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ओक्टोबर २०१६
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कुपित होना, उन्हें देशनिर्वासन की आज्ञा देना आदि प्रसंग भी अन्यत्र कहीं दृष्टिगोचर नहीं होते है । इस आधार पर हम कह सकते है कि ज्ञाताधर्मकथा में कृष्ण के जीवनप्रसंग के उल्लेख महाभारत एवं श्रीमद् भागवत में कृष्ण के जीवनचरित्र के उल्लेखों से अनेक दृष्टि से भिन्न और प्राचीन है ।
ज्ञाताधर्मकथा के ही पांचवे शैलक नामक अध्ययन में थावच्चापुत्र के दीक्षित होने के प्रसंग में श्रीकृष्ण, उनकी राजधानी द्वारिका और उनके परिवार का उल्लेख उपलब्ध होता है । उसमें बताया गया है कि द्वारिका नगरी पूर्व-पश्चिम में १२ योजन लम्बी और उत्तर - दक्षिण में ९ योजन चौडी थी । यह कुबेर की मति से निर्मित हुई थी । इन्द्र की नगरी अलकापुरी के समान जान पडती थी । इस नगर के बाहर उत्तर पूर्व दिशा अर्थात् ईशानकोण में रैवतक ( गिरनार ) पर्वत था तथा रैवतक पर्वत और द्वारिका के बीच में नन्दनवन नामक उद्यान था । इस द्वारिका नगरी में कृष्ण नामक वासुदेव राजा राज्य करते थे । इस नगर में समुद्रविजय आदि दस दशा है, बलदेव आदि पांच महावीर, उग्रसेन आदि सोलह हजार राजा, प्रद्युम्न आदि साढे तीन करोड कुमार, शाम्ब आदि आठ हजार दुर्दान्त योद्धा, वीरसेन आदि एक्कीस हजार पराक्रमी, महासेन आदि छप्पन हजार बलवान पुरुष, रुक्मणी आदि बत्तीस हजार रानियाँ, अनंगसेना आदि अनेक गणिकाएं, बहुत से ईश्वर ( धनाढ्य सेठ), तलवर (कोतवाल), सार्थवाह आदि निवास करते थे । उन कृष्ण वासुदेव का उत्तर दिशा में वैताढ्य पर्वत पर्यन्त तथा तीनों दिशाओं में लवण समुद्र पर्यन्त शासन था । इस प्रकार प्रस्तुत अध्ययन मात्र कृष्ण के पारिवारिक एवं राजकीय वैभव का चित्रण करता है । यद्यपि इस अध्ययन में दो अन्य प्रमुख घटनाएं कृष्ण के जीवन से सम्बन्धित है - प्रथम तो यह कि कृष्ण को जब यह ज्ञात होता है कि अर्हत् अरिष्टनेमि द्वारिका के बाहर उद्यान में पधारे है तो वे अपने समस्त राज्यपरिवार के साथ उनके दर्शनों को जाते है तथा उपदेश सुनते है । अरिष्टनेमि के उपदेश से थावच्चा नामक गाथापत्नी के
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