________________
परिशिष्ट-३
है कि १३ प्रकृतियां क्षय होती हैं और किन्हीं का मत है कि १२ प्रकृतियां सा होती हैं। १३ प्रकृतियों का क्षम मानने वाले अपने मत को इस प्रकार स्पष्ट करते हैं कि तद्भवमोक्षगामी के अंतिम समय में आनुपूर्वी सहित तेरह प्रकृतियों की गत्ता उत्कृष्ट रूप से रहती है और जपाय से तीर्थकर प्रकृति के सिवाय शेष बारह प्रकुत्तियों की सता रहती है। इसका कारण यह है कि मनुष्यगति के साथ उदा को प्राप्त होने वाली मविपानी मनुष्यायु क्षेत्रविपाकी मनुष्यानपूर्वी, जीवधिपाको शेष नौ प्रकृतियां तथा साता या अमाता में से कोई एक वेदनीय', उच्च गोत्र, ये तेरह प्रकृतियां समवमोक्षगामी जीव के अंतिम समय में भय को प्राप्त होती हैं, द्विचरम समय में नष्ट नहीं होती है। अतः तद्भव मोक्षगामी के अंतिम समय में उत्कृष्ट तेरह प्रकृतियों की और अन्य बारह प्रकृतियों की मत्ता रहती है ।
लेकिन चौदहवे गुणस्थान के अंतिम समय में बारह प्रकृतियों का क्षय मानने वालों का कहना है कि मनुष्यानुपूर्वी का क्षय विचरम समय में ही हो जाता है, क्योंकि उसके उदय का काम है। जिन प्रकृतियों का उदय होता है, उनमें स्तिबुकसंक्रम न होने से अंत समय में अपने-अपने स्वरूप से उनके दलिक पाये जाते है जिससे उनका चरम समय में सत्ताविच्छेद होना युक्त है। किन्तु चारों ही आनुपूर्वी क्षे ऋविपाकी होने के कारण दुसरे मव के लिये मति करते समय ही उदय में आती हैं अतः भव में जीव को उनका उदय नहीं हो सकता है और उदय न हो सकने से अयोगि अवस्था के द्विचरम समय में ही मनुष्यानुपूर्वी फी सत्ता का क्षय हो जाता है।
इस प्रकार के मतान्तर में अधिकतर अयोगिकवली गुणस्थान के उपान्त्य समय में ७२ और अंत समय में १३ प्रकृतियों के क्षय को प्रमुख माना है । पंचम कर्मग्रन्य की टीका में ७२ + १३ का ही विधान किया है और गो कर्मकांड गात ३४१ में भी ऐसा ही लिखा है-'उदयगवार गराणू तेरल चरिमहि वोच्छिण्णा' अर्थात् उदयगत १२ प्रकृतियां और एक मनुष्यानृपूनी, इस प्रकार तेरह प्रकुतियाँ अयोगी केवली के अंत के समय में अपनी सत्ता से छूटती है।
संक्षेप में क्षपक श्रेणि का यह विधान समझना चाहिये।