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अनुसन्धान-७१
बहुभावभगतिं भली युगति श्रीजिनपासचिंतामणी, उवज्झाय लक्ष्मीविजयसेवक तिलक कहें द्यो शिवरुद्धि घणी ॥१५॥
॥ इति श्रीचिंतामणीपार्श्वनाथस्तोत्र संपूर्णं ।।
श्रीसुविधिनाथ-स्तवन सुविधि सुविधि जिणेसर सेवो, अलवेसर अवतार रे । सिंहासन बइठां बहुजन मन, मोहें जिन दीदार रे ॥१॥ आगलि ऊभा ओलग कीजइ, तो साहिब मन रीझइ रे । साची सेवा जो प्रभु जाणइ, तो सेवा फल सीझइ रे ॥२॥ आप वडाइ तेह ज साची, जे चित राची आपइ रे । प्रारथना कीधी नवि पहिडइ, निज थानके लेइ थापइ रे ॥३।। मोटि मता देखी न पतीजइ, जे सेव्यो नवि भीजइ रे । गीरुओ ठाकुर तेह कहीजइ, जेहथी सुख लहीजइ रे ||४|| ग्यानंदृष्टि निरखंता निरख्यो, नाथ सुविधिजिन परख्यो रे । त्रिभुवननायक अह ज साचो, हुं देखी हियडई हरख्यो रे ॥५॥ तुह्म सुरति अह्म हृदय धरीनइ, भीत(भीम)-भवोदधि तरीइ रे । जिम नर नव नावाइ करीनइ, दुस्तर जलधि उतरीइ रे ॥६॥ दीवनयरनो संघ सोभागी, वडभागी नित जेह रे । सुविधिजिणेसर सेवाजलस्युं, पवित्र करई निज देह रे ||७|| सकल सुराधिप मधुप निरंतर, अणहुंतइ अक कोडि रे । जिनवर विकसित पदपंकजनी, सेव करइ कर जोडी रे ॥८॥ ओ जिन जेहनइ मनगृह रमस्यई, ते शिवरमणी वरस्यइ रे । लखिमीविजयउवज्झायपसाई, तिलकविजय जय धरस्यइ रे ॥९॥
. ॥ इति श्री सुविधिजिनस्तवन संपूर्णं ॥