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पातक
जानी चाहिये । अल्पसमय में उत्तरोत्तर कर्मपरमाणुओं की अधिकसे-अधिक संख्या में निर्जरा होने को गुणधोणि निर्जरा कहते हैं । इस प्रकार की निर्जरा तभी हो सकती है जब आत्मा के भावों में उत्तरोत्तर विशुद्धि की वृद्धि होती है। उत्तरोत्तर विशुद्धि स्थानों पर आरोहण करने से ही अधिक-से-अधिक संख्या में निर्जरा होती है। ___ गाथा में विशुद्धिस्थानों के क्रम से नाम कहे हैं। जिनमें उत्तरोत्तर अधिक अधिक निर्जरा होती है। ये स्थान गुणणि निर्जरा अथवा गुणणि रचना का कारण होने से गुणधोणि कहे जाते हैं। जिनके नाम इस प्रकार हैं
१ सम्यक्त्व (सम्यक्त्व की प्राप्ति होना), २ देशविरति, ३ सर्वविरति, ४ अनंतानुबंधी कषाय का विसंयोजन, ५ दर्शनमोहनीय का क्षपण, ६ चारित्रमोह का उपशमन, ७ उपशांतमोह, ८ क्षपण, क्षीणमोह, १० सयोगिकेवली और ११ अयोगिकेवली।'
इनका संक्षेप में अर्थ इस प्रकार है कि जीव प्रथम सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिये अपूर्वकरण आदि करण करते समय असंख्यातगुणो.
संमत्तदेस उन्नझिरपतिमण घिसंजोगे । दंपणखवणे मोहस्म समणे उपमंत खबगे य॥ खीणाइनिगे असंखगुणियगुणसे द्विदलिय जहमसो। ममताहणेक्कारसह कालो उ संबंसे ।।
-पंजसपाह १४,११५ मम्यस देशविरति और संम्पूर्ण विरति की उत्पत्ति में, अनन्तानुबन्धो के विसंयोजन में, वर्शनमोहनीय के क्षपण में, मोहनीय के उपगमन में, उपशान्तभोह में, आपक श्रेणि में और मीणकषाय आदि तीन गुणस्थानो में असंच्यात गुणे. असंख्यातगुणे दलिकों की गुणश्रेणि रचना होती है तथा माया आदि म्यारह गुणश्रेणियों का कालक्रमण: प्रख्यात माग,सल्याचे