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पंचम कर्मग्रन्थ
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मतिज्ञानावरण आदि पांच, दर्शनावरण चार, अन्तराय पांच, पशःकीति, वचन गोत्र और साता वेदनोध, इन रात्र प्रकृतियों का दसवें सूक्ष्मस पराम गुणस्थान में उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध होता है। नौवें अनिवृत्तिवादर गुणस्थान में पुरुषत्रेदादि पांच का, होसरा प्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क का देश विरति नामक पांचवें गुणमा ग री मारा: पाम तुष्मा का चौथ अविरत गुणस्थान में उत्कृष्ट प्रदेशवन्ध होता है । छह नोकषाय, निदा, प्रचला और तीर्थकर, इन नौ प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबाघ सम्याष्टि जीव करता है तथा मनुष्यार, देवायु, असाता वेदनीय, देवति आदि देवस्तष्क, वज्रगमनाराच संहनन, समचतुरस संस्थान, प्रशस्त विहामांगति, सुभाषिक, इन तेरह प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशवाघ सम्यग्दृष्टि अथवा मिच्याइष्टि दोनों ही करते हैं । आहारकतिक को उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध अप्रमत्त गुणस्थान वाला करता है। इन चीवन प्रकृतियों के सिवाय शेष रही छियासठ प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध मिध्यादृष्टि जीव उत्कृष्ट योगों से करता है ।
उत्कृष्ट प्रदेशबघ के स्वामियों का कथन करने के बाद अब जघन्य प्रवेशबन्ध के स्वामियों को बतलाते हैं। मूल प्रकृतियों के बन्धक के बारे में बताया है कि
सहमणियोदअपज्जत्तयस्स पहमे जहण्णये जोगे।
सत्तम्हं तु जहणं आउगर्वधेषि आउस्स ।।२१५ युम निगोदिया लब्यपर्यातक जीव के अपने पर्याम के पहले समय में जनन्य योगो से आशु के सिवाय सात मूल प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशबन्ध होना है। नायु का वन्न होने पर उसी जीव के आयु का भी जघन्य प्रदेशबन्ध होता है । आयुकर्म का वध सब नहीं होता रहता है इसीलिये आयुकर्म का अलम से कायन किया है। अर्थात् पाठी कर्मों का जघन्य प्रदेशबन्न. सूक्ष्मनिगोदिया लन्ध्यपर्याप्नक जीम करता है।
मुल प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशबन्ध बतलाने के बाद उत्तर प्रकृति के लिये करते हैं कि
घोडणजोगोसण्णी पिरययुसुरणिरयआउजह । अपमत्तो याहारं श्रययो तिरमं च षषक । २१६