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ओक्टोबर-२०१६
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उसको सुन्दर करने के लिये किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं है । इसके प्रमाणरूप में 'एकीभावस्तोत्र' का एक श्लोक उद्धृत है ।
'आहर्येभ्य: स्पृहयति परं यः स्वभावादहृद्यः शस्त्रग्राही भवति सततं वैरिणा यश्च शक्यः । सर्वाङ्गेषु त्वमसि सुभगस्त्वं न शक्यः परेषां तत्कि भूषावसनकुसुमैः किं च शस्त्रैरुदस्त्रैः?' ॥
Only someone who is not naturally beautiful would yearn for externals, like clothes and jewels to beautify himself; only someone who could be beaten by a foe would take up weapons. Every part of your body is exquisitely beautiful and no enemy can defeat you. What need have you of jewels, clothes or flowers?
What need have you of threatening weapons?' (Granoff २०१३ पृ० ५-६).
वह वाग्भटालङ्कार के शब्द भी उद्धृत करता है । उसके अनुसार जिन 'अनलङ्कारसुभगाः' (युक्तिप्रबोध पृ. ६०) । महावीर के प्रथम गणधर, गौतम का एक श्लोक भी आता है । जिनप्रतिमा के विषय पर कहां गया है -
'निराभरणभासुरं विगतरागवेगोदयान् निरम्बरमनोहरं प्रकृतिरूपनिर्दोषतः । निरायुधसुनिर्भयं विगतहिंस्यहिंसाक्रमान् निरामिषसुतृप्तिमद्विविधवेदनानां क्षयात् ।'
(बोधपाहुड पृ. १५६ तथा युक्तिप्रबोध पृ. ५९). निराभरण होने से जिनप्रतिमा राग का अभाव सूचित करती है । मेघविजय कहते हैं कि अलङ्कृतप्रतिमा से ही भक्त लोग जिन का स्वरूप ठीक से समझ सकते हैं। आगे मेघविजय प्रस्तुत करते हैं कि दर्शकों को अलङ्काररहित पत्थर सुन्दर नहीं लगता । अर्थात् केवल प्रतिमा प्रसिद्ध जिन के प्रतिनिधित्व के लिए पर्याप्त नहीं है । मेघविजय की समझ में जिन की मूर्ति को देखने का भिन्न-भिन्न अनुभव होता है क्योंकि प्रतिमा का अनुभव