Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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अपने मरण के द्वारा स्पर्श करना क्षेत्रपुद्गल परावर्त का अर्थ है और उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल के सभी समयों का अपने मरण द्वारा स्पर्श करना तथा अनुभाग बंध के कारणभुत समस्त कषायस्थानों का अपने मरण द्वारा स्पर्श कर लेना क्रम से काल और भाव पुद्गल परावर्त कहलाते हैं । जिनका विशद स्पष्टीकरण नीचे लिखे अनुसार है ।
मतक
क्षेत्रपुद्गल परावर्त - कोई एक जीव भ्रमण करता हुआ आकाश के किसी एक प्रदेश में मरा और वही जीव पुनः आकाश के किसी दूसरे प्रदेश में मरा, तीसरे, चौथे आदि प्रदेशों में मरा। इस प्रकार जब वह लोकाकाश के समस्त प्रदेशों में मर चुकता है तो उतने काल को बादर, क्षेत्र पुद्गल परावर्त कहते है । वादर क्षेत्रपुद्गल परावर्त में क्रमअक्रम आदि किसी भी प्रकार से समस्त आकाश प्रदेशों को स्पर्श कर लेना ही पर्याप्त माना जाता है ।
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सूक्ष्म क्षेत्रपुद्गल परावर्त में भी आकाश प्रदेशों को स्पर्श किया जाता है, लेकिन उसकी विशेषता इस प्रकार है कि कोई जीव भ्रमण करता-करता आकाश के किसी एक प्रदेश में मरण करके पुनः उस प्रदेश के समीपवर्ती दूसरे प्रदेश में मरण करता है, पुनः उसके निकटवर्ती तीसरे प्रदेश में मरण करता है। इस प्रकार अनन्तर -अनन्तर क्रम से प्रदेश में मरण करते-करते जब समस्त लोकाकाश के प्रदेशों में सरण कर लेता है, तब वह सूक्ष्म क्षेत्रपुद्गल परावर्त कहलाता है ।
उक्त कथन का सारांश और बादर व सूक्ष्म क्षेत्र पुद्गल परावर्त में अन्तर यह है कि बादर में तो क्रम का विचार नहीं किया जाता है, उसमें व्यवहित प्रदेश में मरण करने पर यदि वह प्रदेश पूर्व स्पृष्ट नहीं है तो उसका ग्रहण होता है, यानी वहां क्रम से या बिना क्रम से समस्त प्रदेशों में मरण कर लेना हो पर्याप्त समझा जाता है किन्तु सूक्ष्म में समस्त प्रदेशों में क्रम से ही भरण करना चाहिये और अक्रम
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