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अनुसन्धान-७१
कुछ एक अंश में देखने का अनुभव, एक अंश में काल्पनिक और ध्यानपूर्वक है । उसका कहना है कि वह अलङ्कारों से, फलों और फूलों से सुसज्जित होता है। पत्थर में उतमा प्रकाश नहीं होता । इसलिए मनुष्य अपने चित्त से सोने और अलङ्कारों के रूप में अर्पण करता है । और उनसे पत्थर सजा देता है।
ऊपर के विचारों से मैं इस निष्कर्ष को पहुँचती हूँ कि जिनप्रतिमा की सुन्दरता हम सब को दार्शनिक शक्ति को देती है। और इसका परिणाम यह है कि व्यक्ति अन्तर्यामी चमत्कार से ज्वलित होता है । जो व्यक्ति आन्तरिक दीप्तिमान है वह भी प्रकाश से ओतप्रोत है । देखने की बात यह है कि जैसे लोग साधु लोगों का आदर करते हैं उसकी प्रशंसा व पूजा करते हैं, उनकी बात सुनते हैं उसी प्रकार जिनप्रतिमा का आदर और पूजा करते हैं। जिन सौन्दर्य के विषय में जैन मत नीचे के शब्दों में संक्षेप से कहा जा सकता है।
अन्तरङ्गशुद्धात्मानुभूतिरूपकं निर्ग्रन्थनिर्विकारं रूपमुच्यते (जैनेन्द्र सिद्धान्तकोश भाग ३, पृ. ४०५)
अन्तरङ्ग शुद्धात्मानुभूति की द्योतक निर्ग्रन्थ एवं निर्विकार साधुओं की वीतरागमुद्रा को रूप कहते हैं ।
Selected references ____Balbir, Nalini, 2013, Sourires de sages dans le bouddhisme et le jainisme, pp. 75-99 in Sourires d'Orient et d'Occident, ed. by Pierre-Sylvain Filliozat and Michel Zink (Journée d'études organisée par l'Académie des Inscriptions et Belles-Lettres et la Société Asiatique, 11 décembre 2009), Paris : Académie des Inscriptions et Belles-Lettres.
Banks, M., 1999, The Body in Jain Art, pp. 311-323 in Wagle, N.K. and O. Qvarnström (ed.), Approaches to Jaina Studies : Philosophy, Logic, Rituals and Symbols, Toronto, 1999.