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ओक्टोबर-२०१६
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भार, डोळ, कृतकता नथी होतां. वाणी-वर्तन-व्यवहारमा साहजिक निर्दोषता, हळवाश, खुल्लापणुं होय छे. आ अमना व्यक्तिगत सम्पर्कथी जाणी शकाय तेम ज अमना सर्जन-संशोधन-विवेचनादिमां पण अनुभवाय छे. डॉ. भायाणीना जातककथाना Re-told पद्धतिना 'कमळनां तंतु' वगेरे के संस्कृत-प्राकृतादिना अनुवाद जोईओ तेमज ढांकीसाहेबे लखेली वार्ताओ अने अनुभवो वांचीओ तो अमनी, एक रसिक पण्डितनी, सहजसिद्ध सर्जकता जोवा मळे छे. प्राचीनमध्यकालीन शिल्प-स्थापत्य अने अन्य कलाओ परना डॉ. ढांकीनां संशोधनोविवेचनो-सन्दर्भग्रन्थो वांचता प्राचीन भारतनी संस्कृति, जे स्पष्ट चित्र भावकना चित्तमां अङ्कित थाय छे, तेनुं ज एक सजीव-धबकतं स्वरूप अमनी वार्ताओमां सर्जन-माध्यमे आस्वाद्य बन्युं छे.
__ढांकीसाहेबना संगीत-विवेचक-संशोधक तरीके- नोंधपात्र लक्षण निर्भीक, निर्धान्त, मुक्त अवा अभिप्रायनुं छे. अमर्नु 'सप्तक' वांचशो तो अतिद्रुत लयमां तारना झणझणाटनी अमनी खुल्ली झाटकणीनो पूरो अनुभव थशे. वातचीतमां पण एमणे क्यारेय पोताना अभिप्रायने हळवो बनाव्यो के छुपाव्यो नथी. अमारे मने गमता अने रागनी घराणेदार चढत करीने रसमहालय रचता वांसळी-वादकनी चर्चा थई त्यारे ओ कहे; 'तमे तो सौराष्ट्रना छो ने ? आपणां गामडामां वांसनी भुंगळी लईने चूलो फूंकती स्त्रीओने जोई छे ने ? तमारो गमतो आ वादक अम ज फू... फू... पद्धति) वांसळी वगाडे छे ! मात्र हवाना ज हळवा-भारे दबाण द्वारा वांसळीमांथी सूर नीकळता अनुभववा होय तो कर्णाटकी वांसळीवादकने सांभळो. तमने तरत मारी वात समजाशे.' अने खरे ज, हुं ओमना निवासे गयो त्यारे एमणे केसेटनो खजानो खोल्यो, कर्णाटकी वांसळीवादकने भर्या काने संभळाव्यो अने तेओ जे कहेता हता तेनी वास्तविक प्रतीति करावी.
सप्तक' सङ्ग्रह छपायो त्यारे ढांकीसाहेबे मने का; 'तमे आनुं पूर्वावलोकन लखो. पुस्तकमां मूकीओ.' अने भायाणीसाहेबे तो आग्रहपूर्वक आज्ञा करी. हुं मुंझायो. अन्ते मारे कहेवू पड्युं : 'ढांकीसाहेब, तमे तो जाणो छो के इन्डियन म्युझिकना बेझिक सप्तक विशे आपणे अकमत नथी. प्रचलित मत छे ते प्रमाणे स्केलनो त्रीजो टोन सेमि थाय ते ज साहजिक छे अने ओ रीते तो काफी थाट ज बेझिक स्केल गणाय छे. हुं ओ मानुं छु. तमे कहो छो स्केलनो