________________
१२८
अनुसन्धान-७१
यक्षलक्ष तिहां अंग पखालइ, पूज रचइ आशातना टालइ, ढालइ चामर इंदो ॥१९॥ गीत गान करइ मानव गंध्रवा, अपछरा नित नाटक भावना । वीणवंश प्रमुख वाजिब देवता, करइ उछव सदा जिन सेवता ॥२०॥ ईया० प्रथम चक्रवति जगि परिवरीउ, अष्टापद प्रासाद उधरीउ, भरीउ सुकृत भंडारो । षटखंड पृथवीय आण निरंतर, चउद रयण मणिमंदिर, किन्नर सुरपति हारो ॥२१॥ यक्ष्य सहस सदा पंचवीसइ, मुकटवर्धन सहस बत्रीसइ । त्रिणि लाख घर अंगणि महुंता, राय सामंता न पार लहिता ॥२२॥ ईया० त्रणिसई साठि सूआर भुंजाई, रसवतीनी करइ सजाई, गाई लाख दूझंति । पय पाचइ नितु खीर नरेसर, त्रिहुं लाखे आसण अलवेसर, भरथेसर भोजंति ॥२३॥ सहस चुसट्ठि राज अंतेउरी, हाम(व) काम मृगनेत्र मनोहरी । भरह भोग विलासति लीला, सरस कामिणि करइ नितु क्रीडा ॥२४॥ ईया० सहस बत्रीसइ देस भणीजइ, गाम छन्नवइ कोडि सुणीजइ, जोणी जइजइवंतो । सहस बहुत्तिरि नयर देवालां, सहस छपन्न जलवट वेलाउल, राउल अति बलवंत ॥२५॥ खेड सहस सोल नृपावली, वसइ पाटण सहस अठताली । सद्रोण मोहण सहस नवाणूं, अवर वस्तुन पार न जाणउ ॥२६॥ ईया० खुंप तिलकवर सीस नरेसर, देवदूष्य पहिरियां अलवेसर, केसरि चंदनि वासो । तनु मान धनु पंचस कोमल, अलंकरण जिस्यां दीपइ झमाउल, परिम(घ)ल भोगविलासो ॥२७॥