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________________ ओक्टोबर-२०१६ १४९ 'नित्यमविकार-सुस्थित-सर्वाङ्गमपूर्व-सहज-लावण्यम् । अक्षोभमिव समुद्रं जिनेन्द्र-रूपं परं जयति' (२६) गम्भीर सागर के समान महान मानस संग है । नित्य निर्मल निर्विकारी सुव्यवस्थित अंग है ॥ सहज ही अद्भुत अनुपम अपूरब लावण्य है। क्षोभ विरहित अर अचल जयवंत जिनवर अंग है ॥ (दे० www. atmadharma.com; इन श्लोकों के अंग्रेजी अनुवाद के लिए दे० Granoff २०१२) बुद्ध की तरह जिन भी राजकुमार थे, जिन्होंने आर्थिक जीवन का त्याग कर दिया । साधु हो गये हैं । केवलज्ञान को प्राप्त किया है। उनकी सब मोहममता भंग हो गयी है जो लोगों को संसार में आसक्त रखती हैं। सम्पूर्ण कर्मक्षय हो गया है । वे मोक्ष या सिद्धि को प्राप्त हो गये हैं । सम्पूर्ण पुनर्जन्म से छूट गये हैं। जिन ऐसी आत्मा है जिसको प्राकृतिक शुद्धता प्राप्त हो गयी है । अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख, अनन्त वीर्य इति चतुष्टय-गुणों से सर्वदा सिद्धात्मा ओतप्रोत रहा है । वह प्रत्यक्ष नहीं है । शरीरसहित आत्मा का प्रतिबिम्ब मानना तो योग्य है, परन्तु शरीररहित शुद्धात्मस्वरूप सिद्धों की प्रतिमा कैसे सम्भव है ? । वैसे ही अधिकतर जैन जिनप्रतिमाओं की पूजा करने में आस्था रखते हैं । जिन की अप्रत्यक्षता और प्रतिनिधित्व की आवश्यकता के सामने 'दीपार्णव' शिल्पशास्त्र के ग्रन्थकार ने इस समस्या को रूप-शब्द लेकर और उसके साथ खेलकर समझाया है । 'अथातः संप्रवक्ष्यामि स्वरूपं जिनलक्षणम् । अरूपं रूपमाकारं विश्वरूपं जगत्प्रभुम् ॥ केवलज्ञानमूर्तिश्च वीतरागं जिनेश्वरम् । द्विभुजं चैकवक्त्रं च बद्धपद्मासनस्थितम्' ॥ (दीपार्णव २१.१-२) जैन मतावलम्बियों ने प्रतिमाओं के विविध रूपों का आश्रय लिया है। जिन को शिल्पाङ्कित करने के दो पारम्परिक विधान हैं । जिनको या तो पद्मासन में बैठा हुआ या एकदम सीधा खडा दिखाया है । इस अवस्था में
SR No.520572
Book TitleAnusandhan 2016 12 SrNo 71
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2016
Total Pages316
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size22 MB
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