________________ षष्ठः सर्गः 4. भीम ) के प्रति काम ( प्रेम ) रख रही हैं, वैसे ही भूमि भी महादेव के नेत्र की अग्नि की ज्वालाओं से ( जलकर ) काला पड़ा हुआ काम अपने पति (भीम ) के प्रति रखती है क्या ? // 44 // टिप्पणी-नारायण 'अपि' शब्द को वसुधा से हटाकर 'धत्ते के साथ जोड़ते हुए, भागुरि के मत से अपि के अ का लोप करके 'पिधत्ते' बनाकर विकल्प में यह अर्थ भी करते हैं 'जिस तरह हम लज्जा के मारे बाहर प्रकट न करती हुई पति के प्रति अपने 'काम' (प्रेम) को हृदय में छिपाये रहती हैं, वैसे ही भूमि भी रख रही है क्या' पिधान का अर्थ छिपाना और राजा भूपति होता ही है। यहाँ किम्' शब्द उप्रेक्षा का वाचक होने से उत्प्रेक्षा है जिसके साथ यथा-शब्दवाच्य उपमा भी है। शब्दालंकारों में से विद्याधर 'त्रिनेत्रनेत्रा' में छेक कह रहे हैं, किन्तु हम एक से अधिक बार आवृत्ति होने से वृत्त्यनुप्रास ही कहेंगे / अन्यत्र भी वृत्त्यनुप्रास है। रूपं प्रतिच्छायिकयोपनीतमालोकि ताभिर्यदि नाम कामम् / तथापि नालोकि तदस्य रूपं हारिद्रभङ्गाय वितीर्णभङ्गम् // 45 // अन्वयः-ताभिः प्रतिच्छायिकयोपनीतम् रूपम् यदि नाम कामम् आलोकितम् तथापि हारिद्र-भङ्गाय वितीर्ण-भङ्गम् अस्य तत् रूपम् न आलोकि / टीका-ताभिः महिषीभिः प्रतिच्छायिकया प्रतिबिम्बेन अपनीतम् प्राप्तम् रूपम् नलस्य स्वरूपं सौन्दयं वा यदि चेत् नाम यद्यपीत्यर्थ: कामम् यथेच्छम् आलोकितम् दृष्टम् तथापि हारिद्र: हरिद्रासम्बन्धी यो भङ्गः खण्डः तस्मै ( कर्मधा० ) वितीर्णः दत्तः भङ्गः पराजयः ( कर्मघा० ) येन तथाभूतम् (ब० वी० ) अस्य नलस्य तत् प्रसिद्ध रूपम् न आलोकि: विलोलितम् ताभिः नलस्य कृष्णवर्णा प्रतिच्छायव दृष्ट्वा, न तु साक्षात् तस्य हारिद्र सौवर्णमिति यावत् वास्तवं रूपं दृष्ट मिति नास्ति तासां पातिव्रत्यभङ्गदोष इति भावः // 45 // व्याकरण-प्रतिच्छाथिका-प्रतिच्छाया एवेति प्रतिच्छाया + क (स्वार्थे ) इत्वम् / आलोकि आ + लोक + लुङ ( कर्मवाच्य ) / हारिद्रः हरिद्राया अयमिति हरिद्रा + अण् / वितीर्ण वि + Vतृ + क्त, त को न, न कोण, ऋ को ईत्व / अनुवाद -- यद्यपि वे ( रायियाँ ) परछाईं के रूप में सामने आया हुआ ( नल का ) रूप यथेच्छ देख चुकी थीं, तथापि उन्होंने हल्दी के टुकड़े को मात किये हुए उन ( नल ) का वह प्रसिद्ध रूप ( साक्षात् ) नहीं देखा // 45 //