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ता प्रसाद मेरे सुदृष्टि होते हृदय में, उपजी जो नाना प्रकार ज्ञानतरंग, जैसे समुद्र में अनेक तरंग उप तैसे मेरी ।। || सुदृष्टि समुद्र में अनेक तत्व भेद, वस्तुनि के स्वभाव, जीवनि के वाह्य अभ्यन्तर रूप कर्म को चेष्टा की प्रवृत्ति ।।
आदि तरंग सो ही तरंग या ग्रन्थ वि लिखिये है। तात या ग्रन्थ का नाम "सुदृष्टि तरंगिणी" ऐसा कहा है सो यह शुभ करनहारा ग्रन्थ है सो सम्यक्त्व दृष्टिन के धारने को जानना। तथा और भी जे भठ्यात्मा इस ग्रन्थ का अभ्यास करै, ताकुं तत्त्वनि का ज्ञान होय। तातें सम्यक्त्व पाय अतिशय सहित शुभफलदाता जो पुण्य, ताका लाभ होय। तथा जा ग्रन्थ में यह सात जाति का कथा होई सो भले फलदाता मंगलकारो ग्रन्थ जानना। सो हो
सात भेदरूप कथा या ग्रन्थ में समझ लेना। ते कथा कौन, सो बताईये है। | गाथा-दश्वय वैश्य कालय, भावो तिथ्यय होष फल आदा। पसथावो यह सस्तो, धम्म कचाई धम्म फल देई ॥ १२ ॥
अर्थ-द्रव्यकथा. क्षेत्रकथा, कालकथा, भावकथा, तीर्थकथा, फलकथा, प्रस्तावकथा—ये सात कथा हैं सो इनकू धर्मकथा कहिये है। इनका कथन जहाँ चलै सो शास्त्र धर्मफल का दातार जानना तथा जो कोई भव्य ।। इन सप्न कथान की परस्पर चर्चा करें तो धर्मकथा कहिये। सो इनका सामान्य स्वरुप कहिये है। तहाँ । जीवद्रव्य, पुद्गलद्रव्य, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, कालद्रव्य, आकाशद्रव्य—यह षटद्रव्य हैं सो इनकी चर्चा, इनके गुण पर्यायन की परस्पर चर्चा करनी, सो धर्मफलदायक धर्मकथा कहिये। अब इन कथन का जो शाख विर्षे व्याख्यान किया होय, सो धर्मशास्त्र कहिये। ऐसे शास्त्रन कू पढ़-सुनै-उपदेशे, पुण्यफल का लाभ होय है, सो द्रव्यकधा जानना।। ऊळ, मध्य, पाताल लोकविर्ष तहां ऊवलोक विर्षे कल्पवासी देवन के सोलह स्वर्ग तिनमें देवन की आयु काय सुख की चर्चा करना तथा नवग्रैवेयक,नवअनुत्तर, पंचपंचोत्तर-इन आदिन का आधु काय सुख का कथनादिक, ऊर्ध्वलोक का व्याख्यान सो ऊर्ध्वलोक कथा है। मध्यलोक विर्षे असंख्यात द्वीप समुद्र पच्चीस कोड़ाकोड़ी मध्य पल्य प्रमाण तिनको रचना तथा अढाई द्वीप, पंचमेरु एक-एक मेरुसम्बन्धी बत्तीसबत्तीस विदेह, अरु भरत शेरावत क्षेत्र इनका वर्णन और चौंतीस-चौंतीस विजयार्द्ध पर्वत ताको दोय श्रेणि, तहाँ विद्याधरन की एक सौ दस नगरीन का कथन, षटकुलाचल षटहृदयनतें निकसी चौदह महानदी, जम्बू शालमली वृक्ष आदि एक-एक मेरु सम्बन्धी रचना का कथन तथा पुष्कर द्वारके मध्य भागमें कनकाई मानुषोत्तर पर्वतका