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ओक्टोबर-२०१६
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मई सहियां हो दुख दारुण देव कि, नरग तीर्यंच निगोदमां । साते व्यसने हो भरिओ भरपूर कि, वरत्यो विविध विनोदमां ॥४॥ रंगि राती हो माती मदमस्त कि, रूपे रंभा रूयडी।। हरिलंकी हो चालि गजगेल कि, मानिनी जे मानइ चडी ॥५।। भ्रूभंगी हो भली भामिनी देख कि, मोह्यो मोहवशई करी । विषयारस हो हुँ रसीओ नाथ कि, वसीओ दुखमां फिरिफिरी ॥६|| कूडकपटई हो रसलंपटभावि कि, आण्या ओलंभा आकरा । जो दीर्छ हो में तुझ दीदार कि, करि करुणा करुणाकरा ||७|| तुं तरीओ हो जनतारणहार कि, सार करो हवइ हुं तरुं । दुख दारिद्र हो दर दूरि टालि कि, करुणानिधि सेवा करुं ॥८॥ तुझ भेटण हो भावई भविलोक कि, थोक इहां आवइ घणा । गुण गावई हो सुरनरना बंद कि, निरखी पास सोहामणा ॥९॥ सुखदाता हो त्राता तूं तात कि, मूरति मुझ चितमां वसी । भयभंजन हो भेट्यो भगवंत कि, हियडा हेजई में हसी ॥१०॥ कलकंठी हो कामिणि मतिवंत कि, चिंतामणि चितमां धरी । नृत्य नाचइ नानाविध छंद कि, पदमिणी पगे ठवी घूघरी ॥११॥ वंशवीणा हो वाहई ताल मृदंग कि, हस्तक हाथ देखावती । मुखि मटकइ हो लटकइ लोचन कि, गोरी जिनगुण गावती ॥१२॥ घणुं घसीओ हो केसर घनसार कि, जाइ जूइ चंपककली । ओ भेली हो चरच्युं प्रभुअंग कि, सोहवि सवि टोलि मिली ॥१३॥ इम पूजइ हो प्रणमइ नरनारि कि, अश्वसेन कुलकेशरि । वामासुत हो सुखलखिमीदान कि, तिलकविजयने द्यों भरि ॥१४|| इम थूण्यो तारक सुक्खकारक पापवारकि जगधणी, दारिद्रचूरक पुण्यपूरक जिम सुरतरुवर सुरमणी ।