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अनुसन्धान-७१
or indifferent (...) The Nirgrantha Church in its earlier phase of existence is thus neither vociferous on, nor zealous about image worship; in view of the philosophical position it adopts, it just could not be; for it did not look upon images as an essential aid in the attainment of his nirvāṇa, end of all active processes. And yet the archaeological evidence positively, even persistently (if paradoxically) indicates a very early evidence of Jina images and their worship in the Nirgrantha religion' (Dhaky १९८९ पृ० ९५-९६ = २०१२ पृ० १००-१०१).
ऐसा लगता है कि मूर्तियों के विकास में जैन श्रावकों ने भाग लिया । ५वीं शती में जिनमूर्ति की प्रतिष्ठा की प्रशंसा शुरू हुई (जैसे विमलसूरि के 'पउमचरिय' से पता चलता है) । मथुरा से लेकर अधिक से अधिक जिनमूर्तियाँ मिलती हैं । पत्थर या कांस से बनी हुई प्रतिमाओं में कलाकारों ने जिनों का स्वभाव, केवलज्ञान तथा मोक्ष को दिखाने का प्रयास किया है। सिद्धान्ततः जिनशरीर सौन्दर्य का मुख्य प्रदर्शन है । जिनसौन्दर्य जैन धर्म के मौलिक कल्पों से सुसम्बद्ध हैं, अर्थात् महत्त्व, शान्ति और समरसता ।
__ प्रारम्भ में जैन आगमों के सन्दर्भो का आश्रय लेकर मैं इस तथ्य का समर्थन करूंगी । तत्पश्चाद् जैन मूर्तियों में प्रदर्शन कैसे होता है ? यह मेरा मुख्य विषय है, और उसके बाद जैन मूर्तियों में अलङ्कारों का स्थान क्या है ? इस प्रश्न पर भिन्न विचार हुआ है कि जैन मूर्ति स्वत: सौन्दर्य की प्रतीत है या उसको अलङ्कारों की आवश्यकता है ? । १. जिनशरीर उदाहरणोत्तर एवं लोकोत्तर है और सुन्दर है। __ जिनशरीर का सब से प्रसिद्ध वर्णन श्वेताम्बरों के आगमों के 'औपपातिकसूत्र' (या 'उववाइयसुत्त') ग्रन्थ में मिलता है । समवसरण के गम्भीर और उत्सवी अवसर पर मनुष्यों और देवताओं से घेरे हुए महावीर धर्मदेशना देने के लिए आए हैं । इसके पहले स्थान और भूमिकाओं का विवरण आता है । चम्पानगरी का वर्णन, श्रेणिक राजा का वर्णन इत्यादि । महावीर का वर्णन तीन अवस्थाओं में दिया गया है ।