Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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शनक
भी ग्रहण करें लेकिन ग्रहण करने वालों को न तो वह शरीर लोहे के समान भारी और न आक की रुई के समान हलके प्रतीत होते हैं । सदैब अगरुलघु रूप बने रहते हैं । इसलिए नामकर्म को नौ प्रकृतियाँ अपने कारणों के होने पर अवश्य ही बंधने से ध्रुवबंधिनी कहलातो हैं । इनका बंध अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान के चरम समय तक होता है।
भय और जुगुप्सा यह चारित्न मोहनीय की प्रकृतियों हैं । इनके बंध की कोई विरोषनी नहीं है। इसीलिए इन दोनों को ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियों में माना है, ये दोनों प्रकृतियां आठवें मुणस्थान के अंत समय तक अपने बन्ध कारणों के रहने से बंधती ही रहती हैं । मिथ्यात्व, मिथ्यात्व मोहनीय के उदय में अवश्य बंधती है । मिथ्यात्व गुणस्थान तक मिथ्यात्व मोहनीय का निरंतर उदय होने से मिथ्यात्व का निरंतर बंध होता रहता है। मिथ्यात्व गुणस्थान से आगे के गुणस्थानों में बंध नहीं होता है ।
अनन्तानुबंधी नोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ और संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ इन सोलह कषायों का अपने-अपने उदय रूप कारण के होने तक अवश्य ही बंध होता है । इसीलिए इन सोलह कषायों को ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों में गिना है ।
ज्ञानावरण की पांच, दर्शनावरण की नौ और अंतराय की पांच ये उन्नीस प्रकृतियां अपने अपने बंधविच्छेद होने के स्थान तक अवश्य बंधती हैं तथा इनको विरोधिनी अन्य कोई प्रकृतियां न होने से इनको ध्रुवबंधिनी प्रकृतियां माना है ।
अनंतानुबंधी क्रोध, मान आदि सोलह कषायों और शानावरण, दर्शनावरण व अन्तराय कर्म की उन्नीस प्रकृतियों के ध्रुवबंधिनी