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शतक
प्रदेशबंध सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव अपने भव के पहले समय में करता है। क्योंकि उसके प्रायः सभी प्रकृतियों का बंध होता है और सबसे जघन्य योग भी उसी के होता है ।
इस प्रकार से उत्कृष्ट और जघन्य प्रदेशबंध के स्वामियों को जानना चाहिये ।' अब आगे की माथा में प्रदेशबंध के सादि आदि भंगों को बतलाते हैं ।
धंसणछगभयकुमछावितितुरियकसाय विग्घनाणा । मूलछगेऽणुरुकोसो घउह बुहा सेसि सम्वत्थ ।।६४॥ ___ शब्दार्थ-दसंणग-दर्शनावरणषटक, मयकुन्छा - भय औ. सुनु, दिति स्तिमासी , जीती और गधी कषाय, विग्घनाणाणं-पांच अंतराय, पांच ज्ञानावरण, मूलछगे-मूल छह प्रकृतियों का, अणुक्कोसो- अनुस्कृष्ट प्रदेशवध, चउह -. चार प्रकार का, दुहा- दो प्रकार का, सेसि-शेष तीन प्रकार के बंघों में, सव्वथ-सर्वत्र होते हैं।
गापार्थ-दर्शनावरण कर्म को छह प्रकृतियों का, दूसरी तीसरी और चौथी कषाय का, पांच अन्तराय और पांच ज्ञानावरण का, छह मूल कर्मों का अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध चारों प्रकार का होता है। उक्त प्रकृतियों के तथा उनके सिवाय शेष प्रकृतियों के तीन बंध दो प्रकार के होते हैं ।
विशेषार्थ-गाथा में प्रदेशबंध के सादि आदि भंगों का विवेचन किया गया है।
१ गोल कामकांड गा० २११ से २१७ में उत्कृष्ट और जघन्य प्रदेणबंध के
स्वामियों को बतलाया है। जो प्राय: फर्मग्रन्थ के समान है और पोष १०९ प्रकृतियों के जघन्य बंधक के बारे में कुछ विशेषता भी बतलाई है।