________________ काः सर्गः 45 ताम् विशेषेण स्मयन्ते इति + वि + स्मि + र + टाप् तासां भाव इति विस्मेर + मल् + टाप् पुवद्भाव आपः आप् + लिट् ब० व० / / ___ अनुवाद-चन्द्रमुखियां आपस में एक दूसरी के पास फेंके हुए ( किन्तु) नल से टकराकर आधे रास्ते में ही नीचे गिरे तथा उनके अङ्गराग से पुते हुए गेंद को देखकर अच्छी तरह न भूलती हुई ( कि हमने किसी गैर पर गेंद नहीं फेंका है ) भौंचक्की रह गईं // 42 // टिप्पणी-जिसके पास गेंद फेंका था उसको न पहुंचकर वह बीच में गिर पड़ा। उठाकर देखा तो उसपर अंगराग लगा हुआ था। इस घटना से उनका आश्चर्य-चकित होना स्वाभाविक ही था। विद्याधर ने कहा है-'अत्र हेत्वलंकारः' / 'विस्मे' 'विस्म' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। अविस्मरन्त्यः-यहाँ निषेध के प्रधान होने से नन की प्रसज्य-प्रतिषेधता ही उचित थी, किन्तु समास में आ जाने से उसकी विधेयता जाती रही अतः विधेयाविमर्श दोष बन रहा है। पुंसि स्वभर्तृव्यतिरिक्त भूते भूत्वाप्यनीक्षानियमवतिन्यः / छायासू रूपं भवि वीक्ष्य तस्य फलं दशोरानशिरे महिष्यः॥४३॥ अन्वयः-महिष्यः स्वभर्तृ-व्यतिरिक्त-भूते पुसि अनीक्षा-नियम-बतिन्यः भूत्वा अपि भुवि छायासु तस्य रूपम् वीक्ष्य दृशोः फलम् आनशिरे / टीका-महिष्यः राजपत्न्यः स्वः स्वकीयः भर्ता पतिः ( कर्मधा० ) तस्मात व्यतिरिक्त भिन्ने भूते व्यतिरिक्तरूपे पुंसि परपुरुषे इत्यर्थः (पं० तत्पु० ) अनीक्षा न ईक्षणम् अनवलोकनमिति यावत् ( नञ् तत्पु० ) तस्यां यो नियमः व्यवस्था ( स० तत्पु० ) एव व्रतम् ( कमंधा०) आसामस्तीति तथोक्ताः भूत्वा अपि परपुरुषादर्शनरूपपातिब्रत्यमातिष्ठमाना अपि सत्य इत्यर्थः भुवि मणिमयकुट्टिमे छायासु प्रतिबिम्बेषु तस्य नलस्य रूपम् सौन्दर्यम् वीक्ष्य विलोक्य दशोः नयनयोः फलम् प्रयोजनम् आनशिरे प्रापुः / परपुरुषच्छायामात्रदर्शने तासां पातिव्रत्यभङ्गो नाभवन्नयनं च कृतकृत्यमभूदिति भावः // 43 // व्याकरण-भर्ता भरतीति /भृ + तृच / अतिरिक्त अति + /रिच + क्त ( कर्तरि ) / ईक्षा - ईक्ष् + अ + टाप् / आनशिरे /अश् + लिट, द्वित्व, अभ्यास को दीर्घ और नुडागम / अनुवाद-रानियां अपने पति से भिन्न पुरुष ( के मुख ) को न देखने के