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अनुसन्धान-७१
चेहरे, उनके दर्शन को दूर नहीं करते । ये सब लाभकारी हैं | समवसरण के अवसर पर हमने देखा कि जिनसौन्दर्य धर्म के आचरण से आता है और रसास्वादन के परे । कहना होगा कि रसास्वादन और धर्मपरायणता एक साथ मिलते हैं । १२वीं शती में श्वेताम्बर कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य 'वीतरागस्तोत्र' के काव्य को पढ सकते हैं । जिन के शरीर पर वह सौन्दर्य
और धर्मशीलता के गुणों का आरोप करते हैं क्योंकि वह किसी भी परिवर्तन से प्रभावित नहीं होता । कहा जाता है कि शुद्धता से जिन का शरीर लोगों को आकर्षित करता है ।
'प्रियङ्गुस्फटिकस्वर्णपद्मरागाञ्जनप्रभः । प्रभो तवाऽधौतशुचिः काय: कमिव नाक्षिपेत् ?' || (वीतरागस्तोत्र २.१) नीला प्रियङ्गु, स्फटिक उज्ज्वल, स्वर्ण पीला चमकता फिर पद्मराग अरुण व अञ्जन रत्न श्यामल दमकता । इन-सा-मनोरम रूप मालिक ! आपका, नहाये बिना भी शुचि सुगन्धित, कौन रह सकता उसे निरखे बिना ?॥
(विजयशीलचन्द्रसूरि १९९६ पृ० ४) यह विचार 'भक्तामरस्तोत्र' में भी मिलता है। जिन का रूप अद्वितीय है और शान्त, सुन्दर, मनोहर परमाणुओं से निर्मित हुआ है ।
'यैः शान्तरागरुचिभिः परमाणुभिस्त्वं । निर्मापितः' (भक्तामरस्तोत्र १२)
जैन मत के अनुसार जिन के शरीर की आवश्यकता कही गयी है । 'मतं नः सन्ति सर्वज्ञा मुक्ताः कायभृतोऽपि च' (वीतरागस्तोत्र ७.७) यह तो हमें भी मान्य है ऐसे द्विधा सर्वज्ञ है
एक देहधारी, दूसरे अरु सिद्ध रूपातीत है। (विजयशीलचन्द्रसूरि १९९६ पृ० २३)
पर जिनप्रतिमा आदर्श में प्रतिबिम्ब जैसे होती है । जिनवदन को स्तोत्रकार अधिक ध्यान देते हैं ।
"प्रसन्नमास्यं मध्यस्थे दृशौ लोकम्पृणं वचः' (वीतरागस्तोत्र ६.११).