Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur

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Page 486
________________ पंचम कर्मग्रन्थ ४५१ उत्तरोत्तर परिणामों की विशुद्धि की अधिकता होते जाने के कारण कर्मों की निर्जरा असंस्पातगुणो असंख्यातगृणी अधिक-अधिक होती है, अर्थात् जैसे-जैसे मोरकर्म निःशेष होता जाता है वैसे-वैसे निर्जरा भी बढ़ती जाती है और यका द्रव्य प्रमाण असंख्यातगुणा, असंख्यातगुणा अधिकाधिक होता जाता है। फलतः वह जीव मोक्ष के अधिक-धक निकट पहुंचता जाता है। जहाँ गुणाकार रूप से गुणित निर्जरा का द्रव्य अधिकाधिक पाया जाता है उनको गुण णि कहा जाता है और उन स्थानों में होने वाली निर्जरा गुणौणि निर्जरा नही जाती है। ___ गो० जीवकांड गार ६६-६७ में उक्त दृष्टि को लक्ष्य में रखकर गुण श्रेणि का वर्णन किया है। यह वर्णन कर्मप्रकृति, पंचसंग्रह और कर्मग्रन्थ से मिलता-जुलता है। लेकिन इतना अंतर है कि कर्मग्रन्थ आदि में सम्यक्त्व, देशविर ति, सर्वविरति, अनन्तानुबंधी का विसंयोजन, दर्शनमोह का क्षपत्रा, चारियमोह का उपशमक, उपशांतमोह, लपक, क्षीणमोह, सयोग केवली और अयोग केवली, ये ग्यारहगुणणि स्थान बतलाये है । लेकिन गो० जीवकांड, तत्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि, तत्वार्थराजवातिक आदि ग्रन्थों में सयोगिकेवली और अयोगिकवली इन दोनों को अलग-अलग न मानकर जिन पद से दोनों का ग्रहण कर लिया है। ‘गो. जीवकार्ड की मूल गाथाओं में गुणश्रेणि निरा के दस स्थान गिनाये हैं, लेकिन टीकाकार ने ग्यारह स्थानों का उल्लेख करते हुये स्पष्ट किया है कि या तो सम्यक्त्वोत्पत्ति इस एक नाम से सातिशय मिच्यादृष्टि और असंयत सम्याप्टि, इस तरह दो मेदों का ग्रहण करके ग्यारह स्थानों की पूर्ति की जा सकती है अथवा ऐसा न करके सम्यक्त्वोत्पत्ति शब्द से तो एक ही स्थान लेना किन्तु अन्तिम जिन शब्द से स्वस्थानस्थित केवली और समृद्घानगत केवली, इन दो स्थानों का ग्रहण कर लेना चाहिये और स्वस्थानकेवली की अपेक्षा समूदयात गत केवली के निर्जरा द्रव्य का प्रमाण असंस्थानगुगा होता है। इस प्रकार ग्यारह और दस गुणश्रेणि स्थान मानने में विवक्षा भेद है।

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