्दुस्तानी संगीतमा 'सम'- सौन्दर्य श्रोताओने डोलावे छे एवं द्राविडी संगीतमां नथी एवं साधिकार प्रतिपादन करी आपे छे. Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ अनुसन्धान-७१ ___आवा बहु चचित अने संवेदनशील विषय परत्वे 'जनोईवढ घा' करवा माटे महारथीनी शक्ति अपेक्षित होय छे. ढांकीसाहेब आवा महारथी हता. शतायुकल्प विद्यासंयुत आयुष्य भोगवीने संशोधनना विशाळ ज्ञाननो अमूल्य वारसो गुजरातने आपी जनार महान मनीषी डॉ. मधुसूदन ढांकीसाहेबने शतशः वन्दन. C/o. 'अभिराम' १, रोयल पार्क, लाठी रोड, अमरेली. Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ २३९ गुजरातीभाषा-साहित्यनी स्मृति संचयिका.... 'शनिमेखला.'... - डो. मनोज रावल - श्री मधुसूदन ढांकीसाहेब- नाम पुरातत्त्वविद तरीके सांभळेलुं. आ विद्याशाखामां गति माटे जे शास्त्रीय ज्ञान-क्षमता जोइए तेना अभावमां परिचय केळववो बाकी रहेल. तेमां एq बन्यु के तन्त्रग्रन्थ विशेर्नु बनारसनुं पुस्तक प्रकाशन हाथमां आव्युं. आन्तरराष्ट्रिय कक्षानो सेमिनार योजाएल तेनी सामग्री ए ग्रन्थमा हती. तेमां अन्ते; विविध देशना भाग लेनार तज्ञोनी नामयादी हती. सहज जिज्ञासा थइ के आपणुं गुजरातनुं के पश्चिम भारतनुं आ गजानुं कोई नाम छे के केम? तो मधुसूदन ढांकी अने नथमल टाटिया (राजस्थान के कलकत्ता !) बे नाम हता. ए घटना बाद मधुसूदन ढांकी नामर्नु कोइ लखाण मळे तो नजर नाखवा समय फाळवतो. कुमार, ऊर्मि नवरचना तथा परेश दवे जेवा मित्रनी सहायथी ढांकीसाहेब प्रत्ये आदर वधतो जतो हतो. एकाद-बे वेळा सांभळी आनंद वधेलो ज. आ समय दरम्यान गुजरात साहित्य परिषदना सो वरसना कार्यकाळने ध्यानमा राखी सो पुस्तकना प्रकाशननो निर्णय उपक्रममां पलटाववाना भागरूपे जे श्रेणी थइ तेमां ढांकीसाहेब- पुस्तक प्रकाशन पाम्युं 'शनिमेखला'. ते विषे थोडी वात करवी छे. पुस्तक सामान्य रीते १४ लखाणो धरावे छे. जेमांथी केटलांक अन्यत्र प्रगट थएलां छे. आ लखाणोनुं विशेष महत्त्व अन्य कारणोथी छे. प्रथम, आजे स्पेश्यालिस्टनो जमानो. कोई एक विद्याशाखानी व्यक्ति होय तो, ते पोतानी विद्याशाखा-अनुसन्धाने ज वात करे ते अधिकृत गणाय. अन्यथा तेनुं महत्त्व नहीं. विविध विद्याशाखाना तज्ज्ञ होवू एटले शुं ? ते आजे (पारकी) सूंठने गांगडे गांधी गणावनारना समयमां समजवू मुश्केल लागे, एवां परिबळो वच्चे मधुसूदन ढांकीसाहेबनी प्रतिभा विशेष महत्त्वनी छे. आ पुस्तकमां छणावट पामेला विषयो जोइए. Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० अनुसन्धान-७१ 'त्रण समांतर गूढ विचारबिन्दुओ...' अढी हजार वरस पहेलांनो ग्रन्थ, ई.स. बीजी सदीनी प्रचलित वात, इन्डोलोजीना तज्ज्ञो माटे महत्त्वनी सामग्री. साथे १६मी सदीना चीनी दार्शनिकना विधानने विद्या अने कलाप्रीतिथी मूकी आपे छे. चैतसिक विशाळतानो अनुभव थाय छे. ___ आंग्ल प्रजानी सुसभ्यता, अमेरीकी प्रजानी सुसभ्यतानां लखाणो कल्चरनां अंश-सिविलायझेशनने प्रगट करे छे. राष्ट्रना नागरिको कोई मोटी घटना दरम्यान नहीं, रोजबरोजनी जिंदगीनी नानी-नानी सामान्य बाबतो गणाय तेमां सामेनानी केटली काळजी ले छे, तेना आधारे प्रजार्नु चारित्र्य-खमीर परखातुं होय छे. ___ आपणे त्यां खरीदीमां प्रथम कहेवाएल भाव हास्यना उद्भव माटे छे तेम मनाय छे. त्यारे ग्राहकलक्षी अभिगम, रुचिनी कदरना प्रसंगो फक्त लेवडदेवडनी बयानबाजी नथी. ढांकीसाहेब अने तेना सम्पर्कमा आवेल लोकोनी एस्थेटिक सेन्स पण दर्शावे छे. तो चार प्रसंगचित्रो भारतीय परिवेशना छे. महेमान गणाती व्यक्ति परत्वे सामान्य व्यक्ति केवी रीते परम्परा निभावे छे ते जोवा मळे छे. ___ धर्मस्थानकोना विधि-निषेध वच्चे भक्ति-गान करनार परत्वेनो आदर प्रगट थाय छे. बे अन्यत्र प्रसंगचित्रमा बौद्ध-धर्मी श्रीलंका के शैव गणाता तमिलनाडुमां "विद्वान सर्वत्र पूज्यते"नी प्रतीति थाय छे. तो कोणार्क, जगन्नाथपुरी, महाबलिपुरम्, सिंहनाद (रामेश्वर नजीक), म.प्र.मां शोण नजीकनुं चंदरेहे स्थानविशेषमां फक्त भूमिनो मिजाज नथी. ____ तळाव, नदी, समुद्रना जलनो महिमा के चान्दनी रातना ऐश्वर्यनी ल्हाणी नथी. अहीं छे प्रकृतिना तत्त्वनो अनुबन्ध. समग्र अस्तित्त्व साथेनो अनुबन्ध. चांदनी रातमां टिकिट लई ताज जोनारनुं महत्त्व छे. पिरामीड जोवा जवाना पेकेज रजू थाय छे. अहीं श्रेष्ठ रीते बहिर-आन्तर सौन्दर्यबोध कराववामां निमित्त बननार धर्म-स्थापत्यनी पसंदगी माटेना भू-भागने आपणां पूर्व-सूरिए कई विद्याथी आत्मसात् करेल हशे तेनो अणसारमात्र छे. जेम पाणीकळा हती तेम भूमिकळा पण हशे. ते रहस्य गजु के शुं ? 'काव्यशास्त्र विनोदेन कालो गच्छति Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ २४१ धीमतां' श्लोक-पंक्ति अनुसार विनोदिका अने विनोदवाटिकामां अनुभवी शकाय छे. अहीं प्रथमनां सात लखाणो ढांकीसाहेबना बहिर विश्वने खोली आपतां होय तेवू लागे छे. ___'पुष्प साथे वात करवानो समय रह्यो नहीं 'मां कविनो वलोपात छे. वलोपातना विकल्पे आनन्दनी ल्हाणी. 'ओर्किडनुं सख्य' द्वारा ढांकीसाहेब एक अलग संवेदनविश्वमां भावकने प्रवेश करावे छे. तो 'मृगपक्षी अने मत्स्यनुं सख्य' भातीगळ विश्व खोली आपे छे. श्वान, वानर, मार्जार, गाय उपरान्त पंखीमां कबूतर, काबर, कुकडा, कागडा, बगला, मोर, ढेल, कलकलिया, देवचकली, हुदहुद, सुरखाब, होलां, दरजीडा, पोपट, जलनी विविध माछलीओ, शोभाना छोडवानी वातो आ लखाणमां छे. जाणे उमाशंकर जोशीनी पंक्ति...."विशाळे जग विस्तारे नथी एक ज मानवी, पशु छे, पंखी छे, वनस्पति छे..."ने चरित्रार्थ करी आपे छे. अहीं प्राणी के पक्षीविषयक ज्ञान होवा छतां शास्त्रीय नथी बनता. कलाप्रपंच रचे छे. कला छे, चाहवानी कला. मनुष्य जीव हेतुवाळु प्राणी छे. ज्यारे प्रकृति साथे तादात्म्य धरावती आ सृष्टि निर्हेतुक स्नेहने प्रगट करे छे. तमाम मूल्योमा निर्हेतुक स्नेहनुं मूल्य जगतभरने विदित छे. स्वीकारायुं छे. अहीं मूल्यस्थापन छे. बीजुं कशुं न थाय तो पण आ सृष्टिनो संग आपणने थोडाक ऋजु बनवामां मददरूप थाय छे. ढांकीसाहेबना ए रीते ऋणी रहे|. ___'मेलोडी की मोत' ए आन्तर वैभव, संगीत, गायन, वादननी झलक छे. 'तैलप के राज में गाना नहीं बजाना नहीं' एम कोर्पोरेट जगत द्वारा नियंत्रित, अर्थव्यवस्था, राजव्यवस्था, समाज-कुटुम्बव्यवस्थाना भोगवाद सामेनो उपाय आपता होय तेम पृ. ९७ पर नोंधे छे - 'जीवनमां संगीतना माध्यम द्वारा प्रशान्तता अने उर्ध्वगामी आनन्दनो अनुभव करवा होय तो 'मेलोडी'नो स्वीकार अने ए राह प्रति वळवा सिवाय कोई उपाय नथी.' 'शास्त्रीय संगीतसृष्टिमां प्रवेश' लेखमां मधुसूदन ढांकी साधक तरीके स्थाननी शोधमां होय तेवू दर्शावे छे तेम लागे. पण आ लखनार जेवाने ते सिद्ध Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ अनुसन्धान-७१ लागे छे. कारण मध्यरात्रिना एकला द्वारा गवातो मालकोस. ‘ए सलूणी संगीत मय सांजे' जीवननी पण सलूणी क्षणो छे. ___ 'बडी मोती'ने धर्मनिष्ठ गायिका कहेवा पाछळ ढांकीसाहेब जीवनधर्मकलाधर्म पूरता सीमित नथी रहेता, कालधर्मने पण उजागर करे छे. 'कलाओनी जुगलबंधी' ए लखाणने खोली आपवा माटे सक्षम कलाकोविदनी आवश्यकता रहे. हेगले गणावेल उपादान - आधारे कला मीमांसकोने भारतीय कलाविभाग कदाच पकडमां न पण आवे तेवू बने. कारण केटलीक पश्चिमनी कलाओनं ज्यां चरम होय छे त्यांथी भारतीय कलानी शरूआत थती लागे. दा.त. संगीत. _ 'ताम्रशासन'ने काल्पनिका प्रकारथी ओळखावे छे. परन्तु, गुजराती भाषा साहित्यना भावकोए तेने वार्ता तरीके मान्य करी छे. अहीं वार्ताकार ढांकीने पुरातत्वविद ढांकी पुष्कळ मदद करे छे. आ लखाणना प्रतिभाव गुजरातमां उमळकाथी आव्या छे. विस्तारभये पुनः चर्वणा नथी करवी. अन्ते 'कविता कीटकत्रयी' पतंगियुं, फुदुं, आगियो, घणुं भाष्य खमी शकवानी क्षमता विषयपसंदगीमां छे. रस, रंग, अने सुगन्ध, जल, वायु अने तेज वच्चे पांगरता जीवन, सार्थकता, मृत्युनी नियतिनुं कलारूप आपवानो प्रयत्न. ए प्रकृतिविदनो टिक तुलिंका पाटव छे. खेर, आ बधी बाबतो विशे परेश नायक अने एम.आर. दवे साहेबे अनुक्रमे पूर्वालोकन अने विहंगावलोकन लख्युं छे. अमासना तारा साथे शीर्षक साम्य एस्ट्रोनोमीने बदले एस्ट्रोलोजीनी सहाय लीधार्नु लागे. जो के शनि पुरातन अने जूना संशोधननो कारक न मानीए तो पण तेना वलयनी शुभतानी ओळख अपाय छे, ते मुजब Like A Plantcnith Sound Roots अहीं लखाणोना विषयमां चरितार्थ थाय छे. बीजुं लाभशंकर पुरोहित साहेब साथेनी वातमां तेमणे ध्यान दोरेल के ढांकीसाहेब भाषामां नवा शब्द प्रयोजवानी क्षमता धरावे छे. जे झूझ सर्जकमां होय छे. वांचता लाग्युं के परिभाषा माटे पण शब्दो दोडी आवे छे. स्मृतिसंचयिकाना सर्जकनो आन्तर वैभव माणवा एटलुं कही शकाय के भावना सन्दर्भ जगतनुं फलक जेटलुं विशाळ तेटलो विशेष आनंद. C/o. न्यायालय पथ, Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ २४३ मधुसूदन ढांकी : उष्मा, विनोद अने विद्वत्ता ___- रमण सोनी 'आगियो अने स्वर्णभ्रमर' लेख ओ ढांकीसाहेबनो मारो पहेलो स्मरणीय परिचय. वर्षो पहेलां, 'ऊहापोह'ना एक आखा अंकरूपे प्रगट थयेलो, हिन्दुस्तानी अने कर्णाटकी संगीतनी ऊंडी-मार्मिक पण विशद-रसिक छणावट करतो आ दीर्घ लेख मन्दिर-स्थापत्योना आ विश्वख्यात विद्वाननो एक नवो, प्रसन्नकर परिचय करावी गयेलो. एटले पछी, डॉ. आम्बेडकर युनिवर्सिटीमां, कळाओ अने मानवविद्याओ विशेना उत्तम लेखो समावतुं 'विमर्श' सामयिक सम्पादित कर्यु त्यारे मने आ (पछी अमना 'सप्तक' पुस्तकमां प्रकाशित थयेलो) लेख तरत याद आवेलो. अ वखतथी ढांकीसाहेबनो प्रत्यक्ष परिचय पण वधतो चाल्यो. अमदावादमां अमनुं घर मेमनगर फायरस्टेशननी पासे. आ 'फायर' 'स्टेशन' - शब्दोनी अमे घणी रमूज करेली. फायरस्टेशन तो जाणे के बराबर, पण अमनुं बहुमाळी बिल्डिंग 'पीपल्स प्लाझा' खास्सुं खखडधज; सविशेष खखडधज अमांनी लिफ्ट. कंइक पुरातत्त्व शोधवा उपर जवाना होई अवो अंधारियो खूणो. छठे माळे, हेमखेम, ऊतर्या पछी, डाबे हाथे अमना घर तरफ जतां, बहार ज हीचको. ओ हींचके कदी ढांकीसाहेब साथे तो बेसवा- थयुं नथी - अq अमर्नु स्वास्थ्य नहीं. पण हुं बूट काढवा-पहेरवाने निमित्ते ओ हींचका पर जरूर बेसी लडं - जराक एक ठेस पण लगावी लउं. ____बारणुं खूलतां सामे बेठक खण्ड. शरुआतमां तो ढांकीसाहेब त्यां बेठा होय. ज्ञान-गोष्ठिओ ने रमूज-गोष्ठिओ त्यां ज चालती. पण पछी तो ओ अन्दरना अमना सूवाना रुममां ज होय - गरम टोपी पहेरीने, भीन्ते ओशिकां पर अढेलीने बेठेला होय के, पछी तो, सूता ज होय ने वातो चाले. पण मांदा माणसनी खबर पूछवा आव्या होई अर्बु, ओमनी घणी बिमार हालत छतां, लागे ज नहीं. ओ ताजगीवाळा होय, तमे मळवा जाओ त्यारे अमनी आंखमां चमक आवी जाय. पछी ओ खीली ऊठे. संवादो करतां अकोक्तिओनुं प्रमाण ज वधु रहे - अवा ओ वातरसिया. आपणे पूछीपूछीने उत्खनन करावीओ त्यारे अमना ज्ञाननो, अमनी बहु-विध जाणकारीनो खजानो खूले. पण वधारे तो ओ अमना देशभरना ने Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ अनुसन्धान-७१ विदेशभरना मित्रो-अभ्यासीओ साथेनां स्मरणो कहे - ज्ञानगोष्ठिनी आगळपाछळ बधे ज गम्मत-गोष्ठि चाले. ढांकीसाहेबनी प्रतिष्ठा जेवी ज्ञानी विद्वाननी ओवी ज भुलकणा विद्वाननी पण. क्यारेक तो - क्यारेक शुं, घणुंखरूं तो अना ओ ज रसिक विनोदी किस्सा, श्रोताओने कण्ठस्थ थई गयेला ओकना एक हळवा टूचका तमे अनेकवार सांभळता हो. पण ओ आवर्तनोनी लिज्जत पण ओवी ज. अने आ तमे रुबरु मळो त्यारे ज नहीं, फोन पर पण ओ ज रसिक विनोदनी आवृत्तिओ... मित्रो साथे पण तमे ओ ज ताजी प्राचीनताओ वहेंची शको. पण, जेवी ढांकीसाहेबनी आ वक्तव्य-रसिकता अवी ज, मळ्यानी उष्मा ने सतत बधांने मळवानी तरस. मळवा जाओ के फोन पर वात करो त्यारे पहेलां तो ओमनुं मजाकियुं ठपका-वचन सांभळवू पडे. - 'अगस्त्य ऋषिना वंशज' ओ अमनो लोकोक्ति जेवो थई गयेलो ठपको. पण पछी आंखमां, ने फोन पर अवाजमां, स्नेह अने उष्माभर्यु स्वागत. अमने खबर पडी के ओमनी जेम हुं पण मीठाई-रसियो छु - पछी तो मारा नास्तामां मीठाईनो टुकडो घणुंखरं होय ज - मु. गीताबहेनने पण ओ बराबर याद रहेढुं. ___ तमे थोडीक वार बेसो अथी अमने धरव न थाय. अमनो अनुभव-भण्डार खूटे मेवो न हतो ने विनोदवृत्ति सतेज. एटले, तमने बोलवा पण न दे, ने ऊठवा पण न दे ! छतां, वारंवार अमने मळवा जवा ने फोन करवानुं गमे. मन्दिर-स्थापत्य-अध्ययननो अमनो आगवो इलाको. पण से पूछीपूछीने कढाववू पडे. संस्कृत-प्राकृतनी झीणी शब्दचर्चा पण करे. हुं भूतान जई आव्यो पछी एकवार अमने पूछ्युं, के ढांकीसाहेब, सफेद चीवरवाळा ने शमनो प्रबोध करनारा बुद्धना धर्म-सम्प्रदायमां आ स्तूपो-विहारो-झांगर्नु उत्तम स्थापत्य आटला विविध अने तेजस्वी (ब्राइट) रंगोवाळं केम ? ओमने अनी तिबेटपरम्परानी रसप्रद वातो कहेली. 'प्रत्यक्ष'मां कोई पुस्तक विशे आकरी समीक्षा आवे त्यारे कहे के आटलुं तीव्र टीकात्मक आ बधा केम लखे छे ? अमनो इशारो अमना प्रिय शिष्य हेमन्त दवे तरफ पण खरो. में कह्यु, 'ना ढांकीसाहेब, ओ टीकात्मक नहीं पण वास्तविक विवेचन छे. तमे प्रतिष्ठित लेखक कहो छो ओ ज्यारे साव नबळु लखे त्यारे अना पुस्तकनी टीका थाय तो अमां आकरुं शुं छे ?' अमर्नु मन बहु माने Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ २४५ नहीं. पण पछी तरत अमनी हळवी वातोमां ऊतरी जाय, ने कहे, ‘सरस होय छे तमारु सामयिक, हुं बधुं वांची लेतो होउं छु, हों के.' क्यारेक टपालमां 'प्रत्यक्ष' मोडु मळे, न मळे त्यारे कहे, 'भाई, मने मळतुं नथी.' तरत कुरियरथी मोकलुं. ओमनी वार्ताओ ग्रन्थस्थ थई ओ पहेला, 'परब'मां आवती हती त्यारे एकवार पूछे : 'केम लागे छे ?' में का, 'ढांकीसाहेब, समयने तादृश करतां तमारां वर्णनो तो अधिकृत, ने रस पडे अवां होय छे पण विगतोनो भार क्यारेक वार्ताप्रवाहने नडे छे, वार्ताथी बहार नीकळी जाय छे ओवं लागे...' ओ थोडीक स्पष्टता करे, खुलासा करे. पण पछी, 'भाई, हुं वार्ताकार क्यांथी वळी...' अq जराक खोटुंय लगाडे. साहेब अटलाक आळा(टची) पण खरा. रणजितराम सुवर्णचन्द्रक अमने अनायत थयो त्यारे, फोनमा एमणे कहेलु के, कार्यक्रममां आवशो ने ? वात चाली अना परथी जाण्युं के पोतानुं प्रतिभाव-वक्तव्य अंग्रेजी के हिन्दीमां आपवा विचारता हता. में कडं, अq ते होय ? तमे आटलुं गुजराती लख्यु, बोल्या - तो गुजरातीमां केम नहीं ? तमे गुजरातीमां बोलवाना हो, तो हुं आवीश. बीजा मित्रोओ पण कदाच कां हशे. ओ गुजरातीमां बोलेला. ने ओ चेष्टाना गुनेगार तरीके, जाहेरमां मारुं नाम पण बोलेला, स्पष्ट आंगळी चींधीने ! ___ 'अमदावाद क्यारे आवो छो हवे ? घरे आवोने' - ओ फोन परनी अमनी अचूक उक्ति. कोईवार फोन करीने गोष्ठि करी लउं, खबर-अन्तर पूछी ललं. पण मोटे भागे अमना ज फोन आवे - मने भोंठपनो अनुभव थाय : मारे फोन करवो जोईतो हतो. वधु बिमार पडता गया, वारंवारनां ओपरेशनोने लीधे साव पथारीवश थता गया, गीताबहेन गयां... ओ पछी ढांकीसाहेब वधु ने वधु सम्पर्क-भूख्या थता गया. ओमनो आदर करनार चाहकवर्ग मोटो हतो, मळनाराओनी खोट न हती, छतां अमने मळवानी, फोन पर बधां साथे वात करवानी तरस रह्या करे. अमने विह्वळ थता पण जोया छे. अमां एकवार हुं साहस करी बेठेलो. अमदावाद गयेलो. कोईकने त्यांथी फोन कर्यो : 'आq छु.' 'जरूर आवो. आवो छो ने ?' एमणे खातरी करी लीधी. गयो तो लिफ्ट बंध ! माराथी, ओपरेशनोवाळा पगे कंई छ माळ चढाय नहीं. पाछा वळवा विचार्यु पण थयुं के एकवार कयुं छे एंटले हवे ओ तीव्रताथी Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ अनुसन्धान-७१ राह जोवाना. छेक अहीं आवीने फोन करीने पाछो जाउं ओ केवं लागे - ओवी लागणीमां पगथियां चडवा मांड्यो. पहेले माळे जई पाछो ऊतरवा जतो हतो, पण खबर नहीं केम, पाछो चड्यो - माळे, अरधे माळे, अटकतो अटकतो चडी गयो. मळ्यानो आनन्द तो आव्यो पण पछी, नीचे उतरतां एक एक पगथिये पग हिसाब मागता हता. गीताबहेनना अवसान पछी मळवा गयो त्यारे ओ बाळकनी जेम रडी पडेला. बहेन अमनो मोटो, ने एकमात्र आधार हतां. पण हसमुखां अने वत्सल. जईओ त्यारे बारणुं खूलतां ज पहेलु उष्माभर्यु स्वागत अमर्नु पामीओ. अमना गया पछी, बीजा कोई दरवाजो खोल्यो त्यारे अंदर एक धक्को वागी गयेलो. थतुं हतुं के जीवनसाथीना गया पछी ढांकीसाहेब केटलुं ने केवी रीते टकशे ! ओ पछी तो अमनी तबियत अनेकवार बगडी - होस्पिटलोमां दाखल करवा पड्या. हेमन्त अने पीयूष (ठक्कर) सात काम पडतां मूकीने य दोडी जता. छेल्ला केटलाक महिनाथी माराथी न जवायेखें. ओमना सूवाना रुममा प्रवेशी त्यारे गरम टोपी पहेरेला ने शाल ओढेला ढांकीसाहेबनो मासूम, प्रसन्न चहेरो देखाय. एकवार में कहेलुं, 'आ तमारो युवान वयनो फोटोग्राफ न जोयो होय तो पण लागे के तमे सोहामणा हशो. हशो शुं, छो ज.' से हस्या - 'हवे मश्करीपात्र पण थया !' में कह्यु, 'ना, खरुं कहुं छु, आइ मीन इट.' ने अमना हाथ मारा हाथमां लीधा. ____ओ उष्मा हजुय हाथमां अनुभवाय छे - अ प्रखर विद्वाननी तेजस्विता आ उष्माने मार्गे ज मनमां प्रसरती रहेशे. १८, हेमदीप सोसायटी, दीवाळीपुरा, जूनो पादरा मार्ग, वडोदरा-३९०००७ ramansoni46@gmail.com (मो.) ९२२ ८२१ ५२७५ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ २४७ देवालयना विश्वकर्मानी विदाय __- डो. रेणुका पोरवाल नाम - मधुसूदन अर्थात् श्रीकृष्ण अने कार्य देवालयना दिव्यात्माने जगत समक्ष झीणवटथी प्रस्तुत करवानु. जीवनना अन्तिम तबक्का सुधी कर्मयोगी रहेवू सहेलुं नथी. संगीत अने शिल्पकळा बन्नेमां पारखी नजरने कारणे सफळता तेमने वरी. डॉ. कुमारपाळ देसाईले 'पारिजातना संवाद'मां तेमनो परिचय आपता जणाव्युं छे के तेमणे २५००० जेटला प्राचीन मन्दिरो पर शोधकार्य कर्यु हतुं. ओ सर्व पर ग्रन्थो के अभ्यास-लेखो जगतने भेट कर्या. अमां कुम्भारिया, आबु अने राणकपुरनां देरासरोनां स्थापत्योमां ओना घुम्मटनी बांधणीनी बारीकी तेमणे घणी चीवटथी रजू करी. स्वरसाधनानी उत्कण्ठाओ तेमने विधिसर तालीम लेवा प्रेर्या. सुब्बालक्ष्मीना स्वरथी गुन्थायेलां भजनो सांभळीने कर्णाटकनुं संगीत आत्मसात् करी लीधुं. अमने कला साथे पूर्व जन्मोनो नातो होय अम तेमनी कलाप्रियता जोई अनुभवातुं हतुं. साहित्यमा वार्ताओ अने अन्य लखाणो साथे कला, कलाकारो, नाट्य-कलाकारो बधा पर तेमनी कृतिओ जोवा मळे छे. ओमनी साथे घणीवार मुलाकातो थई. मारा माटे गुडगांवनी 'अमेरिकन इन्स्टिट्यूट फोर इन्डियन स्टडीझ' मुम्बईथी घणे दूर हती; परन्तु अमना आत्मविश्वासभर्या शब्दोमां स्नेहथी भींजायेल आमन्त्रणनो सहारो मारा माटे पूरतो हतो. ओ सफर मारा माटे घणी लाभदायक रही. एक ज स्थळे अभ्यासनी दरेक सगवड शोधकर्ताने घणी माफक आवे छे अने अना थकी ज समाजने नवी नवी शोधोनी भेट मळी रहे छे. त्यां तेमना मार्गदर्शन थकी मथुराना स्तूपनो प्रोजेक्ट हुं पूरो करी शकी. ___ज्यारे पण तेमने मळवानुं थाय त्यारे पुरातत्त्व अने शोधकार्यनी वातो थाय, शीरोहीना सुन्दर मन्दिरसमूहनी माहिती अने जीवितस्वामीना तेमना ज्ञाननी वातो सांभळवी खूब गमे. तेओ पोते ज विश्वकोश हता. Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ अनुसन्धान-७१ एकवार में तेमने गिरनारना प्राचीन देरासरमां दर्शनार्थे बेबीलोनथी नेबुझनेझर राजा आव्यो हतो ते बाबते चर्चा करी, त्यारे तेमणे ओ शिलालेख देखावमां घणो नानो हतो ते जणावी ओ सोमनाथमां कई व्यक्ति पासे हतो ते पण जणाव्यु. मे व्यक्तिना सगाओनी में शोध करी पण ओ लेख तेमनी पासे न हतो. तेमनी साथेनी चर्चामां शब्दोनी व्युत्पत्ति खास होय ज. पछी मे ‘यापनीय' होय के 'चैत्य' होय अथवा अन्य पण कोई होय, शास्त्रोक्त रीते छणावट करवानुं कदाच तेमना 'जीन्स'मां हतुं. आवी 'ज्ञानामृतकुम्भ'नी चिर विदाय वसमी लागे ओ स्वाभाविक छे. ज्ञान साथे निखालसता घणी जूज व्यक्तिमां जोवा मळे. मा सरस्वतीना कृपापात्र, अनेक शोधग्रन्थोना लेखक अने सम्पादक उपरान्त घणी अप्रगट कृतिओना सर्जक वीर पुरातत्त्वविदने शत शत वन्दन. Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर २०१६ ढांकी साहेबनी में झीलेली छबी २४९ - डो. निरंजन राज्यगुरु मारा अभ्यासकाळ दरमियान हुं श्रीमधुसूदन ढांकीसाहेबना नाम अने कामथी परिचित थतो रह्यो हतो. परन्तु सर्वप्रथम अन्तरंग मुलाकात तो छेक ई.स. २००१ ना ओक्टोबर मासनी १२,१३,१४ तारीखो दरमियान सुरत खाते आचार्य श्री विजयशीलचन्द्रसूरिजी महाराजसाहेब आयोजित 'आनन्दघनजीपरिसंवाद' निमित्ते थई. ए पछी ९ ओक्टोबर २०१०ना रोज जैनसङ्घ - अमदावाद द्वारा गुजरातना जैनेतर साहित्यना त्रण अभ्यासी विद्वानो श्री कनुभाई जानी, श्री लाभशंकर पुरोहित अने डो. हसु याज्ञिकने अमदावादमां हठीसिंहनी वाडी खाते योजायेल श्रीहेमचन्द्राचार्य - चन्द्रक-प्रदान समारंभमां अतिथिविशेष तरीके श्री ढांकीसाहेब 'श्री हेमचन्द्राचार्यजी तथा सिद्धराज जयसिंहना इतिहास अंगे प्राप्त थता प्रमाणभूत सन्दर्भे' विशे हिन्दी भाषामां विद्वत्तापूर्ण व्याख्यान आपेलुं तेना श्रवणनो लाभ मळेलो अने वधु निकट अवायेलुं. ए सिवाय ज्यारे ज्यारे पू. विजयसूर्योदयसूरीश्वरजी महाराज साहेब अने पू. विजयशीलचन्द्रसूरिजी म.सा. अमदावादमां स्थिरवासमां होय अने मु. लाभशंकर पुरोहित, डॉ. मनोज रावल, डो. शिरीष पंचाल, डो. नाथालाल गोहिल, डॉ. राजेश पंड्या, कवि जयदेव शुक्ल वगेरे आत्मीय जनो साथे गोठडीनुं आयोजन थाय त्यारे त्यारे पण श्री ढांकीसाहेबनी विद्वत्तापूर्ण चर्चाओ सांभळवानुं सद्भाग्य मने मळतुं रहेलुं. संशोधन के अभ्यासलेखोमां तेओ प्राचीन भारतीय जैन- जैनेतर साहित्यना अभ्यासी तरीके संस्कृत, प्राकृत - अपभ्रंश के जूनी गुजराती भाषाओनी हस्तप्रतो, मन्दिरोना शिलालेखो, ताम्रपत्रो, दानशासनो, पुरातात्विक पुरावाओ, शिल्पमूर्तिविधानकला अने स्थापत्यविद्या वगेरे समाग्रीनो यथोचित उपयोग करीने पोतानां तारणो रजू करता. वळी संशोधन द्वारा सांपडेलां आ तारणो जो परंपरित रूढिवादी कट्टरता धरावती कोई व्यक्ति के संस्थाने मान्य न होय तो खुल्ला दिले पोतानी संशोधक तरीकेनी भूमिका पण स्पष्ट करता. केटलीकवार तो एमना द्वारा Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० अनुसन्धान-७१ लखायेला संशोधनग्रन्थो पाछा खेंची लेवानां फरमानो पण थयेलां. परन्तु एमणे पोतानी संशोधक तरीकेनी कामगीरी पोते पूर्ण निष्ठाथी बजावी छे एनो आत्मसन्तोष व्यक्त करीने कोईपण जातना ऊहापोह विना मौन रहेवानु पसंद करेलुं. त्यार पछी तो एमना गुजराती निबन्धो, वार्ताओ, प्रसंगचित्रो अने 'नवनीत समर्पण'ना मे-जून २००१ना अंकोमा डो. यज्ञेश दवे द्वारा लेवायेल सुदीर्घ अन्तरंग मुलाकातनुं वांचन थतुं रह्यं अने एमना व्यक्तित्वनां अणजाण्यां अनेक पासां उजागर थतां रह्यां. ढांकीसाहेबनो स्थूल परिचय : गुजरातना पुरातत्वविद्, स्थापत्यशास्त्री, इतिहासविद्, संगीतज्ञ, वृक्ष-पशुपक्षी प्रेमी, भारतीय संस्कृति तथा जैन धर्मना शास्त्रोना अठंग अभ्यासी, पद्मभूषणनी पदवी, कुमारचन्द्रक, उमा-स्नेहरश्मि पुरस्कार, रणजितराम सुवर्णचन्द्रक अने कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य चन्द्रक जेवां अनेक सन्मानो जेमने प्राप्त थयेलां एवा आन्तरराष्ट्रीय-ख्यातिप्राप्त बहुश्रुत विद्वान श्री मधुसूदन ढांकीसाहेबनो जन्म सौराष्ट्रना गांधीजीनी जन्मस्थळी एवा पोरबंदर खाते ता. ३१ जुलाई १९२७ना रोज थयो हतो. बाल्यावस्थाथी ज अत्यन्त तेजस्वी अने मेधावी व्यक्तित्व. 'सेन्ट्रल बेन्क ओफ इन्डिया'नी नोकरीथी पोतानी कारकिर्दीनो प्रारंभ कर्यो, पोरबंदरमा पुरातत्वमंडळनी स्थापना करनारा मंडळना अग्रणी संशोधक तरीके एमणे पोरबंदर विस्तारना प्राचीन पुरातत्वीय स्थळोनी खोज आदरेली, एवामां जूनागढना म्युझियम संरक्षकना स्थान पर नोकरी मळी अने त्यारपछीना गाळामां जामनगरना संग्रहालय अने राजकोटना वोटसन म्युझियम खाते पण इतिहास, पुरातत्त्व, हिन्दु के जैन मन्दिरोना शिल्प-स्थापत्य अने प्राचीन स्थळो-टींबाओना उत्खनन जेवा रसना विषयोमां सतत काम करवानुं मळतुं रह्यु. ए पछी राजस्थानना जैन मन्दिरोना शिल्प-स्थापत्य-मूर्तिविधान विशे ऊंडाणथी काम करवानी तक मळी. एवामां 'अमेरिकन एकेडेमी बनारस' साथे जोडाया. त्यारबाद अमदावादना लालभाई दलपतभाई प्राच्य विद्यामन्दिर साथे पण अनुसन्धान थयु. परदेशनी अनेक संस्थाओ अने युनिवर्सिटीओमां गुजरातना-भारतना प्रतिनिध तरीके विद्वत्तासभर शोधनिबन्धो प्रस्तुत कर्या. Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ २५१ अंग्रेजी भाषामां प्रकाशित 'एन्साइक्लोपिडीया ओफ टेम्पल आर्किटेक्चर' उपरान्त 'निर्ग्रन्थ ऐतिहासिक लेख समुच्चय भाग-१,२' अने जैन तीर्थधामोनी परिचय पुस्तिकाओ जेवां अनेक पुस्तको पण एमना द्वारा अंग्रेजी, हिन्दी, गुजराती भाषामा प्रकाशित थतां रह्यां. आनंद आश्रम, संत साहित्य संशोधन केन्द्र, मु.पो. घोघावदर, ता. गोंडल, जि. राजकोट. Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ मधुसूदन ढांकी : ग्रन्थसूचि - अनुसन्धान- ७१ हसमुख व्यास मन्दिर स्थापत्यना प्रसिद्ध आरूढ निष्णात मधुसूदन अमीलाल ढांकी (ज. ३१-०७-१९२७, अ. २९-०७-२०१६) नो जन्म पोरबंदरमां पोरबंदरमां माध्यमिक कक्षा सुधीनुं शिक्षण लइ पूनानी फर्ग्युसन कोलेजमां उच्च शिक्षण माटे जोडाया. भूस्तरशास्त्र साथ स्नातक थया बाद पोरबंदर परत. अहीं पोरबंदर पुरातत्त्व मण्डळना स्थापक मणिभाई वोरा इ. साथे पोरबंदरनी आसपासना स्थळ- प्रदेशोनी पगपाळा रखडपट्टी करी प्राचीन स्थळ - -अवशेषोनुं निरीक्षण कर्यु. १९५४मां गुजरात राज्यना म्युझियमखातामां जोडाई प्रथम जूनागढ, त्यारबाद जामनगर, राजकोट व. म्युझियमोमां फरज बनावी. आ वर्षो दरमियान आमरा-प्रभास-लाखाबावळ - रोझडी वगेरे उत्खननोमां पण सहायक तरीके कामगीरी बजावी. सन १९६५-६६मां बनारसमां अमेरिकन इन्स्टिट्यूट ओफ बनारस (जे पछीथी अमेरिकन इन्स्टी. ऑफ इन्डियन स्टडीझ बनी ) नी स्थापना थतां त्यां डेप्युटेशन पर गया. पाछा फरतां खाताकीय गूंचवणना कारणे अमेरिकन इन्स्टी. ओफ इ. स्ट. - बनारसमां जोडाया अहीं भारतना मन्दिरस्थापत्यनो ऊंडो अभ्यास कर्यो; जे 'एन्सायक्लोपीडिया ऑफ टेम्पल आर्किटेक्चर' नामनी ग्रन्थमाळारूपे प्रसिद्ध थइ रहेल छे. प्रस्तुत ग्रन्थमाळा भारतीय मन्दिर स्थापत्यना अभ्यासक्षेत्रे बेनमून छे. आमां तेमनी तद्विषयक सूक्ष्म - चिकित्सक अभ्यासदृष्टि गोचर थाय छे. प्रस्तुत ग्रन्थमाळामां तेओ सह-सम्पादक हता ए नोंध रह्यं. ढांकीसाहेबनुं प्रमुख कार्य तो भारतीय देवालय - स्थापत्यना संशोधनआलेखननुं. पण तद्उपरान्त पण एमनो शोख अने अभ्यास-संशोधन विविध शास्त्रीय कळाओ प्रति पण हतो. लगभग जीवनना ५१ वर्ष (१९६३ - २०१६) सुधी सतत गुजराती - हिन्दीअंग्रेजीमां ढांकीसाहेब लखतां रह्या. परिणामस्वरूप गुजरातीमां १७ (सत्तर) अंग्रेजीमां १३ (तेर) अने हिन्दीमां ३ ( त्रण - सम्पादन) ग्रन्थो मळी कुल ३३ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ २५३ ग्रन्थो उपरान्त गुजराती, हिन्दी, अंग्रेजीमां देश-विदेशना अधिकृत अने प्रतिष्ठित सामयिकोमा लगभग ४०० शोधपत्र (रिसर्च पेपर्स) प्रसिद्ध थयां छे. प्रस्तुत उपक्रम मात्र ढांकीसाहेबना ग्रन्थोनी सूचि आपवानो छे. गुजराती : श्रुतनिधि शारदाबेन चिमनभाई एज्युकेशनल रिसर्च सेन्टर (अमदावाद) अने शेठ आणन्दजी कल्याणजी ट्रस्ट (अमदावाद) द्वारा प्रकाशित जैन तीर्थोनी पथदर्शिका श्रेणि अन्तर्गत सन १९९७मां प्रसिद्ध थयेल सचित्र प्रकाशनो. १. मेवाडनी तीर्थत्रयी. २. जगविख्यात जेसलमेर तीर्थ ३. देलवाडानां जिनमन्दिरो ४. वरकाणा तीर्थ ५. तीर्थाधिराज शत्रुञ्जय ६. मीरपुरनां जिनमन्दिररो ७. आरासणनां जिनमन्दिरो ८. राणकपुरना जिनमन्दिरो ९. महातीर्थ उज्जयन्तगिरि १०. राजर्षि विनिर्मित तारङ्गा तीर्थ (गिरनार तीर्थ) ११. आरसी तीर्थ आरासण आ उपरान्त अन्य गुजराती ग्रन्थो १२. भारतीय दुर्ग विधान. सोमपुरा प्रभाशङ्कर, ढांकी मधुसूदन. सोमैया पब्लिकेशन प्रा.ली.- मुंबइ. १९७१ १३. सप्तक (संगीतविषयक लेखो). संवाद प्रकाशन-वडोदरा. १९९७ १४. शनिमेखला (ललित निबन्ध). गुजरात साहित्य अकादमी अमदावाद. २००६ १५. निर्ग्रन्थ ऐतिहासिक लेख-समुच्चय : १-२. श्रेष्ठीश्री कस्तुरभाई लालभाई स्मारकनिधि-अमदावाद. २००२ - १६. साहित्य, शिल्प अने स्थापत्यमां गिरनार. ला.द. संस्कृति मन्दिर अमदावाद. २०१० १७. ताम्रशासन (बे ढूंकी वार्ताओ). गूर्जर प्रकाशन-अमदावाद. २०११ अङ्ग्रेजी: १८. The Chronology of the Solanki Temples of Gujarat. Journal of the Madhya Pradesh Itihas Parishad, No. 3, Bhopal : 1961. (entire issue). Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ अनुसन्धान- ७१ ?. The Ceilings in the Temples of Gujarat. J. M. Nanavati; M. A. Dhaky. Bulletin, Museum & Picture Gallery, Baroda, Vol. XVI-XVII : 1963. 20. The Vyala Figures on the Medieval Temple of India. Prithivi Prakashan. Varanasi : 1965. ??. The Embroidary and Bead work of Kutch and Saurashtra. J. M. Nanavati; M. A. Dhaky; M. P. Vora. Department of Archaeology; Gov. of Gujarat, Ahmedabad : 1966. 23. The Maitraka and the Saindhava Temples of Gujarat. J. M. Nanavati; M. A. Dhaky. Ascona: 1969 (Artibus Asiae Supplementum XXVI). 23. The Riddle of the Temples of Somanath. M. A. Dhaky, H. P. Shastri. Bharata Manish. Varanasi : 1974. 28. The Indian Temple forms in Karnata Inscriptions and Architecture. Abhinav : New Delhi : 1977. 24. The Temples in Kumbhariya. U. S. Moorti, M. A. Dhaky. American Institute of Indian Studies, New Delhi : 2001. 2. The Indian Temple Traceries. American Institute of Indian Studies and D. K. Printworld, New Delhi : 2006. 2. Studies in Nirgrantha Art and Architecture. Shresthi Kasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Series 5, Ahmedabad : 2012. 3. Huttheesing Heritage (ed.) Ahemadabad: 1999. Encyclopaedia of Indian Temple Architecture (EITA). EITA, Vol. I Part 1: South India: Lower Dravidadesa. 200 B.C., A.D. 1324. Text and Plates, edited by Michael W. Meister, Coordinated by M. A. Dhaky. American Institute of Indian Studies and Oxford University Press, New Delhi: 1983. EITA Vol. I Part 2: South India: upper Dravidadesa, Early Phase. A. D. 550-1075. Text and Plates, edited by Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर २०१६ २५५ Michael W. Meister and M. A. Dhaky. American Institute of Indian Studies and Oxford University Press, New Delhi : 1986. EITA Vol. I Part 3 : South India : upper Dravidadesa, Later Phase. A. D. 973-1326. Text and Plates, authored by M. A. Dhaky. American Institute of Indian Studies and Indira Gandhi National Centre for the Arts. New Delhi : 1996. EITA Vol. II Part 1 : North India : Foundations of North Indian Style c. 250 B.C.- A. D. 1100 Text and Plates, edited by Michael W. Meister, M. A. Dhaky and Krishna Deva. American Institute of Indian Studies and Oxford Uni. Press. New Delhi : 1988. EITA Vol. II Part 2 : North India : Period of Early Maturity c. A. D. 700-900. Text and Plates, edited by Michael W. Meister and M. A. Dhaky. American Institute of Indian Studies and Oxford Uni. Press. New Delhi : 1991. EITA Vol. II Part 3 : North India : Beginnings of Medieval Idiom. c. A. D. 900-1000. Text and Plates, edited by M. A. Dhaky. American Institute of Indian Studies and Indira Gandhi National Centre for the Arts. New Delhi : 1998. हिन्दी सम्पादन : १. पं. बेचरदास दोशी स्मृति ग्रन्थ. सं. ढांकी मधुसूदन, जैन सागरमल, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी. १९८७ २. पं. दलसुखभाई मालवणिया अभिनन्दन ग्रन्थ. सं. ढांकी मधुसूदन, जैन सागरमल, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी. १९९१ ३. मानतुङ्गाचार्य और उनके स्तोत्र, सं. ढांकी मधुसूदन, शाह जितेन्द्र, शारदाबेन चिमनभाई अज्युकेशनल रिसर्च सेन्टर, अमदावाद. १९९७, १९९९ (द्वि.आ.) अमरेली 'संशोधन' (मो.) ९८२५० १३०३६ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ अनुसन्धान-७१ CONTRIBUTION OF DR. MADHUSUDAN DHAKY IN THE FIELD OF ARCHITECTURE - Dr. Renuka Porwal A renowned personality, devoted towards knowledge of temple architecture, raises only one name and that is Padmabhushana Dr. Madhusudan Dhaky. Since years he wrote books with deep meaning on temple architecture as well as its art and objects within. Whether it's Sirohi city's treasured shrines or Kumbhariya or Ayada or Sadadis' temple, he observed them and covered all aspects. The diversity of his acute knowledge appeared in his writings and lectures. Every research work of his, was characterised by extensive observation and excellent precision with series of references. His high valued factual vidya and erudition echoed in his writings whether it may be on Vedic, Buddhist or Jaina's literature or deciphering the epigraphs or observing the iconography or temple architecture. His research compositions are of outstanding merit, creating tremendous zeal among readers and research scholars. His rhetorical workmanship too is very methodical as well as covering all aspects. He propagated his wide knowledge of scriptures and history throughout the world to elucidate art icons and also to solve the controversy between different faiths. As a writer hiscontribution towards temple architecture with reference to Agamic literature crosses all boundaries. Dr. Dhaky - the Visvakarma of Indian shrines as he is often referred, took much effort in blooming the institute ‘American Institute of Indian Studies (AIS)' the real research centre to learn any sort of art and aesthetics of India. He joined Alls in about 1976 at Varanasi and continued for many years when it was transferred to Gurgaon. His contribution to this institute is amazing as it received worldwide publicity because of his Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर २०१६ dedication. He used to stay at Gurgaon for more than four months in a year. Here one can learn and see the art related material from any Corner of India in the form of documentary, photographs, CD and written material, etc. Photographs of sculptures from any museum within India are availabale too. २५७ His important work is the four volumes of 'Encyclopaedia of Indian Temple Architecture' which he edited. In the introduction of his valuable edited work 'Arhat Parsva and Dharanendra Nexus he first thanked Dr. Herman Jacobi for his findings of distinctness of Nirgrantha religion together with historicity of Arhat Parsva who was regarded in the tradition as the 23rd Jina in succession. According to Dr. Dhaky the original Agama and Agamic works belonging to the sect of Arhat Parsva and also 14 Purva texts which could have thrown considerable light on other Jina's biography but many of them are lost. He concluded - "We are today dependent on what scanty references to him are scattered through the agamas of the alpachela-Nigantha sect, in essence and in a small measure preserving also the books of the more ancient achel-Nirgrantha of Arhat Vardhaman, and now surviving within the fold of sacred scriptures of the sachela or Svetambara sect, these have been mentioned in the foregoing passages along with some relevant agamic commentarial works, the latter doubtless were the products legitimately of the Svetambara sect. According to all these sources Parsvanatha was born in Iksavaku/Ugra dynasty in Varanasi; his parents were king Asvasena and queen Varna ... 33 In the same introductory chapter he mentioned the dialogue between Kesi and Gautama sramanas from Uttaraddhyayanasutra-23. The main point of discussion in the dialogue was a clear pointer to the fact that, in Parsvanath's tradition ascetics were allowed to wear garments. Dr. Dhaky also supported above from Vyakhyaprajnapti. Some of Parsvanath's beliefs and doctrines are recorded in Isibhasiyaim - an early work of his sect that he Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ अनुसन्धान-७१ believed in transmigration of soul and in the existence of cosmos. As per this work he propagated Panchastikayas, the eight types of karmas and their connection with the gati of soul and relationship of gravity on the gati or motion of matter. From the survived early works (Surya-prajnapti, Chandra-prajnapti, Jambudvipaprajnapti, Jivabhigam-sutra, some portion of Sthananga-sutra), Dr. Dhaky analysed some more facts that Parsvanath was an ascetic-scientist, a systematic and methodical thinker while Arhat Nataputta (Mahavir) was an ascetic-philosopher. The preachings of Niganthas is based on original teachings of Parsva, even the fourfold viewpoints - dravya, ksetra, kala, and bhava of examining any idea or object is taught by him. Dr. Dhaky further noted that the idea of Sanlekhana vrat is also gifted by him as he himself took Sanlekhana at Sametshikhara. Now we come to the reference of the Upsarga episode of Kamatha and the rescue of Parsva by Dharan in the same text (Isibhasiyaim), it has less early scriptural evidences as drawn by Dr. Dhaky. This well-known phenomenon did not require any description. In the view of Dr. Dhaky this event is not mentioned in any early work but after few centuries the same is available in Chaupann-mahapurush-charitra by Shilacharya in 869 A.D. It is likely that in later work this incident had given more importance to show the power of Nagaraj. Even Parsva yaksa is shown with serpenthood might be to differentiate from Ganesha. Afterwards in early medieval period most of the shrines had showed this Upasarga. One very applicable ceiling with very natural carving of Nagaraj Dharanendra is worth mentioning. It is at Aihole cave (Maina basti) ceiling where Nagaraj is carved with five hoods in very classical manner in early c. sixth century. Even the cave at Badami in Karnataka has beautiful carving of Nagraj with Parsvanatha. All Parsvanatha images of Kushana period onwards are available with canopy of Dhamendra strengthening the practice of Naga cult in Jainism and his presence with Parsvanatha. One rare image of him has a deity Padmavati in the canopy of Dhamendra now in Lucknow Museum. Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ २५९ Dr. Dhaky had great love for languages also, he could read and write Sanskrit, Prakrit, Pali, Magadhi, Ardhamagadhi, Apabhramsa, English, French, Hindi, Marathi and Gujarati languages, this helped him in deciphering inscriptions. His powerful observation and unique search style resulted in knowing more than 30 ancient temples of Solanki period situated in Gujrat-Saurashtra. His very minute and accurate reading is seen in any of his research work whether it may be on a cave temple or a stupa or a shrine architecture. He used to cover every aspect with a lot of scriptural and archaeological data therefore he was called 'Visvakarma of Indian Temples'. He has worked on about 25000 temples as referred by Dr. Kumarpal Desai in his article in Gujarat Samachar dated 7th July 2016. Here Dr. Desai noted his keen interest besides temple research that he was good at shastriya music and written many articles on musicians and dancers. We pay tribute to this 'Great Visvakarma of Indian Temples'. 1105-Zenith Tower, P. K. Road, Mulund (West), Mumbai - 400080 Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० अनुसन्धान-७१ प्रतिभापुञ्जनी विदाय - डो. कुमारपाळ देसाई पद्मभूषण मधुसूदन ढांकीनी विदाय साथे अनेकविध क्षेत्रोमां विहरती समर्थ प्रतिभानी विदायनो अनुभव थाय छे. तेओ एक अर्बु प्रतिभाबीज हता के ओ जे जमीन पर पडे, त्यां ऊगी नीकळे अने म्होरी ऊठे. ८९ वर्षे विदाय पामेला ढांकीसाहेबनी विद्याउपासना छेल्ले सुधी चालु रही. छेल्ले छेल्ले नबळा स्वास्थ्य वच्चे पण स्फूर्तिथी लेखन-संशोधन करता मधुसूदन ढांकी हसतां हसतां कहेता के मारी दशा तो स्टीफन हॉकिन्स जेवी छे. आ शरीर पर सोळ सोळ ओपरेशन थयां छे, पण हजी मगज पूरेपूरुं साबूत छे.. __१९२७नी ३१मी जुलाईओ डॉ. मधुसूदन ढांकी पोरबन्दरना दशाश्रीमाळी जैन वणिक कुटुम्बमां जन्म्या. पिता अमीलालभाई अने माता रळियातबहेनना आ सन्ताने प्राथमिक अने माध्यमिक शिक्षण पोरबंदरमा प्राप्त कर्यु. अहींनी भावसिंहजी हाइस्कूलनुं सूत्र हतुं 'रसौ वै सः'. ढांकीसाहेबने आ सूत्र पासेथी जगतना कलापदार्थोमां अने आसपासनी जीवन्त सृष्टिमां निहित सौन्दर्यने जोवानी दृष्टि मळी. उमाशंकरनी माफक 'सौन्दर्यो पी उरझरण गाशे पछी आपमेळे...' ओ पंक्तिनुं स्मरण श्री मधुसूदन ढांकीना रसनां क्षेत्रो, विशाळ विश्व जोई त्यारे थाय. ऊंचा गजाना स्थापत्यविद्, इतिहासविद् अने कलाविवेचक तो खरा ज, परन्तु अथीय विशेष शास्त्रनी कोई वात करवी होय, मन्दिरनी बांधणी विशे कोई चर्चा करवानी होय, जैनदर्शननी कोई विभावनाने स्फुट करवानी होय - बधे ज अमनी कलारसिक संशोधनदृष्टि फरी वळती. केरीनी केटली जात छे, त्यांथी शरु करीने मानवीनी चाल, अंगभंग, पोशाक ओ बधां विशे तेओ निरांते विगते वात करी शकता. ___ पोरबंदर पासेना ढांक गामना वतनी होवाथी ढांकी अटक धरावता मधुसूदनभाई पुणेनी फर्ग्युसन कालेजमांथी भूस्तरविद्या अने रसायणशास्त्रना विषयो साथे बी.एससी.नी पदवी प्राप्त करी. ओ पछी सेन्ट्रल बेंकनी नोकरीथी कारकिर्दीनो प्रारम्भ कर्यो. १९५१मां अन्य मित्रो साथे पोरबंदरमा पुरातत्त्व संशोधन मण्डळनी स्थापना करी अने पोरबंदरनी आसपास जूनां स्थापत्योनी Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ २६१ शोध करवा माटे लांबो प्रवास खेडवा लाग्या. गुरु मणिलाल व्होरा अने अन्य मित्रो साथे 'आर्किओलॉजिकल सोसायटी ऑफ पोरबंदर'नी स्थापना करी. पिताश्रीनी पोरबंदरथी जूनागढ बदली थतां मधुसूदनभाई जूनागढमां कृषिसंशोधनमा जोडाया अने अहीं कपास अने घउं पर संशोधन कर्यु. परिणामे बन्युं अq के एमणे सोलंकीकाळ पूर्वेनां घणां मन्दिरो शोधी काढ्यां. 'कुमार' सामयिकमां अमना देश-विदेशना स्थापत्य विशेना लेखो प्रगट थवा लाग्या. 'कुमार'ना तन्त्री श्री बचुभाई रावते अमने खूब प्रोत्साहन आप्युं. १९७४नो कुमारचन्द्रक पण अमने मळ्यो हतो. स्थापत्यशास्त्रना आ अभ्यासीओ पोरबन्दरना ग्रन्थालयमांथी बर्जेस अने कजिन्सना जूना रिपोर्टोनो अने पर्सी ब्राउनना तथा स्थापत्य विशेना अन्य ग्रन्थोनो अभ्यास कर्यो. पोताना साथीओ साथे गोप, किंदरेडा, मियाणी, घूमली जेवां आसपासनां स्थळोनो अभ्यासप्रवास खेड्यो. सोलंकीकाळना खीमेश्वर, नन्देश्वर, भाणसरे जेवां स्थळोओ त्रीसेक प्राचीन मन्दिरो शोधी काढ्यां, अटलुं ज नहीं पण अनी तस्वीरो लईने अनो झीणवटभर्यो अभ्यास कर्यो. प्रसिद्ध अध्यापक बी. सुब्बाराव साथे लाखाबावळ, आमरा, पाटण वगेरेना उत्खननमां ओमनी साथे रहीने अमूल्य अनुभव मेळव्यो. अमेरिकन इन्स्टिटयूट ऑफ इन्डियन स्टडीझ, वाराणसीमां रिसर्च असोसिजेट तरीके जोडाया अने आ संस्थामां आपेला योगदान अंगे अना वर्तमान उपप्रमुख श्री प्रदीप महेंदीरत्ताओ कडं के, 'अमारी संस्थाने वैश्विक प्रतिष्ठा आपवामां डो. मधुसूदन ढांकीनो बहुमूल्य फाळो गणाय.' श्रीमधुसूदन ढांकीओ 'अन्साइक्लोपीडिया ओफ इन्डियन टेम्पल आर्किटेक्चर' श्रेणीना प्रधान सम्पादक तरीके महत्त्वनी कामगीरी बजावी. भारतीय मन्दिर-स्थापत्यना क्षेत्रे आ ग्रन्थश्रेणी अद्वितीय गणाय. १९९७थी अमेरिकन इन्स्टिट्यूट ओफ इन्डियन स्टडीझ, गुडगांवना डिरेक्टर (अमरिट्स) तरीके पण तेमणे सेवाओ आपी. आ संस्थाओ अमने जे अवोर्ड आप्यो तेमां नोंध्युं छे : 'For the contribution to the world of knowledge.' अमनो 'गुजरात सोलंकीयुगीन मन्दिरोनी आनुपूर्वी' लेख स्थापत्यक्षेत्रे सीमाचिह्नरूप गणाय छे. सोलंकीकालीन मन्दिरोनी छत विशेनो लेख पण Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ अनुसन्धान-७१ महत्त्वनो गणाय. अवां अनेक महत्त्वनां शोधपत्रो द्वारा एमणे देवालय-स्थापत्यना क्षेत्रे यशस्वी संशोधक तरीके कामगीरी बजावी. वळी आ माटेनी परिभाषा निश्चित करवानुं महत्त्व- काम पण एमणे कर्यु. तेओ संस्कृत, प्राकृत, पालि, मागधी, अपभ्रंश वगेरे भाषाओ वांची-लखी शकता अने ते साथे हिन्दी, मराठी अने फ्रेन्च भाषाने पण विशेष रूपे जाणता हता. प्राचीन-मध्यकालीन स्थापत्य, पुरातत्त्व, शिल्प, शास्त्रीय संगीत, निर्ग्रन्थ साहित्य अने इतिहास जेवा विषयोनी साथोसाथ लोककला, रत्नशास्त्र अने बागकाममां पण ऊंडो रस धरावता हता. मात्र मन्दिरोनी मुलाकात लईने पाछा आवी जवाने बदले अनी झीणामां झीणी बाबतनो अत्यन्त चीवटपूर्वक अभ्यास करता. स्थापत्य, शिल्प अने स्थापत्यनां विविध घटको अंगे एमणे स्वतन्त्र पुस्तको लख्यां. बसोथी वधारे संशोधनलेखो अमनी पासेथी मळ्यां. ज्योर्ज मिशेले अमने 'भारतीय देवालयना विश्वकर्मा' अने गेरी तार्ताव्स्कीओ 'भारतीय देवालयना स्थापत्यना पिता' कह्या हता, तो प्रसिद्ध पुरातत्त्वशास्त्री मुनीश जोषीओ कह्यु, 'छेल्ली चार सदीमां आ क्षेत्रमा आटला मोटा विद्वान थया नथी.' भारतीय मन्दिरस्थापत्यना संशोधनमा चिरंजीव प्रदान करनार मधुसूदन ढांकीनुं व्यक्तित्व अन्यने प्रेम-वर्षाथी भींजवी दे तेवू मृदु, विनोदी अने निखालस हतुं. ओमनी सर्जनात्मकतानो स्पर्श अमना साहित्यमां पण थाय छे अने अमनी वार्ताओमां तेओ स्थळ, पात्र, परिवेश बधुं हूबहू रची शके छे अने अने अनुरूप भाषा, बोली अने शैली निपजावी शके छे. 'शनिमेखला'नां ललित लखाणोमां अने 'ताम्रशासन'नी वार्ताओमां अमनुं गद्य अनी रचना-सभानताने कारणे ध्यानाकर्षक लागे छे. संगीतमां जन्मजात रस धरावता मधुसूदन ढांकी एक समये कुन्दनलाल सायगल, पंकज मलिक, हेमन्तकुमार, जगमोहन वगेरेनां दर्दभर्यां गीतो गाता हता. दक्षिण भारतनी विख्यात गायिका सुब्बालक्ष्मीना कण्ठे गवायेलां मीरानां भजन सांभळतां थयुं के कर्णाटक शैली शिखाय, तो ज भजनना श्रवणमां विशिष्ट भावप्रक्रिया अने उत्कटता पमाय. आने माटे कटरामन पासे एमणे दोढ वर्ष प्रारम्भिक तालीम लीधी हती. Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ २६३ हिन्दुस्तानी संगीत अने कर्णाटकी संगीतमां ऊंडो रस होवाथी एमणे बनारसना वसवाट दरमियान मिश्राजी अने नारायण चक्रवर्ती पासे हिन्दुस्तानी संगीतनी साधना करी अने चन्द्रशेखर अने वीरभद्रराव पासे कर्णाटक संगीतनी साधना करी, संगीत, संगीतकारो अने नृत्यकारो विशे लेखो लख्या, मालकौंस रागना असली नाम, संशोधन कर्यु. सौराष्ट्र अने कच्छनी लोककलाओ विशे The Embroidery and Bead work of Kutch and Saurashtra (1966) नामे पुस्तक लख्यु. मूल्यवान रत्नो, मोती अने नंगोनं तलस्पर्शी ज्ञान धरावता एमणे जडतरना दागीनानो पण अभ्यास कर्यो तेमज झवेरीओ साथे अनी चर्चा पण करी हती. ___ अन्तिम वर्षोमां स्थापत्य विशेना अन्साइक्लोपीडियामां साउथ इन्डियाना टेम्पल आर्किटेक्चर उपर तेओ लखी रह्या हता, तो बीजी बाजु गुजरातनां मन्दिरोनी छत विशे सीमाचिह्नरूप संशोधनकार्य करनार डॉ. मधुसूदन ढांकी इन्डियन टेम्पल सिलिंग्स पर संशोधन करता हता. श्री शत्रुञ्जय तीर्थ विशे छेक आगम ग्रन्थोमां मळता उल्लेखमांथी मांडीने अत्यार सुधीना साहित्यिक उल्लेखो, शिलालेखो अने साहित्य परथी अंग्रेजीमां ग्रन्थ तैयार कर्यो हतो. तेमनां केटलांक बहुमूल्य पुस्तकोमा (1) The chronology of the Solanki Temples of Gujarat, 1961. (2) The Ceilings in the Temples of Gujarat, Co-author J. M. Nanavati, 1963. (3) The Maitrak and Saindhav Temples of Gujarat, Co-author J. M. Nanavati, 1969. (4) The Riddle of the Temples of Somanatha, Co-author H. P. Shastri, 1974. (5) Indian Temple Architecture in Karnakata : Inscriptions and Architecture, 1983. (6) The Indian Temple Traceries 2005, (7) Studies in Nirgrantha Art and Architecture. 2012. (८) निर्ग्रन्थ, पैतिहासिक लेख समुच्चय : २ भाग (२००२). (९) प्रभासपाटणनां जैन मन्दिरो, सहलेख : हरिप्रसाद शास्त्री. (१०) शत्रुञ्जय, कुम्भारियाजी, तारंगा, देलवाडा, जेसलमेर, राणकपुर, उज्जयन्तगिरि वगेरेनां मन्दिरो विशेनां पुस्तको गणाय. ढांकीसाहेबना बहुश्रुत अने बहुआयामी प्रदानने ध्याने लई विविध संस्थाओ द्वारा नीचे मुजबनां अलङ्करणोथी ओमने अलङ्कृत करवामां आव्या हता. (१) कुमार रौप्यचन्द्रक, (२) प्राकृत-जिन-भारती अवोर्ड, बेंगालुरु, (३) Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ अनुसन्धान-७१ ओशियाटिक सोसायटी ऑफ बॉम्बे -- केम्पबेल मेमोरियल गोल्ड मेडल, (४) हेमचन्द्राचार्य अवोर्ड, (५) कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी सं.शि.निधि ट्रस्ट गोल्ड मेडल अने अवोर्ड, (६) अमेरिकन इन्स्टिट्यूट ऑफ इन्डियन स्टडीझ, वाराणसी, सिल्वर प्लेक, (७) अमेरिकन इन्स्टिट्यूट ऑफ इन्डियन स्टडीझ, गुडगांव, सिल्वर प्लेक, (८) पद्मभूषण - भारत सरकार (२०१०), (९) रणजितराम सुवर्णचन्द्रक (२०१०). पुरातत्त्वविद्या, शिल्पशास्त्र, वास्तुशास्त्र, इतिहास, नृत्यशास्त्र, शास्त्रीय अने सुगमसंगीत, रत्नविद्या, प्रतिमाविधानशास्त्र वगेरे विषयोनी बहुआयामी विद्वत्ताथी विभूषित अवा ढांकीसाहेबनी विरल प्रतिभाने वन्दन. C/o 13. B. चन्द्रनगर जयभिक्खु मार्ग, अमदावाद-७ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ २६५ सन्तत्वनो अहेसास करावनार विद्वज्जनने स्मरणाअलि - विजयशीलचन्द्रसूरि डॉ. मधुसूदन ढांकी. सहु चाहकोना प्रिय ढांकीसाहेब. तेमर्नु आपणी वच्चेथी चाल्या जq आपणा माटे शोकजनक के दुःखद बने ते स्वाभाविक होवा छतां, एक थाकेला अने बिमार शरीरने, ८९मे वर्षे, काळदेवता निवृत्ति अपावे, तो ते पण एक अपरिहार्य एवो आवश्यक क्रम गणाय : एक साधु तरीके तेम ज, सद्गतने सदा-प्रफुल्लित जोवाने टेवायेला तेमना सामान्य प्रेमी तरीके, हुं, आम विचारुं. ___परन्तु आ मनीषी व्यक्तित्वनी विदायथी आपणुं विद्याक्षेत्र झांलुं पड्युं छे, अने एक शून्यावकाश सर्जायो छे, ते निश्चित छे. 'गयेला जण पाछा आवता नथी' ए जो सनातन सत्य होय, तो ढांकीसाहेब जेवानी विदायथी सर्जायेलो अवकाश हवे कोई पूरी शकशे नहि - ए अधुनातन सत्य छे, जे हैयाने विषादग्रस्त बनावी मूके छे. आपणे केटकेटला मनीषीओने विदाय लेतां जोया ! जेमना जवाथी पडेला अवकाश हजी पूराया नथी (अने कदाच क्यारेय पूराशे पण नहि.) एवां थोडांक नाम लडं : मालवणियासाहेब, भायाणीसाहेब, जयन्त कोठारी, नगीनदास शाह; एमनी पहेलांनां नामो पण लईए तो पं. सुखलाल संघवी, पं. बेचरदास दोशी, मुनि जिनविजयजी, श्रीकल्याणविजयजी, मुनिराज पुण्यविजयजी - अने एवां अनेक नामो ! अने हवे ढांकीसाहेब पण ए स्मृतिशेष महानुभावोनी सभाना सभासद ! गुजराते, भारते अने विद्याजगते, आ बधानी विदायथी जे गुमाव्युं छे ते बहु वसमुं छे, कल्पनातीत छे. आपणे एम कही शकीए के ढांकीने गुजराते के समाजे ओळख्या नहि, वधाव्या नहि; तेमनी विद्याकीय क्षमताने समजवानी सज्जता दाखवी नहि. पण आवी वातोमां बहु दम नथी. आवा मनीषी विद्वानो तेमनी विद्याथी ज, Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ अनुसन्धान-७१ आपोआप, ओळखाय छे अने स्वीकृति मेळवे छे. आपणो समाज तेमने न ओळखी शके तो तेथी ते समाजनी विद्या अने विद्यावन्त प्रत्येनी उपेक्षा, अनादर तथा अज्ञता ज छतां थतां होय छे. अने तेवा अज्ञ समाजनी स्वीकृतिनी ते विद्वानोने अपेक्षा के गरज पण होती नथी. बाकी, जे जे लोकोने डॉ. ढांकीना ज्ञाननो परिचय मळ्यो छे, तेमना ज्ञाननो उपयोग करवानो थयो छे, तेवा लोकोना चित्तमां तो ढांकीजीनी विलक्षण तज्ज्ञता माटे विस्मय अने अहोभाव हतो ज, छे ज. ____ढांकीसाहेबनो सम्पर्क केवी रीते अने क्यारे थयो ए तो याद नथी, पण त्रीस करतां वधु वर्षोथी सम्पर्क हतो तेम चोक्कस कही शकुं. मारुं ए सद्भाग्य हतुं के मारा गुरु महाराजनी आवा विद्वज्जनोनो समागम तथा सम्पर्क राखवानी मने हमेशां सम्मति मळती रही हती. प्रेरणा पण मळती, अने पोते पण ते विद्वानो साथे आत्मीयताथी परिचय राखता. बधा गुरुओ आवी परवानगी नथी आपता, अने तेथी आवं सद्भाग्य बधा मुनिओने मळतुं पण नथी होतुं. तेथी हुं, मने, भाग्यशाळी ज समजूं छु. ___ ढांकीसाहेब ए दिवसोमां बनारस रहेता. अनुकूलताए अमदावाद आवे. तेमने 'जैन साधु शास्त्राभ्यास अने संशोधनमां ऊंडो रस ले' ए माटे घणी होंश. अने खबर पडे के 'अमुक साधु आवो रस धरावे छे' तो कशा ज कारण वगर मळवा आवे. पूछपरछ करे अने आपणा काम के रस के अभ्यास विषे जाणे. पछी निरांते अनेक वातो करे. रमूज करतां जाय, वातवातमां इतिहास, ऐतिहासिक व्यक्तिओनो समयक्रम, पुरातत्त्व, आगमना पाठ, शब्दो - एम अगणित विषयो परत्वे आधार अने प्रमाण साथेनी जाणकारी आपतां जाय. याद तो न रहे, नोंधवानी अक्कल नहि, पण तेमने घेरा विस्मय साथे सांभळतो रहुँ, ने तेमना प्रत्येना आदरनो पिण्ड बंधातो जाय. प्रेरणा आपे. मार्गदर्शन आपे. क्षति सुधारे. ए आवे त्यारे मारे ओच्छव रचाय ! ने तेओ पण गुजरातमां - अमदावादमां आवे एटले अचूक मळे. कहो के परस्पर एक जातनी ममता बंधाई गई ! __ पोते शुष्क, नीरस के जड विद्वान नहोता. प्रसन्न अने जीवन्त माणस ! वातो गमे तेटली गम्भीर होय पण शैली हळवी, घणीवार रमूजसभर, एटले वात Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ २६७ रोचक बने अने तत्त्व सहेजे पकडाय. पोताना विषयमां अने प्रतिपादनमां खूब स्पष्ट अने दृढ. तेना समर्थनमा तर्को, युक्तिओ तो आपे ज, साथे प्रमाणो पण आपे. प्रमाणो पण, बाप रे, क्यां क्यांनां टांके ! आगम, त्रिपिटक, वेद, अभिलेख, पुरातात्त्विक अवशेषो, शब्दप्रयोगो अने विविध विद्वानोनां अभिमतो तथा अर्थघटनो ! बधुं ज एमने हैयावगुं होय, अने बहु ज कुशलताथी आ बधांय प्रमाणो के साक्ष्योनी एक जाळ रचतां जाय, अने प्रतिपाद्य विषयने यथार्थरूपे सिद्ध के स्थापित करतां जाय. एमां कोईकना जुदा के विरोधी मत होय तो तेनी समजण पण आपे, अने पछी तेनी खोड-खामी बतावी तेनां चिंथरां पण उडाडता जाय. हुं समज्यो छु त्यां सुधी एमनी अतिसूक्ष्मग्राही अने मर्मगामी दृष्टि जे तत्त्वने पकडी शकती, अने तेना आधारे तेओ जे पक्ष मांडतां, तेनुं निरसन करवानी ताकात ने आवडत कोईनामां न रहेती. हा, वितण्डा के छाशियां करीने तेमने खोटा पाडी शकाता. ___'आचार्य कुन्दकुन्दनो समय', दिगम्बर विद्वानोनी विविध रजूआतो, ते ज प्रमाणे श्वेताम्बरोनी पण केटलीक भ्रामक मान्यताओ, आ बधा विषे तेमनी पासे अकाट्य दलीलो तथा प्रमाणो रहेतां. तेनो इन्कार के खण्डन करवानुं अशक्य बनतुं. एकवार अमे लोकोए एक Seminar करेलो : 'जिनागमों की मूलभाषा' ए विषय हतो. आन्तरराष्ट्रीय कक्षानो हतो. त्रण बेठको, ६०-७० प्रतिष्ठित विद्वानो, अने दरेक बेठक माटे एक अध्यक्ष. बनेलू एवं के दिगम्बर मित्रोए "अर्धमागधी करतां शौरसेनी वधु प्राचीन भाषा, अने तेथी दिगम्बर आगमो/ग्रन्थो श्वेताम्बर साहित्य करतां प्राचीन, अने एटले दिगम्बरो आपोआप प्रथम, प्राचीन ने साचा" आवां प्रतिपादन करवा मांडेलां. अने उत्तरी भारतनी विविध युनिवर्सिटीओना कुलपति सहितना विद्वानोमां लाखोना एवोर्डनी ल्हाणी करीने तेओ पासे आ बाबतनुं समर्थन करतां लेखो प्रकाशित कराववा मांडेला. आथी चोंकी उठेला विचारशील मित्रोए तेनो समुचित रदियो आपवा विचार्यु. पण ते पूर्वे योग्य वात युक्ति अने प्रमाणो द्वारा प्रस्थापित तो थवी ज जोईए. ते माटे आ सेमिनार योज्यो. एमां दिगम्बर, तेरापन्थी, स्थानकवासी, श्वेताम्बर ए तमाम प्रकारना Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ अनुसन्धान-७१ विद्वानोने नोतरेला, आवेला, अने पोतपोताना मत रजू पण करेला. उपरांत अजैन तेमज विदेशी विद्वानोने पण आमन्त्रेला. स्वाभाविक रीते दरेके पोतानो पक्ष स्थापित कर्यो. त्रीजी बेठकना अध्यक्ष हता ढांकीसाहेब. समापन तेमणे करवानुं हतुं. ते क्षणे तेओनो मूड नहोतो एटले कशो ज निष्कर्ष न आपतां सामान्य वातो करीने समापन करी दीधुं. में तेमने विनन्ति करी के साहेब, तमे जो आवा गम्भीर मुद्दा परत्वे कोई तारण नहि आपो तो आ तो वात खोटे पाटे जती रहेवानी. कांइक, जे योग्य लागे ते, निष्कर्ष आपो. ढांकीसाहेब पुनः ऊभा थया ने परी ४५ मिनिट हिन्दीमां बोल्या - अस्खलित. एमां तेमणे दिगम्बर मित्रोनी मान्यता तथा ते माटेनां तेमनां प्रमाणोनी तीखी रीते खबर लीधी अने तेने तद्दन अयोग्य-असत्य पुरवार करी आप्यां. एवा गम्भीर अने प्रमाणपुरःसरना तर्को सांभळवा ए पण ल्हावो हतो. एक पण विद्वान तेमनी वातने कापी न शक्या के जवाब आपी न शक्या. ते वखते एक परिचित दिगम्बर विद्वानने में पूछ्युं के 'आप तो खूब पढे-लिखे हो. आपके सामने स्पष्ट प्रमाण पेश किये गये, फिर भी आप अडे क्यों रहते हो ?' एमनो जवाब हतो : 'हमें तो ऊपर से जो कहा जाए वही बोलना होता है.' खेर, पण ते दिवसे ढांकीसाहेबनी अद्भुत क्षमता अने विद्वज्जगत परनी तेमनी धाक - बन्नेनो रूडो परिचय मळेलो. तेमनी सहजभावे थती वातोमां पण कंईक नवी वात के पदार्थ जाणवा मळे. हवे ए बाबत आपणा अभ्यासमां के वांचनमां आवी गई ज होय, परन्तु एमणे जे अर्थ के उघाड मेळव्यो होय ते आपणा माटे अज्ञात ज होय. तेमणे विचारेलो अर्थ जाणीए त्यारे आपणे एक तरफ बाग बाग थई जईए, तो बीजी तरफ आपणी मन्दता माटे आपणने भोंठप पण अनुभवाय. एक सेमिनार योजेलो अमे : 'आर्य भद्रबाहु अने तेम नियुक्तिसाहित्य' एवो विषय हतो. धुरन्धर विद्वानोनी हाजरी. ढांकीसाहेबने ‘हेमचन्द्राचार्य चन्द्रक' वडे नवाज्या ते दिवस. ढांकीजी पोताना वक्तव्य माटे ऊभा थया. प्रौढ, विद्वत्तापूर्ण अने अनेक भ्रमणाओनुं निरसन तथा प्रमाणिक धारणाओनी स्थापना करतुं ए वक्तव्य सेमिनारने एक आगवी गरिमा आपी गयुं हतुं. ते वक्तव्य दरम्यान तेमणे एक रोमांचक वात करी : "आगमग्रन्थोनी यादीमां एक Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर २०१६ 'झाणविभत्ती-ध्यानविभक्ति' नाम आवे छे, ते आजे लुप्त होवानुं मनाय छे. पण, जिनभद्रगणिनुं 'ध्यानशतक' उपलब्ध छे; सम्भव छे के ते ज मूळे 'झाणविभत्ती' होय." अमारा माटे आ एक चोंकावनारी अने रोमांचक धारणा हती. अमने अफसोस थाय के आटली वात पण अमे न विचारी शक्या ! केवी दृष्टिमर्यादा अमारी ! २६९ एकवार तेमना घरमां बेठेला. गोठडी चाली. इतिहास, कालानुक्रम, ऐतिहासिक नामो वगेरे विषे चालती तेमनी धाराबद्ध वातोमां अचानक एक नाम बोल्या-मेअज्ज-मेतज्ज. आनो संस्कृतमां प्रचलित पर्याय छे 'मेतार्य'. ए नामना भगवान महावीरना एक शिष्य, गणधर ढांकीसाहेबे नवो पर्याय आप्यो : 'मैत्रेय'. हुं तो आभो ! प्राकृत शब्दनो आ पर्याय पण थाय ज, पण मने ज नहि, कोई य ते अद्यावधि सूझ्यो नथी ! 'मेतार्य'नी सरखामणीमां 'मैत्रेय' केटलो अर्थावह ! केटलो मधुर ! दिगम्बर धाराने मान्य नग्नतानी वात एकवार चाली. ढांकीसाहेबे एक अद्भुत वात कही : " जे व्रत - नियमोनुं पालन यावज्जीव करवानुं होय तेने 'परिषह' न गणाय. केम के ते कायमी स्थिति छे. 'परिषह' शब्द तो आकस्मिक परिस्थितिने समताभावे सहन करवा माटे ज प्रयोजाय छे. 'नग्नता' जो मुनिजीवननी कायमी स्थिति होय तो तेनी परिषह तरीके तत्त्वार्थसूत्र वगेरेमां गणतरी न करी होत; जेम अहिंसा, अस्तेय वगेरे परिषह नथी गणाता तेनी जेम. " अमे तो ताजुब हता. आटलुं मौलिक चिन्तन कदाच पहेलीवार सांभळ्युं. ज्यारे मळे त्यारे पृच्छा अचूक करे : शुं काम चाले छे ? जवाबमां ग्रन्थ अने काम विषे वात करुं तो राजी थाय, अने पछी आनुषङ्गिक वातोनो डाबडो खोली नाखे. एक वार एक चमत्कारिक तारीख बहु गाजेली : ८-८- ८८. आ दिवसे आदरेलुं काम फतेह थाय एवी जबरी हवा फेलायेली. मनेय उत्साह आवी गयो, ने ते दहाडे एक महाकाय अने अप्रगट प्राकृत ग्रन्थ लईने ते पर काम करवा बेसी गयेलो. हवे थोडीक गाथा चीतरी हशे ने त्यां ओचिंता ढांकीसाहेब आवी पूग्या ! मारे तो शुकन थवा बराबर ! बधी जाणकारी लोधी, ने पछी बे कलाक सुधी रसमय वातोनी छोळो उछाळता रह्या. Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० अनुसन्धान-७१ ते दिवसे एमणे पूरी नम्रता अने गम्भीरता साथे मने का : महाराज, हुं पण गत जन्ममां जैन साधु हतो; पण वीतरागी महावीरनो नहि, पार्श्वनाथपरम्परानो साधु. मारामां ए संस्कार आजे पण छे. मारा भागे तो स्तब्धभावे श्रवण करवा सिवाय कशुं शेष नहोतुं. तेमणे पछी महावीर अने पार्श्वनाथना साधुओ, तेमना आचारो वगेरेना तफावतनी झीणवटभरी वातो करी, अने उमेर्यु के आजे तमे बधा नामथी भले महावीरना साधु कहेवाता हो, पण तमारा आचार अने व्यवहार पार्श्व-परम्पराना ज छे. छेल्ले तेमणे मांगणी करी के 'मने नानां नानां रंगीन पातरां (पात्र-काष्ठपात्र) जोईए छे. होय तो आपो.' में आप्यां, पण पूछी लीधुं के 'साहेब, आने शुं करशो ?' तो कहे के 'हुं साधु हतो. आ राखीश-साचवीने.' मारुं मन सद्भावोथी छलकाई गयुं ! में 'व्यवहारसूत्र-चूर्णि' पर काम करवानुं मांडेलु. ते जाणी तेओ बहु राजी थया. कहे के जलदी करजो. आवा ग्रन्थ प्रगट थाय तो अमारां कामोमां बहु उपयोगी थाय. ज्यारे पण मळे त्यारे अनी उघराणी अवश्य करे, छेल्ले ज्यारे 'बृहत्कल्प-चूर्णि'नो प्रथम भाग प्रकाशित थयो त्यारे ते जोईने राजी तो थया ज, पण शेष भागो जलदी प्रकाशित करवानी ताकीद पण करी. 'अनुसन्धान'थी घणा प्रसन्न हता. बधुं ज जोई जता. सूचन पण आपता. छेल्ला त्रणेक वर्षमा तेमणे अनेकवार कह्यु के 'मारे अनुसन्धान माटे लेख आपवो छे. लखवा मांड्यो छे. पूरो थाय एटले मोकलीश. तमने तकलीफ थाय एबुं लागे तो ना छापशो.' हुं पण उघराणी करतो रह्यो, अने ते अधूरुं लखाण पूरुं ना थयुं ! एकवार तेमणे कह्यु : 'अनुसन्धान'ना अङ्कोनुं अवलोकन लखवानी इच्छा छे : "सिंहावलोकन. एमां क्यां शुं खूटे छे, शी भूल के त्रुटि छे वगेरे विषे नोंध आपवी छे. तमने गमशे ?' में कां : 'आ तो अमारा माटे आनन्दनो अवसर हशे. तमने जे पण मनमां आवे ते लखजो. घणो लाभ ज थशे. अने विरोधी के न गमती वात पण यथातथ छापीशं. लेश पण भार राखशो नहि.' एमणे एकवार ते आप्यु, पछी वारंवार आपवानी भावना व्यक्त करता रह्या, पण आपी शक्या नहि. भले, पण 'अनुसन्धान' माटे तेमना मनमां खूब लागणी हती. एक Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर २०१६ परम्पराजीवी साधु संशोधनना क्षेत्रमां आवुं सामयिक चलावे तेनो तेमने मन घणो महिमा हतो - एम लागे. २७१ तेमणे शेठ कस्तूरभाई लालभाईना खास आग्रहथी विविध तीर्थो विषे विद्वद्भोग्य अने प्रमाणभूत पुस्तिकाओ लखी, जे प्रकाशित पण थई, अने रस धरावता वर्गमां खूब उपादेय पण बनी. अलबत्त, सामान्य माणस माटे तेनी शास्त्रीय तथा ऐतिहासिक तथ्यात्मक वातो बहु रसप्रद बने तेवी नहोती. कोईक, पोताने रूढिपरस्त समजता साधुओए, आ पैकी अमुक पुस्तिकाओनी अमुक वातो प्रत्ये वांधो लीधो, वर्षो पछी. तथ्य होवा छतां पोतानी मान्यताने माफक न होवाथी वांधो ! ते वांधो तेमणे आ. क. पेढीना ते समयना प्रमुखने पहोंचाड्यो. तरत ज ते पुस्तिकाओ पर अघोषित एवो धार्मिक प्रतिबन्ध लगाडी देवायो. ढांकीजीने जणाववानुं नहि, तेमनो खुलासो पूछवानो नहि, अने प्रतिबन्ध ! मारी जाण मुजब, आ वातनी जाण ढांकीजीने बेएक वर्ष पछी थयेली. तेओ खूब खिन्न अने नाराज थयेला. तेमणे धार्युं होत तो ते अंगे कार्यवाही करी शक्या होत, पण तेमना भीतरमां बेठेला विरागी ढांकीए तेमने तेवुं कशुं करवा न दीधुं. अत्यन्त मूल्यवान, अने डो. ढांकी सिवाय कोई लखी पण न शके तेवी ए ८-१० पुस्तिकाओमां लेखक तरीके तेमणे पोतानुं नाम पण लखवा दीधुं नथी के नथी तेना स्वत्वाधिकारो (Copyrights) तेमणे राख्या. आवा निर्लेप जीव, आवी कार्यवाहीमां केम पडे ? हा, खिन्न जरूर हता. पण ते प्रतिबन्धथी नहि, परन्तु तथ्यात्मक साची वातो माटे पण, साधु गणाता माणसो, विरोध करे ते बाबते तेओने भारे सन्ताप हतो. साधुजनो तथ्यना आग्रही होय के विरोधी ? आ तेमनो प्रश्न हतो. जो के, सम्बन्धित साधुओने ढांकीसाहेब व्यक्तिगत मळवा पण गयेला, पोतानी तथ्यपरक वात पण समजावेली, ते साधुजनो पासे तेनो कोई जवाब पण नहोतो के पोताना विरोधने समर्थन आपती कोई दलील के युक्ति पण नहोती. तेथी तो ढांकीसाहेब वधु खिन्न थया के जेमनी पासे कोई आधार- प्रमाण - जाणकारी नथी तेओ विरोध करे ? अने तेने पेढीवाळा स्वीकारी पण ले ? छेवटे तेमणे सामेथी, पोताना लेखथी मनदुःख थवा बदल, ते साधुजनने 'मिच्छामि दुक्कडं' कहीने विदाय लीधेली. आ समग्र प्रसंगनी खबर पडतां ऊंडो आघात अनुभवेलो, अने एक लेख लखेलो : 'संशोधन विरुद्ध कट्टरता', अने ते 'अनुसन्धान' मां छापेलो. ते वांचीने Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ अनुसन्धान-७१ ढांकीसाहेबे कहेलुं के 'चालो, एक साधु तो मारा समर्थनमा बोल्या !' पण साथे ज तेमणे मारा माटे चिन्ता पण व्यक्त करेली के 'महाराज, तमे आटलुं आकरूं लखवानी हिम्मत करो छो तो आ रूढिजड समाज तमने हेरान करशे. तमारे सावधानी राखवी.' ए पुस्तिकाओ परनो प्रतिबन्ध उठावी लेवा माटे तथा तेना पुनः वितरण तथा प्रकाशन माटे, पछी तो, घणा प्रयास कर्या, पण व्यर्थ ! गया वर्षे ढांकीसाहेबनी लेखित सम्मति मेळवीने ते पुस्तिकाओ नवेसरथी प्रकाशित करवानी हिलचाल पण करी, परन्तु प्रकाशक संस्थानो पेला तथ्यने गुपचाववानो के बदलवानो आग्रह रह्यो, अने तेमां ढांकीसाहेबनी सम्मति न थई. तथ्यो अने प्रमाणोनी बाबतमां अयोग्य बांधछोड केम कराय? शेठ कस्तूरभाईए तेमने भारपूर्वक कहेलुं के तमे शत्रुञ्जय उपर संशोधनात्मक ग्रन्थ आपो. ढांकीजीए ना पाडी के एवो ग्रन्थ जैनोने ग्राह्य नहि बने अने कोण वांचशे ? पण शेठे आग्रह राख्यो के 'भले एवं थाय, पण भक्तिस्तुतिपरक माहात्म्य-ग्रन्थो तो घणा लखाय छे, इतिहास अने तथ्यपरक ग्रन्थ पण होवो ज जोईए. अने अमे, पेढी ज ते छापशे.' डॉ. ढांकीए लगभग ४०० पृष्ठनो एक अद्भुत शोध-ग्रन्थ लख्यो; पण दरम्यानमां शेठ न रह्या अने तीर्थपुस्तिकाओ परत्वे आवो अनुभव थयो, एटले ते ग्रन्थ तेमणे दिल्हीनी कोईक (प्रायः अमेरिकन इन्स्टिट्यूट) संस्थाने प्रकाशन माटे सोंप्यो छे. परम्परावादी मानसने, आथी थयेला नुकसाननुं गणित, कदी नहि समजाय ! हुं छेल्लां त्रणेक वर्षथी तेमने कहेतो रह्यो के तमारा आवा अमुक ग्रन्थो भले जे लोको छापतां होय ते छापे (या न छापे), मने ते ग्रन्थोनी एकेक जेरोक्स नकल आपो. हुं साचवीश. प्रकाशित नहि करावं. आ तो कोईवार कांई फेरफार थाय तो ग्रन्थ तो सचवाय. साहेब मारा विभाव साथे सहमत थया, अने वारंवार कह्यु के हुं तमने नकल आपीश - चोक्कस. जो के साहेबनी वारंवारनी नादुरस्त तबियतना संजोगोमां ते वात शक्य न बनी. परन्तु पोतानां प्रकाशनो विषे तेओ साशंक तो रह्या ज. ढांकीसाहेब गमतीला अने रमृजी बहु. कोईनी, ते ख्यात विद्वान होय तो पण, पट्टी उतारवी तेमने गमे. घणानी मीमीक्री करे. कोईनो उच्चार सानुनासिक Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर - २ - २०१६ २७३ होय (नाकमांथी बोलता होय) तो तेनी आबाद नकल करी जाणे. कोई बंगाली प्रोफेसर होय तो तेनी साथे बंगालीमां वात करतां जाय, पेलानी उडावता जाय, अने एवं बने के पेलाने कशी ज खबर ना पडे. तेओ L. D. Indologyमां हता ते दिवसोने याद करीने घणीवार कहेता, 'अमे ७ निह्नवो हता त्यारे. सुखलालजी, बेचरदासजी, मालवणिया, भायाणी, अमृतलाल भोजक, हुं अने ( घणा भागे) नगीनभाई (भूलचूक लेवी- देवी) '. अने पोते खिलखिलाट हसी पडता. 'निह्नव' शब्द जैन परम्परामां एक गाळ जेवो शब्द छे. जेणे शास्त्रनो अपलाप कर्यो होय तेने माटे ते शब्द वपरायो छे. हवे आ बधा माणसो परम्परागत मान्यताथी थोडा उफरा चालनारा. एटले रूढ मानस तेमने झट स्वीकारे नहि. आवा मानसनी मजाक उडाववा माटे तेओ उपरनी वात करता. तेमने नाना माणसनी पण कोई वात गमी जाय तो तेने अंगत रूपे मळीने धन्यवाद आप्या विना न रहे. एकवार अमारी एक समारोह - सभा हती. तेमां तेओ उपस्थित हता. मंगलाचरणनुं गान मारे करवानुं हतुं. ते श्लोको में कोई शास्त्रीय रागमां गाया. तो सभा अढी कलाके पूरी थया पछी पासे आव्या अने स्वरभार, आरोह-अवरोह वगेरे द्वारा रागनी मावजत माटे पोतानी खुशी व्यक्त करी गया. मने भारे अचंबो ने संकोच बेउ अनुभवाया. 'पञ्चसूत्र' नामनी प्राकृत रचना अमारे त्यां कोई प्राचीन अज्ञात - आचार्यनी रचना होवानी प्रसिद्धि छे में तेनां बाह्य- आन्तर परीक्षणो तेमज अन्य विविध ग्रन्थो साथेनी तुलना वगेरे द्वारा ते श्रीहरिभद्रसूरिनी ज रचना होवानुं प्रमाणित कर्युं, तो ते लेख वांचीने तरत बनारसथी पत्र लख्यो के 'तमारी वात साची छे, अने हुं पण ते ज निष्कर्ष उपर आवेलो छं.' उपरांत, मारा प्रतिपादननी पुष्टिमां बेएक तर्को पण जणाव्या. तेमने रत्नशास्त्रनो अभ्यास हतो, रत्नो विषे तलस्पर्शी, कोई सात पेढीना कुशल जवेरीने पण न होय तेवुं ज्ञान तेओ धरावता, ए तो घणा लोको जाणता ह. तेणे अनेक मूल्यवान रत्नो वसावेला ते पण जाणीती वात छे. परन्तु रत्नो तेओ योग्य व्यक्तिओने भेट के उपहाररूपे आपी देता ए ओछाने खबर - हशे. तेओ कोने, क्यारे, शा माटे आपी देता तेनी वात तेमना ज मुखे सांभळी त्यारे हेरत पामेला. पूछेलुं के 'साहेब, शा माटे बधुं आपी दो ?' त्यारे तेणे Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ अनुसन्धान-७१ आपेलो जवाब अमारी आंख उघाडी दे तेवो हतो. तेमणे अत्यन्त गम्भीरभावे कह्यु : "मारी आंख मींचाय त्यारे मने जेने माटे मोह थई शके एवी एक पण वस्तु मारी पासे न होवी जोईए." एक सन्तना मोमांथी ज आवी वात नीकळी शके; अने तेओ सन्तत्वथी ओपता'ता तेनो ते क्षणे अमने अहेसास थयो. तेमना प्रत्ये मने, मारा प्रत्ये तेमने, एक सहज लगाव हतो. हुं मळतो रहुं, अने अमदावादमां ज स्थिरता राखं, तेनो तेओ बहु आग्रह करता. मारा समाचार तथा शुं काम चाले वगेरे जाणवानी तेमने तीव्र इच्छा रहेती, अने तेथी फोन करता रहेता. तो, ज्यारे मळवा जाऊं त्यारे छ मजला चडीने जवानुं होय. एटले कायम धोखो करे, के “बे प्रकारना मुनि होय : विद्याचारण अने जङ्गाचारण. अत्यारे विद्या नथी, पण यान्त्रिक साधनो छे - लिफ्ट जेवां; तेनो उपयोग तमारे करवो जोईए. मारा माटे तमे आटलुं बधुं कष्ट लो ते न गमे" वगेरे. 'शासनसम्राट् भवन'नुं तेमना हाथे लोकार्पण, अन्य विविध विद्वज्जनोना सन्मानना अमारा लोको द्वारा योजाता समारोहोमां तेमनी उपस्थिति, तेओने चन्द्रकप्रदान, तथा विविध सेमिनारो वगेरेमां मारा आग्रहथी तेमनी सम्मति मळती, तेनी पाछळ एमनी एक आप्ततानी लागणी ज काम करती, ते स्पष्ट हतुं. ___ मारा नाना मुनि द्वारा लखायेल लेखो-लखाणो तेओ अचूक अने चीवटपूर्वक वांचता. पछी पूरक जाणकारी पाठवता. पण बहु राजी थता. बेएक वार तो जाहेर समारोहमां तेनुं नाम लईने तेना विषे आशा व्यक्त करेली. मने लागे छे के आ बधुं जीवननी एक मूल्यवान स्मृति-मूडी ज गणाय. __ आवां तो केटलां संभारणां संभारु ! आ लेखमां तो कोई क्रमिक आयोजन वगर जे वात जेम याद आवी तेम लखी वाळी छे. हजीये घj पाछळथी याद आववानु. परन्तु लागे छे के हवे अटकवू जोईए. . एक सन्त-प्रकृतिना सर्वोच्च कक्षाना विद्वज्जनने आपणे गुमाव्या छे, अने तेथी पडेलो शून्यावकाश कदी नहि पूराय, तेना गम साथे सद्गत डो. ढांकीसाहेबने स्मरणांजलि आपतो वीरमीश. Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ २७५ ढांकीसाहेब : संस्कृति सौरभनु मानवरूप - कनुभाई जानी प्रति, परम श्रद्धेय आदरणीय महाराज साहेब, क. जानीना पायलागण ! कांईक अपराधभाव साथे लखुं छु ! 'क्षन्तव्यो मेऽपराधः' मनमा हतुं के पहोंची वळीश - लेखमां; पण आंख-कान बेय ज्यां खोटकायां होय त्यां मारु क्यां चाले ?! बे काच उपराउपर मूकीने टगुमगु अक्षरो वीणतां-वीणतां वांचवें पडे छे; ने कोई वांचे ते सांभळवा-ये बंध ! खेर ! आ स्थितिमां पण हुं मारी रीते परम-विद्वान-सन्त कोटिना-ने अंजलि आपवा धारूं छु - ईश्वरनी कृपा हशे तो ! डो. ढांकीसाहेब जुदी ज माटीना विद्वान हता. साचा अर्थमां संशोधक; पण अटला ज सरळ अने संवेदनशील ! फूलोने माटे ! ओर्किड विषे केवु सरस लख्युं छे - जाणे कोई मित्रने याद करता होय अq ! ने पेला रिसायेला मोरने केम मनाववो अय ते ! शास्त्रनुं जीवन एमणे जाण्युं छे, अटलुं ज जीवन, शास्त्र पण ! छतां क्यांय देखाडो नहीं ! नानालाल कहे छे ते सो वसा आमने लागु पडे : 'पुण्यात्मानां ऊंडाणो तो आभथी ये अगाध छे.' कलाना मर्मज्ञ - चित्र, शिल्प ने संगीतना तो खास. आपणी संस्कृतिनी अनेकदेशीय बाजुओनी अनेकपक्षी दृष्टि एटले ढांकीसाहेब - संस्कृति सौरभनु मानवरूप ! अमे सारा मित्रो हता. में घणाने जोया; आ तो अजब ! फरीथी लेख न लखी शकवा बदल क्षमा चाहतो आपना चरणे नमुं छु. 'वेणु', ६, घोषा सोसायटी, थलतेज रोड, अमदावाद-५४ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ अनुसन्धान-७१ मधुसूदन ढांकी : मारी नजरे -- शिरीष पञ्चाल दायकाओ पहेलां मधुसूदन ढांकी सुरेश जोषीने मळवा वडोदरा आव्या हता. जोगानुजोग हुं पण ते वखते आ महानुभावो समक्ष शिष्यभावे बेठो हतो. एथी विशेष मारो कोई परिचय न हतो. पछी तो वात नीकळी संगीतनी अने वाणीनो अस्खलित प्रवाह वहेवा मांड्यो. ते दिवसोमां वडोदरामांथी 'ऊहापोह' प्रगट थतुं हतुं. मने मनमां थयुं के आवा विश्वविख्यात विद्वाननो लेख 'ऊहापोह'मां आवे तो केवू - पण में मागणी करवानुं साहस न कर्यु - पण सुरेश जोषीए एमने लखाण मोकलवा इजन आप्यु. अने ए रीते तेमणे 'आगियो अने स्वर्णभ्रमर' लेख मोकल्यो अने 'ऊहापोह'मां प्रगट थयो. घणा बधा मित्रोने ए लेख गमी गयो अने ऊहापोहवर्तुळनी बहार ए लेख वंचावा लाग्यो. मने थयु के आ विद्वाने मात्र दृश्य कळाओ के जैन तत्त्वज्ञान विशे नहीं, मात्र पुरातत्त्वविद्या विशे ज नहीं पण संगीत विशे पण लखवू जोइए. गुजराती भाषामां संगीत विशे झाझं लखातुं नथी. कदाच गुजरातमां संगीत, नृत्य नाटकनुं क्षेत्र कैंक अंशे दरिद्र छे ए पण आनी पाछळ जवाबदार होय. जयदेव शुक्ल, सनत भट्ट तो संगीतना खास्सा जाणकार, तेमणे मन मूकीने आ निबन्ध माण्यो, वखाण्यो. ऊहापोह तो पाछळथी बंध थयुं अने सुरेश जोषीए आदत प्रमाणे 'एतद्'ना श्रीगणेश मांड्या. मधुसूदन ढांकी 'तारसप्तक'ना प्रास्ताविकमां लखे छे : 'गये वर्षे 'एतद्'ना सम्पादक शिरीषभाईनो पत्र मळेलो के अगाउ 'ऊहापोह'मां प्रकाशित थयेल मारा 'आगियो अने स्वर्णभ्रमर' नामक लेखने फरीथी छापवा विचारीए छीए. में ते माटे सम्मति तो आपी, पण लेख पचीसेक वर्ष पूर्वे लखायेलो, ते पछी संगीतक्षेत्रना थयेला विशेष परिचयथी तेम ज संगीतना विषय पर करेला विशेष चिन्तनने कारणे केटलांक उमेरणो करवानुं आपोआप जरूरी बनी गयेलं. वळी छपायेल मूळ मुसद्दामां कोई कोई स्थळे रही गयेल त्रुटिओ-क्षतिओ दूर करवा थोडा सुधाराओनी, तेमज केटलीक छापभूलो पण ठीक करवानी आवश्यकता हती. तेथी ते माटे में समय मागेलो.' Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ २७७ आ शब्दोमां एक विद्वाननी विद्याप्रीति केवी होवी जोईए ते जोवा मळे छे. केटलाक विद्वानो वर्षों पहेला लखायेला निबन्धोने एम ने एम ज ठठाडी देता होय छे. मधुसूदन ढांकी ए जमातना नथी, न ज होई शके. आवा विद्वानो छेक छेल्ली घडी सुधी सुधाराओ करता रहे छे. आपणा आ विद्वानने मुद्रणदोषोनी भारे चीड. अवारनवार मने कह्या करे, मारा लखाणने सरखी रीते टाईप करी आपनार मळता नथी. ___ 'आगियो अने स्वर्णभ्रमर' लेख पुनर्मुद्रित मात्र न थयो, एनी साथे संगीतविषयक बीजा लेख पण आवी मळ्या. 'सप्तक'रूपे प्रकाशित थया. वांचनारा तो न्याल थई गया. अहीं आ विद्वाननी एक बीजी खासियत, तटस्थ खासियत, घणा बधाए नोंधी छे. सामान्य रीते उत्तर हिन्दुस्तानी संगीतना चाहकोने कर्णाटकी संगीत समजातुं नथी, गमतुं नथी; एवी ज रीते कर्णाटकी संगीतचाहकोने उत्तर हिन्दुस्तानी संगीत पसंद नथी पडतुं. मधुसूदन ढांकी तो सव्यसाची कळाकार, भावक. अंगत रीते तेमने कर्णाटकी संगीत विशेष गमे, ए माटे तो तेओ पाछा नीलम्मा कडम्बी पासे ए संगीतनी तालीम पण लइ आव्या हता. आवी तटस्थता एक विरल घटना गणावी जोईए. ज्यां तेमने नथी गमतुं त्यां तेओ मोकळाशथी, जराय संकोच विना, उघाडे छोग टीका करी शके छे, त्यारे तेमनी वाणीमां आकरापणुं, अकारापणुं प्रवेशी जाय छे. एना नमूना 'तारसप्तक मां जोवा मळशे ज. एकवार तेमनी साथे कनैयालाल मुनशीनी वात नीकळी. तेमनी अंगत मान्यता एवी हती के मुनशीए ‘पाटणनी प्रभुता'मां जैनोर्नु पूर्वग्रहयुक्त चित्रण रजू कर्यु छे. अहिंसामा माननार जैनोने पण हिंसक भूमिकामां आलेखतां मुनशीना पूर्वग्रहो झाझा वरताय छे. साथे साथे ए पण हकीकत छे के मधुसूदन ढांकी जैन होवा छतां ज्यां जैन आचारविचारमां कशुं खोटुं प्रवेश्युं होय तो तेनी टीका करतां तेओ अचकाया नथी. तेओ संवादना, सेतुबन्धना मानवी हता. थोडां वरसो पहेलां तो फोनना बील बहु आवता हता, त्यारे पण बीलनी चिन्ता कर्या विना सामे चालीने लांबा लांबा फोन तेओ मित्रोने कर्या ज करता हता. पोतानी नादुरस्त तबियतने कारणे सामे चालीने कोईने मळवा जई शकता न हता, पण फोन करवामां वच्चे तबियत Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ अनुसन्धान-७१ क्यां आडे आवती हती ? वळी आसपास शं बनी रह्यं छे तेनी जाणकारी मेळववा हमेशां आतुर रहे. केटलीय वार फोनमा पहेलुं वाक्य ज होय'धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे-साहित्यक्षेत्रे - शुं चाली रह्यं छे ? अने पछी सलाहसूचन आपता रहे - जो जो, बिनजरूरी विवादोमां घसडाई न जता, भूलेचूके पण राजकारणनी दिशामां जवानो विचार ज न करता. आ समय जवाहरलाल के सरदार पटेलनो रह्यो नथी. बधुं बदलाइ गयुं छे.' मूल्यहासनी तेमने भारे चिन्ता हती. ए रीते जोइए तो तेओ प्रशिष्ट परम्पराना आग्रही हती. अने ए आग्रह एकेएक क्षेत्रमा तेओ राखता हता. समयना फेरफारोनी साथे आपणी बदलाई रहेली जीवनपद्धति, खाणीपीणीनी तेओ वारेवारे टीका करता हता. आजे लग्ननी जे बधी रीतरसमो बदलाई गई छे, जे रीते उतावळे उतावळे बधुं आटोपी देवाय छे, पतावी देवाय छे तेनी सामे तेमने भारे वांधा हता. एटले रूबरूमां के फोन पर, पोताना समयनी जाहोजलालीनी, ए वैभवनी वातोमां सरी जता अने कदाच पोतानी आंखो समक्ष ए जूनां दृश्योने खडां करी देता हशे. एमने अवारनवार कह्यु पण हतुं के तमे तमारा समयनी आटली बधी वातो करो छो तो ए लखता केम नथी. चन्द्रवदन महेताए 'बांध गठरिया'मां, धनसुखलाल महेताए-ज्योतीन्द्र दवेए ‘अमे बधां' मां ए आखो भूतकाळ केटली असामान्य सूझबूझ साथे खडो करी आप्यो छे. एवी रीते तमे पण तमारा वीती गयेला समयनी वात करो. में एटली हदे कहेलु के तमे एक बे वार्ता नहीं लखो तो चालशे, पण आ संस्मरणो नहीं लखो ते नहीं चाले. वच्चे वच्चे कहे खरा के तमारी वात मानीने ए बधुं लखवानुं शरु कर्यु तो छे. नवीनता, आधुनिकता, प्रयोगो सामे ज्यारे तेमनो भ्रूकुटिभंग थाय त्यारे पण क्यारेक तेमने आधुनिकतानां जमा पासां पण कहेतो हतो. नवा संगीतकारो तेमनी अपेक्षाओने सन्तोषी शकता नहीं. नवी सिनेअभिनेत्रीओ तेमने बहु छीछरी लागती, नवां सिनेगीतो सामे पण एमनो रोष भारे हतो. तेमणे एक दिवाळीअंकमां मेलोडी की मौत - नामे लेख प्रगट कर्यो हतो. ए माधुर्य, ए गरिमा अदृश्य थइ गयां तेनो वसवसो तो आजनी तारीखे पण केटला बधाने छे ? अनेक विद्याशाखाओमां आटली बधी निपुणता प्राप्त करी अने छतां एनो कशो भार न हतो, सामी व्यक्तिने पोतानी विद्वत्ता वरतावा न दे अने सहज रीते Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ २७९ ज वातोनो दोर चालतो ज रहे. ए बाबते तेओ उमाशंकर जोशी, हरिवल्लभ भायाणी परम्पराना; अने वातो कंइ दर वखते विद्वत्ताभरी ओछी ज होय. अमे बंने समयना भान विना खाणीपीणीनी वातो पर ऊतरी जईए. अमारा बनेने शोख केरीनो. तेओ पोते चाखेली, जोयेली, माणेली केरीनी दुनियामां खोवाई जाय अने जातजातनी केरीओनी दुनियामां आंगळी पकडीने विहार करावे; तेमने त्यां ज पहेली वखत वर्षों पहेलां - मोमां मूकतां ज ओगळी जाय एवं काळं खजूर खाधुं हतुं, ओर्छ हतुं ते थोडुं बंधावी पण आप्युं ! जवल्ले ज एमने त्यां हुं एकलो गयो छु, अवारनवार मारी साथे चन्द्रिका, जयदेव होय होय ने होय ज. त्यारे तो गीतांजलिबेन पण हतां. जेवा मधुसूदनभाइ भावना भूख्या तेवां ज गीतांजलिबहेन पण. एमना गया पछी ढांकीसाहेब अंदरथी खूब ज भांगी गयेला. ए हतां त्यां सुधी तो बीजी कशी एमने चिन्ता ज न हती. नरसिंह महेतानी एक काव्यपंक्ति छे - जननी मेल्या नर जीवे, स्त्रीवछोयां मरी जाय रे ! (बीजी एक वाचना प्रमाणे - श्रीवछयां मरी जाय रे-!) पण अंगत रीते अमने आ 'स्त्रीवछोयां'वाळी वात वधु स्पर्शी गई हती. अनी प्रतीति अमे अमारी आंखो सामे जोई. ढांकीसाहेब- जीवन आखं लेखन-वाचनमां वीत्युं, पण तेमनो सदा आग्रह रह्यो हतो के मारे कुटुम्बीजनोने लईने तेमनी पासे जq. घणी वार आवी रीते अमे गया होईओ तो हं श्रोता ज बनूं. वातो तेमनी बधा वच्चे ज चाल्या करे, ओक वखत तो मारी साथे कोई न हतुं अने अटले ऋत्विजानी दीकरी पारमिताने लईने गयो हतो, पछी तो वातोनो दोर तेमणे पारमिता साथे ज चलाव्यो. अक वखत तो मारी अने चन्द्रिकानी गेरहाजरीनी जाण होवा छतां परिवारने मळवा घेर आवी चढ्या अने बधाने आनन्दित करी मूक्या. सामान्य रीते ठठ्ठामश्करी ओछी करे, पण ओक वखत फोन नानी पौत्री शाश्वतीओ उपाड्यो, तेणे पूछयं, 'कोण', सामेथी जवाब मळ्यो, 'हुं चन्द्रकान्त बक्षी', शाश्वतीओ अवाज पारखी लीधो, तेणे कयुं, 'तमे बक्षी साहेब, तो हुं मधुसूदन ढांकी', बन्ने हसी पड्या. दुनियाभरमांथी अमना पर लेखो माटे कहेण आवे, बधे तो पहोंची न वळाय. क्यारेक पोताने बदले बीजा भरोसापात्र विद्वान, नाम सूचवे. 'वीसमी सदीनुं गुजरात' ग्रन्थ माटे अमारे पुरातत्त्वविद्या विशे लेख जोईतो हतो, तरत ज Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० अनुसन्धान-७१ तेमणे वडोदराना प्रो. सोनवणे, नाम सूचव्यु; अमे तेमनी पासे लेख तैयार कराव्यो अने खातरी थई के पसंदगीमां जराय भूल थई न हती. हरिवल्लभ भायाणीनी जेम तेओ रात-दिवस कार्यरत रह्या, आ लेखनकार्यवाचनकार्यने कारणे तेओ घरनी के कार्यालयनी चार दिवालोमा रह्या. तेमने जितेन्द्रभाईनी घणी ओथ हती. पाछळथी हेमन्त दवे, पीयूष ठक्कर तेमना अन्तरंग वर्तुळमां प्रवेश्या. आ बन्ने मात्र आवा वर्तुळमां ज नहीं पण तेमना अन्तरमां प्रवेशी गया. बन्नेने पुत्रवत् गणीने केटलो बधो स्नेह ठालव्यो ! आजे प्रश्न थाय के आवी प्रतिभाओने पांगरवा माटेनुं वातावरण क्यां छे ? वातावरण ऊभुं करवू पडे. 'अमना गयाथी शून्यावकाश सर्जायो' अर्बु रटण कर्या करवानो कशो अर्थ खरो ? C/o 233 राज्यलक्ष्मी सोसायटी, जूना पादरा रोड, वडोदरा. Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर २०१६ मधुसूदन ढांकीनां गुजराती-हिन्दी लखाणो : एक अवलोकन स॒त्येनोत्त॑भिता॒ भूमि॒ २८१ - हेमन्त दवे (ऋग्वेद १९.८५.१) मारो उच्च अभ्यास पुरातत्त्व विषयमां पुणेनी डेक्कन कोलेजमां. हुं ज्यारे अहीं भणवा आव्यो त्यारे मारुं हिन्दी एक सरेराश गुजराती विद्यार्थीनुं होय तेवुं, साधारण. अंग्रेजी वांची समजी शकुं खरो पण बोलवाना फांफां (आजेय !) अने लखवाना पण. मारो एक मित्र संदीप राजगुरु मराठी, माटे मराठीनां बे चार वाक्यो जाणुं. ट्रंकमां, गुजराती सिवाय बीजी कोई भाषा सरखी आवडे नहीं. मारी कोलेजनुं वातावरण एक रीते वैश्विक : भारतना लगभग दरेक प्रान्तना विद्यार्थीओ तो खरा ज, पण ए उपरान्त जपान, थाईलंड, श्रीलंका, बांग्लादेश, ईरान, जोर्डन, यमन, लेबनन, बेल्जियम, इंग्लंड, अमेरिकाना पण विद्यार्थीओ रहे अने आ देशोना जाणीता पुरातत्त्वविदोनो पण आवरोजावरो खरो. गुजरातीमां वात करवानुं मन थाय पण कोनी साथे करूं? आवामां एक दिवस मारी मित्र ऋचाए मने कहेवडाव्युं के गुजरातथी मारा एक मित्र आव्या छे तो तुं वातो करवा आव. हुं एमनी साथे जोडायो हिन्दी, गुजराती, अंग्रेजी एम त्रिभाषामां चर्चा चाली. वात वातमां ए आवनारी व्यक्तिए, बकुल जानीए, कह्युं के 'ढांकी इझ अ टेरर इन गुजरात.' में पूछ्यं, 'एम० ए० ढांकी?'. जवाब मळ्यो हा. एटले में साश्चर्य पूछयुं, 'ए गुजराती छे?' एटले फरी हकारमां उत्तर आव्यो. एम० ए० मां मारो एक विषय भारतीय कला अने स्थापत्यनो. अभ्यासक्रमनी तैयारीरूपे अमे अमारा शिक्षकोना सूचन अनुसार वासुदेवशरण अग्रवाल, आनंद कुमारस्वामी, श्टेला क्रामरिश, पर्सी ब्राउन ( एमनुं कालग्रस्त इन्डियन आर्किटेक्चर ते अमारुं जाणे धर्मपुस्तक) जेवा विद्वानोनां लखाणोनी साथे साथे एम० ए० ढांकीना एनसाइक्लपीडिया अव इन्डियन टेम्पल आर्किटेक्चरनां केलांक प्रकरणोनो अने एमना शकवर्ती लेख 'जेनसिस एन्ड डिवेलपमन्ट अव Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ अनुसन्धान- ७१ मारु-गुर्जर टेम्पल आर्किटेक्चर' नो, अमारी समज प्रमाणे, अभ्यास करता. मन्दिरस्थापत्य माटे खास करीने में एनसाइक्लपीडियामांथी - पाछळथी समजायुं ते घणुं खरं समज्या विना ज-उतारा करेला ढांकीसाहेबनो आ मारो प्रथम परिचय. आवडो मोटो विद्वान गुजराती ए वाते मने आनंद थयेलो, बलके गर्व थयेलो. पाछळथी खबर पडी के ढांकीसाहेबनी कलम कोई एक विद्याशाखाथी बंधायेली नहोती : एमनी अकुतोभयसंचारिणी विद्या अनेक विषयोमां घूमी वळती. एमनुं जीवन तो जाणे मन्दिरस्थापत्यना अभ्यासने समर्पित थयेलुं, पण ए सिवाय कलाइतिहास, इतिहास, दर्शनो, निर्ग्रन्थविद्या, पुरातत्त्व, भाषाशास्त्र, रत्नशास्त्र, बागायतविद्या, साहित्य, अभिलेखविद्या, शास्त्रीय संगीत अने शास्त्रीय नृत्यो जेवां अनेकविध क्षेत्रोमा एमणे महत्त्वनुं प्रदान कर्तुं छे. एमनुं लेखनकार्य अलबत्त मुख्यत्वे अंग्रेजीमा थयुं छे (देवालय स्थापत्यना महाकोशना छ बृहत्काय ग्रन्थोनुं लेखन - सम्पादन उपरांत नव लघुग्रन्थो अने ग्रन्थो; १४० जेटला लेखो, जेमां प्रणालने लगता पंच्याशी पानाना सुदीर्घ लेखनो पण समावेश थाय). हिन्दीमां एमनां लखाण स्वल्प छे (एक पुस्तक अने आठ लेखो), पण एमनी मातृभाषा गुजरातीमां एमनुं लखाण खास्सुं विपुल छे (स्थापत्य, कला, इतिहास, संगीत, टंकीवार्ता अने ललित लखाणोने समावतां सत्तर नानां-मोटां पुस्तको उपरांत १५० जेटला लेखो ). ढांकीसाहेबनी अठ्ठावन वर्षनी सुदीर्घ लेखनकारकीर्दीमां जे लखाणो थयां एमांनां केटलांक तो एमनी पोतानी पासे पण नहोतां. सद्भाग्ये एमणे एमनां वधु महत्त्वपूर्ण गुजराती लखाणोने पुस्तकाकारे प्रगट करेलां. निर्ग्रन्थ साहित्य अने कला-स्थापत्यने लगता बे ग्रन्थो निर्ग्रन्थ ऐतिहासिक लेखसमुच्चय तरीके प्रकाशित थया छे तो संगीतविषयक लेखो सप्तकमां संगृहीत थया छे. गिरनारने लगतां लखाणो साहित्य, शिल्प अने स्थापत्यमां गिरनार ए पुस्तकमां अने केटलीक आत्मकथनात्मक नोंधो, यादगार अनुभवो अने ताम्रशासन वार्ता शनिमेखलामां एकत्रित करायां छे. एमनी टूंकी वार्ताओनो संग्रह ते ताम्रशासन. अलबत्त, स्थळसंकोचने कारणे एमनां तमाम लखाणो विशे अहीं वात करवी शक्य नथी, एथी अहीं एमना केटलाक अगत्यना लेखो विशे अने ए Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर २०१६ लखाणोमांथी उपसती एमनी लाक्षणिकतानी चर्चा करी छे. एमनुं प्रथम प्रकाशन गुजरातीमां, १९५७मां, अने ए सौराष्ट्रनी लोककळाओ विशे. आ नानकडी नोंध एटला माटे अगत्यनी छे के ए एक रीते एमणे पाछळथी कच्छ अने सौराष्ट्रना मोतीभरत अने भरतकाम विशे खूब विगते करेला कामनो आपणने पूर्वाभास आपे छे (ढांकी १९६६; नाणावटी, वोरा, ढांकी १९६६). ए पछी पांच वर्ष सुधी एमनुं गुजरातीमां कोई प्रकाशन नथी. आ समय दरम्यान एमणे एक पछी एक अंग्रेजीमां भोंय भांगनारा शोधलेखो प्रगट कर्या, जे आजे पण भारतीय देवालय स्थापत्यना अभ्यासमां सीमाचिह्नरूप मनाय छे : ध क्रनोलजी अव ध सोलंकी टेम्पल्झ अव गुजरात (१९६३), ध सीलिंग्झ अव ध टेम्पल्झ अव गुजरात (१९६३), अने ध मैत्रक एन्ड सैंधव टेम्पल्झ अव गुजरात (१९६९; आ लेख मूळे १९६० - ६१मां लखायेला). १९६२ बाद एमणे गुजरातीमां नियमित रीते पोतानी कलम चलावी. आ लेखोमांना केटलाक पाछळथी एमणे पोते अथवा एमना विद्यार्थीओए अंग्रेजीमां अभ्यासलेखो तरीके के ग्रन्थ तरीके विकसावेला. जेम के, बृहद् जाळीओ एमना विशेना ग्रन्थनां मूळियां छेक १९६३मां लखेला एक लेखमां जोवा मळे छे (नाणावटी अने ढांकी १९६३); ए ज रीते, एमना 'भूतझ एन्ड भूतनायक' ए अभ्यासलेखनी पूर्वतैयारी एमना 'भूतनायको' ए लेखमां जोई शकाशे (१९६९); तो 'गुजरातनी तोरणसमृद्धि' एमनो लेख एमनां पीएच० डी० नां विद्यार्थिनी अने जाणीतां कलाइतिहासकार पारुल पंड्या - धरना तोरण विशेना ग्रन्थनुं निमित्त बने छे (ढांकी १९६५). आ बतावे छे के एमणे समयना लांबा पट उपर रस अने सातत्यथी एमना मनगमता विषयो उपर कार्य करेलुं. २८३ शेठ आणंदजी कल्याणजीनी पेढीए जैन मंदिरोना जीर्णोद्धारनुं जे उत्तम कार्य कर्तुं तेनी जेटली प्रशंसा करीए तेटली ओछी. पण आ पेढीए मात्र मन्दिरोना नवीनीकरणथी संतोष न मानतां आ तीर्थस्थानो विशे अने एना कलास्थापत्य विशे सामान्य जनताने आधारभूत जाणकारी मळी रहे ए माटे ढांकीसाहेब जेवा अधिकारी विद्वान पासे खास परिचयात्मक पुस्तको पण तैयार करावडाव्यां. शत्रुंजय, उज्जयंतगिरि (गिरनार), आरासण (कुंभारिया), तारंगा, देलवाडा, राणकपुर, जेसलमेर, वरकाणा अने मेवाडनी तीर्थत्रयी जेवां आ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ अनुसन्धान-७१ लघुपुस्तकोमा लेखक जे ते तीर्थना इतिहास अने माहात्म्य विशे तेमज त्यांनी कला-स्थापत्य प्रवृत्ति अंगे श्रद्धेय माहिती उत्तम गुणवत्तानां चित्रो साथे आपे छे. लेखक अहीं व्यापक मान्यता धरावती खोटी दंतकथाओ अने विगतोनो पण निरास करवानुं चूकता नथी. केटलांक पुस्तकोमा लेखके देवालय-स्थापत्यनी परिभाषा पण संपडावी आपी छे, एटले एमां अपायेलां चित्रोनी मददथी कोई मन्दिर-स्थापत्यनो अभ्यास करवा मागे तो करी शके : आ एनो एक विशिष्ट उपयोग थयो. अस्तु. आ पुस्तको जनसाधारण माटे लखायां छे ते बतावे छे के ढांकीसाहेब लोकप्रिय ढबनां ने छतां अधिकृत लखाणो लखवामां पण एटला ज कुशळ हता. ढांकीसाहेबे एक अगत्यनो लघुग्रन्थ प्रभाशंकर सोमपुरा साथे प्रकाशित कर्यो छे-दुर्ग विशे. अद्यापिपर्यंत कोई पण प्राचीन के मध्ययुगीन ग्रन्थमां कोट-किल्लाना बांधकाम विशे निःशेष विवरण जोवा मळतुं नथी. आ पुस्तकमां लेखकोए प्रकाशित तेमज अप्रकाशित एम बन्ने प्रकारना साहित्य, निमज्जन करीने दुर्गप्रकारादि विशे एकठी करेली विगतोने वर्तमाने विद्यमान दुर्गस्थापत्य साथे सरखावी तपासी छे. आ ग्रंथमां चार प्रकरण छ : पहेला प्रकरणमां किल्लासम्बन्धी साहित्यिक सन्दर्भो छे, ज्यारे बाकीना त्रणमां एना प्रकार्य, प्रकारो अने एना वास्तुविधान अने विन्यासनी चर्चा छे. आमांथी मोटा भागनां अवलोकनो ढांकीसाहेब जेने मारुगुर्जर कहेता ते शैलीमां रचायेला दुर्गाने लगतां छे. आ पुस्तकथी प्रसन्न मोतीचंद्रे एनी प्रस्तावनामां आशा सेवेली के प्राचीन अने मध्ययुगीन नगरोने लगती माहिती पण आपणी पासे नहींवत् होवाथी आ लेखकद्वय दुर्गोनी जेम ज नगरो विशे पण ग्रन्थ आपे. अलबत्त, मोतीचन्द्रनी आ महेच्छा पूर्ण थई नहीं, अने आ काम आजे पण सुयोग्य विद्वानोनी राह जोतुं ऊभुं छे. प्रभासपाटणनां प्राचीन जिनमन्दिरो, विशेष करीने तो एमां अपनावायेली, हवे आंतरविद्याकीय अभिगमथी जाणीती बनेली, पद्धतिने कारणे खास नोंधपात्र छे. प्रभास बेशक एक खूब महत्त्व- शैव तीर्थ हतुं, पण ए अगत्यनुं जैन तीर्थ पण खरं. जैन साहित्यमां आपणने प्रभासक्षेत्रनां जिनमन्दिरो विशे आडकतरी, संक्षेपमां अने अस्पष्ट माहिती मळे छे. अभिलेखोनी अने साहित्यनी सूक्ष्म Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर २०१६ पर्यालोचना पछी लेखको एवा निष्कर्ष उपर पहोंचे छे के चौदमी सदीना अन्ते प्रभासपाटणमां चन्द्रप्रभचैत्य उपरांत चार जिनमन्दिरो अस्तित्व धरावतां हतां. जेम अन्यत्र तेम अहीं पण आ मन्दिरो कालदेवता सामे अने आक्रमणकारोनी मूर्तिभंजकताना झनून सामे टकी शक्यां नथी, नाश पाम्यां छे. आ तोडी पडायेलां मन्दिरोनो काटमाळ आ ज प्रदेशमां आवेली मस्जिदोमां प्रयुक्त थयेलो जोई शकाय छे. आ मस्जिदोना बारीक निरीक्षणने आधारे, शिल्प अने स्थापत्यना अवशिष्ट अवशेषोना झीणवटभर्या अभ्यासने आधारे अने साहित्यिक स्रोतोना चिकित्सक वाचन परिणामे लेखको बतावे छे के भगवान पार्श्वनाथने समर्पित मन्दिरना अवशेषो जामा मस्जिदमां (लेख १६, पट ११), आदिनाथ देवालयना अतिभव्य वितान सहितना भाग माईपुरी मस्जिदमां (एज, पट ५ ), नेमिनाथ मन्दिरना विविध हिस्साओ चोगान मस्जिदमां अने ई० स० नी १२-१३मी सदीमां समरावायेला दिगम्बर मन्दिरनो केटलोक भाग पानवाडी मस्जिदमां जोई शकाय छे. संशोधनपद्धतिनी रीते आ लेख नमूनेदार छे तेवुं कोई पण स्वीकारशे. २८५ गुजरात इस्लाम अने आरबोनुं स्वागत करनारा प्रथम प्रदेशोमांनो एक, ए जाणीतुं छे. सहिष्णु अने कहेवाती 'वेपारी बुद्धि'वाळी प्रजाओ आ नवा धर्मनां आस्थास्थानो माटे जमीन तो आपी ज, पण साथे साथे आवां इबादतखानाओना स्थापत्य, एनां विधानो, शैली इत्यादिने लगती माहितीनो समावेश एना वास्तुग्रन्थोमां निःसंकोच कर्यो हतो. ढांकीसाहेबनो वास्तुशास्त्रोनो ऊंडो अभ्यास सुख्यात छे अने ए अध्ययनना प्रकाशमां एमणे भारतीय नागरिक तेमज धार्मिक स्थापत्यनो जे रीते अर्थ करी बताव्यो ते पण जाणीतुं छे. 'मारु - गुर्जर वास्तुशास्त्रोमा मस्जिदनिर्माणविधि' ए लेखमां छेक अगियारमी - बारमी सदीना पश्चिम भारतना वास्तुग्रन्थोमां एतद्देशीय स्थपतिओए मस्जिदरचनानी प्रविधि 'रहमाणप्रासाद' अथवा 'रहमानसुरालय'ना नामे केवी रीते सांकळी लीधी हती ते तेओ दर्शावे छे (१९६९). जयपृच्छा जेवा दुर्घट ग्रन्थमां आपेला मस्जिदनिर्माणविधिने लगतां पद्योनो अभ्यास करीने गुजरातनी सौथी प्राचीन मस्जिदो - खंभातनी जामा मस्जिद अने धोळकानी हिलाल खां मस्जिद-साथे तुलना करीने तेओ एवा तारण उपर पहोंचे छे के आ कृति ई० स० नी तेरमी १. आ मस्जिदमां हिंदु देवालयोना पण पुष्कळ अवशेषो जोई शकाय छे. Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ अनुसन्धान-७१ सदी बादनी न होई शके : तेरमी सदी बाद गुजरातनी मस्जिदोमां एवां तत्त्वो दाखल थाय छे जेनो कोई निर्देश आ कृतिमां नथी. आ लेखमां कृतिनो मूळ संस्कृत पाठ अने एनो गुजराती अनुवाद आपवामां आव्यो छे. आ पाठ एटला माटे महत्त्वनो छे के मस्जिदना वास्तु अंगे आ सिवाय बीजी कोई कृतिमां माहिती मळती नथी. ___मध्ययुगीन साहित्यमा स्वर्गवासी व्यक्तिओनी स्मृतिमा मन्दिरोनुं अने एवां अन्य स्थापत्यो, निर्माण कराववामां आवतुं होवाना अनेक निर्देशो मळे छे. आ भवनो सामान्य रीते स्वर्गारोहणप्रासाद तरीके ओळखातां. आ जाणकारी आपणी पासे होवा छतां आवां देवालयो अन्य स्थापत्योथी केवी रीते जुदां पडे छे, अथवा एमनां व्यावर्तक लक्षणो कयां छे ते जाणीतुं नहोतुं. प्रभाशंकर सोमपुरा साथे लखेला स्वर्गारोहणप्रासाद लेखमां ढांकीसाहेब हाल अनुपलब्ध पण वास्तुग्रन्थसमुच्चय श्रीज्ञानरलकोश मां सद्नसीबे सचवायेला सिद्धार्थपृच्छा मां जोवा मळता ‘स्वर्गारोहणप्रासादलक्षणम्'नो पाठ आपे छे अने एना अभ्यासने आधारे सूचवे छे के कृष्णदेवे खजुराहोनां मातङ्गेश्वर अने ब्रह्मा मन्दिर विशे तेमज भोजपुर (म. प्र.) खाते आवेला अपूर्ण शिवमन्दिर विशे ए मूळे 'स्मृतिमन्दिरो' हशे तेवी रजू करेली अभिधारणा वस्तुतः साची हती. दक्षिण भारतमां पण 'पळ्ळिपडई' नामे जाणीतां आवां समर्पित भवनो जोवा मळे छे. अंगकोरवाटनुं जगप्रसिद्ध देवालय आ ज परम्परानुं अग्नि-एशियाई स्वरूप छे, तो राजस्थाननी छत्रीओ एनुं मध्ययुगीन भारतीय (अलबत्त, इस्लामी घुम्मटथी प्रभावित). वासुदेवशरण अग्रवाल अने मोतीचन्द्र सरखा विद्वानोए शिल्प अने स्थापत्यमां जोवा मळतां अनेकानेक रूपावर्तोनी खरी पिछान एमना साहित्य अने कलापदार्थोना प्रगाढ अभ्यासने परिणामे करी आपी छे. ढांकीसाहेब आ उत्तम परम्पराने आगळ धपावे छे, विकसित करे छे. मन्दिरस्थापत्यनुं शास्त्रीय वर्णन करवा माटे अनिवार्य परिभाषा तो तेमणे आपी ज, पण साथे साथे एमणे स्थापत्यमां पण विविध रूपावर्तानां खरां नाम आप्यां. 'भीलडीना वेशमां ___२. आ मन्दिर विशे तेओ कहे छे के आ ब्रह्मानुं नहीं पण शिव- मन्दिर हतुं अने एमां चतुर्मुख लिंग हतुं. Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ २८७ पार्वती' एवी उ० प्र० शाहे आपेली ओळखने तेमणे 'किरातवेशा भवानी' एवं साचं अभिधान आपेलं. अहीं अनुक्रमे नागदमन अथवा कालियदमन तरीके जाणीती छत, पशुवराहनां शिल्प अने कल्याणत्रयनी चर्चा करी छे.. गुजरातनां मन्दिरोमां नागदमननां वितानो सामान्य रीते समतल छतमां जोवा मळे छे (सर० नाणावटी अने ढांकी १९६९, पट ६४). वितानो विशे सविगत माहिती आपता ग्रन्थ अपराजितपृच्छा नां वितानप्रकरणोमां अलबत्त नागदमन विशे कोई निर्देश नथी, पण एना ज द्वारावतीलक्षणाध्यायमां 'विताने गोकुलोद्भाव कालीयस्यायभिदायम्' एवो पाठ मळे छे (२१८. ३६ गद्य), जे स्पष्ट बतावे छे के आ लोकप्रिय रूपावर्तथी शास्त्रकारो अजाण्या नहोता. ए ज धाटीए लखायेला पशुवराह विशेना लेखमां तेओ बतावे छे के छेक गुप्तकाळथी देखा देता पशुवराहनां शिल्प अत्यन्त जाणीतां होवा छतां अने सारा प्रमाणमां प्राप्त थता होवा छतां शास्त्रोमां एना सन्दर्भ सांपड्या नहोता. ए सन्दर्भ अपराजितपृच्छा मांथी शोधवानुं श्रेय एमने जाय छे : ‘पादेन वा त्रिभागेन न्यूनः स्याद् वासुदेवकः । आदिमूर्त्यर्धभागेन वाराहस्य तथोदयः,' अलबत्त अहीं निर्देश पशुवराहनो छे के नृवराहनो ते स्पष्ट थतुं नथी. सद्भाग्ये विश्वकर्माना वास्तुशास्त्र मां एनो आपणने असन्दिग्ध पाठ मळे छे : 'मूलनायकहीनं तु सूकरं कारयेत्ततः'. अने पछी आगळ कहे छे के, 'सूकरो मध्यतः स्थाप्य कार्या सुरमयी तनुः' तो वास्तुविद्या पण जणावे छे के, 'मध्ये तु सूकरः स्थाप्यः सर्वदेवमयः शुभः' कहेवानी भाग्ये ज जरूर होय के वराहना देह उपर देवताओनी आकृति उत्कीर्ण करवामां आवती होवानो आ पुरावो खूब महत्त्वनो छे. आम, पशुवराहना मूर्तिविधाननो शास्त्रीय आधार एमणे आपणने संपडावी आप्यो. ____ मध्ययुगमां, विशेषतः तेरमी अने पंदरमी सदी दरम्यान, रचायेला जैन साहित्यमा वारंवार कल्याणत्रयना उल्लेखो मळे छे. आ कल्याणत्रय ते दीक्षा, केवळज्ञान अने निर्वाणना त्रिकनुं स्थापत्यकीय प्रतिविधान छे. अभिलेखो अने साहित्यना, अने एमां पण परिपाटीओना, झीणा अभ्यासने अंते ढांकीसाहेब गिरनारस्थित कल्याणत्रय विशे आटलां तथ्यो तारवे छे : एर्नु निर्माण तेजपाल द्वारा करवामां आवेलुं; ए भगवान नेमिनाथने समर्पित हतुं; ए त्रण स्तरीय रचना हती, जेना दरेक स्तरमां चारे दिशामां चार मूर्तिओ कोरेली; एटले के कुल बार Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ अनुसन्धान-७१ मूर्तिओ, जेमांनी छेक नीचेना स्तरनी मूर्तिओ कायोत्सर्ग मुद्रामा हती; आ रचना जे मन्दिरमा स्थापित करवामां आवेली ते मन्दिर हाल सगराम सोनीना मन्दिर एवा खोटा अभिधानथी जाणीतुं छे, जो के एमां आ रचना हाल नथी. कल्याणत्रयना शिल्पविधानने नक्की कर्या बाद तेओ बतावे छे के आ प्रकारनी ज नेमिनाथने समर्पित रचना आबुस्थित लुणवसहिकानी हस्तिशाळामां पण जोवा मळे छे, जेने मुनि कल्याणविजय त्रिखण्ड चौमुख तरीके, मुनि जयन्तविजय मेरुगिरि तरीके अने उ० प्र० शाह पञ्चमेरु तरीके ओळखावे छे. रचनाविधाननी दृष्टिए आ रचना गिरनारस्थित नेमिनाथ देवालयमां तेजपाले करावेला अने परिपाटीओमां वर्णित कल्याणत्रय साथे तंतोतंत मळे छे, एथी वाजबी रीते ज ढांकीसाहेब बतावे छे के आ रचनानुं खरं नाम कल्याणत्रय छे. आ प्रकारनी रचना राजस्थानमां अन्य स्थानेथी पण मळेली छे. अभिलेखोना पुरावाओथी तेओ पोताना आ तारणने पुनः विशेष समर्थित करे छे. ढांकीसाहेबना अभ्यासनो मुख्य विषय मन्दिरस्थापत्यनो होवा छतां तेमणे नागरिक स्थापत्यो विशे पण प्रसंगोपात्त लखाणो करेलां छे. नाडोल अने नाडलाईनां मन्दिरो विशेना लेखमां तेओ गुजरातमां वावना स्थापत्यनी चर्चामां ऊतरे छे. तेओ अहीं सोदाहरण बतावे छे के गुजरातनी वावमां जोवा मळता सशोभित माळ मन्दिरस्थापत्यनी बीजी केटलीय बाबतोनी जेम मळे मुरुदेश(राजस्थान)थी आव्या छे. एमना मते मारगुर्जर देवालयोनी जेम गुजरातनुं वावसौन्दर्य पण अंते राजस्थाननी देन छे.. आ सिवाय, गुजरातीमा एमणे कलाअर्थघटन, शोभनाङ्कनो, स्थापत्यना विविध अवयवो, मूर्तिविधान अने मूर्तिविद्या विशे पण घणा लेखो लख्या छे. ढांकीसाहेबना संशोधन- बीजुं मुख्य क्षेत्र निर्ग्रन्थविद्यान. १९७३मां ला० द० प्राच्यमन्दिरमा भारतीय कला अने स्थापत्यना संशोधन-प्राध्यापक तरीके जोडाया बाद जैन धर्मना इतिहासमां तेमज साहित्यमां तेओ विशेष रस लेता थया. अलबत्त, आ पूर्वे एमणे जैन कला अने स्थापत्य विशे लेखो प्रगट करेला खरा. एमनुं जैन इतिहास अने साहित्यमां प्रदान खूब महत्त्व- छे. जैन साहित्य अने धर्म प्रत्येनो एमनो अभिगम अरूढ अने एक सत्यवक्तानो छे. तेओ परम्पराप्राप्त माहिती स्वीकारे खरा पण एने चारेबाजुथी चकास्या बाद. बीजी रीते कहीए तो अन्य साधनोथी ए माहितीनुं समर्थन थयेलं होवू जोइए. आ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ २८९ चिकित्सक पद्धतिनी मददथी एमणे जैन धर्म अने साहित्यना इतिहासने वळगेलां दंतकथाओ. अर्धसत्यो के शंकाओनां घणां जाळां साफ कर्यां छे. केटलांक उदाहरणो जोईए. नमस्कारमङ्गल उपरनी नोंधमां तेओ बतावे छे के आ मन्त्रमा हाल जे नव कण्डिका जोवा मळे छे ते ई० स० नी छट्ठी सदीथी वधु प्राचीन नथी. अभिलेखना अने साहित्यना पुरावाओ टांकीने तेओ जणावे छे के मूळमां केवळ एक ज पद हतुं : नमो अरहन्तानम्, जे महाराष्ट्रना पाले अभिलेखमां जोवा मळे छे. समयान्तरे एमां बीजा नमस्कार उमेराया (जेम के खारवेलना अभिलेखमां 'नमो अरहन्तानम्'नी साथे 'नमो सिद्धानम्' एम छे), अने छेवटे एनुं आजनुं नव पदवाळु रूप अस्तित्वमां आव्यु. एटलेथी न अटकतां तेओ आगळ दर्शावे छे के निर्ग्रन्थ परम्परामां भगवान महावीर पछी कोईने अर्हत् पद अपायुं नथी. पण खारवेलना हाथीगुम्फा अभिलेखमां ए गुफा 'अर्हतो' माटे कोरावी होवानो स्पष्ट निर्देश छे. एनो अर्थ ए थयो के जैनोनो ए कोई जुदो पंथ होवो जोईए, घणे भागे तो भगवान पार्श्वनो. पाश्वनो एटला माटे के एमनो सम्प्रदाय भगवान बुद्धनी जेम मध्यममार्गनो हतो, महावीर जेवो अत्यन्त कठोर नहीं. ए ज रीते, पालेनी गुफा पण अर्हत् इन्द्ररक्षिते खोदावेली. आ प्रकार गुफा तैयार कराववानुं कार्य महावीरना अनुयायीओ माटे सर्वथा अविहित होई आ इन्द्ररक्षित पण कोई महावीर-इतर मार्गनो होय-मोटे भागे तो कलिंगमा जे जैन पन्थ हतो तेनो ज-ते घणुं शक्य लागे छे.३ .. जैन साहित्यना इतिहासमां ढांकीसाहेबे तर्कपुरःसर आंकेला विविध जैन विद्वानोना समय अन्य जैन विद्यावन्तो माटे क्षोभर्ने कारण बन्या छे; स्वामी समन्तभद्रनो समय एजें एक उदाहरण. स्वामी समन्तभद्र एटले दिगम्बर सम्प्रदायना सौथी घुमान विद्वानोमांना एक. एमने आम तो ई० स० नी पहेलीथी आठमी सदी सुधी मूकवामां आवे छे छतां, बाल्सेरोविच नोंधे छे तेम, एमना ३. रस धरावता वाचको गुस्ताफ रोटना नमस्कारमङ्गल विशेनो लेख पण वांची शके (रोट १९७४). पालेना अभिलेखनी जाणकारी न होवाथी रोट लखे छे के, "lo riginally, there existed in the centuries before Christ the sacred formula consisting of only two members, represented by the above-quoted inscription [scil. of Kharavela]' (१९७४ : १८) Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० अनुसन्धान-७१ समयनी खरी चर्चा तो पं० जुगलकिशोर मुख्तार, का० बा० पाठक अने मधुसूदन ढांकी जेवा जूज विद्वानोए ज करी छे; बाकीना लेखकोए तो प्रमाणोनी के दलीलोनी साधकबाधक चर्चाविचारणा कर्या विना ज आ के ते समय आप्यो छे (बाल्सेरोविच २०१४ : २१ थी आगळ). ढांकीसाहेब समन्तभद्रना समयने लगतां तथ्यो, दलीलोनी मूळमां जईने गवेषणा चलावे छे तथा एमनी कृतिओमां जोवा मळता दार्शनिक ख्यालो अने परिभाषा, प्रतिमाविधानने लगता निर्देशो, अने तत्कालीन संस्कृत काव्यनी स्थितिने ध्याने लई एमनो समय ई० स० ५५०-६२५ वच्चे मूकी आपे छे. मन्दिरस्थापत्यना अभ्यासमां अभिलेखो मन्दिरनिर्माणनी निश्चित मिति पूरी पाडता होवाथी ढांकीसाहेबे एनुं अध्ययन करेलुं. पाछळथी जैन धर्म विशे विगते ऊंडो अभ्यास करवान बनतां एमां विस्तार आव्यो. जैन साहित्यनी अने गुर्वावलीओनी आश्चर्य जगवती प्रगाढ जाणकारीनी साथे नवां संशोधनोथी पण पूर्णतया वाकेफ होवाने कारणे तेमज अंकोडा मेळववानी अगम्य शक्तिने कारणे एमणे एमना अभिलेखविषयक अभ्यासलेखोमां वंशावळीओ तारवी आपी छे अथवा मान्य वंशावळीओने वधारे चोक्कस करी आपी छे (सर० जम्ब(क) मंत्रीनी वंशावळी; वरहुडिया कुटुंबनी वंशावळीओ; चन्द्रकुळनी, राजगच्छनी, तथा बृहद्गच्छनी गुरुशिष्य परम्परा; धांधलनो वंश; पोरबंदरना जेठवाओनी वंशपरम्परा, वगेरे); गुजरातना इतिहासनां नजाणीतां के अल्पख्यात तथ्योने अने व्यक्तिविशेषोने प्रकाशमां आण्यां छे; अचोक्कस के सन्दिग्ध पाठने बदले पाठ सुनिश्चित करी आप्या छे; जैन साहित्यमां सचवायेली ऐतिहासिक परम्पराने बीजां साधनोनी मददथी तथ्यमूलक सिद्ध करी आपी छे, अने एम एमणे गुजरातना इतिहासने महत्त्व- प्रदान कर्यु छे. ललित तेमज अन्य कलाओमां ऊंडा रसने परिणामे एमणे छेक पिस्ताळीस वर्षनी प्रौढ वये संगीत शीखवानी हाम भीडी अने हिन्दुस्तानी तेमज कर्णाटक संगीतनी पायानी बाबतोनी जाणकारी मेळवी. जीव मूळे कलारसिकनो होवा उपरांत संशोधकनो तो खरो ज एटले आ बन्ने संगीत-परम्पराना इतिहासमां अने रसकारणमां पण तेओ ऊतर्या. देवालय-स्थापत्यना महाकोशनुं गंजावर काम होवा छतां एमणे थोडो थोडो समय चोरीने संगीतशास्त्रनां संशोधनो कल्. एमनां Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ २९१ संगीतने लगतां लखाणो सप्तकमां संगृहीत थयां छे. गुजरातीमां आ प्रकारना आ पहेला ज पुस्तकने विषयना जाणकारोए उमळकाथी वधाव्युं हतुं. एनो प्रथम सुदीर्घ लेख 'आगियो अने स्वर्णभ्रमर' हिन्दुस्तानी अने कर्णाटक ए बन्ने संगीत परम्पराओनो पारगामी, संवेदनशील छतां चिकित्सक दृष्टिए तुलनात्मक अभ्यास आपे छे. मालकोस रागना मूळ नाम विशेनो एमनो लेख आ खूब जाणीता रागर्नु नाम औडव भैरव होवानुं सूचवे छे, तो साथे ज वर्तमाने विद्वत्सम्मत अभिप्राय के जूनो भारतीय सप्तक काफी राग आधारित हतो एनी पुनर्विचारणा करी ए भैरवी उपर आधारित हतो तेम सूचवे छे. 'संगीतमा रक्ति' ए लेखमां संगीतशास्त्रना संस्कृत ग्रन्थोमांथी पुष्कळ अवतरणो साथे पोताना मतनी स्थापना करी तेमणे रक्तिना विभावने स्पष्ट करवानो प्रयत्न कर्यो छे. अन्य एक लेखमां एमणे भारतीय संगीत परम्परामां वादननी अपेक्षाए गायननी श्रेष्ठता मान्य गणाई होवानुं दर्शाव्युं छे. ए सिवाय आ पुस्तकमां बडी मोती, ठाकूर जयदेव सिंह, नीलम्मा कडम्बी जेवा संगीतना उत्तम महारथीओ विशे एमणे संवेदनासभर लखेला परिचयात्मक लेखोनो पण समावेश थाय छे. ____ ढांकीसाहेबनां हिन्दी लखाणो प्रमाणमां जूज छे. मानतुङ्गाचार्य और उनके स्तोत्र (जितेन्द्र शाह साथे) पुस्तकमां एमणे मानतुङ्गाचार्यनी अमर रचना भक्तामरस्तोत्र नी वाचना अने ए विशेनो अभ्यास आप्यो छे. भक्तामरस्तोत्र नी बे वाचना मळे छे : चुंवाळीश पद्योनी श्वेताम्बर अने अडतालीस पद्योनी दिगम्बर. आ वाचनाओना तेमज एने लगतां पूर्वसूरिओनां अध्ययनोना सूक्ष्म अन्वेषण बाद सम्पादको चुंवाळीस श्लोकोनी श्वेताम्बर वाचनाने आधारभूत माने छे अने एने अनुसरे छे. एमनो मत आ कृतिने ई० स० नी छट्ठी सदीना उत्तरार्धमां मूकवानो अने दिगम्बर वाचनामां जोवा मळतां चार क्षेपक पद्योने ई० स० नी चौदमी सदीमां मूकवानो छे. वळी, आ कृतिना कर्ताना सम्प्रदाय विशे पण मतभेद होवाथी एनी पण गवेषणा चलावी सम्पादको प्रतिपादित करे छे के मानतुङ्गाचार्य श्वेताम्बर हता. विशेष उल्लेखनीय तो आ महान कवि-विचारकनी सम्प्रदायसंकुचिततानी सम्पादकोओ करेली टीका छे. कृतिना वीसमा श्लोकमां मानतुङ्गाचार्ये-मूळे ब्राह्मण पण पाछळथी जैन–शिव अने विष्णु विशे निन्दात्मक Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ अनुसन्धान-७१ टिप्पणी करी छे. सर्वधर्मसमभावमां मानता सम्पादकोए आ बाबतनो खास निर्देश करी एने वखोडी काढी छे. आ पुस्तकमां आपेलुं बीजुं स्तोत्र भयहरस्तोत्र (अपरनाम नमिउणस्तोत्र ) छे. रामपुत्त के रामगुत्त ए नामनी चर्चा एमणे सूत्रकृताङ्गना सन्दर्भमां करी छे अने बताव्युं छे के ए व्यक्तिनुं नाम रामगुत्त (सं. रामगुप्त) नथी के नथी एनो सम्राट समुद्रगुप्तना रामगुप्त नाम धरावता पुत्र साथे कोई सम्बन्ध. ए पालि साहित्यमा आवता रामपुत्त (सं० रामपुत्र) छे जेमणे भगवान बुद्धने योगनी प्रविधिओ शीखवी हती. एमनुं नाम प्राचीन निर्ग्रन्थ कृति इसिभासियाइं मां पण जोवा मळे छे (जैन अने ढांकी १९८७) ___ जैन धर्मना बावीसमा तीर्थङ्कर अरिष्टनेमि मथुराना हता अने एमनो समय महावीर पूर्वे ८४,००० वर्षनो हतो एवा धार्मिक मताग्रहने आधारे केटलाक विद्वानोए, मथुराना आसपासना प्रदेशमां शौरसेनी प्राकृत बोलाती होवाने कारणे, निर्ग्रन्थ धार्मिक साहित्यनी रचना मूळे शौरसेनी भाषामां थयेली अने पाछळथी एनो अनुवाद अर्धमागधीमां करवामां आवेलो एवो नवीन अने सर्वथा आश्चर्यप्रेरक मत रजू करेलो. पुरातत्त्व अने इतिहासना सन्दर्भमां शौरसेनी भाषानी प्राचीनता ए लेख ढांकीसाहेबनो पुण्यप्रकोप केवो होय तेनुं निदर्शन पूरुं पाडे छे. आ ग्रन्थो ई० पू० ८४,०००मां रचायेला एवा मतनो तेवो विरोध करतां जणावे छे के ए समये मनुष्य पथ्थरयुगमां जीवतो हतो अने संस्कृतिनुं नामनिशान नहोतुं. पूर्वपक्षनी दलीलने आगळ धपावतां तेओ सोपहास लखे छे : यदि अरिष्टनेमि जिन का उपदेश शौरसेनी में रहा ऐसा माना भी जाय तो क्या अनगिनत अरबों साल पूर्व माने जानेवाले तीर्थङ्कर ऋषभ जिन का जन्म अयोध्या में हुआ था, तब क्या उनकी भाषा पुरानी अवधि [ अवधी ] थी ? और बनारस में जिनका जन्म हुआ था वह अर्हत् पार्श्व का उपदेश क्या पुरानी भोजपुरी में था ? तेओ ए बाबत उपर पण आपणुं ध्यान दोरे छे के मथुरा प्रदेशमांथी मळेला अनेक अभिलेखोमां क्यांय शौरसेनी भाषानो प्रयोग थयो नथी ! ____ जटासिंह नन्दिना वरांगचरित नो समय ए कृतिमां आवता निर्देशोजिनप्रतिमाने चन्दन, कुङ्कम, पुष्पादि अर्पण करवां-ने आधारे तेओ बतावे छे के Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ २९३ एना कर्ता दिगम्बर सम्प्रदायना न होई शके; बलके श्वेताम्बर सम्प्रदायना पण न होय कारण के ए सम्प्रदायमां पण ई० स० नी दसमी सदी पूर्वे आ प्रकारनां पूजा-अर्चन नहोतां. बीजुं, जटासिंहने मते देवलोक किंवा कल्पोनी संख्या बारनी छे; दिगम्बर परम्परामां पूज्यपाद देवनन्दिना समयथी लईने आ कल्पनी परिगणना. सामान्य रीते, तत्त्वार्थसूत्र ना विरल अपवादने बाद करतां, सोळनी करवामां आवी छे. आ बतावे छे के जटासिंह कां तो यापनीय सम्प्रदायना होय अथवा तो क्षपणक (ढांकी १९९२). हरिवंशपुराण मां जिनसेनना पार्वाभ्युदय नो सन्दर्भ आवे छे. पार्वाभ्युदय नी छेल्ली कण्डिकामां राष्ट्रकूटनरेश अमोघवर्षनो उल्लेख छे. जिनसेननी अन्य कृतिओना सम्भवित समय नक्की कर्या बाद तेओ एवा निष्कर्ष उपर पहोंचे छे के पार्वाभ्युदय नी रचना आशरे ई.स. ८१५-८२० दरम्यान थई होवी जोईए. अने जो एम होय तो ई.स. ७८४मां रचायेला मनाता हरिवंशपुराण मां जिनसेननो जे निर्देश छे तेनो शो खुलासो ? ढांकीसाहेब बतावे छे तेम हरिवंशपुराण मां आठमी सदीनी छेल्ली पचीसीमां विद्यमान इन्द्रायुध, वत्सराज, जयवराह, वल्लभ सरखा राजाओनो निर्देश छे ते स्पष्ट करे छे के ए पुराण ई.स. ७७५-८०० दरम्यान रचायु होवू जोइए. एटले के एनी मनाती ई.स. ७८४नी मिति खोटी नथी. आ उपरथी तेओ एवा तारण उपर पहोंचे छे के पुराणने अंते तेर पद्योमां महान जिन विद्वानोनी अने एमनी कृतिओनी जे माळा गूंथवामां आवी छे ते प्रक्षिप्त छे अने घणे भागे ते पार्वाभ्युदय नी रचना बाद, संभवतः ई.स. ८५० बाद, हरिवंशपुराण मां दाखल करवामां आवी हशे. ___ढांकीसाहेबनो एक अन्य शोख वनस्पतिओनो. एमां पण तेओ ऊंडा ऊतरेला. एमना जूई अने भुंगलपुष्पादि वर्गनी वनस्पतिने लगता लेख एमनी रसिक विद्वत्तानी एक जुदी ज बाजु रजू करे छे. अंग्रेजी नाम ट्रम्पिट क्रीपर उपरथी तेवो नवो शब्द घडी काढे छ : भुंगललता. गुजरातीमां नवा शब्दोना घडतरमा ढांकीसाहेब खास रस लेता. एमणे अंग्रेजी बोडी लेंग्विज माटे वपुवाचा (पहेलां वपुभाषा) शब्द मूक्यो; इस्थेटिक्स माटे राजकारण अने अर्थकारण उपरथी रसकारण एवो पर्याय रच्यो; फेन्टसी माटे काल्पनिका अने ससपेन्स (थ्रीलर) माटे रहस्यिका शब्दो आप्या. Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ अनुसन्धान-७१ एमनां लखाणनो अभ्यास करनारी व्यक्ति एनां केटलांक लक्षणो तरत तारवी शके : विशाळ सामग्री, अवगाहन, अकाट्य तर्क, सर्जनात्मक सर्गशक्ति, सुन्दर अने भाववाही भाषा. पण ए पोतानी सर्जनात्मक कल्पनाशीलताने कदी पांखो पूरी न पाडे : तेओ तो एने ए वधु ऊंचे न ऊडी जाय ते माटे, फ्रान्सिस बेकन कहेता तेम, पुरावानां वजनियां लटकावी राखे छे. पूर्वसूरिओनां लखाणोनुं ऊंडं अध्ययन, सामग्रीनी लगभग निःशेष तपास अने एनी आन्तरिक तेमज बाह्य चिकित्सा, नानामां नानी विगतो उपर पण पूरतुं लक्ष-आ बधी चाळणीमांथी पसार थयेली अने एथी सर्वथा असन्दिग्ध सामग्रीने आधारे तेओ पोताना निर्णयो बांधे छे. एमना लगभग दरेके दरेक महत्त्वनां विधानोनी पाछळ आधारभूत विगतोनी फोज खडी होय, आम, एमनी संशोधनपद्धति विगतोथी निर्णयो तरफनी छे. केटलीये वार एवं बन्युं छे के एमना निर्णयो कोई सम्प्रदायविशेषने के समुदायने अनुकूळ न पण आव्या होय, पण एथी ए पोतानी वात पडती न मूके. ___ आ उपरथी कोई रखे एम माने के एमनुं पाण्डित्य शुष्क हतुं. ना. ए तो मूळभूत रीते सौन्दर्यलुब्ध रसिक हता. चाहे स्थापत्य होय के शिल्प, चित्र होय के संगीत, वनस्पति होय के प्राणी, के पछी भाषा-आ तमाममां रहेलु सौन्दर्य एमने चुम्बकनी जेम आकर्षे. एमनां विशाळ अने वैविध्यपूर्ण लखाणोमां जो कोई एक सूत्र होय तो ते आ सुन्दरतानी शोध, अने एना महिमागाननुं छे. आ रीते तो तेओ एकी साथे पण्डित अने रसिकनुं सुरस मिश्रण हता. एटले ज तेओ पोतानी भाषाने पण सतत सम्मार्जित करता. एमनां लखाणोनुं भाषासौन्दर्य ऊडीने आंखे वळगे तेवं छे. संस्कृताढ्य पदावलि, समर्पक शब्दोनी चीवटपूर्वकनी पसंदगी, प्रासादिकता, लय ने छतां एमां प्रबळ वेग अने असरकारकता पण खरी. एटले एक तरफ एमांथी अत्यन्त उग्र मतभेदो सर्जाय के प्रचण्ड विवादो प्रगटे छतां ओ भाषा वांचनारने आनंद पण आपे. हिन्दी भाषामां एमनां लखाणो अल्प छे. त्यां तेओ संस्कृत भाषा उपर सम्पूर्ण आधार न राखतां गांधीजी जेने हिन्दुस्तानी कहेतां-एटले के हिन्दी-उर्दूनुं मधुर मिश्रणएमां लखवानुं पसंद करे छे. मानतुङ्गाचार्य और उनके स्तोत्र एमना आ भाषाप्राधान्यनुं एक जागतुं दृष्टान्त छे. 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Hifra, formy 327 744614i forear. Amdāvād : Lālbhāi Dalpatbhāi Bhārtiya SamskȚti Mandir. Jain, Sāgarmal and Dhaky, M.A. 1987. 2744 21 3744387 – सूत्रकृतांग के संदर्भ में ? In M. A. Dhaky and Sagarmal Jain (ed.), जैन faen at 3174174 R, do daigiu anlat291A aicelu, pp. 8 - 11 Vārāṇasī : Pārsvanāth Vidyāśram Sodh Samsthān. Nānāvati, Jayendra and Madhusūdan Dhaky. 1963. TRISHT hufes. 41 39 (6): 290-297. Nanavati, J. M. and M. A. Dhaky. 1969 The Maitraka and the Saindhava Temples of Gujarat. Artibus Asiae Supplementium 26. Ascona : Artibus Asiae Publishers. Nanavati, J. M., M. P. Vora and M. A. Dhaky. 1966. The embroidery of Kutch and Saurashtra. In J. M. Nanavati, M. P. Vora and M. A. Dhaky, The Embroidery and Bead Work of Kutch and Saurashtra, pp. 1-57. Baroda : Department of Archaeology, Gujarat State. Roth, Gustav. 1974. Note on the pamca-namokkāra-paramamangla in Jaina Literature. CETTEN, The Adyar Library Bulletin (Mahavir Jayanti Volume) 38: 1-18. Sompura, Prabhashankar O. and M. A. 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Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर २०१६ ढांकी साहेब नामेरी स्वजननुं एक शकलचित्र - पीयूष ठक्कर २९७ १. आम जुओ तो अमारी वच्चे दसकाओनुं अंतर ने परिचय - सम्बन्धनो मांड दोढ दायको. दुनिया आखीना ए खरेखरा साहेब ने अमारा माटे साचुं कहुं तो ढांकीसाहेब नामेरी अमारी अत्यन्त काळजी लेनारुं एक स्वजन. एक फरिश्तो चालतां चालतां क्यांक अणधार्यो भेगो थई गयेलो. हतो त्यारे अवाज रूपे अमारी पडखे अमारा माथे हाथ पसवारतो हाजराहजुर हतो. एमनी उपस्थिति एटली बधी तो कोठे पडी गयेली के सांज पडे ने सात - आठना गाळे मोबाईल रण तो ए फोन साहेबनो ज छे एवी खातरी रहेती. अने नथी त्यारे आजे गमे ते घडीए एमनी साथे मनोमन गोठडी मंडाय जाय छे, आम ज. हता त्यारे ज घणी वार थई आवतुं के आ सम्बन्धनुं खरुं सत समजाशे त्यारे बहु मोडुं तो नहीं थई गयुं होय ने ! खबर नथी....... २. ए ऋणानुबन्धमा मानता. कोईना अकारण गमवा अने अकारण न गमवा विशे कोक भवनां लेणां जोता. नहितर आम बने शी रीते ? ना तो हुं भारतीय देवालय स्थापत्यनो विद्यार्थी के ना संगीतनो मर्मी के ना जैन दर्शननो अभ्यासी, ना हुं बागायत जाणुं के ना मने रत्नशास्त्रनी परख. ना अनेक भाषासंस्कृतिनो भोमियो अने छतां एमनी साथेनी आवी अधिकी अंतरंगता. हजीये आ वाते विमासुं छं. रखे, एम मानी लेता के आवी स्थिति मात्र मारी ज थती, मारी जेम एमना परिचयमां आवेला घणानो ए ज अनुभव. जाणे एमने दरेकने अनुकूळ थवानो कीमियो हस्तगत. अथवा तो दरेकमांनुं उजळं पासुं मापी लेवानी एमने दृष्टि. एमना मनमां वसी गयेली दरेक व्यक्तिने पोते सामे चाली फोन करे. सामे व्यस्तताओ होय तो अनुकूळ समय पूछे ने फरी फोन करे. निरांते वात करे. सामेवाळो माणस नानो होय के मोटो, एमने माटे सरखो. एमना घरे आवनारा पण भिन्न भिन्न माणसो. संगीतकारो, चित्रकारो, स्थपतिओ, संस्कृतना पण्डितो, इतिहासकारो, साहित्यकारो, फोटोग्राफरो, नाट्यकारो - बनावीए तो आखी एक लांबी यादी तैयार थई शके. तो ए पण खरुं के पीपल्स प्लाझाना एमना फ्लेट सामेना बन्ने फ्लेट कोलेजना विद्यार्थीओने भाडे अपाय. त्यां रहेनारा Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ अनुसन्धान-७१ घणा विद्यार्थीओ साथे एमने परिचय. दरेकना सारां वानांनी एमने फिकर. घणीवार मोडी सांजे एमने त्यांथी अमे नीकळीए त्यारे हमेशनी जेम तेओ गळगळा थई जाय. लिफ्ट सुधी अमने वळाववा आवे. अमे एमने वन्दन करीए. मने वहालथी भेटी ले. बीजलने माथे हाथ राखी कहे खुश रहो दीकरी. पीपल्स प्लाझाना ए छटे माळे मोटेभागे त्यारे कोई ना होय. एमनी साथे रहेनार भाई क्यांक बहार गयो होय. पछी रस्ते चालता विचारो आवे के ढांकीसाहेब धीमे धीमे पाछा पोतानी रुममां जईने तकिये पीठ टेकवीने बेसशे ने छतने जोतां पोताने शरीरे हाथ-पेटे हळवे हाथे खंजवाळतां खंजवाळतां पोतानी आंगळीओमां ज वातो गुंथशे. त्यारे बल्बना पीळा अजवासमां कोनी साथे वात मांडता हशे. एमने मळवा कोई ना गयुं होय त्यारे पण एमनो नित्यक्रम ते आ ज.. ३. एमने पहेलवहेलां क्यारे जोया हशे ? अथवा तो एम पूर्छ के क्यारे एमनुं नाम सांभळ्युं हशे? कदाच त्यारे सप्तक छपायुं हतुं. कदाच 'एतद्' मां शोभांकनो विशेना एमना लेखो आव्या हता. कदाच, कवि-निबन्धकार यज्ञेश दवेनो ए गाळे ज प्रकाशित पहेलो निबन्धसंग्रह अरूपसागरे रूपरतनमांनो निबन्ध "गद्यस्थपति ढांकीसाहेब" वांच्यो हशे. हा, हशे, आमांनं कोइक एक निमित्त बन्यं हशे अथवा तो आ बधाने कारणे एमना माटे आकर्षण जन्म्युं हशे. पण एमने पहेलीवार जोया तो सावलीमां. जयदेवभाईनी (जयदेवभाई शुक्ल) कोलेजमां योजायेल एक शिबिरमां. ए पछी तरतना गाळे तारीख २२ जून २००१ना फाइन आर्टस् फेकल्टीना मारा सहपाठी अने आजे जाणीता युवान चित्रकार रुचिन सोनी साथे अमदावाद एमना घरे एमने मळवा पहोंची गयो हतो. आ मुलाकातोनो त्यारे जे सिलसिलो शरु थयो हतो ते हजी हमणां सुधी अवनवा उघाडे सतत हतो, साथे ने साथे एमना अमदावादना घरेथी लईने गुडगांवनी एमनी ओफिस ने त्यांना एमना घरे पण जवानुं थयुं छे. अमदावाद एमने मळवा जईए एटले एमने मानीती अगासियेमां जमवा लई जाय अथवा तो एमणे सरस वानगीओ मंगावी राखी होय. एमना घरे जमीए त्यारे पण अचूक अमे जे जमता होइए ते आवीने जोई जाय. दादी हता त्यारे पण आम करे ज. एटले दादी सहेज टीखळ पण करे के जाणे जोवा आव्या छे के हुं बराबर जमाईं छु के नहीं ! घणीवार, मारा मित्रोने पण एमने मळवा लई जाउं. एमां चित्रकारो होय, कविओ होय अने मारा विद्यार्थीओ पण होय. याद छे, एकवखत विद्यानगरनी Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ २९९ फाईन आर्टस् कोलेजना मारां विद्यार्थीओने लईने गयो हतो. घरमां बधां समाई शके एटली जगा न हती. एटले घरनी बहार चटाई पथरावी राखी हती. पछी बधां साथे मुक्तमने वातो करी हती. ___ढांकीसाहेबने जो एक वखत जणावी दीधुं के आवीए छीए एटले ए राह जोईने ज बेठा होय. अमारी (के अन्यनी) आवभगत माटेनी बधी व्यवस्था करी होय. अमे सहेज मोडां पडीए एटले एमना फोन आववा लागे. पछी अमने मोडे मोडे समजायेलुं के ज्यारे साहेबने मळवा नीकळता होइए त्यारे ज फोन करवो. ए पहेलां एमने आगोतरुं जणावq नहीं. मळवा आवनारने मळे त्यारे क्यारेय नरी औरचारिकता एमनामां जोई नथी. एमनी सहज हेतप्रीतथी सौने मोकळाशनो अनुभव थतो. मारे एमने मळवा जवानू थाय त्यारे एकाद-बे पुस्तकोनी दुकानो पर लटार मारवानो लोभ थाय. अने एम जउं पण खरो. एटले साहेब कहे पण खरां के आ छोकरो घडीकेय ठरीने बेसतो नथी. ४. बने के गोत्र अमारुं एक हतुं : कळा ने साहित्य. सम्मति के असम्मति बेउनो उद्गम आ एक जगाए. मोटेभागे तो असम्मति ज रहेती. मने ए मोर्डनियो गणता ने हुं चूपचाप मलकतो रहेतो. एनुं कारण ए के चित्रकळानो हुँ विद्यार्थी. वडोदरा फाईन आर्टस्मां अभ्यास करतो हतो त्यारे ने ए पछी पण अभ्यासना भाग रूपे के सहज जिज्ञासाथी प्राचीन अने मध्यकालीन कळानो इतिहास उथलाव्यो हशे. एमां खपपूरती जाणकारी. आधुनिक समयना कळाप्रवाहो विशे वात करवानी थाय तो अधिकारथी केटलुक बोली शकुं एटली फावट. एटले एमनी तज्ज्ञताना विषयोमा हुं लगभग निरक्षर. जोके एमनी साथे जे वातो थाय एमां खास तो होय जीवन, साहित्य, कळा अने संगीत. अमारे मतभेद होय तो तेओ मार्छ लगाडे नहीं. चित्रकळामां हुं चारकोल अने पेस्टलना माध्यममां ज चित्रो कलं. एटले एमनी एक सलाह तो होय ज : "दीकरा, कोयलानी खाणमांथी बहार नीकळ ने रंगोमां काम कर !" अने हुं वळतो जवाब आपुं "साहेब, हुं कोयलानी खाणमांथी ज हीरा लावी आपीश." क्यारेक नटुभाईने पण कहे, "आ छोकरो रीयालिस्टीक काम करी शके छे. एनो हाथ सारो छे. पण मानतो ज नथी." Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० अनुसन्धान-७१ ५. एमने प्रिय व्यक्तिना हितनी एमने घणी फिकर रहेती. एमां एना परणवानी वात होय, नोकरीनी होय, मेदस्वितानी होय के एना कुटुंबीजनोनी होय. आवी घणी बाबतोनी फिकर मारा माटे एमणे छेल्ले सुधी रह्या करेली. एक संतान जे फिकर करावडावे, जे बेजवाबदारी बतावे अने छतां सम्बन्ध खोवानो एना मनमां रतीभार पण संशय ना होय - एवो एमनी साथेनो सम्बन्ध बंधायो हतो. __हुं परणीने आव्यो ते पछी साहेब अने दादीए बीजलने घरनी वहुनी जेम वधावी हती. पोते लगनमां नहोता आवी शक्या पण मनमां जे निधरिलुं एवं घjक बन्नेए आपेलुं. दादी बीजलने जोई हरखातां राजी थतां. पोतानी साथे ने साथे राखतां. ढांकीसाहेब साथे जोडायेलां ढांकीसाहेबना मित्रोनो पण सहस स्नेह अमने मळ्यो छे. केटकेटलां लोकोनो परिचय थयो ? एमने मळवा जइए एटले एमने मळवा आवनारा साथे ओळखाण करावे. मोटेभागे तो बधां अमारा विशे जाणता ज होय. जाते थईने मने आपणा चित्रकार नटुभाई परीख, चित्रकार अमिताभ मडिया अने कनुभाई जानीना घरे लई गया हता. आपणा प्रयोगशील कविनाट्यकार श्रीकांतभाई शाह साथे एमने निमित्ते ज आत्मीयता बंधायेली. ___एमां जितेन्द्रभाई शाह, स्नेहलभाई शाह, हसमुखभाई शाह, पारुलबेन पंड्या धर, सुनीलभाई कोठारी, अमितभाई अंबालाल, यज्ञेशभाई दवे, योगेशभाई जोषी, भोळाभाई पटेल अने राजेशभाई पंड्या तो खरां ज. सौथी मोटी अस्क्यामत ते हेमन्तभाई दवे साथे परिचय अने पछी अभिन्न मित्रता. साहेब माटे हेमन्तभाई मोटो दीकरो ने हुं नानो. फोन पर हमेशा एमना मारा विशे पूछे अने मने एमना. वळी टकोर पण करे के मोटाभाईने नाराज ना करतो. तमे बे भाई छो, झघडशो नहीं. एमने कारणे ज हशे ने अमारे परस्पर वातो कर्या विनाना दिवसो झाझा पसार थता नहीं. एक वखते एमणे मने कहेलुं, "पीयूष तारा माटे अमने प्यार छे पण हेमन्त माटे अमने मोह छे. एमने (दादी) पण एम ज हतुं." ६. दृश्यकळा सन्दर्भः ढांकीसाहेबनो दृश्यकळा सन्दर्भे अभिगम : एमणे आधुनिक कळा बाबत सविस्तार विचारो लेखितमां क्यांय प्रगट नथी कर्या. पण एमना घरनी भीतो शोभावतां चित्रो जोई कंइक समजण बांधी शकाय छे. Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ ३०१ अमदावादना एमना घरे नटु परीख, अमिताभ मडिया, धर्मेश पंचाल अने कल्पित पंचालनां चित्रो जोवां मळतां रह्यां छे. नटुभाईना चित्रोमां बहुधा कल्पनाप्रेरित दरियाकांठा अने एकाद बे होडीओ रहेती. जेमां चित्रनी भौमितिक संरचना चित्रसामग्रीने बांधी राखती. नट भाईना अन्य चित्रोमां फ्लावरोझना चित्र खरां. एमां पण ओछां लसरकाओ अने गणतरीना रंगोमां फ्लावरोझ चितरवानी नटुभाईनी फावट ढांकीसाहेबने प्रसन्न करती. धर्मेश पंचालना चित्रोमां पहाड, वादळ अने वृक्षनी ग्रंथणी रहेती. एमां आछां रंगोमां दूर-नजीकनो भास रचती विषयसामग्री ढांकीसाहेबने मन आकर्षक बनी हशे. ए ज रीते कल्पित पंचालनां तन्त्रकळाने अनुलक्षी रचायेलां चित्रोमां पण भौमितिक आकारोनी अने रंगोनी संरचना एमने गमती. आ चित्रोमां मात्र अमिताभ मडियानां चित्रो जरां जुदां हतां. एमां चितरनारनो उल्लास रंग अने आकारमा प्रगट थतो. ____ ढांकीसाहेबना घरना राचरचीलाने जोई| तो तेमां पण विशेष जुदी जुदी जग्याएथी लावेलां वोझ महत्वना हतां. दादीए वर्षो पहेलां मने कतरणोनी एक फाईल आपी हती. एमां मुख्यत्वे 'कुमार'मांथी कातरेलां चित्रो हतां. मने याद छे त्यां सुधी ए चित्रोमां कनु देसाई, सोमालाल शाह अने रसिकलाल परीखनां चित्रो विशेष हतां. ढांकीसाहेबने मन आकारो अने रंगोनी परस्पर समरसतानुं महत्व घj. चित्रोमां आकारो अने रंगना संयमित बहेलावना कारणे उपस्थित थती मिष्ट भासती योजना एमने आकर्षती. समाजना के प्रकृत्ति विषयक, भय पमाडे के उत्कट एवा निर्बाध अभिव्यक्तिना धसारा एमने रुचता नहीं. एटले एम कही शकाय के सुचारु अने शोभितुं बन्ने एमने मन कळानी प्राथमिक जरूरियात हतां. ७. गुडगांवथी अमदावाद हमेशने माटे रहेवा आव्या त्यार पछी ढांकीसाहेब एकाधिक छापां मंगावतां अने वांचतां. गुजराती अने अंग्रेजी बन्ने. एमां 'ध हिन्दु' अने 'हिन्दुस्तान टाईम्स' पण होय ज. देश-दुनियाना प्रवाहो विशे चर्चा करता. एमनो मत प्रगट करता. घणीवार अमे ए घरे रोकाया होइए त्यारे सवारे अंग्रेजी छापां उथलावतो बेठो होउं त्यारे मारी टीखळ करे. फोटा जुए छे. घणीवार कहेतां दीकरा अंग्रेजी पाकुं कर. अंग्रेजीमां लख. अंग्रेजी आपणा बापनी भाषा नथी. घणुं मथीश त्यारे कंइक हाथवगुं थशे. Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ अनुसन्धान-७१ ८. जून २००५ पछी अमदावाद कंइक दोढ-पोणा बे वर्ष रहेलो. कनोरिया सेन्टर फोर आर्टस् मां फेलो आर्टिस्ट हतो. ढांकीसाहेबना घरनी नजीक. एटले रोज सांजे छ वागे ने एमनो फोन आवे ज, दीकरा क्यारे आवे छे ? मारो रोजनो क्रम ते आ ज. कनोरियाथी एमना घेर जवान ने दोढ-बे कलाक एमनी साथे बेसवानुं ने पछी रुम पर जवान. मोटेभागे तो एमनी साथेनी वातोनी निश्चित दिशा ना होय. एमने मळेला महानुभावोना अनुभवो होय. एमां स्टेला क्रेमरीश होय, मादाम झन्नास होय, डॉ. मोतीचन्द्र होय, कपिलाजी होय, दरेकनी वात लाक्षणिक छटा साथे उघडती आवे. एमने एमना बोलवानी ढबछब बधुंय तादृश. एटले हळवा नर्म मर्म साथे ए वातो प्रगट थती जाय. ९. एमनी सादाईभरी छतां अभिजात घर-गृहस्थीमां दादी गया पछीथी फेर पड्यो हतो. दरेक नानी नानी बाबतनी चीवट राखनारा ढांकीसाहेबे धीमे धीमे घरनी बाबतोमांथी मन वाळी लीधुं हतुं. एमना बेठकखंडमांनी तस्वीरो, फ्लावरवोझ अने चित्रो धीमे धीमे झांखा पडवा लागेला. अमे जईए त्यारे आ जोई अमे पण मन मनावी लेतां, चूपचाप. १०. एमनी छेल्ली मांदगीना दिवसोनी वात छे. ढांकीसाहेब होस्पिटलमां हता. हुं एमने मळवा गयो त्यारे मने आपवानुं एक चित्र अने एक आफ्रिकन बस्ट एमणे धर्मेशभाई पासे होस्पिटलमां मंगावी राखेनुं ते आपेलं. हुं कहेतो रहेलो के साहेब आपणे घरे जइए त्यारे मने आपq हतुं ने ! उतावळ शुं छे ! ए पछीना, ज्यारे थोडाक दिवस पर एमनी पासे गयो त्यारे ढांकीसाहेब लगभग चाली गया हता. ११. सांज पडी गई छे. खबर छे फोन रणकवानो नथी. साहेबनो अवाज आववानो नथी. ए पूछवाना नथी के शुं करुं छु. ए नथी पूछवाना के साहित्यक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे शुं चाली रह्यं छे. सितांशुभाई (सितांशु यशश्चन्द्र) केम छे. मोटाभाई (हेमन्त दवे) शुं करे छे. शिरीषभाई (शिरीष पंचाल)ना | खबर छे. भरतभाई (भरत महेता) केम छे. अजयभाई (अजय सरवैया) मजामां ने. बीजल मजामां छे ने. हवे एम नहीं पूछे के दीकरा क्यारे आवे छे के फोन मूकतां नहीं उमेरे के दीकरा वहेलो आवजे. हवे मारे अधरस्ते बाइक रोकीने एमने जवाब आपता एम नथी कहेवारों के साहेब अत्यारे हुं बहार छु. काले फोन करीश. ए Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर-२०१६ ३०३ एम नथी कहेवाना के तारे फोन करवो नहीं. हुं फोन करीश. केटला वागे करें. सांजे क्यारे फ्री थवानो. सारं आवती काले फोन करीश. जाणुं छु, हवे फोन रणकवानो नथी. मोबाईल पर ढांकीसाहेबनुं नाम झबकवानु नथी. हवे हुं अधरस्ते क्यांय अटकी पडवानो नथी. हवे आवती काल सुधी कोई मारा फी थवानी राह जोवानुं नथी. हवे आवती काल थशे. सांज पडशे नोकरी परथी पाछो फरीश पण... १२. छेल्ला दिवसोनी वात छे. सितांशु सरने (सितांशु यशश्चन्द्र) ढांकीसाहेबनी छेल्ली मांदगी विशे लखेलं. एटले अमेरिकाथी एमणे वळतो मेल पाठवेलो. ढांकीसाहेब विशे एमणे लखेलुं “Sorry to hear of Dhankisaheb's illness, Piyush. You and Bijal being with him, and Hemant, would help Dhankisaheb feel better, I am sure. Please convey my very affectionate and deep regards to the great scholar and fascinating narrator.” (१० जून २०१६) साहेबने मळ्यो त्यारे ए वांची बतावेलं. साहेबे ए पछी केटलीय वार मारो मोबाईल मांगीने ए वांच्या करेलुं. थोडांक दिवस पर हेमन्तभाई पण साहेबने मळवा आवेला त्यारे मारी पासे सर, ए लखाण एमने पण वंचावेलुं. मेलना ए त्रणेक वाक्योमा एमणे जाणे घणुं वंचातुं हशे. मनोमन एनां अर्थघटनो करतां रहेला. आजे साहेब नथी त्यारे पण मळेला संदेशाओ साहेब वांचीने केटलुं विचारता रह्या हशे एनी मारे कल्पना करवानी रही. जोके अहीं सितांशु सरे ढांकीसाहेबना अवसान पछी जे इमेल अमने लख्यो ते पण नोंधी लउं, "Dear Piyush and Bijal, Dhankisaheb's passing away takes so much away from us : A great scholar, like Bhayanisaheb and Umashankar Joshi, honored all over the world and at home, a person of such immense charm and grace and honesty. A mentor to some of the best scholars and artists in Gujarat today. A presence that would be missed all over India and elsewhere. Like at U penn. To you both, this is a great personal loss and sorrow. Anjani and I are with you, and with Hemant, in this pain and sorrow. Anjani and Sitanshu.” (३० जुलाई २०१६) १३. मारो स्वभाव एवो के जाणता अजाणता प्रश्नोमां गूंचवातो फ. . माणसो विशेना अभिप्रायो झट बांधुं ने झट पाछो बदलुं पण खरो. अणसमजमां Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ अनुसन्धान-७१ गेरसमजो उभी करुं एटले हंमेशा मने टकोर करे. कहे कोई माणस सर्वगुणसम्पन्न ना होय. आपणे माणसोनी सारप ज जोवानी. तो मारा अतिउत्साही स्वभावनी टीखळ पण करता कहे : दिकरा तारुं बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना जेवुं छे. १४. एमनां पुस्तको आवे एटले मने रस पडे एवा विषयनां पुस्तकोनी एक नकल हरखथी आपे ज. ज्यारे जैन दर्शनना पुस्तकोनी एक नकल एमनी पासेथी हठ करीने मारा माटे लई लउं एमां एमना हस्ताक्षर करावं. मने कहे पण खरा के तुं आनुं शुं करीश ? त्यारे हुं कहुं के साहेब तमारां बधां पुस्तको मारी पासे तो होवा ज जोईए. जो के खरं कहुं तो एमणे घणुं मन हतुं के हुं भारतीय कळानो इतिहास अंके करं. आपणी प्रशिष्ट गणायेली कळानी लाक्षणिकता समजुं. कदाच एटले ज संगीतना परिवेश साथे मारा नामे एक पात्रनुं नाम राखीने एमणे 'मानस-परिवर्तन' वार्ता लखी हती. १५. तारीख २९ जुलाई २०१६, शुक्रवार, लगभग मधरात, समय ११ : ३७, आस्ते आस्ते ढांकीसाहेबना श्वास थंभी जाय छे. आ पळोना साक्षी बनवानुं सद्भाग्य के दुर्भाग्य में सामे चालीने हठपूर्वक पसंद करेलुं. एमनो डाबो हाथ मारा हाथमां हतो ने एमने जमणे अभिमन्यु ऊभो हतो. पासे डॉक्टर, नर्स अने आलापभाई हतां. आसरे छ- साडा छनी आसपास फेफसा सुधी ओक्सीझन पहोंचाडती नळी काढी लीधां पछीथी सतत आ अवश्यंभावी पळनी घडीओ गणाती हती. बे दिवस पहेलां वेंटीलेटर काढी लीधा पछीथी ते छेल्ली पळो सुधी मुट्ठी हाडकांनुं आ शरीर नियति साथे संतलस करी रह्युं हतुं. आखरे खूब ज शान्तिथी आपणी वच्चेथी एमणे विदाय लोधी, गरिमापूर्वक ! नेए साथे अमारुं पण अमदावाद प्रकरण समाप्त थयुं. ता. क. मारा माता-पिताना सौहार्द विना ढांकीसाहेब सानो संसर्ग टकवो मुश्केल हतो. मारा पिताना अवसान पछी पण मारां मा मारे गाम एकलां रहे छे. छतां ढांकीसाहेबनी वाते हंमेश कहेतां के तुं करजण नहीं आवे तो चालशे पण साहेबने मळवा जरूरथी जजे. एमने फोन करतो रहेजे. ढांकीसाहेबना ऋणानुबन्धमा केटकेटली परोक्ष अने प्रत्यक्ष कडीओ जोडायेली हती अने रहेशे पण खरी. कदाच एमां ज तो हशे आपणा होवानी कृतार्थता. ( २५ ओक्टोम्बर २०१६, वडोदरा ) Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यापल्यानमिवत्येचारकायहीदवारयः। पभ्माणक्यःचाहडतोवरशवका FIRE दियेवरा पदवशरस्मोपदिशERSTARति do FEM AGE8kbH.. POEBायकांनायगवान पशीलवानासधा गरितिरिका यनhot FUL HAL मान्सर Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारवश्यापननेनिघचलिनारयशनमाला सायपा बनानदी दिगवरप्वटिकापामान्य चित्र परिचय : पृष्ठ क्रमाङ्क- 82 थी 84 | KIRIT GRAPHICS-9898490091