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ओक्टोबर २०१६
सभी असुर आदि कृष्ण या बलभद्र के द्वारा मार डाले जाते है, जब कि जिनसेन प्रथम तो जैनों के अहिंसा के दृष्टिकोण के आधार पर इन्हें राक्षस न कहकर देव या देवियां कहता है । दूसरे कृष्ण या बलदेव उन्हें मारते नहीं है अपितु हराकर जीवित ही छोड देते है । यद्यपि प्रश्नव्याकरणसूत्र के अनुसार कृष्ण के द्वारा इन्हें मारे जाने का उल्लेख है । हेमचन्द्र अपने त्रिशष्टिशलाकापुरुषचरित में जिनसेन के समान ही यह मानते है कि श्रीकृष्ण इन्हें हराकर भगा देते है । यद्यपि जहां जिनसेन प्रथम ने इन्हें देवी-देवता के रूप में स्वीकार किया है, वही हरिवंशपुराण में जिनसेन द्वितीय इनका कंस के द्वारा भेजे गये उन्मत्त प्राणियों के रूप में उल्लेख करते है ।
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जैसा कि हम पूर्व में उल्लेख कर चुके है कि जहां हिन्दु परम्परा में पाण्डवों एवं कृष्ण के जीवन के साथ महाभारत के युद्ध की घटना जुडी हुई है वहां जैन आगम ग्रन्थों में महाभारत की घटना का सर्वथा अभाव है यद्यपि परवर्ती जैन लेखकों ने महाभारत की घटना का उल्लेख किया है ।
जहां हिन्दु परम्परा कंस को कृष्ण का मुख्य प्रतिद्वन्द्वी मानकर चित्रित करती है, वहीं जैन परम्परा में कृष्ण का मुख्य प्रतिद्वन्दी जरासन्ध को माना गया है । क्यों कि वह प्रतिवासुदेव है और उसे विजय करके ही कृष्ण वासुदेव के पद को प्राप्त करते है ।
यद्यपि यादवों के और द्वारका के विनाश के मूल में यदुवंशी का मद्यपायी होना दोनों ही परम्परा में सामान्य रूप से स्वीकार है और उसे ही यादव वंश के नाश का कारण माना गया है । फिर भी जैन परम्परा में द्वारका और यादव वंश के विनाश को कुछ भिन्न तरीके से चित्रित किया गया है । जैन परम्परा के अनुसार द्वारका और यादव वंश के विनाश की भविष्यवाणी सुनकर श्रीकृष्ण यह घोषणा करवाते है कि जो भी व्यक्ति अरिष्टनेमि के पास दीक्षित होगा उसके परिवार के पालन-पोषण की व्यवस्था राज्य करेगा । इसी प्रसंग में कृष्ण के द्वारा अपनी आठों पत्नियों, पुत्रवधूओं आदि को अरिष्टनेमि के पास दीक्षित करवाने के भी उल्लेख मिलते है
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