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पंचम कर्मग्रन्थ
मग की विवक्षा के विशेष से अवक्तब्य बंध सूक्ष्म संपराय गुणस्थान से उतरने में एक होता है । अर्थात् दसवें गुणस्थान मे उतर कर जब नौ गुणस्थान में एक प्रकृति का बंध करता है तब एक अवक्तव्य होता है और दसवें में मरण करके देवगति में जन्म लेकर जब सबह का बंध करता है तब दो अवक्तव्य बंध होते हैं। इस प्रकार तीन अवक्तव्य बंघ मानना चाहिए । अर्थात् दसवें से उत्तर के जब नौने में आना है तब संज्वलन लोभ का बंध करता है, अतः एक अवक्तव्य बंध हा तपा उसी दसवें में मरण कर देव असंयत हुआ तब दो अवक्तव्य बंध होते हैं, क्योंकि देव होकर १७ प्रकृतियों को दो प्रकार में बांधता है। इस तरह तीन अवक्तव्य बंध हुए।
१२७ भुजाकार, ४५ अल्पतर और ३ अवक्तब्य बंध मिलकर १७५ होते हैं और इतने ही अवस्थित बंध हैं । इस प्रकार मोहनीय कर्म के सामान्य विशेष रूप से भुजाकार आदि बंध समझना चाहिए । कर्मप्रकृतियों का जघन्य स्थितिबंध
कर्मग्रन्थ में नामोल्लेखपूर्वक बताई गई कर्म प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबंध के बारे में कर्मप्रकृति, गो० कर्मकांड और कर्मग्रन्थ के मंतव्य में समानता है । शेष पचासी प्रकृतियों के सम्बन्ध में कुछ विचारणीय यहाँ प्रस्तुत करते हैं। गो० कर्मकांड में उनके बारे में लिखा है कि....
सेसाणं परमतो बादराई दियो विमुखो प।
बंदि सवजहम्णं सगसमकस्सपधिमागे ॥१४३ शेष प्रकृतियों की जघन्य स्थितियों को वादर पर्याप्त विशुद्ध परिणाम याला एकेन्द्रिय जीव अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थिति के प्रतिभाग में बांधता है।
इस गाथा में जिस प्रतिभाग का उल्लेख किया है, उसको गाथा १४५ में स्पष्ट किया है । एकेन्द्रियादिक जीवों की अपेक्षा से उक्त प्रकृतियों की जघन्य
और उत्कृष्ट स्थिति बतलाने के लिए अपनी अपनी पूर्वोक्त उत्कृष्ट स्थिति में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति का भाग दने से प्राप्त लन्ध एकेन्द्रिय की उत्कृष्ट स्थिति है और उसमें पल्य का असंख्यातवां भाग न्न करने से जघन्य स्थिति होती है । अत: जघन्य स्थिति बंध को एकेन्द्रिय जीव के करने से शेष प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबंध कर्मकांड में अलग से नहीं बतलाया है।