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शतक
से पुण्य प्रकृतियों में शुभ अनुभाग भी बंधता है। लेकिन इसमें अन्नर यह है कि शुभ परिणाम से होने वाला अनुभाग प्रकृष्ट होता है और अशुभ अनुभाग निकृष्ट तथा अशभ परिणाम से बँधने वाला अशा अनुभाग प्रकृष्ट और शुभ अनुभाग निकृष्ट होता है । कम प्रकृतियों के पुण्य और पाप रूप भेद करने का यही कारण है।
पूण्य और पाप के रूप में वर्गीकृत प्रकृतियों में घाती और अघाती दोनों प्रकार की कम प्रकृतियां हैं। उनमें से ४५ घातो प्रकृतियां तो आत्मा के मूल गृणा को क्षति पहुंचाने के कारण पाप प्रकृतियों ही हैं लेकिन अघाती · प्रकृतियों में से भी तेतीस प्रकृतियां पाप रूप है तथा वर्णादि चार प्रकृतियां अच्छी होने पर पुण्य प्रकृतियों में और बुरी होने पर पाप प्रकृतियों में ग्रहण की जाती हैं। अतः पुण्य रूप से प्रसिद्ध ४२ और पाप रूप से प्रसिद्ध ८२ प्रकृतियां निम्न प्रकार हैं४२ पुण्य प्रकृतियाँ--. ___ सुरत्रिक (देवाति, देवानुपूर्वी, देवायु), मनुष्यन्त्रिक (मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, मनुप्यायु), उच्च गोत्र, त्रम दशक (नस, यादर, पर्याप्त प्रत्यक, स्थिर, शुभ, मुभग, सुस्बर, आदय, यश कीनि), औदारिक आदि पांच शरीर, अंगोपांगलिक (औदारिक अंगोपांग, वैक्रिय अंगोपांग, आहारक अंगोपांग), वनपभनाराच संहनन, समचतुरस्र संस्थान, पराघात सप्तक (पराघात,उच्छ्वास, आतप,उद्योत, अगुरुलघु, तीर्थंकर, निर्माण), तिर्यंचायु, वर्णचतुष्क, पंचेन्द्रिय जाति, शुभविहायोगति, साता वेदनीय । ८२ पाप प्रकृतियां--
४५ घाजी प्रकृतियां (ज्ञानावरण ५, दर्शनावरण ६, मोहनीय २६, अन्तराय' ५), पहले को छोड़कर पांच संस्थानन था पांच संहनन, अशुभ विहायोगति, तिर्यंचगति, तिर्यचानुपूर्वी, असातावेदनीय, नीत्र गोत्र, उपधात, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, वीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, नरकगति, नरकानु