________________ नैषधीयचरिते खत में स्थित हुई भी ( मणिमय ) फर्शों पर (पड़े ) प्रतिबिम्बों में उन (नळ) का सौन्दर्य निहार आँखों का फल प्राप्त कर गईं // 43 // टिप्पणी पुरुष का प्रतिबिम्ब तो पुरुष नहीं होता है, इसलिए पातिव्रत्यभंग का प्रश्न ही नहीं उठता। किन्तु विद्याधर पुरुष को न देखने और उसका प्रतिबिम्ब देखने में क्रिया-बिरोध बता रहे हैं। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है / नियमवतिन्यः-नियमो व्रतमस्त्री तत्' इस अमरकं.ष के अनुसार नियम और व्रत पर्याय शब्द हैं। प्रकृत में नियम या व्रत-दोनों में से एक ही पर्याप्त था। दूसरा शब्द भी दे देने से अधिकपदत्व दोष झांक रहा है। विलोक्य तच्छायमतकि ताभिः पतिं प्रति स्वं वसुध पि धत्ते / यथा वयं किं मदनं तथैनं त्रिनेत्रनेत्रानलकोलनीलम् // 44 / / अन्वयः-ताभिः (मुवि ) तच्छायाम् विलोक्य अतकि-'यथा वयम् स्वम् पतिम् प्रति मदनम् ( दध्महे ) तथा वसुधा अपि त्रिनेत्र 'नीलम् एनम् स्वम् पतिम् प्रतिधत्ते किम् ?' टीका-ताभिः महिषीभिः भुवि तस्य नलस्य छायाम् प्रतिच्छायाम् अनातपरेखाल्पाम् (10 तत्पु० ) विलोक्य दृष्ट्वा अतकि तकितम् कल्पना कृतेत्यर्थ“यथा येन प्रकारेण वयम् स्वम् स्वकीयम् पतिम् भर्तारम् भीममित्यर्थः प्रति लक्ष्यीकृत्य मदनम् कामम् (प्रेम ) वध्महे धारयामः, तथा तेन प्रकारेण वसुधा भूः अपि त्रीणि नेत्राणि यस्य तथाभूतस्य (ब० वी० ) महादेवस्येति यावत् यत् नेत्रम् तृतीयं नयनम् तस्य अनलस्य अग्नेः कोल: ज्वालैः ('वह योलि-कोली इत्यमरः ( सर्वत्र प० तत्पु० ) नीलम् कृष्णवर्णम् एनम् कामम् स्वपतिम् भीमम् प्रति धत्त धारयति / सूमो पतितां नलस्य कृष्णवर्णाम् अनातपात्मिकी छायाम् अधिकृत्य महिष्यः 'वयमिव भूरपि स्वपति भीमनृपं प्रति शिवनेत्रदाहेन कृष्णवर्णीभूतं कामं विभर्तीत्यकल्पकन्निति भावः // 44 // व्याकरण-तच्छायाम् इसके पीछे श्लोक 31 देखिए / अकि-Vतर्क + लुङ ( भाववाच्य ) / वसुधा-वसूनि ( धनानि ) दधातीति वसु + /धा + क्विप् ( कर्तरि ) / ___ अनुवाद-वे ( रानियाँ ) उन ( नल ) की ( काली ) परछाई ( भूमिपर पड़ी ) देखकर यह कल्पना कर बैठीं कि -"जिस तरह हम अपने पति ( नृप