________________
२२२
अनुसन्धान- ७१
ओने पोताने ज पोतानुं सर्जन पोताना ज धोरणे नीचुं अने निष्फळ लागे छे अने ते सर्जननो पंथ तजीने पोताना धोरणनी ज्यां तृप्तिने अवकाश छे त्यां जाय छे अने अने ज्यां तृप्तिकर के खूटतुं लागे छे, ओ आंगळी मूकीने बतावी शके छे. तमे जेमनां नाम लीधां से बधानां कार्योने सलाम, अ बधुं आस्वादन - विवेचन, पण संशोधन नहीं. हकीकते, आ वातनी खातरी करवी होय तो ओ लोको जेनी चर्चा थाय छे ते शुद्धमध्यम अने तीव्रमध्यमनो भेद प्रमाणी शके छे खरा ? कया रागनुं अंग लीधुं ओ कदाच कही शके परन्तु रागना, मूळ रागना कया स्वरूप-अंगमां अन्यनी सहायक छाया लीधी, शा माटे लीधी, ओ न होय तो मूळ राग अने भावनी अभिव्यक्तिमां शो भेद पडे, आ बधुं मात्र संगीतआस्वाद-विवेचक समजावी न शके. संगीतक्षेत्रे भायाणीसाहेबनुं पण केटलुंक पायानुं संशोधन छे ज "दा.त. वाद्यअंगनां लाञ्छनने आधारे वाद्यनुं नामकरण सारङ्ग (मृग)नुं लाञ्छन होवाथी ते वाद्य सम्भवत: 'सारङ्गी' तरीके ओळखायुं' के "तरानो केवळ मुगलकालीन आगमन - असर नथी, अनां मूळ भारतीय संगीतनी तन्नागीति साथे छे", आ बधां साङ्गीतिक संशोधनो छे, जे बे कलाप्रदेश साहित्य अने संगीत बन्ने - ना सन्धिक्षेत्रनां छे. एमणे रागदारीनी, अनां विविध प्रकारो, अंगोनी विगते चर्चा नथी करी.' अन्ते बन्ने रसिक पण्डितोना मुक्त हास्य साथे चर्चा पूरी थई.
अहीं रसिक पण्डित अवो प्रयोग पण खास अर्थमां कर्यो छे. सामान्य आपणे 'रसज्ञ पण्डित' ओवो प्रयोग करीओ छीओ. मारी दृष्टि आ पर्याय बराबर नथी. 'रसज्ञ' तो जे मात्र पण्डित छे, गम्भीर छे, सर्जकता धरावतो नथी, मुनशीना उपहासमा जे 'पाघडीघालु' कहेवाय ते पण होय ज. जो रस अने अनी झंखना - तालावेली - जाणकारी न होय तो 'पाण्डित्य' सिद्ध न थाय. हकीकते 'पण्डित' अने 'रसिक पण्डित' वच्चेनो जे भेद छे, ते प्रतिभा अने प्रकृति बन्नेना भेदना कारणे छे. जे पण्डितमां जीवन जगत- तत्त्वने पण हळवाशथी स्वाभाविकरूपमां ज जोवानी - लेवानी शक्ति - दृष्टि छे, सहजसिद्ध ओवी सर्जकता छे ते रसिक, मर्मज्ञ, सर्जक, विवेचक अने बंध दिशाना दरवाजा खोली आपे के बे छूटां सूत्रोनां पण आन्तर - सम्बन्धने जोडी आपे ते संशोधक. गुजरातमां रामनारायण पाठक, भायाणी, ढांकी आ वर्गमां आवे . ओमना पाण्डित्यमां क्यांय