Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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३१.
रहती है । उसके अन्तमुहूर्त प्रमाण खण्ड कर-करके खपाता है | जब उसके अंतिम स्थितिखण्ड को खपाता है तब उस क्षपक को कृतकरण कहते हैं । इस कृतकरण के काल में यदि कोई जीव मरता है तो वह चारों गतियों में से किसी भी गाते में उत्पन्न हो साता है।'
यदि क्षपक श्रोणि का प्रारंभ बद्धायु जीव करता है और अनंतानुबंधी के क्षय के पश्चात् उसका मरण हो तो उस अवस्था में मिथ्यात्व का उदय होने पर वह जीव पुनः अनंतानुबंधी का बंध करता है, क्योंकि मिथ्यात्व के उदय में अनंतानुबंधी नियम से बंधती है, किन्तु . १ लब्धिसार (दिगम्बर चन्द्र में दर्शन महनीय की क्षपणा के बारे में निता है
दंसणमोहपखवणापटुबगो कम्मभूमिजो मणुसो । तिस्थयरपादमूले केवलिसुदकेवलीमूले ।।११।। णिनगो तट्ठाणे विमाणभोगावणीमु धम्भे अ।।
किदकरणिज्जो चदुसुवि गदीसु उप्पजदे जम्हा ।।१११॥
कर्मभूमिज मनुष्य तीर्थकर, केवली अथवा श्रुतकेवली के पादमूल में दर्शनमोह के क्षपण का प्रारम्भ करता है। अधःकरण के प्रथम समय से लेकर अब तक मिथ्यात्व मोहनीय और मिथ मोहनीय का द्रव्य सम्पकत्व प्रकृति रूप संक्रमण करता है तब तक के अन्समुहूर्त काल को दर्णनमोह के क्षपण का प्रारम्भिक काल कहा जाता है और उस प्रारम्भ काल के अनन्तर समय से लेकर शायिक सम्पनत्व की प्राप्ति के पहले समय तक का काल निष्ठापक कहलाता है । निष्ठापक तो जहाँ प्रारम्भ किया था यहां ही अपना वैमानिक देवों में अपना मोगभूमि में अथवा धर्मा नाम के प्रथम नरक में होता है। क्योंकि बद्धायु कृतकृत्य वेदक सम्मष्टि मरण करके चारों गतियों में उत्पन्न हो सकता है ।
बढाउ पडिवनो पढमफसायक्खए अइ मरेज्जा। तो मिठत्तोदयो विणिज मुज्जो न खीणम्मि ।।
-विशेषावश्यक भाष्य १३२३