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अनुसन्धान-७१
नासाग्रनिहिता शान्ता प्रसन्ता निर्विकारिका ।
वीतरागस्य मध्यस्था कर्तव्याधोत्तमा तथा' ॥७४|| (वसुनन्दिन् का प्रतिष्ठापाठ, दे० जैनेन्द्र सिद्धान्तकोश, भाग २ पृ० ३००)
लक्षणों से संयुक्त भी प्रतिमा यदि नेत्ररहित हो या मुन्दी हुई आँखवाली हो तो शोभा नहीं देती । इसलिए उसे उसकी आँख खुली रखनी चाहिए ७२। अर्थात् न तो अत्यन्त मुन्दी हुई होनी चाहिए और न अत्यन्त फटी हुई। ऊपर नीचे अथवा दायें-बायें दृष्टि नहीं होनी चाहिए । बल्कि शान्त नासाग्र प्रसन्न निर्विकार होनी चाहिए । और इसी प्रकार मध्य व अधोभाग भी वीतराग प्रदर्शक होने चाहिए (पृ. ३०१) ।
श्वेताम्बर जैन मूर्तियों में शीशे की आँखें दर्शक को आकर्षित करने के लिए प्रायः घटित हैं (इस विषय की चर्चा के लिए दे० Cort २०१५) ।
चेहरे पर कोई भाव न दिखे, पर दृष्टि न स्थिर न कठोर होनी चाहिए । प्रसन्नता का प्रदर्शन होना चाहिए । १८वीं-१९वीं शती के बुधजन नामक एक जयपुरस्थानीय दिगम्बर कवि ने कहा
'छबि वीतरागी नग्यन मुद्रा दृष्टि नासा पे धरै वसु प्रतिहार्य अनन्त गुणजुत कोटि रवि छबि को हरै' (प्रभु पतित पवन)
स्तब्ध दृष्टि से शोक, उद्वेग तथा सन्ताप, शान्त दृष्टि से सौभाग्य । जब मैंने आचार्य विजयशीलचन्द्रसूरिजी महाराज से जिन के सौन्दर्य के विषय में पूछा तो उन्होंने एक श्लोकप्रतीक का उल्लेख किया
'प्रशम-रस-निमग्नं दृष्टियुग्मं प्रसन्नं वदनकमलम्'
इस प्रकार का वर्णन पहले ही एक श्वेताम्बर आगम में मिलता है, जब 'अनुयोगद्वारसूत्र' २६२ में नवरसों के वर्णन के सन्दर्भ में शान्तरस का वर्णन किया जाता है।
'सब्भव-निव्विइकरं उवसन्त-पसन्त-सोम-दिट्ठियं ही ! जह मुणिणो सोहति मुहकमलं पीवर-सिरीयं'