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ते अनन्तगुणा अनागतकाल है तथा उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल, तिन कालन की फिरन को लिये प्रथम, दुजे आदिक षट्काल विष आयु काय सुख दुःख का कथन की चर्चा इत्यादिक तोनिकाल का कथन है। सो या कथन की परस्पर चर्चा वार्ता करनी सो कालकथा पुण्यदायक है। जिन शास्त्रविर्षे इन तीनि का कथन होय सो धर्मशास्त्र है। याको पूजै पढे सनैं उपदेशै पुण्यफल होय।
जागे भावकथन--सो तहाँ पंचभाव जो उपशमभाव, क्षयोपशमभाव, मौदयिकभाव, क्षायिकभाव और पारिणामिकभाव। तहाँ उपशम भाव ताको कहिये जो कर्म के उपशमतें होय। ताके दोय मैद हैं उपशमसम्यक्त्व, उपशमचारित्र। सो यह दोऊ भाव अपने घातकर्म उपशमाय प्रगट होवें सो उपशम भाव हैं और तिस कर्म के केले अंश तो उदयभाव रूपोंय, केते अंश उपशम भये तथा क्षय भये होंय। सो तिनकरि उदय भया जो रस ता रस प्रकट होते, आत्मा के भाव जैसे होय, सो क्षयोपशम भाव कहिये। तिनके भेद अठारह कुज्ञान तीनि, सुज्ञान चार, दर्शन तीनि, क्षयोपशमसम्यक्त्व, जयोपशमचारित्र, देशसंयम, पंच अन्तराय का क्षयोपशम ऐसे अष्टादश हैं और तिन गुणन के प्रतिपक्षी कर्म सर्वथा नाश भये होय सो क्षायिकगुश है । सो क्षायिक भाव के नव भेद हैं। क्षायिकज्ञान, माथिकदर्शन, क्षायिकचारित्र, क्षायिकसम्यक्त्व, पंचलब्धि-श नव हैं और जे भाव कर्म के उदय ते होंय सो औदायिक भाव हैं। ताके भेद इक्कीस—कषाय वारि, गति चारि, लैश्या षटु, वेद तीन, मिध्यात्व, अज्ञान, असंयम असिद्धत्व और कर्म सहाय रहित स्वयं सिद्ध आत्मा के भाव सो पारिणामिक भाव हैं। ताके भेद तीन–श्रीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व-ये सर्व मिलि मूल भाव पाँच और उत्तरभाव तिरेपन जानना। सो इन पंच मावन के मूल भेद अनेक भाविन का जामें कथन होय, सो धर्मशास्त्र है। परस्पर भावन की चर्चा सो भावकथा है। जहाँते यतीश्वर कर्मनाश शिव गये सो सिद्धक्षेत्र जैसे गिरनारजी, सम्मेदशिखरजी, शत्रुञ्जयजी, सोनागिरिजी, मांगीतुझीजी, गजपंथाजी इन आदि सिद्धक्षेत्रन का जामें कथन होय सो धर्मशास्त्र, भले फल का दाता जानना और इन सिद्धतेत्रन की परस्पर चर्चा कीजिये, सो धर्मकथा है तथा पंचकल्याणकन के जे क्षेत्र, तिनकी कथा तथा इन आदि जे धर्मस्थान की कथा करनी, सो तीर्थ कथा होय आगे जहाँ जीवपुद्गलादि द्रव्य तथा जीव, अजोव, आश्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष---इन सप्त तत्व का तथा इनमें पुण्य