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अनुसन्धान-७१
और अपनी 'प्रथम द्वात्रिंशिका' में उन्होंने कहा है कि जिन का शरीर निरन्तर बदलता नहीं । वह सामान्य लाल रक्त से भिन्न है । जिन की अद्भुत भाषा जो सब व्यक्तियों के लिए कृपापूर्ण है। विचारशील व्यक्ति में जिन की सर्वज्ञता के विषय में संदेह दूर करनेवाली है।
'वपुः स्वभावस्थ-मरकत-शोणितं परानुकम्पासफलं च भाषितम् ।
न यस्य सर्वज्ञविनिश्चयस्त्वयि द्वयं करोत्येतदसौ न मानुषः' (१.१४; Granoff २०१२)
जिनप्रतिमा को देखने से ऐसा प्रभाव होता है जो धार्मिक परिवर्तन में बदल जाता है । उसका प्रभाव अन्य धार्मिक प्रतिमाओं से अधिक भी हो सकता है । राजशेखरसूरि के लिये हुए 'प्रबन्धकोश' की एक कथा के अनुसार (कथा-८) हरिभद्र ब्राह्मण ने जिनप्रतिमा को एक मन्दिर में देखकर आनन्द को व्यक्त किया है और वह जैन धर्म में परिवर्तित होकर मध्यकालीन के प्रधान जैन मनीषियों में उत्तम स्थान पर पहुंचे ।
'वपुरेव तवाचष्टे भगवन् ! वीतरागताम् (...) जं दिट्ठी करुणातरङ्गियफुडा एयस्स सोम्म मुहं आयारो पसमायरो, परियरो सन्तो, पसन्ना तणू । तां नूणं जरजम्ममच्चुहरणो देवाहिदेवो इमो देवाणं अवराण दीसइ जओ नेयं सरूवं जए'
हे भगवान् ! आपका शरीर ही वीतरागता कहता है । दृष्टि कृपापूर्ण है, चेहरा मधुर है । जो जिन प्रत्येक दिशा में दिखाए गए हैं वे भी शान्त हैं
और शरीर सम्पूर्णतया शान्त है । सारी देवताओं में आप ऐसी देवता हैं जो जन्म, जरावस्था तथा मृत्यु पर विजय पाते है । और कोई दूसरी देवता ऐसी नहीं हैं।
इसी लेख में एक हिन्दु ने एक जैन उपाध्याय से पूछा । ये जिनदेव कहां हैं । उसका उत्तर यह है कि मोक्ष में है, पर द्रव्यत: जैन मन्दिर में है । हिन्दु को जैन मन्दिर में ले जाया गया । उसने पार्श्वनाथ भगवान की